समवाय: Difference between revisions
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1. समवाय सम्बन्ध का लक्षण | |||
<p><span class="PrakritText">पं.का./मू./ | <p><span class="PrakritText">पं.का./मू./50 समवत्ती समवाओ अपुधब्भूदो य अजुदसिद्धो य। तम्हा दव्वगुणाणं अजुदा सिद्धि त्ति णिद्दिट्ठा।</span> =<span class="HindiText">समवर्तीपन वह समवाय है। वही अपृथक्पना और अयुतसिद्धपना है इसलिए द्रव्य और गुणों की अयुक्तसिद्धि कही है। (रा.वा./1/10/22/51/31)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.1/1,1,1/18/1 समवाय-दव्वं णाम जं दव्वम्मि समेवदं।...समवायणिमित्तं णाम गल-गंडो काणो कुंडो इच्चेवमाइ। | ||
</span>=<span class="HindiText">जो द्रव्य में समवेत हो अर्थात् कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध रखता हो उसे समवाय द्रव्य कहते हैं। ...गलगण्ड, काना, कुबड़ा इत्यादि समवाय निमित्तक नाम हैं।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">जो द्रव्य में समवेत हो अर्थात् कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध रखता हो उसे समवाय द्रव्य कहते हैं। ...गलगण्ड, काना, कुबड़ा इत्यादि समवाय निमित्तक नाम हैं।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.15/24/2 को समवाओ। एगत्तेण अजुवसिद्धाणं मेलणं।</span> =<span class="HindiText">अयुतसिद्ध पदार्थों का एक रूप से मिलने का नाम समवाय है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स्या.म./ | <p><span class="SanskritText">स्या.म./7/59/26 अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिह प्रत्ययहेतु: संबन्ध: समवाय:।</span> =<span class="HindiText">अयुतसिद्ध (एक दूसरे के बिना न रहने वाले) आधार्य (पट) और आधार (तंतु) पदार्थों का इह प्रत्यय हेतु (इन तन्तुओं में पट है) संबंध (वैशेषिक मान्य) समवाय सम्बन्ध है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong>* द्रव्यगुण पर्याय के समवाय सम्बन्ध का निषेध - | <p class="HindiText"> <strong>* द्रव्यगुण पर्याय के समवाय सम्बन्ध का निषेध - देखें [[ द्रव्य#4 | द्रव्य - 4]]।</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong> | <p class="HindiText"> <strong>2. समवाय पदार्थ के अस्तित्व सम्बन्धी तर्क-वितर्क</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p><span class="SanskritText">रा.वा./1/1/13-16/6/8 स्यान्मतम्-समवायो नामायुतसिद्धलक्षण: संबन्ध इहेदं बुद्धयभिधानप्रवृत्तिहेतु: तेनैकत्वमिव नीतानां व्यपदेशो भवति।...नास्ति तत्परिकल्पित: समवाय:। कुत:। वृत्त्यन्तराभावात् । यथा गुणादीनां पदार्थानां द्रव्ये समवायसंबन्धाद्वृत्तिरिष्टा तथा समवाय: पदार्थान्तरं भूत्वा केन संबन्धेन द्रव्यादिषु वर्यति समवायान्तराभावात् । एक एव हि समवाय:। न च संयोगेन वृत्ति: युतसिद्धयभावात् युतसिद्धानामप्राप्तिपूर्विका प्राप्तिसंयोग:। न चान्य: संबन्धसंयोगसमवायविलक्षणोऽस्ति येन समवायस्य द्रव्यादिषु वृत्ति: स्यात् । अत: समवायिभिरनभिसंबन्धात् नास्ति। ...द्रव्यादीनि प्राप्तिमन्ति अतस्तेषां यया कयाचित् प्राप्त्या भवितव्यम्, समवायस्तु प्राप्तिर्न प्राप्तिमान्, अत: प्राप्त्यन्तराभावेऽपि स्वत एव प्राप्नोतीति; तच्च न; कस्मात् । व्यभिचारात् । यथा संयोग: प्राप्तिरपि सन् प्राप्त्यन्तरेण समवाये वर्तते तथा समवायस्यापि स्यादिति। ...