संज्ञा: Difference between revisions
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<span class="HindiText">क्षुद्र प्राणी से लेकर मनुष्य व देव तक सभी संसारी जीवों में आहार, भय, मैथुन व परिग्रह इन चार के प्रति जो तृष्णा पायी जाती है उसे संज्ञा कहते हैं। निचली भूमिकाओं में ये व्यक्त होती है और ऊपर की भूमिकाओं में अव्यक्त।</span> | <span class="HindiText">क्षुद्र प्राणी से लेकर मनुष्य व देव तक सभी संसारी जीवों में आहार, भय, मैथुन व परिग्रह इन चार के प्रति जो तृष्णा पायी जाती है उसे संज्ञा कहते हैं। निचली भूमिकाओं में ये व्यक्त होती है और ऊपर की भूमिकाओं में अव्यक्त।</span> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. संज्ञा सामान्य का लक्षण</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText">1. नाम के अर्थ में</p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p> <span class="SanskritText">स.सि./2/24/181/10 संज्ञा नामेत्युच्यते।</span> =<span class="HindiText">संज्ञा का अर्थ नाम है। (रा.वा./2/24/5/136/13)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText">2. ज्ञान के अर्थ में</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ मतिज्ञान#1 | मतिज्ञान - 1 ]]मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता ये सर्व सम्यग्ज्ञान की संज्ञाएँ हैं।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p> <span class="SanskritText">स.सि./1/13/106/5 संज्ञानं संज्ञा। </span>=<span class="HindiText">'संज्ञान संज्ञा' यह इनकी व्युत्पत्ति है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">गो.जी./मू./ | <p> <span class="PrakritText">गो.जी./मू./660 णो इंदियआवरणखओवसमं तज्जवोहणं सण्णा।</span> =<span class="HindiText">नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम को या तज्जन्य ज्ञान की संज्ञा कहते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText">3. इच्छा के अर्थ में</p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p> <span class="SanskritText">स.सि./2/24/182/1 आहारादिविषयाभिलाष: संज्ञेति।</span> =<span class="HindiText">आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञा कहा जाता है। (रा.वा./2/24/7/136/17)।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./ | <p> <span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./1/51 इह जाहि बाहिया वि य जीवा पावंति दारुणं दुक्खं। सेवंता वि य उभए...।51।</span> =<span class="HindiText">जिनसे बाधित होकर जीव इस लोक में दारुण दु:ख को पाते हैं, और जिनको सेवन करने से जीव दोनों ही भवों में दारुण दु:ख को प्राप्त करते हैं उन्हें संज्ञा कहते हैं। (पं.स./सं./1/344); (गो.जी./मू./134)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./ | <p> <span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./2/21/10 आगमप्रसिद्धा वाञ्छा संज्ञा अभिलाष इति।</span> =<span class="HindiText"> आगम में प्रसिद्ध वाञ्छा संज्ञा अभिलाषा ये एकार्थवाची हैं। (गो.जी./जी.प्र./134/347/16)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>2. संज्ञा के भेद</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p> <span class="PrakritText">ध.2/1,1/413/2 सण्णा चउव्विहा आहार-भय-मेहुणपरिग्गहसण्णा चेदि। - खीणसण्णा वि अत्थि (पृ.419/1)।