एवकार: Difference between revisions
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<p>1. एवकारके 3 भेद</p> | <p>1. एवकारके 3 भेद</p> | ||
<p>घ. 11/4,2,6,177/श्लो. 7-8/317/10 विशेषणविशेष्याभ्यां क्रियया च सहोदितः। पार्थो धनुर्धरो नीलं सरोजमिति वा यथा ॥8॥ अयोगमपरैर्योगमत्यन्तायोगमेव च। व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य निपातो व्यतिरेचकः।</p> | <p class="SanskritText">घ. 11/4,2,6,177/श्लो. 7-8/317/10 विशेषणविशेष्याभ्यां क्रियया च सहोदितः। पार्थो धनुर्धरो नीलं सरोजमिति वा यथा ॥8॥ अयोगमपरैर्योगमत्यन्तायोगमेव च। व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य निपातो व्यतिरेचकः।</p> | ||
<p>= निपात अर्थात् एवकार व्यतिरेचक अर्थात् निवर्तक या नियामक होता है। विशेषण, विशेष्य और क्रियाके साथ कहा गया निपात क्रमसे अयोग, अपरयोग (अन्य योग) और अत्यन्तायोगका व्यवच्छेद करता है। जैसे-`पार्थो धनुर्धरः’, और `नीलं सरोजम्’, इन वाक्योंके साथ प्रयुक्त एवकार। (अर्थात् एवकार तीन प्रकारके होते हैं-अयोगव्यवच्छेदक, अन्ययोगव्यवच्छेदक और अत्यन्तायोगव्यवच्छेदक)। ( सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 25-26)</p> | <p class="HindiText">= निपात अर्थात् एवकार व्यतिरेचक अर्थात् निवर्तक या नियामक होता है। विशेषण, विशेष्य और क्रियाके साथ कहा गया निपात क्रमसे अयोग, अपरयोग (अन्य योग) और अत्यन्तायोगका व्यवच्छेद करता है। जैसे-`पार्थो धनुर्धरः’, और `नीलं सरोजम्’, इन वाक्योंके साथ प्रयुक्त एवकार। (अर्थात् एवकार तीन प्रकारके होते हैं-अयोगव्यवच्छेदक, अन्ययोगव्यवच्छेदक और अत्यन्तायोगव्यवच्छेदक)। ( सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 25-26)</p> | ||
<p> सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 25/1 अयं चैवकारस्त्रिविधः - अयोगव्यवच्छेदबोधकः, अन्ययोगव्यवच्छेदबोधकः, अत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधकश्च इति।</p> | <p class="SanskritText">सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 25/1 अयं चैवकारस्त्रिविधः - अयोगव्यवच्छेदबोधकः, अन्ययोगव्यवच्छेदबोधकः, अत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधकश्च इति।</p> | ||
<p>= यह अवधारण वाचक एवकार तीन प्रकारका है-एक अयोगव्यवच्छेदवीधक, दूसरा अन्ययोगव्यवच्छेदबोधक, और तीसरा अत्यन्तायोगव्यवच्छेद-बोधक।</p> | <p class="HindiText">= यह अवधारण वाचक एवकार तीन प्रकारका है-एक अयोगव्यवच्छेदवीधक, दूसरा अन्ययोगव्यवच्छेदबोधक, और तीसरा अत्यन्तायोगव्यवच्छेद-बोधक।</p> | ||
<p>2. अयोगव्यवच्छेद बोधक एवकार</p> | <p>2. अयोगव्यवच्छेद बोधक एवकार</p> | ||
