स्वर्ग: Difference between revisions
From जैनकोष
mNo edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<span class="HindiText">देवों के चार भेदों में एक वैमानिक देव नाम का भेद है। ये लोग ऊर्ध्वलोक के स्वर्ग विमानों में रहते हैं तथा बड़ी विभूति व ऋद्धि आदि को धारण करने वाले होते हैं। स्वर्ग के दो विभाग हैं-कल्प व कल्पातीत। इन्द्र सामानिक आदि रूप कल्पना भेद युक्त देव जहाँ तक रहते हैं उसे कल्प कहते हैं। वे | == सिद्धांतकोष से == | ||
<span class="HindiText">देवों के चार भेदों में एक वैमानिक देव नाम का भेद है। ये लोग ऊर्ध्वलोक के स्वर्ग विमानों में रहते हैं तथा बड़ी विभूति व ऋद्धि आदि को धारण करने वाले होते हैं। स्वर्ग के दो विभाग हैं-कल्प व कल्पातीत। इन्द्र सामानिक आदि रूप कल्पना भेद युक्त देव जहाँ तक रहते हैं उसे कल्प कहते हैं। वे 16 हैं। इनमें रहने वाले देव कल्पवासी कहलाते हैं। इसके ऊपर इन सब कल्पनाओं से अतीत, समान ऐश्वर्य आदि प्राप्त अहमिन्द संज्ञावाले देव रहते हैं। वह कल्पातीत है। उनके रहने का सब स्थान स्वर्ग कहलाता है। इसमें इन्द्रक व श्रेणीबद्ध आदि विमानों की रचना है। इनके अतिरिक्त भी उनके पास घूमने फिरने को विमान है, इसीलिए वैमानिक संज्ञा भी प्राप्त है। बहुत अधिक पुण्यशाली जीव वहाँ जन्म लेते हैं, और सागरों की आयु पर्यन्त दुर्लभ भोग भोगते हैं।</span> | |||
<ol class="HindiText"> | <ol class="HindiText"> | ||
<li id="I"><strong>[[स्वर्ग देव#1 | वैमानिक देवों के भेद व लक्षण]]</strong> | <li id="I"><strong>[[स्वर्ग देव#1 | वैमानिक देवों के भेद व लक्षण]]</strong> | ||
Line 9: | Line 10: | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li>सौधर्म ईशान आदि भेद।- देखें | <li>सौधर्म ईशान आदि भेद।-देखें [[ स्वर्ग#5.2 | स्वर्ग - 5.2]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
</li> | </li> | ||
Line 17: | Line 18: | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li>मार्गणा व गुणस्थान आदि | <li>मार्गणा व गुणस्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ-देखें [[ सत् ]]।</li> | ||
<li>सत् संख्या क्षेत्र आदि आठ-प्ररूपणाएँ।-देखें | <li>सत् संख्या क्षेत्र आदि आठ-प्ररूपणाएँ।-देखें [[ वह ]]वह नाम।</li> | ||
<li>अवगाहना व आयु।-देखें | <li>अवगाहना व आयु।-देखें [[ वह ]]वह नाम।</li> | ||
<li>सम्भव कषाय, वेद, लेश्या, पर्याप्ति।-देखें | <li>सम्भव कषाय, वेद, लेश्या, पर्याप्ति।-देखें [[ वह ]]वह नाम।</li> | ||
<li>सम्भव कर्मों का बन्ध उदय सत्त्व।-देखें | <li>सम्भव कर्मों का बन्ध उदय सत्त्व।-देखें [[ वह ]]वह नाम।</li> | ||
<li>जन्म, शरीर, आहार, सुख, दु:ख आदि।- देखें | <li>जन्म, शरीर, आहार, सुख, दु:ख आदि।-देखें [[ देव#II.2 | देव - II.2]]।</li> | ||
<li>कहाँ जन्मे और क्या गुण प्राप्त करे।- देखें | <li>कहाँ जन्मे और क्या गुण प्राप्त करे।-देखें [[ जन्म#6 | जन्म - 6]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
</li> | </li> | ||
Line 32: | Line 33: | ||
<li id="3.3">[[स्वर्ग देव#3.3 | इन्द्रों व देवों के आहार व श्वास का अन्तराल।]]</li> | <li id="3.3">[[स्वर्ग देव#3.3 | इन्द्रों व देवों के आहार व श्वास का अन्तराल।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul><li>विमानों के भेद-वैक्रियक व स्वाभाविक-देखें | <ul><li>विमानों के भेद-वैक्रियक व स्वाभाविक-देखें [[ विमान ]]।</li></ul> | ||
