आत्मा: Difference between revisions
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<p class="SanskritText">समयसार / आत्मख्याति गाथा 8 दर्शनज्ञानचारित्राण्यततीत्यात्मेत्यात्मपदस्याभिधेयं।</p> | <p class="SanskritText">समयसार / आत्मख्याति गाथा 8 दर्शनज्ञानचारित्राण्यततीत्यात्मेत्यात्मपदस्याभिधेयं।</p> | ||
<p class="HindiText">= दर्शन, ज्ञान, चारित्रको जो सदा प्राप्त हो वह आत्मा है।</p> | <p class="HindiText">= दर्शन, ज्ञान, चारित्रको जो सदा प्राप्त हो वह आत्मा है।</p> | ||
<p> | <p>द् रयणसार/ टी.14/46/ शुद्धचैतन्यलक्षण आत्मा।</p> | ||
<p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 57/267 अथात्मशब्दार्थः कथ्यते। `अत' धातुः सातत्यगमनेऽर्थे वर्तते। गमनशब्देनात्र ज्ञानं भण्यते, `सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था' इति वचनात्। तेन कारणने यथा संभवं ज्ञानसुखादिगुणेषु आसमन्तात् अतति वर्तते यः स आत्मा भण्यते। अथवा शुभाशुभमनो वचनकायव्यापारैर्यथासंभवं तीव्रमन्दादिरूपेण आसमन्तादतति वर्तते यः स आत्मा। अथवा उत्पादव्ययध्रौव्यैरासमन्तादतति वर्तते यः स आत्मा।</p> | <p class="SanskritText">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 57/267 अथात्मशब्दार्थः कथ्यते। `अत' धातुः सातत्यगमनेऽर्थे वर्तते। गमनशब्देनात्र ज्ञानं भण्यते, `सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था' इति वचनात्। तेन कारणने यथा संभवं ज्ञानसुखादिगुणेषु आसमन्तात् अतति वर्तते यः स आत्मा भण्यते। अथवा शुभाशुभमनो वचनकायव्यापारैर्यथासंभवं तीव्रमन्दादिरूपेण आसमन्तादतति वर्तते यः स आत्मा। अथवा उत्पादव्ययध्रौव्यैरासमन्तादतति वर्तते यः स आत्मा।</p> | ||
<p class="HindiText">= शुद्ध चैतन्य लक्षणका धारक आत्मा है। अब आत्मा शब्द का अर्थ कहते हैं। `अत' धातु निरन्तर गमन करने रूप अर्थमें है। और सब `गमनार्थक धातुज्ञानात्मक अर्थमें होती हैं' इस वचनसे यहाँपर `गमन' शब्दसे ज्ञान कहा जाता है। इस कारण जो यथासंभव ज्ञान सुखादि गुणों में सर्व प्रकार वर्तता है वह आत्मा है। अथवा शुभ अशुभ मन-वचन-कायकी क्रियाके द्वारा यथासंभव तीव्र मन्द आदी रूपसे जो पूर्ण रूपेण वर्तता है, वह आत्मा है। अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों धर्मोंके द्वारा जो पूर्ण रूपसे वर्तता है वह आत्मा है।</p> | <p class="HindiText">= शुद्ध चैतन्य लक्षणका धारक आत्मा है। अब आत्मा शब्द का अर्थ कहते हैं। `अत' धातु निरन्तर गमन करने रूप अर्थमें है। और सब `गमनार्थक धातुज्ञानात्मक अर्थमें होती हैं' इस वचनसे यहाँपर `गमन' शब्दसे ज्ञान कहा जाता है। इस कारण जो यथासंभव ज्ञान सुखादि गुणों में सर्व प्रकार वर्तता है वह आत्मा है। अथवा शुभ अशुभ मन-वचन-कायकी क्रियाके द्वारा यथासंभव तीव्र मन्द आदी रूपसे जो पूर्ण रूपेण वर्तता है, वह आत्मा है। अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों धर्मोंके द्वारा जो पूर्ण रूपसे वर्तता है वह आत्मा है।</p> |
Revision as of 19:09, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
धवला पुस्तक 13/5,5,50/282/9 आत्मा द्वादशाङ्गम् आत्मपरिणामत्वात। न च परिणामः परिणामिनी भिन्नः मुद्द्रव्यात् पृथग्भूतघटादिपर्यायानुपलम्भात्। आगमत्वं प्रत्यविशेषतो द्रव्यश्रुतस्याप्यात्मत्वं प्राप्नोतीति चेत्, न, तस्यानात्मधर्मस्योपचारेण प्राप्तागमसंज्ञस्य परमार्थतः आगमत्वाभावात्।