<p>देखें [[ एवकार ]]' में ध. /11 विशेषणके साथ कहा गया एवकार अयोगका अर्थात् सम्बन्धके न होनेका व्यवच्छेद या व्यावृत्ति करता है।</p> | <p>देखें [[ एवकार ]]' में ध. /11 विशेषणके साथ कहा गया एवकार अयोगका अर्थात् सम्बन्धके न होनेका व्यवच्छेद या व्यावृत्ति करता है।</p> | ||
<p> सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 25/3 तत्र विशेषणसंगतैवकारोऽयोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा शङ्खः पाण्डुर एवेति। अयोगव्यवच्छेदो नाम-उद्देश्यतावच्छेदकसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्वम्। प्रकृते चोद्देश्यतावच्छेदकं शङ्खत्वं, शङ्खत्वावच्छिन्नमुद्दिश्य पाण्डुरत्वस्य विधानात् तथा च शङ्खत्वसमानाधिकरणो योऽत्यन्ताभावः न तावत्पाण्डुरत्वाभावः, किन्त्वन्याभावः।</p> | <p class="SanskritText">सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 25/3 तत्र विशेषणसंगतैवकारोऽयोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा शङ्खः पाण्डुर एवेति। अयोगव्यवच्छेदो नाम-उद्देश्यतावच्छेदकसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्वम्। प्रकृते चोद्देश्यतावच्छेदकं शङ्खत्वं, शङ्खत्वावच्छिन्नमुद्दिश्य पाण्डुरत्वस्य विधानात् तथा च शङ्खत्वसमानाधिकरणो योऽत्यन्ताभावः न तावत्पाण्डुरत्वाभावः, किन्त्वन्याभावः।</p> | ||
<p>= विशेषणके साथ अन्वित या प्रयुक्त एवकार तो अयोगकी निवृत्तिका बोध करानेवाला होता है, जैसे `शङ्खः पाण्डुर एव' शङ्ख श्वेत ही होता है। इस वाक्यमें उद्देश्यतावच्छेदकके समानाधिकरणमें रहनेवाला जो अभाव उसका जो अप्रतियोगी उसको अयोग व्यवच्छेद कहते हैं। जिस वस्तुका अभाव कहा जाता है, वह वस्तु उस अभावका प्रतियोगी होता है और जिनका अभाव नहीं है वे उस अभावके अप्रतियोगी होते हैं। अब यहाँ प्रकृत प्रसंगमें उद्देश्यताका अवच्छेदक धर्म शङ्खत्वं है, क्योंकि शङ्खत्व धर्मसे अवेच्छिन्न जो शङ्ख है उसको उद्देश्य करके पाण्डुत्व धर्मका विधान करते हैं। तात्पर्य यह है कि उद्देश्यतावच्छेदक शंखत्व नामका धर्म शंखरूप अधिकरणमें रहता है; उसमें पाण्डुत्वका अभाव तो है नहीं क्योंकि वह तो पाण्डुवर्ण ही है। इसलिए वह उस शंखमें रहने वाले अभावका अप्रतियोगी हुआ। उसके अयोग अर्थात् असम्बन्धकी निवृत्तिका बोध करनेवाला एवकार यहाँ लगाया गया है। क्रमशः- </p> | <p class="HindiText">= विशेषणके साथ अन्वित या प्रयुक्त एवकार तो अयोगकी निवृत्तिका बोध करानेवाला होता है, जैसे `शङ्खः पाण्डुर एव' शङ्ख श्वेत ही होता है। इस वाक्यमें उद्देश्यतावच्छेदकके समानाधिकरणमें रहनेवाला जो अभाव उसका जो अप्रतियोगी उसको अयोग व्यवच्छेद कहते हैं। जिस वस्तुका अभाव कहा जाता है, वह वस्तु उस अभावका प्रतियोगी होता है और जिनका अभाव नहीं है वे उस अभावके अप्रतियोगी होते हैं। अब यहाँ प्रकृत प्रसंगमें उद्देश्यताका अवच्छेदक धर्म शङ्खत्वं है, क्योंकि शङ्खत्व धर्मसे अवेच्छिन्न जो शङ्ख है उसको उद्देश्य करके पाण्डुत्व धर्मका विधान करते हैं। तात्पर्य यह है कि उद्देश्यतावच्छेदक शंखत्व नामका धर्म शंखरूप अधिकरणमें रहता है; उसमें पाण्डुत्वका अभाव तो है नहीं क्योंकि वह तो पाण्डुवर्ण ही है। इसलिए वह उस शंखमें रहने वाले अभावका अप्रतियोगी हुआ। उसके अयोग अर्थात् असम्बन्धकी निवृत्तिका बोध करनेवाला एवकार यहाँ लगाया गया है। क्रमशः- </p> | ||