<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li id="3.4">[[स्वर्ग देव#3.4 | इन्द्रों के चिह्न व यान विमान।]]</li> | <li id="3.4">[[स्वर्ग देव#3.4 | इन्द्रों के चिह्न व यान विमान।]]</li> | ||
Line 71: | Line 72: | ||
<li id="5.11">[[स्वर्ग देव#5.11 | इन्द्र नगरों का विस्तार आदि।]]</li> | <li id="5.11">[[स्वर्ग देव#5.11 | इन्द्र नगरों का विस्तार आदि।]]</li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul><li>ब्रह्म स्वर्ग का लौकान्तिक लोक।-(देखें | <ul><li>ब्रह्म स्वर्ग का लौकान्तिक लोक।-(देखें [[ लौकान्तिक ]])।</li></ul> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
[[स्वरूपास्तित्व | | <noinclude> | ||
[[ स्वरूपास्तित्व | पूर्व पृष्ठ ]] | |||
[[Category:स]] | [[ स्वर्ग देव | अगला पृष्ठ ]] | ||
</noinclude> | |||
[[Category: स]] | |||
== पुराणकोष से == | |||
<p> इसका अपर नाम कल्प है । ये ऊर्ध्वलोक में स्थित है और सोलह है । उनके नाम है—(1) सौधर्म (2) ऐशान (3) सनत्कुमार (4) माहेन्द्र (5) ब्रह्म (6) ब्रह्मोत्तर (7) लान्तव (8) कापिष्ठ (6) शुक्र (10) महाशुक्र (11) शतार ( 12) सहस्रार (13) आनत (14) प्राणत (15) आरण और (16) अच्युत । इनके ऊपर अधोग्रैवेयक मध्यग्रैवेयक और उपरिम ग्रैवेयक ये तीन प्रकार के ग्रैवेयक है । इनके आगे नौ अनुदिश और इनके भी आगे पांच अनुतर विमान है? स्वर्गों के कुल चौरासी लाख सत्तानवें हजार तेईस विमान है । इनमें त्रेमठ पटल और त्रेसठ हो इन्द्रविमान है । सौधर्म सनत्कुमार ब्रह्म, शुक, आनत और आरण कल्पों में रहने वाले इन्द्र दक्षिणदिशा में और ऐशान, माहेन्द्र, लान्तव, शतार, प्राणत और अच्युत इन छ: कल्पों के इन्द्र उत्तर दिशा में रहते हैं । आरण स्वर्ग पर्यन्त दक्षिण दिशा के देवों की देवियाँ सौधर्म स्वर्ग में ही अपने-अपने उपपाद स्थानों में उत्पन्न होती है और नियोगी देवों के द्वारा यथास्थान ले जाई जाती है । अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्तरदिशा के देवों की देवियों ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होती है और अपने-अपने देवों के स्थान पर ले जाई जाती है । सौधर्म और ऐशान स्वर्गो में केवल देवियो के उत्पत्ति स्थान छ: लाख और चार लाख है । समस्त श्रेणीबद्ध विमानों का आधा भाग स्वयंभूरमण समुद्र के ऊपर और आधा अन्य समस्त द्वीप-समुद्रों के ऊपर फैला है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 6.35-43, 91, 101-102, 119-121 </span>विशेष जानकारी हेतु देखें प्रत्येक स्वर्ग का नाम ।</p> | |||
<noinclude> | |||
[[ स्वरूपास्तित्व | पूर्व पृष्ठ ]] | |||
[[ स्वर्ग देव | अगला पृष्ठ ]] | |||
</noinclude> | |||
[[Category: पुराण-कोष]] | |||
[[Category: स]] |
Revision as of 21:49, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से == देवों के चार भेदों में एक वैमानिक देव नाम का भेद है। ये लोग ऊर्ध्वलोक के स्वर्ग विमानों में रहते हैं तथा बड़ी विभूति व ऋद्धि आदि को धारण करने वाले होते हैं। स्वर्ग के दो विभाग हैं-कल्प व कल्पातीत। इन्द्र सामानिक आदि रूप कल्पना भेद युक्त देव जहाँ तक रहते हैं उसे कल्प कहते हैं। वे 16 हैं। इनमें रहने वाले देव कल्पवासी कहलाते हैं। इसके ऊपर इन सब कल्पनाओं से अतीत, समान ऐश्वर्य आदि प्राप्त अहमिन्द संज्ञावाले देव रहते हैं। वह कल्पातीत है। उनके रहने का सब स्थान स्वर्ग कहलाता है। इसमें इन्द्रक व श्रेणीबद्ध आदि विमानों की रचना है। इनके अतिरिक्त भी उनके पास घूमने फिरने को विमान है, इसीलिए वैमानिक संज्ञा भी प्राप्त है। बहुत अधिक पुण्यशाली जीव वहाँ जन्म लेते हैं, और सागरों की आयु पर्यन्त दुर्लभ भोग भोगते हैं।