यथा प्रदीप: प्रदीपान्तरमनपेक्षमाण आत्मानं प्रकाशयति घटादींश्च, तथा समवाय: संबन्धान्तरापेक्षामन्तरेणात्मनश्च द्रव्यादिषु वृत्तिहेतुर्द्रव्यादीनां च परस्परत इति; तन्न; कुत:। तत्परिणामादनन्यत्वसिद्धे:। ...यथा प्रदीप: स्वलक्षणप्रसिद्धो घटादिभ्योऽन्यो नैवं समवाय: स्वलक्षणप्रसिद्ध: द्रव्यादन्योऽस्ति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - वैशेषिक समवाय नाम का पृथक् पदार्थ मानते हैं, इससे अपृथक् सिद्ध पदार्थों में 'इह इदम्' यह प्रत्यय होता है और इसी से गुण-गुणी में अभेद की तरह भान होने लगता है? <strong>उत्तर</strong> - समवाय नाम का पृथक् पदार्थ भी सिद्ध नहीं होता। क्योंकि - 1. जिस प्रकार गुणगुणी में समवाय सम्बन्ध से वृत्ति मानी जाती है उसी तरह समवाय की गुण और गुणी में किस सम्बन्ध से वृत्ति होगी ? समवायान्तर से तो नहीं, क्योंकि समवाय पदार्थ एक ही स्वीकार किया गया है। संयोग से भी नहीं, क्योंकि दो पृथक् सिद्ध द्रव्यों में ही संयोग होता है। ...यदि कहा जाय कि - चूँकि समवाय 'सम्बन्ध' है अत: उसे स्वसम्बन्धियों में रहने के लिए अन्य सम्बन्ध की आवश्यकता नहीं है सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि संयोग से व्यभिचार दूषण आता है। संयोग भी सम्बन्ध है पर उसे स्वसम्बन्धियों में समवाय से रहना पड़ता है। 2. जिस प्रकार दीपक स्व - परप्रकाशी दोनों है उसी प्रकार समवाय भी अन्य सम्बन्ध की अपेक्षा किये बिना स्वत: ही द्रव्यादि की परस्पर वृत्ति करा देगा तथा स्वयं भी उनमें रह जायेगा, यह तर्क उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से समवाय को द्रव्यादि की पर्याय ही माननी पड़ेगी। ...दीपक का दृष्टान्त भी उचित नहीं है क्योंकि जैसे दीपक घटादि प्रकाश्य पदार्थों से भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है उसी तरह समवाय की द्रव्यादि से भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">क.पा. | <p><span class="PrakritText">क.पा.1/1,1/32-33/47/1 विसयीकयसमवायपमाणाभावादो। ण पञ्चक्खं; अमुत्ते णिरवयवे अद्दव्वे इंदियसण्णिकरिसाभावादो। ...ण च 'इहेदं' पञ्चयखेज्झसमवायओ; तहाविहपञ्चओवलंभाभावादो, आहाराहेयभावेण ट्ठिदकुंडवदरेसु चेव तदुवलंभादो। 'इह कवालेसु घडो इह तंतुसु पडो' त्ति पञ्चओ वि उप्पज्जमाणो दोसइ त्ति चे; ण; घडावत्थाए खप्पराणं पडावत्थाए तंतूणं च अणुवलंभादो। ...णाणुमाणमवि तग्गाहयं; तदविणाभाविलिंगाणुवलंभादो।...ण च अत्थावत्तिगमो समवाओ अणुमाणपुधभूदत्थावत्तीए अभावादो। ण चागमगब्भो; वादि-पडिवादीपसिद्धेगागमाभावादो।</span> =<span class="HindiText">3. समवाय को विषय करने वाला प्रमाण नहीं पाया जाता है। प्रत्यक्ष प्रमाण तो समवाय को विषय कर नहीं सकता है, क्योंकि समवाय स्वयं अमूर्त है, निरवयव है और द्रव्य रूप नहीं है, इसलिए उसमें इन्द्रिय सन्निकर्ष नहीं हो सकता है। ... 'इहेदम्' प्रत्यय से समवाय का ग्रहण हो जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार का प्रत्यय नहीं पाया जाता है, यदि पाया भी जाता है तो आधार-आधेय भाव से स्थित कुण्ड और बेरों में ही 'इस कुण्ड में ये बेर हैं' इस प्रकार का 'इहेदम्' प्रत्यय पाया जाता है, अन्यत्र नहीं। <strong>प्रश्न</strong> - 'इन कपालों में घट है, इन तन्तुओं में पट है' इस प्रकार भी 'इहेदम्' प्रत्यय उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं; क्योंकि घटरूप अवस्था में कपालों की और पटरूप अवस्था में तन्तुओं की उपलब्धि नहीं होती। (प्र.सा./त.प्र./98) ...यदि कहा जाय कि अनुमान प्रमाण समवाय का ग्राहक है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि समवाय का अविनाभावी कोई लिंग वहीं पाया जाता है। ...