<p> सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 27/4 प्रकृतेऽयोगव्यवच्छेदकस्यैवकारस्य स्वीकृतत्वात्। क्रियासङ्गस्यैवकारस्यापि क्वचिदयोगव्यवच्छेदबोधकत्वदर्शनात्। यथा ज्ञानमर्थं गृह्णात्येवेत्यादौ ज्ञानत्वसमानाधिकरणात्यान्ताभावाप्रतियोगित्वस्यार्थग्राहकत्वे धात्वर्थे बोधः।</p> | <p class="SanskritText">सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 27/4 प्रकृतेऽयोगव्यवच्छेदकस्यैवकारस्य स्वीकृतत्वात्। क्रियासङ्गस्यैवकारस्यापि क्वचिदयोगव्यवच्छेदबोधकत्वदर्शनात्। यथा ज्ञानमर्थं गृह्णात्येवेत्यादौ ज्ञानत्वसमानाधिकरणात्यान्ताभावाप्रतियोगित्वस्यार्थग्राहकत्वे धात्वर्थे बोधः।</p> | ||
<p>= प्रकृत (स्याद्स्त्येव घटः) में यद्यपि एवकार क्रियाके साथ प्रयोग किया गया है, विशेषणके साथ नहीं, परन्तु यह अयोग-व्यवच्छेदक ही स्वीकार किया गया है। कहीं कहीं क्रियाके साथ संगत एवकार भी अयोगव्यवच्छेदकबोधक अर्थमें देखा जाता है। जैसे-`ज्ञानमर्थं गृह्णात्येव' ज्ञान किसी न किसी अर्थको ग्रहण करता ही है इत्यादि उदाहरणमें उद्देश्यतावच्छेदक ज्ञानत्व धर्मके समानाधिकरणमें रहनेवाला जो अत्यन्ताभाव है उसका अप्रतियोगीजो अर्थग्राहकत्व धर्म है उसरूप धात्वर्थका बोध होता है। परन्तु सर्वथा क्रियाके साथ एवकारका प्रयोग अयोगव्यवच्छेद बोधक नहीं होता, जैसे-`ज्ञान रजतको ग्रहण करता ही है' इस उदाहरणमें, सब ही ज्ञानोंके रजतग्राहकत्वका सद्भाव न पाया जानेसे और किसी किसी ज्ञानमें उसका सद्भाव भी होनेसे यह प्रयोग अत्यन्ताभाव व्यवच्छेद बोधक है न कि अयोग-व्यवच्छेद बोधक। (न्यायकुमुद चन्द्र/भाग 2/पृ. 693)</p> | <p class="HindiText">= प्रकृत (स्याद्स्त्येव घटः) में यद्यपि एवकार क्रियाके साथ प्रयोग किया गया है, विशेषणके साथ नहीं, परन्तु यह अयोग-व्यवच्छेदक ही स्वीकार किया गया है। कहीं कहीं क्रियाके साथ संगत एवकार भी अयोगव्यवच्छेदकबोधक अर्थमें देखा जाता है। जैसे-`ज्ञानमर्थं गृह्णात्येव' ज्ञान किसी न किसी अर्थको ग्रहण करता ही है इत्यादि उदाहरणमें उद्देश्यतावच्छेदक ज्ञानत्व धर्मके समानाधिकरणमें रहनेवाला जो अत्यन्ताभाव है उसका अप्रतियोगीजो अर्थग्राहकत्व धर्म है उसरूप धात्वर्थका बोध होता है। परन्तु सर्वथा क्रियाके साथ एवकारका प्रयोग अयोगव्यवच्छेद बोधक नहीं होता, जैसे-`ज्ञान रजतको ग्रहण करता ही है' इस उदाहरणमें, सब ही ज्ञानोंके रजतग्राहकत्वका सद्भाव न पाया जानेसे और किसी किसी ज्ञानमें उसका सद्भाव भी होनेसे यह प्रयोग अत्यन्ताभाव व्यवच्छेद बोधक है न कि अयोग-व्यवच्छेद बोधक। (न्यायकुमुद चन्द्र/भाग 2/पृ. 693)</p> | ||