= द्वादशांगका नाम आत्मा है, क्योंकि वह आत्माका परिणाम है। और परिणाम परिणामीसे भिन्न होता नहीं, क्योंकि मिट्टी द्रव्यसे पृथक् भूत कोई घट आदि पर्याय पायी जाती नहीं। प्रश्न - द्रव्यश्रुत और भावश्रुत ये दोनों ही आगम सामान्य की अपेक्षा समान हैं। अतएव जिस प्रकार भावस्वरूप द्वादशांगको `आत्मा' माना है उसी प्रकार द्रव्य श्रुतके भी आत्म स्वरूपताका प्रसंग प्राप्त होता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि द्रव्यश्रुत आत्माका धर्म नहीं है। उसे जो आगम संज्ञा प्राप्त है, वह उपचारसे है। वासत्वमें वह आगम नहीं है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 8 दर्शनज्ञानचारित्राण्यततीत्यात्मेत्यात्मपदस्याभिधेयं।
= दर्शन, ज्ञान, चारित्रको जो सदा प्राप्त हो वह आत्मा है।
द् रयणसार/ टी.14/46/ शुद्धचैतन्यलक्षण आत्मा।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 57/267 अथात्मशब्दार्थः कथ्यते। `अत' धातुः सातत्यगमनेऽर्थे वर्तते। गमनशब्देनात्र ज्ञानं भण्यते, `सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था' इति वचनात्। तेन कारणने यथा संभवं ज्ञानसुखादिगुणेषु आसमन्तात् अतति वर्तते यः स आत्मा भण्यते। अथवा शुभाशुभमनो वचनकायव्यापारैर्यथासंभवं तीव्रमन्दादिरूपेण आसमन्तादतति वर्तते यः स आत्मा। अथवा उत्पादव्ययध्रौव्यैरासमन्तादतति वर्तते यः स आत्मा।
= शुद्ध चैतन्य लक्षणका धारक आत्मा है। अब आत्मा शब्द का अर्थ कहते हैं। `अत' धातु निरन्तर गमन करने रूप अर्थमें है। और सब `गमनार्थक धातुज्ञानात्मक अर्थमें होती हैं' इस वचनसे यहाँपर `गमन' शब्दसे ज्ञान कहा जाता है। इस कारण जो यथासंभव ज्ञान सुखादि गुणों में सर्व प्रकार वर्तता है वह आत्मा है। अथवा शुभ अशुभ मन-वचन-कायकी क्रियाके द्वारा यथासंभव तीव्र मन्द आदी रूपसे जो पूर्ण रूपेण वर्तता है, वह आत्मा है। अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों धर्मोंके द्वारा जो पूर्ण रूपसे वर्तता है वह आत्मा है।
2. आत्माके बहिरात्मादि 3 भेद
मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 4 तिपयारो सो अप्पा परमिंतरबाहरो दु हेऊणं। तत्थ परो झाइज्जइ अंतोवाएण चयहि बहिरप्पा ॥4॥
= सो आत्मा प्राणीनिके तीन प्रकार है-अन्तरात्मा, बहिरात्मा और परमात्मा। तहाँ अन्तरात्माके उपाय करि बहिरात्माको छोड़कर परमात्माको ध्याओ।
( समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 4), ( ज्ञानार्णव अधिकार 32/5/317), ( ज्ञानसार श्लोक 29), ( परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 1/11), ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 14/46)
का.आ./मू./192 जीवा हवंति तिविहा बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य। परमप्पा वि य दुविहा अरहंता तह य सिद्धा य ॥192॥
= जीव तीन प्रकारके हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा। परमात्माके भी दो भेद हैं-अरहंत और सिद्ध।
3. गुण स्थानोंकी अपेक्षा बहिरात्मा आदि भेद