यदि कहा जाय कि अर्थापत्ति प्रमाण से समवाय का ज्ञान हो जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अर्थापत्ति अनुमान प्रमाण से पृथक्भूत कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है।...यदि कहा जाय कि आगम प्रमाण से समवाय का ज्ञान होता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जिसे वादी और प्रतिवादी दोनों मानते हों, ऐसा कोई आगम भी नहीं है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">क.पा. | <p><span class="SanskritText">क.पा.1/1,20/324/354/4 तत्र नित्ये क्रम-यौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् । न स क्षणिकोऽपि; तत्र भावाभावाभ्यामर्थ क्रियाविरोधात् । नान्यत् आगच्छति, तत्परित्यक्ताशेषकार्याणामसत्वप्रसङ्गात् । नापरित्यज्य आगच्छति, निरवयवस्यापरित्यक्तपूर्वकार्यस्यागमनविरोधात् । न समवाय: सावयव:, अनित्यतापत्ते:। न सोऽनित्य:, अनवस्थाभावाभ्यां तदनुत्पत्तिप्रसङ्गात् । न नित्य: सर्वगतो वा, निष्क्रियस्य व्याप्ताशेषदेशस्यागमनविरोधात् । नासर्वगत:, समवायबहुत्वप्रसङ्गात् । नान्येनानीयते अनवस्थापत्ते: न कार्योत्पत्तिप्रदेशेप्रागस्ति; संबन्धिभ्यां बिना संबन्धस्य सत्त्वविरोधात् न चतत्रोत्पद्यतेनिरयवस्योत्पत्तिविरोध।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">क.पा. | <p><span class="SanskritText">क.पा.1/1,1/33/48/8 ण च अण्णत्थ संतो आगच्छदि; किरियाए विरहियस्स आगमणाणुववत्तीदो। ण च समवाओ किरियावंतो: अणिच्चद्रव्वत्तप्पसंगादो।</span>=<span class="HindiText">4. [यदि कहो कि वह नित्य है सो वह नित्य भी नहीं है, क्योंकि नित्य मानने से] उसमें क्रम से अथवा एक साथ अर्थक्रिया के मानने में विरोध आता है। 5. उसी प्रकार समवाय क्षणिक भी नहीं है, क्योंकि क्षणिक पदार्थ में भाव और अभाव रूप से अर्थ क्रिया के मानने में विरोध आता है। 6. अन्य क्रिया को छोड़कर उत्पन्न होने वाले पदार्थ में समवाय आता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर समवाय के द्वारा छोड़े गये समस्त कार्यों को असत्त्व का प्रसंग प्राप्त होता है। 7. अन्य पदार्थ को नहीं छोड़कर समवाय आता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो निरवयव है और जिसने पहले के कार्य को नहीं छोड़ा है ऐसे समवाय का आगमन नहीं बन सकता है। 8. समवाय को सावयव मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर उसे अनित्यपने की प्राप्ति होती है। 9. यदि कहा जाय कि समवाय अनित्य होता है तो हो जाओ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि समवायवादियों के मत में उत्पत्ति का अर्थ स्व कारण सत्ता समवाय माना है। अत: समवाय की भी उत्पत्ति दूसरे समवाय की अपेक्षा से होगी और ऐसा मानने पर अनवस्था दोष का प्रसंग प्राप्त होता है।...10. उसकी उत्पत्ति, स्वत: अर्थात् समवायान्तर निरपेक्ष मानी जायेगी तो समवाय का अभाव हो जाने से उसकी उत्पत्ति नहीं बन सकती है। 11. समवाय को नित्य और सर्वगत कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जो क्रिया रहित है और जो समस्त देश में व्याप्त है उसका आगमन मानने में विरोध आता है। 12. यदि असर्वगत माना जाय सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर समवाय को बहुत्व का प्रसंग प्राप्त होता है। समवाय अन्य के द्वारा कार्य देश में लाया जाता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनवस्था दोष की आपत्ति प्राप्त होती है। (क.