<p>3. अन्ययोगव्यवच्छेद बोधक एवकार</p> | <p>3. अन्ययोगव्यवच्छेद बोधक एवकार</p> | ||
<p>देखें [[ एवकार ]]' में ध. 11/ विशेष्यके साथ कहा गया एवकार अन्ययोगका व्यवच्छेद करता है; जैसे-`पार्थ ही धनुर्धर है', अर्थात् अन्य नहीं।</p> | <p>देखें [[ एवकार ]]' में ध. 11/ विशेष्यके साथ कहा गया एवकार अन्ययोगका व्यवच्छेद करता है; जैसे-`पार्थ ही धनुर्धर है', अर्थात् अन्य नहीं।</p> | ||
<p> सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 26/1 विशेष्यसङ्गतैवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदबोधकः। यथा-पार्थ एव धनुर्धरः इति। अन्ययोगव्यवच्छदो नाम विशेष्यभिन्नतादात्म्यादिव्यवच्छेदः। तत्रैवकारेण पार्थान्यतादात्म्याभावो धनुर्धरे बोध्यते। तथा च पार्थान्यतादात्म्याभाववद्धनुर्धराभिन्नः पार्थ इति बोधः।"</p> | <p class="SanskritText">सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 26/1 विशेष्यसङ्गतैवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदबोधकः। यथा-पार्थ एव धनुर्धरः इति। अन्ययोगव्यवच्छदो नाम विशेष्यभिन्नतादात्म्यादिव्यवच्छेदः। तत्रैवकारेण पार्थान्यतादात्म्याभावो धनुर्धरे बोध्यते। तथा च पार्थान्यतादात्म्याभाववद्धनुर्धराभिन्नः पार्थ इति बोधः।"</p> | ||
<p>= विशेष्यके साथ संगत जो एवकार है वह अन्य योगव्यवच्छेदरूप अर्थका बोध कराता है, जैसे-`पार्थ एव धनुर्धरः' धनुर्धर पार्थ ही है इस उदाहरणमें एवकार अन्ययोगके व्यवच्छेदका बोधक है। इस उदाहरणमें एवकार शब्दसे पार्थ से अन्य पुरुषमें रहनेवाला जो तादात्म्य वह धनुर्धरमें बोधित होता है। अर्थात् पार्थसे अन्य व्यक्तिमें धनुर्धरत्व नहीं है; ऐसा अर्थ होता है। यहाँपर धनुर्धरत्वका पार्थसे अन्यमें सम्बन्धके व्यवच्छेदका बोधक पार्थ इस विशेष्य पदके आगे एव शब्द लगाया गया है। </p> | <p class="HindiText">= विशेष्यके साथ संगत जो एवकार है वह अन्य योगव्यवच्छेदरूप अर्थका बोध कराता है, जैसे-`पार्थ एव धनुर्धरः' धनुर्धर पार्थ ही है इस उदाहरणमें एवकार अन्ययोगके व्यवच्छेदका बोधक है। इस उदाहरणमें एवकार शब्दसे पार्थ से अन्य पुरुषमें रहनेवाला जो तादात्म्य वह धनुर्धरमें बोधित होता है। अर्थात् पार्थसे अन्य व्यक्तिमें धनुर्धरत्व नहीं है; ऐसा अर्थ होता है। यहाँपर धनुर्धरत्वका पार्थसे अन्यमें सम्बन्धके व्यवच्छेदका बोधक पार्थ इस विशेष्य पदके आगे एव शब्द लगाया गया है। </p> | ||
<p>(न्यायकुमुदचन्द्र/भाग 2/पृ. 693)</p> | <p>(न्यायकुमुदचन्द्र/भाग 2/पृ. 693)</p> | ||
<p>4. अत्यन्तायोग व्यवच्छेद बोधक एवकार</p> | <p>4. अत्यन्तायोग व्यवच्छेद बोधक एवकार</p> | ||