</span> =<span class="HindiText"> संज्ञा चार प्रकार की है; आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा। क्षीण संज्ञावाले भी होते हैं। (ध.2/1,1/419/1); (नि.सा./ता.वृ./66); (गो.जी./जी.प्र./134/347)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. आहारादि संज्ञाओं के लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./ | <p> <span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./135-138/348-351 आहारे-विशिष्टान्नादौ संज्ञावाञ्छा आहारसंज्ञा (135-348) भयेन उत्पन्ना पलायनेच्छा भयसंज्ञा (136/349) मैथुने-मिथुनकर्मणि सुरतव्यापाररूपे संज्ञा - वाञ्छा मैथुनसंज्ञा (137/350) परिग्रहसंज्ञा - तदर्जनादि वाञ्छा जायते। (138/351) | ||
</span>=<span class="HindiText"> विशिष्ट अन्नादि में संज्ञा अर्थात् वाञ्छा का होना सो आहारसंज्ञा है। ( | </span>=<span class="HindiText"> विशिष्ट अन्नादि में संज्ञा अर्थात् वाञ्छा का होना सो आहारसंज्ञा है। (135/348) अत्यन्त भय से उत्पन्न जो भागकर छिप जाने आदि की इच्छा सो भयसंज्ञा है। मैथुनरूप क्रिया में जो वाञ्छा उसको मैथुनसंज्ञा कहते हैं। धन-धान्यादि के अर्जन करने रूप जो वाञ्छा सो परिग्रहसंज्ञा जाननी।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p> <span class="PrakritText">ध.2/1,1/419/3 एदासिं चउण्हं सण्णाणं अभावो खीणसण्णा णाम।</span> =<span class="HindiText"> इन चारों संज्ञाओं के अभाव को क्षीणसंज्ञा कहते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong> | <p class="HindiText"> <strong>4. आहारादि संज्ञाओं के कारण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./ | <p> <span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./1/52-55 आहारदंसणेण य तस्सुवओगेण ऊणकुट्ठेण। सादिदरुदीरणाए होदि हु आहारसण्णा दु।52। अइ भीमदंसणेण य तस्सुवओगेण ऊणसत्तेण। भयकम्मुदीरणाए भयसण्णा जायदे चउहिं।53। पणिदरसभोयणेण य तस्सुवओगेण कुसीलसेवणाए। वेदस्सुदीरणाए मेहुणसण्णा हवदि एवं।54। उवयरणदंसणेण य तस्सुवओगेण मुच्छियाए व। लोहस्सुदीरणाए परिग्गहे जायते सण्णा।55।</span> =<span class="HindiText"> बहिरंग में आहार के देखने से, उसके उपयोग से और उदररूप कोष्ठ के खाली होने पर तथा अन्तरंग में असाता वेदनीय की उदीरणा होने पर <strong>आहारसंज्ञा</strong> उत्पन्न होती है।52। बहिरंग अति भीमदर्शन से, उसके उपयोग से, शक्ति की हीनता होने पर, अन्तरंग में भयकर्म की उदीरणा होने पर <strong>भयसंज्ञा</strong> उत्पन्न होती है।53। बहिरंग में गरिष्ठ, स्वादिष्ठ, और रसयुक्त भोजन करने से, पूर्व-भुक्त विषयों का ध्यान करने से, कुशील का सेवन करने से तथा अन्तरंग में वेदकर्म की उदीरणा होने पर <strong>मैथुनसंज्ञा</strong> उत्पन्न होती है।54। बहिरंग में भोगोपभोग के साधनभूत उपकरणों के देखने से, उनका उपयोग करने से, उनमें मूर्छाभाव रखने से तथा अन्तरंग में लोभकर्म की उदीरणा होने पर <strong>परिग्रहसंज्ञा</strong> उत्पन्न होती है।55। (गो.जी./मू./135-138); (पं.सं./सं./1/348-352)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong> | <p class="HindiText"> <strong>5. संज्ञा व संज्ञी में अन्तर</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p> <span class="SanskritText">स.