अधःकर्म: Difference between revisions
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<p>जिन कार्यों के करने से जीवहिंसा होती है उन्हें अधःकर्म कहते हैं। अधःकर्म युक्त किसी भी पदार्थ की मन, वचन, काय से साधुजन अनुमोदना नहीं करते और न ही ऐसा आहार व वसति आदि का ग्रहण करते हैं। इस विषय का परिचय इस अधिकार में दिया गया है।</p> | <p>जिन कार्यों के करने से जीवहिंसा होती है उन्हें अधःकर्म कहते हैं। अधःकर्म युक्त किसी भी पदार्थ की मन, वचन, काय से साधुजन अनुमोदना नहीं करते और न ही ऐसा आहार व वसति आदि का ग्रहण करते हैं। इस विषय का परिचय इस अधिकार में दिया गया है।</p> | ||
<p>1. आहार सम्बन्धी अधःकर्म</p> | <p>1. आहार सम्बन्धी अधःकर्म</p> | ||
<p> मूलाचार गाथा 423 छज्जीवणिकायाणां विराहणोद्दावणादिणिप्पण्णं। आधाकम्मं णेयं सम रकदमादसंपण्णं ॥423॥ </p> | <p class="SanskritText">मूलाचार गाथा 423 छज्जीवणिकायाणां विराहणोद्दावणादिणिप्पण्णं। आधाकम्मं णेयं सम रकदमादसंपण्णं ॥423॥ </p> | ||
<p>= पृथ्वीकाय आदि छह कायके जीवों को दुःख देना, मारना इससे उत्पन्न जो आहारादि वस्तु वह अधःकर्म है। वह पाप क्रिया आप कर की गयी, दूसरे कर की गयी तथा आप कर अनुमोदना की गयी जानना।</p> | <p class="HindiText">= पृथ्वीकाय आदि छह कायके जीवों को दुःख देना, मारना इससे उत्पन्न जो आहारादि वस्तु वह अधःकर्म है। वह पाप क्रिया आप कर की गयी, दूसरे कर की गयी तथा आप कर अनुमोदना की गयी जानना।</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 13/5,4,21/46/8 तं ओद्दावण-विद्दावण-परिदावण-आरंभकदणिप्फन्णं तं सव्वं आधाकम्मं णाम ॥22॥ ....जीवस्य उपद्रवणम् ओद्दावणं णाम। अंगच्छेदनादिव्यापारः विद्दावणं णाम। संतापजननं परिदावणं णाम। प्राणिप्राण-वियोजनं आरंभो णाम। </p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 13/5,4,21/46/8 तं ओद्दावण-विद्दावण-परिदावण-आरंभकदणिप्फन्णं तं सव्वं आधाकम्मं णाम ॥22॥ ....जीवस्य उपद्रवणम् ओद्दावणं णाम। अंगच्छेदनादिव्यापारः विद्दावणं णाम। संतापजननं परिदावणं णाम। प्राणिप्राण-वियोजनं आरंभो णाम। </p> | ||
<p>= जो उपद्रावण, विद्रावण, परितापन और आरम्भ रूप कार्यसे निष्पन्न होता है, वह सब अधःकर्म है ॥22॥ ...जीवका उपद्रव करना ओद्दावण कहलाता है। अंग छेदन आदि व्यापार करना विद्दावण कहलाता है। सन्ताप उत्पन्न करना परिदावण कहलाता है और प्राणियों के प्राणों का वियोग करना आरम्भ कहलाता है।</p> | <p class="HindiText">= जो उपद्रावण, विद्रावण, परितापन और आरम्भ रूप कार्यसे निष्पन्न होता है, वह सब अधःकर्म है ॥22॥ ...जीवका उपद्रव करना ओद्दावण कहलाता है। अंग छेदन आदि व्यापार करना विद्दावण कहलाता है। सन्ताप उत्पन्न करना परिदावण कहलाता है और प्राणियों के प्राणों का वियोग करना आरम्भ कहलाता है।</p> | ||