<p>देखें [[ एवकार ]]' में ध. 11 क्रियाके साथ कहा गया एवकार अत्यन्तायोगका व्यवच्छेद करता है। सरोज नील होता ही है।</p> | <p>देखें [[ एवकार ]]' में ध. 11 क्रियाके साथ कहा गया एवकार अत्यन्तायोगका व्यवच्छेद करता है। सरोज नील होता ही है।</p> | ||
<p> सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 26/4 क्रियासङ्गतैवकारोऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा नीलं सरोजं भवत्येवेति। अत्यन्तायोगव्यवच्छेदो नाम-उद्देश्यताव्यवच्छेदकव्यापकाभावाप्रतियोगित्वम्। प्रकृते चोद्देश्यतावच्छेदकं सरोजत्वम्, तद्धर्मावच्छिन्ने नीलाभेदरूपधात्वर्थस्य विधानात्। सरोजत्वव्यापको योऽत्यन्ताभावः तावन्नीलाभेदाभावः, कस्मिंश्चित्सरोजे नीलाभेदस्यापि सत्त्वात्, अपि त्वन्याभावः, तदप्रतियोगित्वं नीलाभेदे वर्तते इति सरोजत्वव्यापकात्यन्तभावाप्रतियोगिनीलाभेदवत्सरोजवमित्युक्तस्थले बोधः।</p> | <p class="SanskritText">सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 26/4 क्रियासङ्गतैवकारोऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा नीलं सरोजं भवत्येवेति। अत्यन्तायोगव्यवच्छेदो नाम-उद्देश्यताव्यवच्छेदकव्यापकाभावाप्रतियोगित्वम्। प्रकृते चोद्देश्यतावच्छेदकं सरोजत्वम्, तद्धर्मावच्छिन्ने नीलाभेदरूपधात्वर्थस्य विधानात्। सरोजत्वव्यापको योऽत्यन्ताभावः तावन्नीलाभेदाभावः, कस्मिंश्चित्सरोजे नीलाभेदस्यापि सत्त्वात्, अपि त्वन्याभावः, तदप्रतियोगित्वं नीलाभेदे वर्तते इति सरोजत्वव्यापकात्यन्तभावाप्रतियोगिनीलाभेदवत्सरोजवमित्युक्तस्थले बोधः।</p> | ||
<p>= क्रियाके संगत जो एवकार है वह अत्यन्त अयोगके व्यवच्छेदका बोधक है। जैसे-`नीलं सरोजं भवत्येवं' कमल नील होता ही है। उद्देश्यता-अवच्छेदक धर्मका व्यापक जो अभाव उस अभावका जो अप्रतियोगी उसको अत्यन्तायोगव्यवच्छेद कहते हैं। उपरोक्त उदाहरणमें उद्देश्यतावच्छेदक धर्म सरोजत्व है, क्योंकि उसीसे अवच्छिन्न कमलको उद्देश्य करके नीलत्वका विधान है। सरोजत्वका व्यापक जो अभाव है वह नीलके अभेदका अभाव नहीं हो सकता क्योंकि किसी न किसी सरोजमें नीलका अभेद भी है। अतः नीलके अभेदका अभाव सरोजत्वका व्यापक नहीं है, किन्तु अन्य घटादिक पदार्थोंका ज्ञान सरोजत्वका व्यापक है। उस अभावकी प्रतियोगिता घट आदिमें है और अप्रतियोगिता नीलके अभेदमें है। इस रीतिसे सरोजत्वका व्यापक जो अत्यन्ताभाव उस अभावका अप्रतियोगी जो नीलाभेद उस अभेद सहित सरोज है ऐसा इस स्थानमें अर्थ होता है (भावार्थ यह है कि जहाँपर अभेद रहेगा वहाँपर अभेदका अभाव नहीं रह सकता। इसलिए सरोजत्व व्यापक अत्यन्ताभावका अप्रतियोगो नीलका अभेद हुआ और उस नीलके अभेदसे युक्त सरोज है, ऐसा अर्थ है। </p> | <p class="HindiText">= क्रियाके संगत जो एवकार है वह अत्यन्त अयोगके व्यवच्छेदका बोधक है। जैसे-`नीलं सरोजं भवत्येवं' कमल नील