पा.1/1,1/33/49/1) 13. कार्य के उत्पत्ति देश में समवाय पहले से रहता है; ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सम्बन्धियों के बिना सम्बन्ध का सत्त्व मानने में विरोध आता है। (क.पा.1/1,1/33/48/7) 14. कार्य के उत्पत्ति देश में समवाय उत्पन्न होता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि समवाय अवयव रहित है अर्थात् नित्य है इसलिए उसकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। 15. यदि कहा जाय कि समवाय कार्योत्पत्ति के पहले अन्यत्र रहता है और कार्योत्पत्ति काल में वहाँ आ जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि समवाय स्वयं क्रिया रहित है। ...क्रियावान् मानने पर उसे अनित्य द्रव्यत्व प्रसंग प्राप्त होता है।</span></p> | ||
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Revision as of 21:48, 5 July 2020
1. समवाय सम्बन्ध का लक्षण
पं.का./मू./50 समवत्ती समवाओ अपुधब्भूदो य अजुदसिद्धो य। तम्हा दव्वगुणाणं अजुदा सिद्धि त्ति णिद्दिट्ठा। =समवर्तीपन वह समवाय है। वही अपृथक्पना और अयुतसिद्धपना है इसलिए द्रव्य और गुणों की अयुक्तसिद्धि कही है। (रा.वा./1/10/22/51/31)
ध.1/1,1,1/18/1 समवाय-दव्वं णाम जं दव्वम्मि समेवदं।...समवायणिमित्तं णाम गल-गंडो काणो कुंडो इच्चेवमाइ। =जो द्रव्य में समवेत हो अर्थात् कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध रखता हो उसे समवाय द्रव्य कहते हैं। ...गलगण्ड, काना, कुबड़ा इत्यादि समवाय निमित्तक नाम हैं।
ध.15/24/2 को समवाओ। एगत्तेण अजुवसिद्धाणं मेलणं। =अयुतसिद्ध पदार्थों का एक रूप से मिलने का नाम समवाय है।
स्या.म./7/59/26 अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिह प्रत्ययहेतु: संबन्ध: समवाय:। =अयुतसिद्ध (एक दूसरे के बिना न रहने वाले) आधार्य (पट) और आधार (तंतु) पदार्थों का इह प्रत्यय हेतु (इन तन्तुओं में पट है) संबंध (वैशेषिक मान्य) समवाय सम्बन्ध है।
* द्रव्यगुण पर्याय के समवाय सम्बन्ध का निषेध - देखें द्रव्य - 4।
2. समवाय पदार्थ के अस्तित्व सम्बन्धी तर्क-वितर्क
रा.वा./1/1/13-16/6/8 स्यान्मतम्-समवायो नामायुतसिद्धलक्षण: संबन्ध इहेदं बुद्धयभिधानप्रवृत्तिहेतु: तेनैकत्वमिव नीतानां व्यपदेशो भवति।...नास्ति तत्परिकल्पित: समवाय:। कुत:। वृत्त्यन्तराभावात् । यथा गुणादीनां पदार्थानां द्रव्ये समवायसंबन्धाद्वृत्तिरिष्टा तथा समवाय: पदार्थान्तरं भूत्वा केन संबन्धेन द्रव्यादिषु वर्यति समवायान्तराभावात् । एक एव हि समवाय:। न च संयोगेन वृत्ति: युतसिद्धयभावात् युतसिद्धानामप्राप्तिपूर्विका प्राप्तिसंयोग:। न चान्य: संबन्धसंयोगसमवायविलक्षणोऽस्ति येन समवायस्य द्रव्यादिषु वृत्ति: स्यात् । अत: समवायिभिरनभिसंबन्धात् नास्ति। ...द्रव्यादीनि प्राप्तिमन्ति अतस्तेषां यया कयाचित् प्राप्त्या भवितव्यम्, समवायस्तु प्राप्तिर्न प्राप्तिमान्, अत: प्राप्त्यन्तराभावेऽपि स्वत एव प्राप्नोतीति; तच्च न; कस्मात् । व्यभिचारात् । यथा संयोग: प्राप्तिरपि सन् प्राप्त्यन्तरेण समवाये वर्तते तथा समवायस्यापि स्यादिति। ...यथा प्रदीप: प्रदीपान्तरमनपेक्षमाण आत्मानं प्रकाशयति घटादींश्च, तथा समवाय: संबन्धान्तरापेक्षामन्तरेणात्मनश्च द्रव्यादिषु वृत्तिहेतुर्द्रव्यादीनां च परस्परत इति; तन्न; कुत:। तत्परिणामादनन्यत्वसिद्धे:। ...