<p> चारित्रसार पृष्ठ 68/1 षडजीवनिकायस्योगद्रवणम् उपद्रवणम्, अंगच्छेदनादिव्यापारो विद्रावणम्, संतापजननं परितापनं, प्राणिप्राणव्यपरोपणमारम्भः, एवमुपद्रवणविद्रावणपरितापनारम्भक्रियया निष्पन्नमन्नंस्वेन कृतं परेण कारितं वानुमनितं वाधःकर्म (जनितं) तस्सेविनोऽनशनादितपांसि......प्ररक्षन्ति। </p> | <p class="SanskritText">चारित्रसार पृष्ठ 68/1 षडजीवनिकायस्योगद्रवणम् उपद्रवणम्, अंगच्छेदनादिव्यापारो विद्रावणम्, संतापजननं परितापनं, प्राणिप्राणव्यपरोपणमारम्भः, एवमुपद्रवणविद्रावणपरितापनारम्भक्रियया निष्पन्नमन्नंस्वेन कृतं परेण कारितं वानुमनितं वाधःकर्म (जनितं) तस्सेविनोऽनशनादितपांसि......प्ररक्षन्ति। </p> | ||
<p>= षट्काय के जीव समूहों के लिए उपद्रव होना उपद्रवण है। जीवों के अंग छेद आदि व्यापार को विद्रावण कहते हैं। जीवों को सन्ताप (मानसिक वा अन्तरंग पीड़ा) उत्पन्न होने को परितापन कहते हैं। प्राणियों के प्राण नाश होने को आरम्भ कहते हैं। इस प्रकार उपद्रवण, विद्रावण, परितापन, आरम्भ क्रियाओं के द्वारा जो आहार तैयार किया गया हो, जो अपने हाथसे किया हो अथवा दूसरे से कराया हो, अथवा करते हुए की अनुमोदना की हो, अथवा जो नीच कर्मों से बनाया गया हो, ऐसे आहार को ग्रहण करनेवाले मुनियों के उपवासादि तपश्चरण नष्ट होते हैं।</p> | <p class="HindiText">= षट्काय के जीव समूहों के लिए उपद्रव होना उपद्रवण है। जीवों के अंग छेद आदि व्यापार को विद्रावण कहते हैं। जीवों को सन्ताप (मानसिक वा अन्तरंग पीड़ा) उत्पन्न होने को परितापन कहते हैं। प्राणियों के प्राण नाश होने को आरम्भ कहते हैं। इस प्रकार उपद्रवण, विद्रावण, परितापन, आरम्भ क्रियाओं के द्वारा जो आहार तैयार किया गया हो, जो अपने हाथसे किया हो अथवा दूसरे से कराया हो, अथवा करते हुए की अनुमोदना की हो, अथवा जो नीच कर्मों से बनाया गया हो, ऐसे आहार को ग्रहण करनेवाले मुनियों के उपवासादि तपश्चरण नष्ट होते हैं।</p> | ||
<p>2. वसति सम्बन्धी अधःकर्म</p> | <p>2. वसति सम्बन्धी अधःकर्म</p> | ||
<p> भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 230/447 तत्रोद्गमो दोषो निरूप्यते। वृक्षच्छेदस्तदानयनं, इष्टकापाकः, भूमिखननं, पाषाणसिकतादिभिः पूरणं, धरायाः कुट्टनं, कर्दमकरणं, कीलानां करणं, अग्निनायस्तापनं कृत्वा प्राताड्य क्रकचैः काष्ठपाटनं, वासीभिस्तक्षणं, परशुभिंश्च्छेदनं इत्येवमादिव्यापारेण षण्णां जीवनिकायानां बाधां कृत्वा स्वेन वा उत्पादिता, अन्येन वा कारिता वसतिरधःकर्मशब्देनोच्यते। </p> | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 230/447 तत्रोद्गमो दोषो निरूप्यते। वृक्षच्छेदस्तदानयनं, इष्टकापाकः, भूमिखननं, पाषाणसिकतादिभिः पूरणं, धरायाः कुट्टनं, कर्दमकरणं, कीलानां करणं, अग्निनायस्तापनं कृत्वा प्राताड्य क्रकचैः काष्ठपाटनं, वासीभिस्तक्षणं, परशुभिंश्च्छेदनं इत्येवमादिव्यापारेण षण्णां जीवनिकायानां बाधां कृत्वा स्वेन वा उत्पादिता, अन्येन वा कारिता वसतिरधःकर्मशब्देनोच्यते। </p> | ||
