क्रियावाद: Difference between revisions
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<li name="13" id="13"><span class="HindiText"> क्रियावाद का मिथ्या रूप</span><br /> | <li name="13" id="13"><span class="HindiText"> क्रियावाद का मिथ्या रूप</span><br /> | ||
राजवार्तिक/ भूमिका/6/1/22 <span class="SanskritText">अपर आहु:–क्रियात एव मोक्ष इति नित्यकर्महेतुकं निर्वाणमिति वचनात् ।</span>=<span class="HindiText">कोई क्रिया से ही मोक्ष मानते हैं। क्रियावादियों का कथन है कि नित्य कर्म करने से ही निर्वाण को प्राप्त होता है।</span><br /> | |||
भावपाहुड़ टीका/135/283/15 <span class="SanskritText">अशीत्यग्रं शतं क्रियावादिनां श्राद्धादिक्रियामन्यमानानां ब्राह्मणानां भवति।</span>=<span class="HindiText">क्रियावादियों के 180 भेद हैं। वे श्राद्ध आदि क्रियाओं को मानने वाले ब्राह्मणों के होते हैं।</span><br> | |||
ज्ञानार्णव/4/25 <span class="SanskritText">कैश्चिच्च कीर्त्तिता मुक्तिर्दर्शनादेव केवलम् । वादिनां खलु सर्वेषामपाकृत्य नयान्तरम् ।24।</span>=<span class="HindiText">और कई वादियों ने अन्य समस्त वादियों के अन्य नयपक्षों का निराकरण करके केवल दर्शन (श्रद्धा) से ही मुक्ति होनी कही है। </span><br>गो.क./भाषा/878/1064/11 <span class="HindiText">क्रियावादीनि वस्तु कूं अस्तिरूप ही मानकरि क्रिया का स्थापन करें हैं। तहाँ आपतैं कहिये अपने स्वरूप चतुष्टय की अस्ति मानै हैं, अर परतै कहिए परचतुष्टयतै भी अस्तिरूप मानै हैं। भावपाहुड़/ भाषा/137 पं॰ जयचन्द—केई तो गमन करना, बैठना, खड़ा रहना, खाना, पीना, सोवनां, उपजनां, विनसनां, देखनां, जाननां, करनां, भोगनां, भूलनां, याद करनां, प्रीति करनां, हर्ष करनां, विषाद करनां, द्वेष करनां, जीवनां, मरनां इत्यादि क्रिया हैं तिनिकूं जीवादिक पदार्थनिकै देखि कोई कैसी क्रिया का पक्ष किया है, कोई कैसी क्रिया का पक्ष किया है। ऐसे परस्पर क्रियावाद करि भेद भये है तिनिकै संक्षेप करि एक सौ अस्सी भेद निरूपण किये हैं, विस्तार किये बहुत होय है।</span></li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> क्रियावादियों के 180 भेद</strong></span><strong><br></strong> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> क्रियावादियों के 180 भेद</strong></span><strong><br></strong> राजवार्तिक/1/20/12/74/3 <span class="SanskritText">कौत्कल-काणेविद्धि-कौशिक-हरिस्मश्रु-मांछपि-करोमश-हारीत-मुण्डाश्वलायनादीनां क्रियावाददृष्टीनामशीतिशतम् ।</span>=<span class="HindiText">कौत्कल, काणेविद्धि, कौशिक, हरिस्मश्रु, मांछपिक, रोमश, हारीत, मुण्ड, आश्वलायन आदि क्रियावादियों के 180 भेद हैं। ( राजवार्तिक/8/1/9/562/2 ); ( धवला 9/4,1,45/203/2 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/360/770/11 ) हरिवंशपुराण/10/49-51 </span><span class="SanskritText">नियतिश्च स्वभावश्च कालो दैवं च पौरुषम् । पदार्था नव जीवाद्या स्वपरौ नित्यतापरौ।49। पञ्चभिर्नियतिपृष्टैश्चतुर्भि: स्वपरादिभि:। एकैकस्यात्र जीवादेर्योगेऽशीत्युत्तरं शतम् ।50। नियत्यास्ति स्वतो जीव: परतो नित्यतोऽन्यत:। स्वभावात्कालतो दैवात् पौरुषाच्च तथेतरे।</span>=<span class="HindiText">(अस्ति) (स्वत:, परत:, नित्य, अनित्य)। (जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष), (काल, ईश्वर, आत्म, नियति, स्वभाव), इनमें पदनि के बदलनेतैं अक्ष संचार करि 1×4×9×5 के परस्पर गुणनरूप 180 क्रियावादिनि के भंग हैं। ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड/877 )।</span></li> | ||