यथा प्रदीप: स्वलक्षणप्रसिद्धो घटादिभ्योऽन्यो नैवं समवाय: स्वलक्षणप्रसिद्ध: द्रव्यादन्योऽस्ति। =प्रश्न - वैशेषिक समवाय नाम का पृथक् पदार्थ मानते हैं, इससे अपृथक् सिद्ध पदार्थों में 'इह इदम्' यह प्रत्यय होता है और इसी से गुण-गुणी में अभेद की तरह भान होने लगता है? उत्तर - समवाय नाम का पृथक् पदार्थ भी सिद्ध नहीं होता। क्योंकि - 1. जिस प्रकार गुणगुणी में समवाय सम्बन्ध से वृत्ति मानी जाती है उसी तरह समवाय की गुण और गुणी में किस सम्बन्ध से वृत्ति होगी ? समवायान्तर से तो नहीं, क्योंकि समवाय पदार्थ एक ही स्वीकार किया गया है। संयोग से भी नहीं, क्योंकि दो पृथक् सिद्ध द्रव्यों में ही संयोग होता है। ...यदि कहा जाय कि - चूँकि समवाय 'सम्बन्ध' है अत: उसे स्वसम्बन्धियों में रहने के लिए अन्य सम्बन्ध की आवश्यकता नहीं है सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि संयोग से व्यभिचार दूषण आता है। संयोग भी सम्बन्ध है पर उसे स्वसम्बन्धियों में समवाय से रहना पड़ता है। 2. जिस प्रकार दीपक स्व - परप्रकाशी दोनों है उसी प्रकार समवाय भी अन्य सम्बन्ध की अपेक्षा किये बिना स्वत: ही द्रव्यादि की परस्पर वृत्ति करा देगा तथा स्वयं भी उनमें रह जायेगा, यह तर्क उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से समवाय को द्रव्यादि की पर्याय ही माननी पड़ेगी। ...दीपक का दृष्टान्त भी उचित नहीं है क्योंकि जैसे दीपक घटादि प्रकाश्य पदार्थों से भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है उसी तरह समवाय की द्रव्यादि से भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।
क.पा.1/1,1/32-33/47/1 विसयीकयसमवायपमाणाभावादो। ण पञ्चक्खं; अमुत्ते णिरवयवे अद्दव्वे इंदियसण्णिकरिसाभावादो। ...ण च 'इहेदं' पञ्चयखेज्झसमवायओ; तहाविहपञ्चओवलंभाभावादो, आहाराहेयभावेण ट्ठिदकुंडवदरेसु चेव तदुवलंभादो। 'इह कवालेसु घडो इह तंतुसु पडो' त्ति पञ्चओ वि उप्पज्जमाणो दोसइ त्ति चे; ण; घडावत्थाए खप्पराणं पडावत्थाए तंतूणं च अणुवलंभादो। ...णाणुमाणमवि तग्गाहयं; तदविणाभाविलिंगाणुवलंभादो।...ण च अत्थावत्तिगमो समवाओ अणुमाणपुधभूदत्थावत्तीए अभावादो। ण चागमगब्भो; वादि-पडिवादीपसिद्धेगागमाभावादो। =3. समवाय को विषय करने वाला प्रमाण नहीं पाया जाता है। प्रत्यक्ष प्रमाण तो समवाय को विषय कर नहीं सकता है, क्योंकि समवाय स्वयं अमूर्त है, निरवयव है और द्रव्य रूप नहीं है, इसलिए उसमें इन्द्रिय सन्निकर्ष नहीं हो सकता है। ... 'इहेदम्' प्रत्यय से समवाय का ग्रहण हो जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार का प्रत्यय नहीं पाया जाता है, यदि पाया भी जाता है तो आधार-आधेय भाव से स्थित कुण्ड और बेरों में ही 'इस कुण्ड में ये बेर हैं' इस प्रकार का 'इहेदम्' प्रत्यय पाया जाता है, अन्यत्र नहीं। प्रश्न - 'इन कपालों में घट है, इन तन्तुओं में पट है' इस प्रकार भी 'इहेदम्' प्रत्यय उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है ? उत्तर - नहीं; क्योंकि घटरूप अवस्था में कपालों की और पटरूप अवस्था में तन्तुओं की उपलब्धि नहीं होती। (प्र.सा./त.प्र./98) ...यदि कहा जाय कि अनुमान प्रमाण समवाय का ग्राहक है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि समवाय का अविनाभावी कोई लिंग वहीं पाया जाता है। ...यदि कहा जाय कि अर्थापत्ति प्रमाण से समवाय का ज्ञान हो जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अर्थापत्ति अनुमान प्रमाण से पृथक्भूत कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है।...यदि कहा जाय कि आगम प्रमाण से समवाय का ज्ञान होता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जिसे वादी और प्रतिवादी दोनों मानते हों, ऐसा कोई आगम भी नहीं है।