<p>= वृक्ष काटकर उनको लाना, ईंटों का समुदाय पकाना, जमीन खोदना, पाषाण, बालु इत्यादिकों से खाड़ा भरना, जमीन को कूटना, कीचड़ करना, खम्भे तैयार करना, अग्निसे लोह तपवाना, करौत से लकड़ी चीर टासीसे छीलना, कुल्हाड़ी से छेदन करना इत्यादि क्रियाओं से षट्काय जीवों को बाधा देकर स्वयं वसति बनायी हो अथवा दूसरों से बनवायी हो, वह वसति अधःकर्म के दोषसे युक्त है।</p> | <p class="HindiText">= वृक्ष काटकर उनको लाना, ईंटों का समुदाय पकाना, जमीन खोदना, पाषाण, बालु इत्यादिकों से खाड़ा भरना, जमीन को कूटना, कीचड़ करना, खम्भे तैयार करना, अग्निसे लोह तपवाना, करौत से लकड़ी चीर टासीसे छीलना, कुल्हाड़ी से छेदन करना इत्यादि क्रियाओं से षट्काय जीवों को बाधा देकर स्वयं वसति बनायी हो अथवा दूसरों से बनवायी हो, वह वसति अधःकर्म के दोषसे युक्त है।</p> | ||
<p>3. अधःकर्म शरीर</p> | <p>3. अधःकर्म शरीर</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 13/5,4,24/47/5 जम्हि शरीरे ठिदाणं केसिं चि जीवाणं कम्हि वि काले ओद्दावण-विद्दावण-परिदावणेहि मरणं संभवदि तं सरीराधाकम्मं णाम। </p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 13/5,4,24/47/5 जम्हि शरीरे ठिदाणं केसिं चि जीवाणं कम्हि वि काले ओद्दावण-विद्दावण-परिदावणेहि मरणं संभवदि तं सरीराधाकम्मं णाम। </p> | ||
<p>= जिस शरीर में स्थित किन्हीं जीवों के किसी भी कालमें उपद्रावण, विद्रावण और परितापन से मरना संभव है, वह शरीर अधःकर्म है।</p> | <p class="HindiText">= जिस शरीर में स्थित किन्हीं जीवों के किसी भी कालमें उपद्रावण, विद्रावण और परितापन से मरना संभव है, वह शरीर अधःकर्म है।</p> | ||
<p>4. नारकियों में अधःकर्म नहीं होता</p> | <p>4. नारकियों में अधःकर्म नहीं होता</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 13/5,4,31/91/5 आधाकम्म-इरियावधकम्म-तवोकम्माणि णत्थि; णेरइएसु ओरालियसरीरस्स उदयाभावादो पंचमहव्वयाभवादो। एवं सत्तसु पुढवीसु। </p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 13/5,4,31/91/5 आधाकम्म-इरियावधकम्म-तवोकम्माणि णत्थि; णेरइएसु ओरालियसरीरस्स उदयाभावादो पंचमहव्वयाभवादो। एवं सत्तसु पुढवीसु। </p> | ||
<p>= अधःकर्म ईर्यापथ कर्म, और तपःकर्म नहीं होते, क्योंकि नारकियों के औदारिक शरीर का उदय और पंचमहाव्रत नहीं होते। इसी प्रकार सातों पृथिवियों में जानना चाहिए।</p> | <p class="HindiText">= अधःकर्म ईर्यापथ कर्म, और तपःकर्म नहीं होते, क्योंकि नारकियों के औदारिक शरीर का उदय और पंचमहाव्रत नहीं होते। इसी प्रकार सातों पृथिवियों में जानना चाहिए।</p> | ||
<p>5. नारकियों का शरीर अधःकर्म नहीं</p> | <p>5. नारकियों का शरीर अधःकर्म नहीं</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 13/5,4,24/47/3 ओद्दावणादिदंसणादो णेरइयसरीरमाधाकम्मं त्ति किण्ण भण्णदे। [ण] तत्थ ओद्दावण-विद्दावण-परिदावणेहिंतो आरंभाभावादो। जम्हि सरीरे ठिदाणं केसिं वि जीवाणं कम्हि वि काले ओद्दावण-विद्दावण-परिदावणेहिं मरणं संभवदि तं सरीरमाधाकम्मं णाम ण च एदं विसेसणं णेरइयसरीरे अत्थि, तत्तो तेसिमवमिच्चुवज्जियाणं मरणाभावादो। अधवा चउण्णं समूहो जेणेगं विससणं, ण तेण पुव्वुत्तदोसो। </p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 13/5,4,24/47/3 ओद्दावणादिदंसणादो णेरइयसरीरमाधाकम्मं त्ति किण्ण भण्णदे। [ण] तत्थ ओद्दावण-विद्दावण-परिदावणेहिंतो आरंभाभावादो। जम्हि सरीरे ठिदाणं केसिं वि जीवाणं कम्हि वि काले ओद्दावण-विद्दावण-परिदावणेहिं मरणं संभवदि तं सरीरमाधाकम्मं णाम ण च एदं विसेसणं णेरइयसरीरे अत्थि, तत्तो तेसिमवमिच्चुवज्जियाणं मरणाभावादो। अधवा चउण्णं समूहो जेणेगं विससणं, ण तेण पुव्वुत्तदोसो। </p> | ||