सि./2/24/181/8 ननु च संज्ञिन इत्यनेनैव गतार्थत्वात्समनस्का इति विशेषणमनर्थकम् । यतो मनोव्यापारहिताहितप्राप्तिपरिहारपरीक्षा। संज्ञापि सैवेति। नैतद्युक्तम्, संज्ञाशब्दार्थव्यभिचारात् । संज्ञा नामेत्युच्यते। तद्वन्त: संज्ञिन इति सर्वेषामतिप्रसङ्ग:। संज्ञा ज्ञानमिति चेत्, सर्वेषां प्राणिनां ज्ञानात्मकत्वादतिप्रसङ्ग:। आहारादिविषयाभिलाष: संज्ञेति चेत् । तुल्यं तस्मात्समनस्का इत्युच्यते।</span> =<span class="HindiText"><strong> प्रश्न</strong> - सूत्र में 'संज्ञिन:' इतना पद देने से ही काम चल जाता है, अत: 'समनस्का:' यह विशेषण देना निष्फल है, क्योंकि हित की प्राप्ति और अहित के त्याग की परीक्षा करने में मन का व्यापार होता है यही संज्ञा है ? <strong>उत्तर</strong> - यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि संज्ञा शब्द के अर्थ में व्यभिचार पाया जाता है। संज्ञा का अर्थ नाम है। यदि नाम वाले जीव संज्ञी माने जायें तो सभी जीवों को संज्ञीपने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। संज्ञा का अर्थ यदि ज्ञान मान लिया जाता है तो भी सभी प्राणी ज्ञान स्वभावी होने से सबको संज्ञीपने का प्रसंग प्राप्त होता है। यदि आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञी कहा जाता है तो भी पहले के समान दोष प्राप्त होता है। चूँकि यह दोष प्राप्त न हो अत: सूत्र में 'समनस्का:' यह पद रखा है। (रा.वा.2/24/7/136/17)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong> | <p class="HindiText"> <strong>6. वेद व मैथुन संज्ञा में अन्तर</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ध. | <p> <span class="SanskritText">ध.2/1,1/413/2 मैथुनसंज्ञा वेदस्यान्तर्भवतीति चेन्न, वेदत्रयोदयसामान्यनिबन्धनमैथुनसंज्ञाया वेदोदयविशेषलक्षणवेदस्य चैकत्वानुपपत्ते:। | ||
</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - मैथुन संज्ञा का वेद में अन्तर्भाव हो जायेगा ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि तीनों वेदों के उदय सामान्य के निमित्त से उत्पन्न हुई मैथुन संज्ञा और वेद के उदय विशेष स्वरूप वेद, इन दोनों में एकत्व नहीं बन सकता है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - मैथुन संज्ञा का वेद में अन्तर्भाव हो जायेगा ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि तीनों वेदों के उदय सामान्य के निमित्त से उत्पन्न हुई मैथुन संज्ञा और वेद के उदय विशेष स्वरूप वेद, इन दोनों में एकत्व नहीं बन सकता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong> | <p class="HindiText"> <strong>7. लोभ व परिग्रह संज्ञा में अन्तर</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ध. | <p> <span class="SanskritText">ध.2/1,1/413/4 परिग्रहसंज्ञापि न लोभेनैकत्वमास्कन्दति; लोभोदयसामान्यस्यालीढबाह्यार्थलोभत: परिग्रहसंज्ञामादधानतो भेदात् ।</span> = | ||
<span class="HindiText">परिग्रह संज्ञा भी लोभ कषाय के साथ एकत्व को प्राप्त नहीं होती है; क्योंकि बाह्य पदार्थों को विषय करने वाला होने के कारण परिग्रह संज्ञा को धारण करने वाले लोभ से लोभकषाय के उदयरूप सामान्य लोभ का भेद है। (अर्थात् बाह्य पदार्थों के निमित्त से जो लोभ विशेष होता है उसे परिग्रह संज्ञा कहते हैं।) और लोभ कषाय के उदय से उत्पन्न परिणामों को लोभ कहते हैं।