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा ,14/49/1 अथ त्रिधात्मानं गुणस्थानेषु योजयति। मिथ्यासासादनमिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्यन्यूनाधिकभेदेन बहिरात्मा ज्ञातव्यः, अविरतगुणस्थाने तद्योग्याशुभलेश्यापरिणतो जघन्यान्तरात्मा, क्षीणकषायगुणस्थाने पुनरुत्कृष्टः, अविरतक्षीणकषाययोर्मध्ये मध्यमः, सयोग्ययोगिगुणस्थानद्वये विवक्षितैकदेशशुद्धनयेन सिद्धसदृशः परमात्मा। सिद्धस्तु साक्षात्परमात्मेति।
= अब तीनों तरहके आत्माओंको गुणस्थानोमें योजित करते हैं-मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानोमें तारतम्य न्यूनाधिक भावसे बहिरात्मा जानना चाहिए, अविरत गुणस्थानमें उसके योग्य अशुभ लेश्यासे परिणत जघन्य अन्तरात्मा है और क्षीणकषाय गुणस्थानमें उत्कृष्ट अन्तरात्मा है। अविरत और क्षीणगुणस्थानोंके बीचमें जो सात गुणस्थान हैं उनमें मध्यम अन्तरात्मा है। सयोगी और अयोगी इन दो गुणस्थानोंसे विवक्षित एकदेश शुद्ध नयकी अपेक्षा सिद्धके समान परमात्मा है और सिद्ध तो साक्षात् परमात्मा है ही।
• बहिरात्मा, अन्तरात्मा व परमात्मा - देखें वह वह नाम ।
4. एक आत्माके तीन भेद करनेका प्रयोजन
समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 4 बहिरन्तः परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु। उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद् बहिस्त्यजेत् ॥4॥
= सर्व प्राणियोंमे बहिरात्मा अन्तरात्मा और परमात्मा इन तरह तीन प्रकारका आत्मा है। आत्माके उन तीन भेदोंमें-से अन्तरात्माके उपाय-द्वारा परमात्माको अंगीकार करें-अपनावें और बहिरात्माको छोड़े।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 1/12/19 अप्पा तिविहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ। मुणि सण्णाणे णाणमउ जो परमप्प-सहाउ ॥12॥
= हे प्रभाकर भट्ट, तू आत्मा को ती प्रकारका जानकर बहिरात्म स्वरूप भावको शीघ्र ही छोड़, और जो परमात्माका स्वभाव है उसे स्वसंवेदन ज्ञानसे अन्तरात्मा होता हुआ जान। वह स्वभाव केवलज्ञान करि परिपूर्ण है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 14/46 अव बहिरात्मा हेयः उपादेयभूतस्यानन्तसुखसाधकत्वादन्तरात्मोपादेयः, परमात्मा पुनः साक्षादुपादेय इत्यभिप्रायः।
= यहाँ बहिरात्मा तो हेय है और उपादेयभूत (परमात्माके) अनन्त सुखका साधक होनेसे अन्तरात्मा उपादेय है, और परमात्मा साक्षात् उपादेय है।
• जीवको आत्मा कहनेकी विवक्षा - देखें जीव
• आत्मा ही कथंचित प्रमाण है - देखें प्रमाण
• शुद्धात्माके अपर नाम - देखें मोक्षमार्ग - 2.5
पुराणकोष से
(1) अतति इति इस व्यूत्पत्ति से नर, नारक आदि अनेक पर्यायों में गमनशील तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन लक्षणों युक्त जीव द्रव्य । यह शरीर सबंध से रूपी और मुक्त दशा में रूप रहित या अमूर्त होता है । आत्मा अनादिकालीन मिथ्यात्व के उदय से स्वयं ही स्वयं को दुःख देता है । इसके दो भेद है― संसारी और मुक्त । संसारी और मुक्त दशाओं के कारण ही इसके तीन भेद भी हैं― बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । आत्मा के अस्तित्व और अनस्तित्व को लेकर राजा महाबल के जन्मोत्सव के समय स्वयं बुद्ध, महामति, सम्भिन्नमति और शतमति नाम के दार्शनिक मंत्रियों ने अपने विचार प्रकट किये थे । महापुराण 5.13-87, 24.107,110, 46.193-195, 55.15, 67-5, वीरवर्द्धमान चरित्र 16.66
(2) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 42. 113