<p>= <b>प्रश्न</b> - नारकियों के शरीरमें भी उपद्रावण आदि कार्य देखे जाते हैं, इसलिए उसे अधःकर्म क्यों नहीं कहते? <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि वहाँ पर उपद्रावण-विद्रावण और परितापन से आरम्भ (प्राणि प्राण वियोग) नहीं पाया जाता। जिस शरीर में स्थित किन्हीं जीवों के किसी भी कालमें उपद्रावण, विद्रावण और परितापन से मरना संभव है वह शरीर अधःकर्म है। परन्तु यह विशेषण नारकियों के शरीर में नहीं पाया जाता, क्योंकि इनसे उनकी अपमृत्यु नहीं होती, इसलिए उनका मरण नहीं होता। अथवा चूँकि उपद्रावण आदि चारों का समुदायरूप एक विशेषण है, इसलिए पूर्वोक्त दोष नहीं आता।</p> | <p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - नारकियों के शरीरमें भी उपद्रावण आदि कार्य देखे जाते हैं, इसलिए उसे अधःकर्म क्यों नहीं कहते? <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि वहाँ पर उपद्रावण-विद्रावण और परितापन से आरम्भ (प्राणि प्राण वियोग) नहीं पाया जाता। जिस शरीर में स्थित किन्हीं जीवों के किसी भी कालमें उपद्रावण, विद्रावण और परितापन से मरना संभव है वह शरीर अधःकर्म है। परन्तु यह विशेषण नारकियों के शरीर में नहीं पाया जाता, क्योंकि इनसे उनकी अपमृत्यु नहीं होती, इसलिए उनका मरण नहीं होता। अथवा चूँकि उपद्रावण आदि चारों का समुदायरूप एक विशेषण है, इसलिए पूर्वोक्त दोष नहीं आता।</p> | ||
<p>6. भोगभूमिज का शरीर अधःकर्म कैसे</p> | <p>6. भोगभूमिज का शरीर अधःकर्म कैसे</p> | ||
<p> धवला पुस्तक 13/5,4,24/47/1 एव घेप्पमाणे भोगभूमिगयमणुस्सतिरिक्खाणं सरीरमाधाकम्मं ण होज्ज, तत्थ ओद्दावणादीणमभावादो। ण ओरालियसरीरजादिदुवारेण सवाह सरीरेण सह एयत्तमावण्णस्स आधाकम्मत्तासिद्धीदो। </p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 13/5,4,24/47/1 एव घेप्पमाणे भोगभूमिगयमणुस्सतिरिक्खाणं सरीरमाधाकम्मं ण होज्ज, तत्थ ओद्दावणादीणमभावादो। ण ओरालियसरीरजादिदुवारेण सवाह सरीरेण सह एयत्तमावण्णस्स आधाकम्मत्तासिद्धीदो। </p> | ||
<p>= <b>प्रश्न</b> - जिस शरीरमें स्थित जीवों के उपद्रावण आदि अन्य के निमित्त से होते हैं, वह शरीर अधःकर्म है। इस तरह से स्वीकार करनेपर भोगभूमि के मनुष्य और तिर्यंचों का शरीर अधःकर्म नहीं हो सकेगा, क्योंकि वहाँ उपद्रावण आदि कार्य नहीं पाये जाते! <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि औदारिक शरीररूप जाति की अपेक्षा यह बाधा सहित शरीर और भोगभूमिजों का शरीर एक है, अतः उसमें अधःकर्मपने की सिद्धि हो जाती है।</p> | <p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - जिस शरीरमें स्थित जीवों के उपद्रावण आदि अन्य के निमित्त से होते हैं, वह शरीर अधःकर्म है। इस तरह से स्वीकार करनेपर भोगभूमि के मनुष्य और तिर्यंचों का शरीर अधःकर्म नहीं हो सकेगा, क्योंकि वहाँ उपद्रावण आदि कार्य नहीं पाये जाते! <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि औदारिक शरीररूप जाति की अपेक्षा यह बाधा सहित शरीर और भोगभूमिजों का शरीर एक है, अतः उसमें अधःकर्मपने की सिद्धि हो जाती है।</p> | ||
