अनगारधर्म: Difference between revisions
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[[रयणसार]] गाथा संख्या ११... झाणाझयणं मुक्ख जइधम्मं ण तं विणा तहा सोवि ।।११।। <br>= ध्यान और अध्ययन करना मुनीश्वरों का मुख्य धर्म है। जो मुनिराज इन दोनों को अपना मुख्य कर्तव्य समझकर अहर्निश पालन करता है, वही मुनीश्वर है, मोक्ष मार्गमें संलग्न है। अन्यथा वह मुनीश्वर नहीं है।< | [[रयणसार]] गाथा संख्या ११... झाणाझयणं मुक्ख जइधम्मं ण तं विणा तहा सोवि ।।११।। <br> | ||
<p class="HindiSentence">= ध्यान और अध्ययन करना मुनीश्वरों का मुख्य धर्म है। जो मुनिराज इन दोनों को अपना मुख्य कर्तव्य समझकर अहर्निश पालन करता है, वही मुनीश्वर है, मोक्ष मार्गमें संलग्न है। अन्यथा वह मुनीश्वर नहीं है।</p> | |||
[[पद्मनन्दि पंचविंशतिका]] अधिकार संख्या १/३८ आचारो दशधर्मसंयमतपोमूलोत्तराख्या गुणाः मिथ्यामोहमदोज्झनं शमदमध्यानप्रमादस्थितिः। वैराग्यं समयोपबृंहणगुणा रत्नत्रयं निर्मलं पर्यन्ते च समाधिरक्षयपदानन्दाय धर्मो यतेः ।।३८।। <br> | |||
<p class="HindiSentence">= ज्ञानाचारादि स्वरूप पाँच प्रकार का आचार, उत्तम क्षमादि रूप दश प्रकार का धर्म, संयम, तप तथा मूलगुण और उत्तरगुण, मिथ्यात्व, मोह एवं मद का त्याग, कषायों का शमन, इन्द्रियों का दमन, ध्यान, प्रमाद रहित अवस्थान, संसार, शरीर एवं इन्द्रिय विषयों से विरक्ति, धर्म को बढ़ानेवाले अनेकों गुण, निर्मल रत्नत्रय तथा अन्तमें समाधिमरण यह सब मुनियों का धर्म है जो अविनश्वर मोक्षपद के आनन्द का कारण है।</p> | |||
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Revision as of 13:34, 1 May 2009
रयणसार गाथा संख्या ११... झाणाझयणं मुक्ख जइधम्मं ण तं विणा तहा सोवि ।।११।।
= ध्यान और अध्ययन करना मुनीश्वरों का मुख्य धर्म है। जो मुनिराज इन दोनों को अपना मुख्य कर्तव्य समझकर अहर्निश पालन करता है, वही मुनीश्वर है, मोक्ष मार्गमें संलग्न है। अन्यथा वह मुनीश्वर नहीं है।
पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार संख्या १/३८ आचारो दशधर्मसंयमतपोमूलोत्तराख्या गुणाः मिथ्यामोहमदोज्झनं शमदमध्यानप्रमादस्थितिः। वैराग्यं समयोपबृंहणगुणा रत्नत्रयं निर्मलं पर्यन्ते च समाधिरक्षयपदानन्दाय धर्मो यतेः ।।३८।।
= ज्ञानाचारादि स्वरूप पाँच प्रकार का आचार, उत्तम क्षमादि रूप दश प्रकार का धर्म, संयम, तप तथा मूलगुण और उत्तरगुण, मिथ्यात्व, मोह एवं मद का त्याग, कषायों का शमन, इन्द्रियों का दमन, ध्यान, प्रमाद रहित अवस्थान, संसार, शरीर एवं इन्द्रिय विषयों से विरक्ति, धर्म को बढ़ानेवाले अनेकों गुण, निर्मल रत्नत्रय तथा अन्तमें समाधिमरण यह सब मुनियों का धर्म है जो अविनश्वर मोक्षपद के आनन्द का कारण है।