अविशेषसमा: Difference between revisions
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<p>न्या.सू./मू.व.भा.5-1/23 एकधर्मोपपत्तेरविशेषे सर्वाविशेषप्रसंगात्सभ्दावोपपत्तेर विशेषसमः ॥23॥ एको धर्मः प्रयत्नानन्तरीयकत्वं शब्दघटयोरूपपद्यत इत्यविशेषे उभयोरनित्यत्वे सर्वस्याविशेषः प्रसज्यते।</p> | <p class="SanskritText">न्या.सू./मू.व.भा.5-1/23 एकधर्मोपपत्तेरविशेषे सर्वाविशेषप्रसंगात्सभ्दावोपपत्तेर विशेषसमः ॥23॥ एको धर्मः प्रयत्नानन्तरीयकत्वं शब्दघटयोरूपपद्यत इत्यविशेषे उभयोरनित्यत्वे सर्वस्याविशेषः प्रसज्यते।</p> | ||
<p>= विवक्षित पक्ष और दृष्टान्तव्यक्तियोंमें एक धर्मकी उपपत्ति हो जानेसे अविशेष हो जानेपर पुनः सद्भावकी उपपत्ति होनेसे सम्पूर्ण वस्तुओंके अविशेषका प्रसंग देनेसे प्रतिवादी द्वारा अविदेषसम प्रतिषेध उठाया जाता है ॥23॥ जैसे कि प्रयत्नान्तरीयकत्वरूप एक धर्म शब्द व घट दोनोंमें घटित हो जानेसे दोनोंका विशेषरहितपना स्वीकार कर चुकनेपर, पुनः प्रतिवादी द्वारा सम्पूर्ण वस्तुओंके समान हो रहे `सत्त्वं' की घटनासे सबको अन्तरहित या नित्यपनेका प्रसंग देना अविशेषसमा जाति है।</p> | <p class="HindiText">= विवक्षित पक्ष और दृष्टान्तव्यक्तियोंमें एक धर्मकी उपपत्ति हो जानेसे अविशेष हो जानेपर पुनः सद्भावकी उपपत्ति होनेसे सम्पूर्ण वस्तुओंके अविशेषका प्रसंग देनेसे प्रतिवादी द्वारा अविदेषसम प्रतिषेध उठाया जाता है ॥23॥ जैसे कि प्रयत्नान्तरीयकत्वरूप एक धर्म शब्द व घट दोनोंमें घटित हो जानेसे दोनोंका विशेषरहितपना स्वीकार कर चुकनेपर, पुनः प्रतिवादी द्वारा सम्पूर्ण वस्तुओंके समान हो रहे `सत्त्वं' की घटनासे सबको अन्तरहित या नित्यपनेका प्रसंग देना अविशेषसमा जाति है।</p> | ||
<p>( श्लोकवार्तिक पुस्तक 4/न्या.407/518/4)</p> | <p>( श्लोकवार्तिक पुस्तक 4/न्या.407/518/4)</p> | ||
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Revision as of 13:47, 10 July 2020
न्या.सू./मू.व.भा.5-1/23 एकधर्मोपपत्तेरविशेषे सर्वाविशेषप्रसंगात्सभ्दावोपपत्तेर विशेषसमः ॥23॥ एको धर्मः प्रयत्नानन्तरीयकत्वं शब्दघटयोरूपपद्यत इत्यविशेषे उभयोरनित्यत्वे सर्वस्याविशेषः प्रसज्यते।
= विवक्षित पक्ष और दृष्टान्तव्यक्तियोंमें एक धर्मकी उपपत्ति हो जानेसे अविशेष हो जानेपर पुनः सद्भावकी उपपत्ति होनेसे सम्पूर्ण वस्तुओंके अविशेषका प्रसंग देनेसे प्रतिवादी द्वारा अविदेषसम प्रतिषेध उठाया जाता है ॥23॥ जैसे कि प्रयत्नान्तरीयकत्वरूप एक धर्म शब्द व घट दोनोंमें घटित हो जानेसे दोनोंका विशेषरहितपना स्वीकार कर चुकनेपर, पुनः प्रतिवादी द्वारा सम्पूर्ण वस्तुओंके समान हो रहे `सत्त्वं' की घटनासे सबको अन्तरहित या नित्यपनेका प्रसंग देना अविशेषसमा जाति है।
( श्लोकवार्तिक पुस्तक 4/न्या.407/518/4)