</span></p> | <span class="HindiText">परिग्रह संज्ञा भी लोभ कषाय के साथ एकत्व को प्राप्त नहीं होती है; क्योंकि बाह्य पदार्थों को विषय करने वाला होने के कारण परिग्रह संज्ञा को धारण करने वाले लोभ से लोभकषाय के उदयरूप सामान्य लोभ का भेद है। (अर्थात् बाह्य पदार्थों के निमित्त से जो लोभ विशेष होता है उसे परिग्रह संज्ञा कहते हैं।) और लोभ कषाय के उदय से उत्पन्न परिणामों को लोभ कहते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong> | <p class="HindiText"> <strong>8. संज्ञाओं का स्वामित्व</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./ | <p> <span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./702/1136/9 मिथ्यादृष्टयादिप्रमत्तान्त...आहारादि चतस्र: संज्ञा भवन्ति। षष्ठगुणस्थाने आहारसंज्ञा व्युच्छिन्ना। शेषास्तिस्र: अप्रमत्तादिषु...अपूर्वकरणा - तत्र भयसंज्ञा व्युच्छिन्ना। अनिवृत्तिकरणप्रथमसवेदभागान्तं...मैथुनपरिग्रहसंज्ञे स्त:। तत्र मैथुनसंज्ञा व्युच्छिन्ना। सूक्ष्मसाम्पराये परिग्रहसंज्ञा व्युच्छिन्ना। उपरि उपशान्तादिषु कार्यरहिता अपि संज्ञा न सन्ति कारणाभावे कार्यस्याप्यभावात् ।</span> =<span class="HindiText"> मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर प्रमत्त पर्यन्त चारों संज्ञाएँ होती हैं। षष्ठ गुणस्थान में आहार संज्ञा का व्युच्छेद हो जाता है। अपूर्वकरण पर्यन्त शेष तीन संज्ञा हैं तहाँ भय संज्ञा का विच्छेद हो जाता है। अनिवृत्तिकरण के सवेद भाग पर्यन्त मैथुन और परिग्रह दो संज्ञाएँ हैं। तहाँ मैथुन का विच्छेद हो गया। तब सूक्ष्म साम्पराय में एक परिग्रहसंज्ञा रह जाती है, उसका भी वहाँ विच्छेद हो गया। तब ऊपर के उपशान्त आदि गुणस्थान में कारण के अभाव में कार्य का अभाव होता है, अत: वह कार्य रहित भी संज्ञा नहीं है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong> | <p class="HindiText"> <strong>9. अप्रमत्तादि गुणस्थानों में संज्ञा उपचार</strong> <strong>है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ध. | <p> <span class="SanskritText">ध.2/1,1/413,433/6,3 यदि चतस्रोऽपि संज्ञा आलीढबाह्यार्था:, अप्रमत्तानां संज्ञाभाव: स्यादिति चेन्न, तत्रोपचारतस्तत्सत्त्वाभ्युपगमात् ।413/6। (कारणभूद-कम्मोदय-संभवादो उवयारेण भयमेहुणपरिग्गहसण्णा अत्थि (433/3)।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - यदि ये चारों ही संज्ञाएँ बाह्य पदार्थों के संसर्ग से उत्पन्न होती हैं तो अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती जीवों के संज्ञाओं का अभाव हो जाना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि अप्रमत्तों में उपचार से उन संज्ञाओं का सद्भाव स्वीकार किया गया है। भय आदि संज्ञाओं के कारणभूत कर्मों का उदय संभव है इसलिए उपचार से भय और मैथुन संज्ञाएँ हैं।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">गो.जी./मू./ | <p> <span class="PrakritText">गो.जी./मू./702 छट्ठोत्ति पढमसण्णा सकज्ज सेसा य कारणावेक्खा।</span> =<span class="HindiText">मिथ्यात्व से लेकर अप्रमत्त पर्यन्त चारों ही संज्ञाएँ कार्यरूप होती हैं। किन्तु ऊपर के गुणस्थानों में तीन आदिक संज्ञाएँ कारणरूप होती हैं। (गो.क./मू./139)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong> | <p class="HindiText"> <strong>10. संज्ञा कर्म के उदय से नहीं उदीरणा से होती है</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p> <span class="PrakritText">ध.2/1,1/433/2 आसादावेदणीयस्स उदीरणाभावादो आहारसण्णा अप्पमत्तसंजदस्स णत्थि। | ||