होता ही है। उद्देश्यता-अवच्छेदक धर्मका व्यापक जो अभाव उस अभावका जो अप्रतियोगी उसको अत्यन्तायोगव्यवच्छेद कहते हैं। उपरोक्त उदाहरणमें उद्देश्यतावच्छेदक धर्म सरोजत्व है, क्योंकि उसीसे अवच्छिन्न कमलको उद्देश्य करके नीलत्वका विधान है। सरोजत्वका व्यापक जो अभाव है वह नीलके अभेदका अभाव नहीं हो सकता क्योंकि किसी न किसी सरोजमें नीलका अभेद भी है। अतः नीलके अभेदका अभाव सरोजत्वका व्यापक नहीं है, किन्तु अन्य घटादिक पदार्थोंका ज्ञान सरोजत्वका व्यापक है। उस अभावकी प्रतियोगिता घट आदिमें है और अप्रतियोगिता नीलके अभेदमें है। इस रीतिसे सरोजत्वका व्यापक जो अत्यन्ताभाव उस अभावका अप्रतियोगी जो नीलाभेद उस अभेद सहित सरोज है ऐसा इस स्थानमें अर्थ होता है (भावार्थ यह है कि जहाँपर अभेद रहेगा वहाँपर अभेदका अभाव नहीं रह सकता। इसलिए सरोजत्व व्यापक अत्यन्ताभावका अप्रतियोगो नीलका अभेद हुआ और उस नीलके अभेदसे युक्त सरोज है, ऐसा अर्थ है। </p> | ||
<p>(न्यायकुमुदचन्द्र/भाग 2/पृ. 693)</p> | <p>(न्यायकुमुदचन्द्र/भाग 2/पृ. 693)</p> | ||
<p>• एवकार पदकी सम्यक् व मिथ्या प्रयोगविधि - देखें [[ एकान्त#2 | एकान्त - 2]]</p> | <p>• एवकार पदकी सम्यक् व मिथ्या प्रयोगविधि - देखें [[ एकान्त#2 | एकान्त - 2]]</p> | ||
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Revision as of 13:48, 10 July 2020
1. एवकारके 3 भेद
घ. 11/4,2,6,177/श्लो. 7-8/317/10 विशेषणविशेष्याभ्यां क्रियया च सहोदितः। पार्थो धनुर्धरो नीलं सरोजमिति वा यथा ॥8॥ अयोगमपरैर्योगमत्यन्तायोगमेव च। व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य निपातो व्यतिरेचकः।
= निपात अर्थात् एवकार व्यतिरेचक अर्थात् निवर्तक या नियामक होता है। विशेषण, विशेष्य और क्रियाके साथ कहा गया निपात क्रमसे अयोग, अपरयोग (अन्य योग) और अत्यन्तायोगका व्यवच्छेद करता है। जैसे-`पार्थो धनुर्धरः’, और `नीलं सरोजम्’, इन वाक्योंके साथ प्रयुक्त एवकार। (अर्थात् एवकार तीन प्रकारके होते हैं-अयोगव्यवच्छेदक, अन्ययोगव्यवच्छेदक और अत्यन्तायोगव्यवच्छेदक)। ( सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 25-26)
सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 25/1 अयं चैवकारस्त्रिविधः - अयोगव्यवच्छेदबोधकः, अन्ययोगव्यवच्छेदबोधकः, अत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधकश्च इति।
= यह अवधारण वाचक एवकार तीन प्रकारका है-एक अयोगव्यवच्छेदवीधक, दूसरा अन्ययोगव्यवच्छेदबोधक, और तीसरा अत्यन्तायोगव्यवच्छेद-बोधक।
2. अयोगव्यवच्छेद बोधक एवकार
देखें एवकार ' में ध. /11 विशेषणके साथ कहा गया एवकार अयोगका अर्थात् सम्बन्धके न होनेका व्यवच्छेद या व्यावृत्ति करता है।
सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 25/3 तत्र विशेषणसंगतैवकारोऽयोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा शङ्खः पाण्डुर एवेति। अयोगव्यवच्छेदो नाम-उद्देश्यतावच्छेदकसमानाधिकरणाभावाप्रतियोगित्वम्। प्रकृते चोद्देश्यतावच्छेदकं शङ्खत्वं, शङ्खत्वावच्छिन्नमुद्दिश्य पाण्डुरत्वस्य विधानात् तथा च शङ्खत्वसमानाधिकरणो योऽत्यन्ताभावः न तावत्पाण्डुरत्वाभावः, किन्त्वन्याभावः।
= विशेषणके साथ अन्वित या प्रयुक्त एवकार तो अयोगकी निवृत्तिका बोध करानेवाला होता है, जैसे `शङ्खः पाण्डुर एव' शङ्ख श्वेत ही होता है। इस वाक्यमें उद्देश्यतावच्छेदकके समानाधिकरणमें रहनेवाला जो अभाव उसका जो अप्रतियोगी उसको अयोग व्यवच्छेद कहते हैं। जिस वस्तुका अभाव कहा जाता है, वह वस्तु उस अभावका प्रतियोगी होता है और जिनका अभाव नहीं है वे उस अभावके अप्रतियोगी होते हैं। अब यहाँ प्रकृत प्रसंगमें उद्देश्यताका अवच्छेदक धर्म शङ्खत्वं है, क्योंकि शङ्खत्व धर्मसे अवेच्छिन्न जो शङ्ख है उसको उद्देश्य करके पाण्डुत्व धर्मका विधान करते हैं। तात्पर्य यह है कि उद्देश्यतावच्छेदक शंखत्व नामका धर्म शंखरूप अधिकरणमें रहता है; उसमें पाण्डुत्वका अभाव तो है नहीं क्योंकि वह तो पाण्डुवर्ण ही है। इसलिए वह उस शंखमें रहने वाले अभावका अप्रतियोगी हुआ। उसके अयोग अर्थात् असम्बन्धकी निवृत्तिका बोध करनेवाला एवकार यहाँ लगाया गया है। क्रमशः-
सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 27/4 प्रकृतेऽयोगव्यवच्छेदकस्यैवकारस्य स्वीकृतत्वात्। क्रियासङ्गस्यैवकारस्यापि क्वचिदयोगव्यवच्छेदबोधकत्वदर्शनात्। यथा ज्ञानमर्थं गृह्णात्येवेत्यादौ ज्ञानत्वसमानाधिकरणात्यान्ताभावाप्रतियोगित्वस्यार्थग्राहकत्वे धात्वर्थे बोधः।
= प्रकृत (स्याद्स्त्येव घटः) में यद्यपि एवकार क्रियाके साथ प्रयोग किया गया है, विशेषणके साथ नहीं, परन्तु यह अयोग-व्यवच्छेदक ही स्वीकार किया गया है। कहीं कहीं क्रियाके साथ संगत एवकार भी अयोगव्यवच्छेदकबोधक अर्थमें देखा जाता है। जैसे-`ज्ञानमर्थं गृह्णात्येव' ज्ञान किसी न किसी अर्थको ग्रहण करता ही है इत्यादि उदाहरणमें उद्देश्यतावच्छेदक ज्ञानत्व धर्मके समानाधिकरणमें रहनेवाला जो अत्यन्ताभाव है उसका अप्रतियोगीजो अर्थग्राहकत्व धर्म है उसरूप धात्वर्थका बोध होता है। परन्तु सर्वथा क्रियाके साथ एवकारका प्रयोग अयोगव्यवच्छेद बोधक नहीं होता, जैसे-`ज्ञान रजतको ग्रहण करता ही है' इस उदाहरणमें, सब ही ज्ञानोंके रजतग्राहकत्वका सद्भाव न पाया जानेसे और किसी किसी ज्ञानमें उसका सद्भाव भी होनेसे यह प्रयोग अत्यन्ताभाव व्यवच्छेद बोधक है न कि अयोग-व्यवच्छेद बोधक। (न्यायकुमुद चन्द्र/भाग 2/पृ. 693)
3. अन्ययोगव्यवच्छेद बोधक एवकार
देखें एवकार ' में ध. 11/ विशेष्यके साथ कहा गया एवकार अन्ययोगका व्यवच्छेद करता है; जैसे-`पार्थ ही धनुर्धर है', अर्थात् अन्य नहीं।
सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 26/1 विशेष्यसङ्गतैवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदबोधकः। यथा-पार्थ एव धनुर्धरः इति। अन्ययोगव्यवच्छदो नाम विशेष्यभिन्नतादात्म्यादिव्यवच्छेदः। तत्रैवकारेण पार्थान्यतादात्म्याभावो धनुर्धरे बोध्यते। तथा च पार्थान्यतादात्म्याभाववद्धनुर्धराभिन्नः पार्थ इति बोधः।"
= विशेष्यके साथ संगत जो एवकार है वह अन्य योगव्यवच्छेदरूप अर्थका बोध कराता है, जैसे-`पार्थ एव धनुर्धरः' धनुर्धर पार्थ ही है इस उदाहरणमें एवकार अन्ययोगके व्यवच्छेदका बोधक है। इस उदाहरणमें एवकार शब्दसे पार्थ से अन्य पुरुषमें रहनेवाला जो तादात्म्य वह धनुर्धरमें बोधित होता है। अर्थात् पार्थसे अन्य व्यक्तिमें धनुर्धरत्व नहीं है; ऐसा अर्थ होता है। यहाँपर धनुर्धरत्वका पार्थसे अन्यमें सम्बन्धके व्यवच्छेदका बोधक पार्थ इस विशेष्य पदके आगे एव शब्द लगाया गया है।
(न्यायकुमुदचन्द्र/भाग 2/पृ. 693)
4. अत्यन्तायोग व्यवच्छेद बोधक एवकार
देखें एवकार ' में ध. 11 क्रियाके साथ कहा गया एवकार अत्यन्तायोगका व्यवच्छेद करता है। सरोज नील होता ही है।
सप्तभंग तरंङ्गिनी पृष्ठ 26/4 क्रियासङ्गतैवकारोऽत्यन्तायोगव्यवच्छेदबोधकः, यथा नीलं सरोजं भवत्येवेति। अत्यन्तायोगव्यवच्छेदो नाम-उद्देश्यताव्यवच्छेदकव्यापकाभावाप्रतियोगित्वम्। प्रकृते चोद्देश्यतावच्छेदकं सरोजत्वम्, तद्धर्मावच्छिन्ने नीलाभेदरूपधात्वर्थस्य विधानात्। सरोजत्वव्यापको योऽत्यन्ताभावः तावन्नीलाभेदाभावः, कस्मिंश्चित्सरोजे नीलाभेदस्यापि सत्त्वात्, अपि त्वन्याभावः, तदप्रतियोगित्वं नीलाभेदे वर्तते इति सरोजत्वव्यापकात्यन्तभावाप्रतियोगिनीलाभेदवत्सरोजवमित्युक्तस्थले बोधः।
= क्रियाके संगत जो एवकार है वह अत्यन्त अयोगके व्यवच्छेदका बोधक है। जैसे-`नीलं सरोजं भवत्येवं' कमल नील होता ही है। उद्देश्यता-अवच्छेदक धर्मका व्यापक जो अभाव उस अभावका जो अप्रतियोगी उसको अत्यन्तायोगव्यवच्छेद कहते हैं। उपरोक्त उदाहरणमें उद्देश्यतावच्छेदक धर्म सरोजत्व है, क्योंकि उसीसे अवच्छिन्न कमलको उद्देश्य करके नीलत्वका विधान है। सरोजत्वका व्यापक जो अभाव है वह नीलके अभेदका अभाव नहीं हो सकता क्योंकि किसी न किसी सरोजमें नीलका अभेद भी है। अतः नीलके अभेदका अभाव सरोजत्वका व्यापक नहीं है, किन्तु अन्य घटादिक पदार्थोंका ज्ञान सरोजत्वका व्यापक है। उस अभावकी प्रतियोगिता घट आदिमें है और अप्रतियोगिता नीलके अभेदमें है। इस रीतिसे सरोजत्वका व्यापक जो अत्यन्ताभाव उस अभावका अप्रतियोगी जो नीलाभेद उस अभेद सहित सरोज है ऐसा इस स्थानमें अर्थ होता है (भावार्थ यह है कि जहाँपर अभेद रहेगा वहाँपर अभेदका अभाव नहीं रह सकता। इसलिए सरोजत्व व्यापक अत्यन्ताभावका अप्रतियोगो नीलका अभेद हुआ और उस नीलके अभेदसे युक्त सरोज है, ऐसा अर्थ है।
(न्यायकुमुदचन्द्र/भाग 2/पृ. 693)
• एवकार पदकी सम्यक् व मिथ्या प्रयोगविधि - देखें एकान्त - 2