- वैमानिक देवों के भेद व लक्षण
- वैमानिक का लक्षण।
- कल्प का लक्षण।
- कल्प व कल्पातीत रूप भेद व उनके लक्षण।
- कल्पातीत देव सभी अहमिन्द्र होते हैं।
- सौधर्म ईशान आदि भेद।-देखें स्वर्ग - 5.2।
- वैमानिक देव सामान्य निर्देश
- मार्गणा व गुणस्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ-देखें सत् ।
- सत् संख्या क्षेत्र आदि आठ-प्ररूपणाएँ।-देखें वह वह नाम।
- अवगाहना व आयु।-देखें वह वह नाम।
- सम्भव कषाय, वेद, लेश्या, पर्याप्ति।-देखें वह वह नाम।
- सम्भव कर्मों का बन्ध उदय सत्त्व।-देखें वह वह नाम।
- जन्म, शरीर, आहार, सुख, दु:ख आदि।-देखें देव - II.2।
- कहाँ जन्मे और क्या गुण प्राप्त करे।-देखें जन्म - 6।
- वैमानिक इन्द्रों का निर्देश
- नाम व संख्या आदि का निर्देश।
- दक्षिण व उत्तर इन्द्रों का विभाग।
- इन्द्रों व देवों के आहार व श्वास का अन्तराल।
- विमानों के भेद-वैक्रियक व स्वाभाविक-देखें विमान ।
- वैमानिक देवियों का निर्देश
- स्वर्गलोक का निर्देश
- स्वर्गलोक सामान्य निर्देश।
- कल्प व कल्पातीत विभाग निर्देश।
- स्वर्गों में स्थित पटलों के नाम व उनमें स्थित इन्द्रक व श्रेणीबद्ध।
- श्रेणीबद्धों के नाम।
- स्वर्गों में विमानों की संख्या।
- विमानों के वर्ण व उनका अवस्थान।
- दक्षिण व उत्तर कल्पों में विमानों का विभाग।
- दक्षिण व उत्तर इन्द्रों का निश्चित निवास स्थान।
- इन्द्रों के निवासभूत विमानों का परिचय।
- कल्पविमानों व इन्द्र भवनों के विस्तारादि।
- इन्द्र नगरों का विस्तार आदि।
- ब्रह्म स्वर्ग का लौकान्तिक लोक।-(देखें लौकान्तिक )।
पुराणकोष से
इसका अपर नाम कल्प है । ये ऊर्ध्वलोक में स्थित है और सोलह है । उनके नाम है—(1) सौधर्म (2) ऐशान (3) सनत्कुमार (4) माहेन्द्र (5) ब्रह्म (6) ब्रह्मोत्तर (7) लान्तव (8) कापिष्ठ (6) शुक्र (10) महाशुक्र (11) शतार ( 12) सहस्रार (13) आनत (14) प्राणत (15) आरण और (16) अच्युत । इनके ऊपर अधोग्रैवेयक मध्यग्रैवेयक और उपरिम ग्रैवेयक ये तीन प्रकार के ग्रैवेयक है । इनके आगे नौ अनुदिश और इनके भी आगे पांच अनुतर विमान है? स्वर्गों के कुल चौरासी लाख सत्तानवें हजार तेईस विमान है । इनमें त्रेमठ पटल और त्रेसठ हो इन्द्रविमान है । सौधर्म सनत्कुमार ब्रह्म, शुक, आनत और आरण कल्पों में रहने वाले इन्द्र दक्षिणदिशा में और ऐशान, माहेन्द्र, लान्तव, शतार, प्राणत और अच्युत इन छ: कल्पों के इन्द्र उत्तर दिशा में रहते हैं । आरण स्वर्ग पर्यन्त दक्षिण दिशा के देवों की देवियाँ सौधर्म स्वर्ग में ही अपने-अपने उपपाद स्थानों में उत्पन्न होती है और नियोगी देवों के द्वारा यथास्थान ले जाई जाती है । अच्युत स्वर्ग पर्यन्त उत्तरदिशा के देवों की देवियों ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होती है और अपने-अपने देवों के स्थान पर ले जाई जाती है । सौधर्म और ऐशान स्वर्गो में केवल देवियो के उत्पत्ति स्थान छ: लाख और चार लाख है । समस्त श्रेणीबद्ध विमानों का आधा भाग स्वयंभूरमण समुद्र के ऊपर और आधा अन्य समस्त द्वीप-समुद्रों के ऊपर फैला है । हरिवंशपुराण 6.35-43, 91, 101-102, 119-121 विशेष जानकारी हेतु देखें प्रत्येक स्वर्ग का नाम ।