क.पा.1/1,20/324/354/4 तत्र नित्ये क्रम-यौगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् । न स क्षणिकोऽपि; तत्र भावाभावाभ्यामर्थ क्रियाविरोधात् । नान्यत् आगच्छति, तत्परित्यक्ताशेषकार्याणामसत्वप्रसङ्गात् । नापरित्यज्य आगच्छति, निरवयवस्यापरित्यक्तपूर्वकार्यस्यागमनविरोधात् । न समवाय: सावयव:, अनित्यतापत्ते:। न सोऽनित्य:, अनवस्थाभावाभ्यां तदनुत्पत्तिप्रसङ्गात् । न नित्य: सर्वगतो वा, निष्क्रियस्य व्याप्ताशेषदेशस्यागमनविरोधात् । नासर्वगत:, समवायबहुत्वप्रसङ्गात् । नान्येनानीयते अनवस्थापत्ते: न कार्योत्पत्तिप्रदेशेप्रागस्ति; संबन्धिभ्यां बिना संबन्धस्य सत्त्वविरोधात् न चतत्रोत्पद्यतेनिरयवस्योत्पत्तिविरोध।
क.पा.1/1,1/33/48/8 ण च अण्णत्थ संतो आगच्छदि; किरियाए विरहियस्स आगमणाणुववत्तीदो। ण च समवाओ किरियावंतो: अणिच्चद्रव्वत्तप्पसंगादो।=4. [यदि कहो कि वह नित्य है सो वह नित्य भी नहीं है, क्योंकि नित्य मानने से] उसमें क्रम से अथवा एक साथ अर्थक्रिया के मानने में विरोध आता है। 5. उसी प्रकार समवाय क्षणिक भी नहीं है, क्योंकि क्षणिक पदार्थ में भाव और अभाव रूप से अर्थ क्रिया के मानने में विरोध आता है। 6. अन्य क्रिया को छोड़कर उत्पन्न होने वाले पदार्थ में समवाय आता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर समवाय के द्वारा छोड़े गये समस्त कार्यों को असत्त्व का प्रसंग प्राप्त होता है। 7. अन्य पदार्थ को नहीं छोड़कर समवाय आता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो निरवयव है और जिसने पहले के कार्य को नहीं छोड़ा है ऐसे समवाय का आगमन नहीं बन सकता है। 8. समवाय को सावयव मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर उसे अनित्यपने की प्राप्ति होती है। 9. यदि कहा जाय कि समवाय अनित्य होता है तो हो जाओ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि समवायवादियों के मत में उत्पत्ति का अर्थ स्व कारण सत्ता समवाय माना है। अत: समवाय की भी उत्पत्ति दूसरे समवाय की अपेक्षा से होगी और ऐसा मानने पर अनवस्था दोष का प्रसंग प्राप्त होता है।...10. उसकी उत्पत्ति, स्वत: अर्थात् समवायान्तर निरपेक्ष मानी जायेगी तो समवाय का अभाव हो जाने से उसकी उत्पत्ति नहीं बन सकती है। 11. समवाय को नित्य और सर्वगत कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जो क्रिया रहित है और जो समस्त देश में व्याप्त है उसका आगमन मानने में विरोध आता है। 12. यदि असर्वगत माना जाय सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर समवाय को बहुत्व का प्रसंग प्राप्त होता है। समवाय अन्य के द्वारा कार्य देश में लाया जाता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनवस्था दोष की आपत्ति प्राप्त होती है। (क.पा.1/1,1/33/49/1) 13. कार्य के उत्पत्ति देश में समवाय पहले से रहता है; ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सम्बन्धियों के बिना सम्बन्ध का सत्त्व मानने में विरोध आता है। (क.पा.1/1,1/33/48/7) 14. कार्य के उत्पत्ति देश में समवाय उत्पन्न होता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि समवाय अवयव रहित है अर्थात् नित्य है इसलिए उसकी उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। 15. यदि कहा जाय कि समवाय कार्योत्पत्ति के पहले अन्यत्र रहता है और कार्योत्पत्ति काल में वहाँ आ जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि समवाय स्वयं क्रिया रहित है। ...क्रियावान् मानने पर उसे अनित्य द्रव्यत्व प्रसंग प्राप्त होता है।