</span>=<span class="HindiText">असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा का अभाव होने से अप्रमत्त संयत के आहार संज्ञा नहीं है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा का अभाव होने से अप्रमत्त संयत के आहार संज्ञा नहीं है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ संज्ञा#4 | संज्ञा - 4 ]]चारों संज्ञाओं के स्वस्व कर्म की उदीरणा होने पर वह वह संज्ञा उत्पन्न होती है।</p> | ||
<p class="HindiText"> <strong>* संज्ञा के स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान आदि | <p class="HindiText"> <strong>* संज्ञा के स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ</strong>। - | ||
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<p class="HindiText"> <strong>* संज्ञा प्ररूपणा का कषाय मार्गणा में अन्तर्भाव</strong>। - देखें | <p class="HindiText"> <strong>* संज्ञा प्ररूपणा का कषाय मार्गणा में अन्तर्भाव</strong>। - देखें [[ मार्गणा ]]।</p> | ||
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Revision as of 21:49, 5 July 2020
क्षुद्र प्राणी से लेकर मनुष्य व देव तक सभी संसारी जीवों में आहार, भय, मैथुन व परिग्रह इन चार के प्रति जो तृष्णा पायी जाती है उसे संज्ञा कहते हैं। निचली भूमिकाओं में ये व्यक्त होती है और ऊपर की भूमिकाओं में अव्यक्त।
1. संज्ञा सामान्य का लक्षण
1. नाम के अर्थ में
स.सि./2/24/181/10 संज्ञा नामेत्युच्यते। =संज्ञा का अर्थ नाम है। (रा.वा./2/24/5/136/13)।
2. ज्ञान के अर्थ में
देखें मतिज्ञान - 1 मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता ये सर्व सम्यग्ज्ञान की संज्ञाएँ हैं।
स.सि./1/13/106/5 संज्ञानं संज्ञा। ='संज्ञान संज्ञा' यह इनकी व्युत्पत्ति है।
गो.जी./मू./660 णो इंदियआवरणखओवसमं तज्जवोहणं सण्णा। =नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम को या तज्जन्य ज्ञान की संज्ञा कहते हैं।
3. इच्छा के अर्थ में
स.सि./2/24/182/1 आहारादिविषयाभिलाष: संज्ञेति। =आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञा कहा जाता है। (रा.वा./2/24/7/136/17)।
पं.सं./प्रा./1/51 इह जाहि बाहिया वि य जीवा पावंति दारुणं दुक्खं। सेवंता वि य उभए...।51। =जिनसे बाधित होकर जीव इस लोक में दारुण दु:ख को पाते हैं, और जिनको सेवन करने से जीव दोनों ही भवों में दारुण दु:ख को प्राप्त करते हैं उन्हें संज्ञा कहते हैं। (पं.स./सं./1/344); (गो.जी./मू./134)।
गो.जी./जी.प्र./2/21/10 आगमप्रसिद्धा वाञ्छा संज्ञा अभिलाष इति। = आगम में प्रसिद्ध वाञ्छा संज्ञा अभिलाषा ये एकार्थवाची हैं। (गो.जी./जी.प्र./134/347/16)।
2. संज्ञा के भेद
ध.2/1,1/413/2 सण्णा चउव्विहा आहार-भय-मेहुणपरिग्गहसण्णा चेदि। - खीणसण्णा वि अत्थि (पृ.419/1)। = संज्ञा चार प्रकार की है; आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा। क्षीण संज्ञावाले भी होते हैं। (ध.2/1,1/419/1); (नि.सा./ता.वृ./66); (गो.जी./जी.प्र./134/347)।
3. आहारादि संज्ञाओं के लक्षण
