निषेध: Difference between revisions
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<p> | <p> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/275-276 <span class="SanskritGatha">सामान्यविधिरूपं प्रतिषेधात्मा भवति विशेषश्च। उभयोरन्यतरस्योन्मग्नत्वादस्ति नास्तीति।275। तत्र निरंशो विधिरिति स यथा स्वयं सदिति। तदिह विभज्य विभागै: प्रतिषेधश्चांशकल्पनं तस्य।276।</span> =<span class="HindiText">विधिरूप वर्तना सामान्य काल (स्वकाल) है और निषेधस्वरूप विशेषकाल कहलाता है। तथा इनमें से किसी एक की मुख्य विवक्षा होने से अस्ति नास्ति रूप विकल्प होते हैं।275। उनमें अंश कल्पना का न होना ही विधि है; क्योंकि स्वयं सब सत् रूप है। और उसमें अंश कल्पना द्वारा विभाग करना प्रतिषेध है। (विशेष देखें [[ सप्तभंगी#4 | सप्तभंगी - 4]])। </span></p> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> प्रतिषेध के भेद—पर्युदास व प्रसज्य–देखें [[ अभाव ]]।</strong></span> | <li><span class="HindiText"><strong> प्रतिषेध के भेद—पर्युदास व प्रसज्य–देखें [[ अभाव ]]।</strong></span> |
Revision as of 19:11, 17 July 2020
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/275-276 सामान्यविधिरूपं प्रतिषेधात्मा भवति विशेषश्च। उभयोरन्यतरस्योन्मग्नत्वादस्ति नास्तीति।275। तत्र निरंशो विधिरिति स यथा स्वयं सदिति। तदिह विभज्य विभागै: प्रतिषेधश्चांशकल्पनं तस्य।276। =विधिरूप वर्तना सामान्य काल (स्वकाल) है और निषेधस्वरूप विशेषकाल कहलाता है। तथा इनमें से किसी एक की मुख्य विवक्षा होने से अस्ति नास्ति रूप विकल्प होते हैं।275। उनमें अंश कल्पना का न होना ही विधि है; क्योंकि स्वयं सब सत् रूप है। और उसमें अंश कल्पना द्वारा विभाग करना प्रतिषेध है। (विशेष देखें सप्तभंगी - 4)।
- प्रतिषेध के भेद—पर्युदास व प्रसज्य–देखें अभाव ।