<p>• अधःकर्म विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ – देखें [[ वह वह नाम ]]।</p> | <p>• अधःकर्म विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ – देखें [[ वह वह नाम ]]।</p> | ||
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Revision as of 13:46, 10 July 2020
जिन कार्यों के करने से जीवहिंसा होती है उन्हें अधःकर्म कहते हैं। अधःकर्म युक्त किसी भी पदार्थ की मन, वचन, काय से साधुजन अनुमोदना नहीं करते और न ही ऐसा आहार व वसति आदि का ग्रहण करते हैं। इस विषय का परिचय इस अधिकार में दिया गया है।
1. आहार सम्बन्धी अधःकर्म
मूलाचार गाथा 423 छज्जीवणिकायाणां विराहणोद्दावणादिणिप्पण्णं। आधाकम्मं णेयं सम रकदमादसंपण्णं ॥423॥
= पृथ्वीकाय आदि छह कायके जीवों को दुःख देना, मारना इससे उत्पन्न जो आहारादि वस्तु वह अधःकर्म है। वह पाप क्रिया आप कर की गयी, दूसरे कर की गयी तथा आप कर अनुमोदना की गयी जानना।
धवला पुस्तक 13/5,4,21/46/8 तं ओद्दावण-विद्दावण-परिदावण-आरंभकदणिप्फन्णं तं सव्वं आधाकम्मं णाम ॥22॥ ....जीवस्य उपद्रवणम् ओद्दावणं णाम। अंगच्छेदनादिव्यापारः विद्दावणं णाम। संतापजननं परिदावणं णाम। प्राणिप्राण-वियोजनं आरंभो णाम।
= जो उपद्रावण, विद्रावण, परितापन और आरम्भ रूप कार्यसे निष्पन्न होता है, वह सब अधःकर्म है ॥22॥ ...जीवका उपद्रव करना ओद्दावण कहलाता है। अंग छेदन आदि व्यापार करना विद्दावण कहलाता है। सन्ताप उत्पन्न करना परिदावण कहलाता है और प्राणियों के प्राणों का वियोग करना आरम्भ कहलाता है।
चारित्रसार पृष्ठ 68/1 षडजीवनिकायस्योगद्रवणम् उपद्रवणम्, अंगच्छेदनादिव्यापारो विद्रावणम्, संतापजननं परितापनं, प्राणिप्राणव्यपरोपणमारम्भः, एवमुपद्रवणविद्रावणपरितापनारम्भक्रियया निष्पन्नमन्नंस्वेन कृतं परेण कारितं वानुमनितं वाधःकर्म (जनितं) तस्सेविनोऽनशनादितपांसि......प्ररक्षन्ति।
= षट्काय के जीव समूहों के लिए उपद्रव होना उपद्रवण है। जीवों के अंग छेद आदि व्यापार को विद्रावण कहते हैं। जीवों को सन्ताप (मानसिक वा अन्तरंग पीड़ा) उत्पन्न होने को परितापन कहते हैं। प्राणियों के प्राण नाश होने को आरम्भ कहते हैं। इस प्रकार उपद्रवण, विद्रावण, परितापन, आरम्भ क्रियाओं के द्वारा जो आहार तैयार किया गया हो, जो अपने हाथसे किया हो अथवा दूसरे से कराया हो, अथवा करते हुए की अनुमोदना की हो, अथवा जो नीच कर्मों से बनाया गया हो, ऐसे आहार को ग्रहण करनेवाले मुनियों के उपवासादि तपश्चरण नष्ट होते हैं।
2. वसति सम्बन्धी अधःकर्म
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 230/447 तत्रोद्गमो दोषो निरूप्यते। वृक्षच्छेदस्तदानयनं, इष्टकापाकः, भूमिखननं, पाषाणसिकतादिभिः पूरणं, धरायाः कुट्टनं, कर्दमकरणं, कीलानां करणं, अग्निनायस्तापनं कृत्वा प्राताड्य क्रकचैः काष्ठपाटनं, वासीभिस्तक्षणं, परशुभिंश्च्छेदनं इत्येवमादिव्यापारेण षण्णां जीवनिकायानां बाधां कृत्वा स्वेन वा उत्पादिता, अन्येन वा कारिता वसतिरधःकर्मशब्देनोच्यते।