गो.जी./जी.प्र./135-138/348-351 आहारे-विशिष्टान्नादौ संज्ञावाञ्छा आहारसंज्ञा (135-348) भयेन उत्पन्ना पलायनेच्छा भयसंज्ञा (136/349) मैथुने-मिथुनकर्मणि सुरतव्यापाररूपे संज्ञा - वाञ्छा मैथुनसंज्ञा (137/350) परिग्रहसंज्ञा - तदर्जनादि वाञ्छा जायते। (138/351) = विशिष्ट अन्नादि में संज्ञा अर्थात् वाञ्छा का होना सो आहारसंज्ञा है। (135/348) अत्यन्त भय से उत्पन्न जो भागकर छिप जाने आदि की इच्छा सो भयसंज्ञा है। मैथुनरूप क्रिया में जो वाञ्छा उसको मैथुनसंज्ञा कहते हैं। धन-धान्यादि के अर्जन करने रूप जो वाञ्छा सो परिग्रहसंज्ञा जाननी।
ध.2/1,1/419/3 एदासिं चउण्हं सण्णाणं अभावो खीणसण्णा णाम। = इन चारों संज्ञाओं के अभाव को क्षीणसंज्ञा कहते हैं।
4. आहारादि संज्ञाओं के कारण
पं.सं./प्रा./1/52-55 आहारदंसणेण य तस्सुवओगेण ऊणकुट्ठेण। सादिदरुदीरणाए होदि हु आहारसण्णा दु।52। अइ भीमदंसणेण य तस्सुवओगेण ऊणसत्तेण। भयकम्मुदीरणाए भयसण्णा जायदे चउहिं।53। पणिदरसभोयणेण य तस्सुवओगेण कुसीलसेवणाए। वेदस्सुदीरणाए मेहुणसण्णा हवदि एवं।54। उवयरणदंसणेण य तस्सुवओगेण मुच्छियाए व। लोहस्सुदीरणाए परिग्गहे जायते सण्णा।55। = बहिरंग में आहार के देखने से, उसके उपयोग से और उदररूप कोष्ठ के खाली होने पर तथा अन्तरंग में असाता वेदनीय की उदीरणा होने पर आहारसंज्ञा उत्पन्न होती है।52। बहिरंग अति भीमदर्शन से, उसके उपयोग से, शक्ति की हीनता होने पर, अन्तरंग में भयकर्म की उदीरणा होने पर भयसंज्ञा उत्पन्न होती है।53। बहिरंग में गरिष्ठ, स्वादिष्ठ, और रसयुक्त भोजन करने से, पूर्व-भुक्त विषयों का ध्यान करने से, कुशील का सेवन करने से तथा अन्तरंग में वेदकर्म की उदीरणा होने पर मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है।54। बहिरंग में भोगोपभोग के साधनभूत उपकरणों के देखने से, उनका उपयोग करने से, उनमें मूर्छाभाव रखने से तथा अन्तरंग में लोभकर्म की उदीरणा होने पर परिग्रहसंज्ञा उत्पन्न होती है।55। (गो.जी./मू./135-138); (पं.सं./सं./1/348-352)।
5. संज्ञा व संज्ञी में अन्तर
स.सि./2/24/181/8 ननु च संज्ञिन इत्यनेनैव गतार्थत्वात्समनस्का इति विशेषणमनर्थकम् । यतो मनोव्यापारहिताहितप्राप्तिपरिहारपरीक्षा। संज्ञापि सैवेति। नैतद्युक्तम्, संज्ञाशब्दार्थव्यभिचारात् । संज्ञा नामेत्युच्यते। तद्वन्त: संज्ञिन इति सर्वेषामतिप्रसङ्ग:। संज्ञा ज्ञानमिति चेत्, सर्वेषां प्राणिनां ज्ञानात्मकत्वादतिप्रसङ्ग:। आहारादिविषयाभिलाष: संज्ञेति चेत् । तुल्यं तस्मात्समनस्का इत्युच्यते। = प्रश्न - सूत्र में 'संज्ञिन:' इतना पद देने से ही काम चल जाता है, अत: 'समनस्का:' यह विशेषण देना निष्फल है, क्योंकि हित की प्राप्ति और अहित के त्याग की परीक्षा करने में मन का व्यापार होता है यही संज्ञा है ? उत्तर - यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि संज्ञा शब्द के अर्थ में व्यभिचार पाया जाता है। संज्ञा का अर्थ नाम है। यदि नाम वाले जीव संज्ञी माने जायें तो सभी जीवों को संज्ञीपने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। संज्ञा का अर्थ यदि ज्ञान मान लिया जाता है तो भी सभी प्राणी ज्ञान स्वभावी होने से सबको संज्ञीपने का प्रसंग प्राप्त होता है। यदि आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञी कहा जाता है तो भी पहले के समान दोष प्राप्त होता है। चूँकि यह दोष प्राप्त न हो अत: सूत्र में 'समनस्का:' यह पद रखा है। (रा.वा.2/24/7/136/17)।
6. वेद व मैथुन संज्ञा में अन्तर
ध.2/1,1/413/2 मैथुनसंज्ञा वेदस्यान्तर्भवतीति चेन्न, वेदत्रयोदयसामान्यनिबन्धनमैथुनसंज्ञाया वेदोदयविशेषलक्षणवेदस्य चैकत्वानुपपत्ते:। =प्रश्न - मैथुन संज्ञा का वेद में अन्तर्भाव हो जायेगा ? उत्तर - नहीं, क्योंकि तीनों वेदों के उदय सामान्य के निमित्त से उत्पन्न हुई मैथुन संज्ञा और वेद के उदय विशेष स्वरूप वेद, इन दोनों में एकत्व नहीं बन सकता है।