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Revision as of 19:10, 17 July 2020
- क्रियावाद का मिथ्या रूप
राजवार्तिक/ भूमिका/6/1/22 अपर आहु:–क्रियात एव मोक्ष इति नित्यकर्महेतुकं निर्वाणमिति वचनात् ।=कोई क्रिया से ही मोक्ष मानते हैं। क्रियावादियों का कथन है कि नित्य कर्म करने से ही निर्वाण को प्राप्त होता है।
भावपाहुड़ टीका/135/283/15 अशीत्यग्रं शतं क्रियावादिनां श्राद्धादिक्रियामन्यमानानां ब्राह्मणानां भवति।=क्रियावादियों के 180 भेद हैं। वे श्राद्ध आदि क्रियाओं को मानने वाले ब्राह्मणों के होते हैं।
ज्ञानार्णव/4/25 कैश्चिच्च कीर्त्तिता मुक्तिर्दर्शनादेव केवलम् । वादिनां खलु सर्वेषामपाकृत्य नयान्तरम् ।24।=और कई वादियों ने अन्य समस्त वादियों के अन्य नयपक्षों का निराकरण करके केवल दर्शन (श्रद्धा) से ही मुक्ति होनी कही है।
गो.क./भाषा/878/1064/11 क्रियावादीनि वस्तु कूं अस्तिरूप ही मानकरि क्रिया का स्थापन करें हैं। तहाँ आपतैं कहिये अपने स्वरूप चतुष्टय की अस्ति मानै हैं, अर परतै कहिए परचतुष्टयतै भी अस्तिरूप मानै हैं। भावपाहुड़/ भाषा/137 पं॰ जयचन्द—केई तो गमन करना, बैठना, खड़ा रहना, खाना, पीना, सोवनां, उपजनां, विनसनां, देखनां, जाननां, करनां, भोगनां, भूलनां, याद करनां, प्रीति करनां, हर्ष करनां, विषाद करनां, द्वेष करनां, जीवनां, मरनां इत्यादि क्रिया हैं तिनिकूं जीवादिक पदार्थनिकै देखि कोई कैसी क्रिया का पक्ष किया है, कोई कैसी क्रिया का पक्ष किया है। ऐसे परस्पर क्रियावाद करि भेद भये है तिनिकै संक्षेप करि एक सौ अस्सी भेद निरूपण किये हैं, विस्तार किये बहुत होय है।
- क्रियावाद का सम्यक् रूप—देखें चारित्र - 6।
- क्रियावादियों के 180 भेद
राजवार्तिक/1/20/12/74/3 कौत्कल-काणेविद्धि-कौशिक-हरिस्मश्रु-मांछपि-करोमश-हारीत-मुण्डाश्वलायनादीनां क्रियावाददृष्टीनामशीतिशतम् ।=कौत्कल, काणेविद्धि, कौशिक, हरिस्मश्रु, मांछपिक, रोमश, हारीत, मुण्ड, आश्वलायन आदि क्रियावादियों के 180 भेद हैं। ( राजवार्तिक/8/1/9/562/2 ); ( धवला 9/4,1,45/203/2 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/360/770/11 ) हरिवंशपुराण/10/49-51 नियतिश्च स्वभावश्च कालो दैवं च पौरुषम् । पदार्था नव जीवाद्या स्वपरौ नित्यतापरौ।49। पञ्चभिर्नियतिपृष्टैश्चतुर्भि: स्वपरादिभि:। एकैकस्यात्र जीवादेर्योगेऽशीत्युत्तरं शतम् ।50। नियत्यास्ति स्वतो जीव: परतो नित्यतोऽन्यत:। स्वभावात्कालतो दैवात् पौरुषाच्च तथेतरे।=(अस्ति) (स्वत:, परत:, नित्य, अनित्य)। (जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष), (काल, ईश्वर, आत्म, नियति, स्वभाव), इनमें पदनि के बदलनेतैं अक्ष संचार करि 1×4×9×5 के परस्पर गुणनरूप 180 क्रियावादिनि के भंग हैं। ( गोम्मटसार कर्मकाण्ड/877 )।