= वृक्ष काटकर उनको लाना, ईंटों का समुदाय पकाना, जमीन खोदना, पाषाण, बालु इत्यादिकों से खाड़ा भरना, जमीन को कूटना, कीचड़ करना, खम्भे तैयार करना, अग्निसे लोह तपवाना, करौत से लकड़ी चीर टासीसे छीलना, कुल्हाड़ी से छेदन करना इत्यादि क्रियाओं से षट्काय जीवों को बाधा देकर स्वयं वसति बनायी हो अथवा दूसरों से बनवायी हो, वह वसति अधःकर्म के दोषसे युक्त है।
3. अधःकर्म शरीर
धवला पुस्तक 13/5,4,24/47/5 जम्हि शरीरे ठिदाणं केसिं चि जीवाणं कम्हि वि काले ओद्दावण-विद्दावण-परिदावणेहि मरणं संभवदि तं सरीराधाकम्मं णाम।
= जिस शरीर में स्थित किन्हीं जीवों के किसी भी कालमें उपद्रावण, विद्रावण और परितापन से मरना संभव है, वह शरीर अधःकर्म है।
4. नारकियों में अधःकर्म नहीं होता
धवला पुस्तक 13/5,4,31/91/5 आधाकम्म-इरियावधकम्म-तवोकम्माणि णत्थि; णेरइएसु ओरालियसरीरस्स उदयाभावादो पंचमहव्वयाभवादो। एवं सत्तसु पुढवीसु।
= अधःकर्म ईर्यापथ कर्म, और तपःकर्म नहीं होते, क्योंकि नारकियों के औदारिक शरीर का उदय और पंचमहाव्रत नहीं होते। इसी प्रकार सातों पृथिवियों में जानना चाहिए।
5. नारकियों का शरीर अधःकर्म नहीं
धवला पुस्तक 13/5,4,24/47/3 ओद्दावणादिदंसणादो णेरइयसरीरमाधाकम्मं त्ति किण्ण भण्णदे। [ण] तत्थ ओद्दावण-विद्दावण-परिदावणेहिंतो आरंभाभावादो। जम्हि सरीरे ठिदाणं केसिं वि जीवाणं कम्हि वि काले ओद्दावण-विद्दावण-परिदावणेहिं मरणं संभवदि तं सरीरमाधाकम्मं णाम ण च एदं विसेसणं णेरइयसरीरे अत्थि, तत्तो तेसिमवमिच्चुवज्जियाणं मरणाभावादो। अधवा चउण्णं समूहो जेणेगं विससणं, ण तेण पुव्वुत्तदोसो।
= प्रश्न - नारकियों के शरीरमें भी उपद्रावण आदि कार्य देखे जाते हैं, इसलिए उसे अधःकर्म क्यों नहीं कहते? उत्तर - नहीं, क्योंकि वहाँ पर उपद्रावण-विद्रावण और परितापन से आरम्भ (प्राणि प्राण वियोग) नहीं पाया जाता। जिस शरीर में स्थित किन्हीं जीवों के किसी भी कालमें उपद्रावण, विद्रावण और परितापन से मरना संभव है वह शरीर अधःकर्म है। परन्तु यह विशेषण नारकियों के शरीर में नहीं पाया जाता, क्योंकि इनसे उनकी अपमृत्यु नहीं होती, इसलिए उनका मरण नहीं होता। अथवा चूँकि उपद्रावण आदि चारों का समुदायरूप एक विशेषण है, इसलिए पूर्वोक्त दोष नहीं आता।
6. भोगभूमिज का शरीर अधःकर्म कैसे
धवला पुस्तक 13/5,4,24/47/1 एव घेप्पमाणे भोगभूमिगयमणुस्सतिरिक्खाणं सरीरमाधाकम्मं ण होज्ज, तत्थ ओद्दावणादीणमभावादो। ण ओरालियसरीरजादिदुवारेण सवाह सरीरेण सह एयत्तमावण्णस्स आधाकम्मत्तासिद्धीदो।
= प्रश्न - जिस शरीरमें स्थित जीवों के उपद्रावण आदि अन्य के निमित्त से होते हैं, वह शरीर अधःकर्म है। इस तरह से स्वीकार करनेपर भोगभूमि के मनुष्य और तिर्यंचों का शरीर अधःकर्म नहीं हो सकेगा, क्योंकि वहाँ उपद्रावण आदि कार्य नहीं पाये जाते! उत्तर - नहीं, क्योंकि औदारिक शरीररूप जाति की अपेक्षा यह बाधा सहित शरीर और भोगभूमिजों का शरीर एक है, अतः उसमें अधःकर्मपने की सिद्धि हो जाती है।
• अधःकर्म विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ – देखें वह वह नाम ।