7. लोभ व परिग्रह संज्ञा में अन्तर
ध.2/1,1/413/4 परिग्रहसंज्ञापि न लोभेनैकत्वमास्कन्दति; लोभोदयसामान्यस्यालीढबाह्यार्थलोभत: परिग्रहसंज्ञामादधानतो भेदात् । = परिग्रह संज्ञा भी लोभ कषाय के साथ एकत्व को प्राप्त नहीं होती है; क्योंकि बाह्य पदार्थों को विषय करने वाला होने के कारण परिग्रह संज्ञा को धारण करने वाले लोभ से लोभकषाय के उदयरूप सामान्य लोभ का भेद है। (अर्थात् बाह्य पदार्थों के निमित्त से जो लोभ विशेष होता है उसे परिग्रह संज्ञा कहते हैं।) और लोभ कषाय के उदय से उत्पन्न परिणामों को लोभ कहते हैं।
8. संज्ञाओं का स्वामित्व
गो.जी./जी.प्र./702/1136/9 मिथ्यादृष्टयादिप्रमत्तान्त...आहारादि चतस्र: संज्ञा भवन्ति। षष्ठगुणस्थाने आहारसंज्ञा व्युच्छिन्ना। शेषास्तिस्र: अप्रमत्तादिषु...अपूर्वकरणा - तत्र भयसंज्ञा व्युच्छिन्ना। अनिवृत्तिकरणप्रथमसवेदभागान्तं...मैथुनपरिग्रहसंज्ञे स्त:। तत्र मैथुनसंज्ञा व्युच्छिन्ना। सूक्ष्मसाम्पराये परिग्रहसंज्ञा व्युच्छिन्ना। उपरि उपशान्तादिषु कार्यरहिता अपि संज्ञा न सन्ति कारणाभावे कार्यस्याप्यभावात् । = मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर प्रमत्त पर्यन्त चारों संज्ञाएँ होती हैं। षष्ठ गुणस्थान में आहार संज्ञा का व्युच्छेद हो जाता है। अपूर्वकरण पर्यन्त शेष तीन संज्ञा हैं तहाँ भय संज्ञा का विच्छेद हो जाता है। अनिवृत्तिकरण के सवेद भाग पर्यन्त मैथुन और परिग्रह दो संज्ञाएँ हैं। तहाँ मैथुन का विच्छेद हो गया। तब सूक्ष्म साम्पराय में एक परिग्रहसंज्ञा रह जाती है, उसका भी वहाँ विच्छेद हो गया। तब ऊपर के उपशान्त आदि गुणस्थान में कारण के अभाव में कार्य का अभाव होता है, अत: वह कार्य रहित भी संज्ञा नहीं है।
9. अप्रमत्तादि गुणस्थानों में संज्ञा उपचार है
ध.2/1,1/413,433/6,3 यदि चतस्रोऽपि संज्ञा आलीढबाह्यार्था:, अप्रमत्तानां संज्ञाभाव: स्यादिति चेन्न, तत्रोपचारतस्तत्सत्त्वाभ्युपगमात् ।413/6। (कारणभूद-कम्मोदय-संभवादो उवयारेण भयमेहुणपरिग्गहसण्णा अत्थि (433/3)। =प्रश्न - यदि ये चारों ही संज्ञाएँ बाह्य पदार्थों के संसर्ग से उत्पन्न होती हैं तो अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती जीवों के संज्ञाओं का अभाव हो जाना चाहिए ? उत्तर - नहीं, क्योंकि अप्रमत्तों में उपचार से उन संज्ञाओं का सद्भाव स्वीकार किया गया है। भय आदि संज्ञाओं के कारणभूत कर्मों का उदय संभव है इसलिए उपचार से भय और मैथुन संज्ञाएँ हैं।
गो.जी./मू./702 छट्ठोत्ति पढमसण्णा सकज्ज सेसा य कारणावेक्खा। =मिथ्यात्व से लेकर अप्रमत्त पर्यन्त चारों ही संज्ञाएँ कार्यरूप होती हैं। किन्तु ऊपर के गुणस्थानों में तीन आदिक संज्ञाएँ कारणरूप होती हैं। (गो.क./मू./139)।
10. संज्ञा कर्म के उदय से नहीं उदीरणा से होती है
ध.2/1,1/433/2 आसादावेदणीयस्स उदीरणाभावादो आहारसण्णा अप्पमत्तसंजदस्स णत्थि। =असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा का अभाव होने से अप्रमत्त संयत के आहार संज्ञा नहीं है।
देखें संज्ञा - 4 चारों संज्ञाओं के स्वस्व कर्म की उदीरणा होने पर वह वह संज्ञा उत्पन्न होती है।
* संज्ञा के स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ। - देखें सत् ।
* संज्ञा प्ररूपणा का कषाय मार्गणा में अन्तर्भाव। - देखें मार्गणा ।