नैगम आदि का सामान्य निर्देश: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText" name="III.1.1" id="III.1.1"> सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.1" id="III.1.1"> सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/140/8 <span class="SanskritText">स द्वेधा द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति।...तयोर्भेदा नैगमादय:।</span> =<span class="HindiText">नय के दो भेद हैं‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। इन दोनों नयों के उत्तर भेद नैगमादि हैं। </span>( राजवार्तिक/1/33/1/94/25 ) (देखें [[ नय#I.1.4 | नय - I.1.4]])<br /> | |||
धवला 9/4,1,45/ पृष्ठ/पंक्ति‒स, <span class="SanskritText">एवंविधो नयो द्विविध:, द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति। (167/10)। तत्र योऽसौ द्रव्यार्थिकनय: स त्रिविधो नैगमसंग्रहव्यवहारभेदेन।(168/4)। पर्यायार्थिको नयश्चतुर्विध: ऋजुसूत्रशब्द-समभिरूढैवंभूतभेदेन।</span>((171/7)।=<span class="HindiText">इस प्रकार की वह नय दो प्रकार है‒द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक। तहां जो द्रव्यार्थिक नय है वह तीन प्रकार है‒नैगम, संग्रह व व्यवहार। पर्यायार्थिकनय चार प्रकार है‒ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ व एवंभूत ( धवला 1/1,1,1/ गा.5-7/12-13), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/181-182/ गा.87-89/218-220), ( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लो.3/215) ( हरिवंशपुराण/58/42 ), ( धवला 1/1,1,1/83/10 +84/2+85/2+86/3+86/6); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/177/211/4 +182/219/1 +184/222/1 + 197/235/1); ( नयचक्र बृहद्/ श्रुत/217) (न.च./पृ.20) ( तत्त्वसार/1/41-42/36 ); ( स्याद्वादमञ्जरी/82/317/1 +318/22)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.1.2" id="III.1.2">इनमें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग का कारण</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.2" id="III.1.2">इनमें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग का कारण</span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/84/7 <span class="SanskritText">एते त्रयोऽपि नया: नित्यवादिन: स्वविषये पर्यायाभावत: सामान्यविशेषकालयोरभावात् ।...द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययो: किंकृतो भेदश्चेदुच्यते ऋजुसूत्रवचनविच्छेदो मूलाधारो येषां नयानां ते पर्यायार्थिका:। विच्छिद्यतेऽस्मिन्काल इति विच्छेद:। ऋजुसूत्रवचनं नाम वर्तमानवचनं, तस्य विच्छेद: ऋजुसूत्रवचनविच्छेद:। स कालो मूलाधारो येषां नयानां ते पर्यायार्थिका:। ऋजुसूत्रवचनविच्छेदादारम्य आ एक समयाद्वस्तुस्थित्यध्यवसायिन: पर्यायार्थिका इति यावत् ।</span>=<span class="HindiText">ये तीनों ही (नैगम, संग्रह और व्यवहार) नय नित्यवादी हैं, क्योंकि इन तीनों ही नयों का विषय पर्याय न होने के कारण इन तीनों नयों के विषय में सामान्य और विशेषकाल का अभाव है। (अर्थात इन तीनों नयों में काल की विवक्षा नहीं होती।) प्रश्न‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक में किस प्रकार भेद है? उत्तर‒ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों का विच्छेद जिस काल में होता है, वह (काल) जिन नयों का मूल आधार है, वे पर्यायार्थिक नय हैं। विच्छेद अथवा अन्त जिसकाल में होता है, उस काल को विच्छेद कहते हैं। वर्तमान वचन को ऋजुसूत्रवचन कहते हैं और उसके विच्छेद को ऋजुसूत्रवचनविच्छेद कहते हैं। वह ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों का विच्छेदरूप काल जिन नयों का मूल आधार है उन्हें पर्यायार्थिकनय कहते हैं। अर्थात् ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों के विच्छेदरूप समय से लेकर एकसमय पर्यन्त वस्तु की स्थिति का निश्चय करने वाले पर्यायार्थिक नय हैं। (भावार्थ‒’देवदत्त’ इस शब्द का अन्तिम अक्षर ‘त’ मुख से निकल चुकने के पश्चात् से लेकर एक समय आगे तक ही देवदत्त नाम का व्यक्ति है, दूसरे समय में वह कोई अन्य हो गया है। ऐसा पर्यायार्थिक नय का मन्तव्य है। ( कषायपाहुड़ 1/13-14/185/223/3 )<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.1.3" id="III.1.3"> सातों में अर्थ शब्द व ज्ञाननय विभाग </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.3" id="III.1.3"> सातों में अर्थ शब्द व ज्ञाननय विभाग </span><br /> | ||
राजवार्तिक/4/42/17/361/2 <span class="SanskritText">संग्रहव्यवहारर्जुसूत्रा अर्थनया:। शेषा: शब्दनया:।</span>=<span class="HindiText">संग्रह, व्यवहार, व ऋजुसूत्र ये अर्थनय हैं और शेष (शब्द, समभिरूढ और एवंभूत) शब्द या व्यंजननय हैं। </span>( धवला 9/4,1,45/181/1 )।<br /> | |||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लो.81/269<span class="SanskritGatha"> तत्रर्जुसूत्रपर्यन्ताश्चत्वारोऽर्थनया मता:। त्रय: शब्दनया: शेषा: शब्दवाच्यार्थगोचरा:।81।</span>=<span class="HindiText">इन सातों में से नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय तो अर्थनय मानी गयी हैं, और शेष तीन (शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत) वाचक शब्द द्वारा अर्थ को विषय करने वाले शब्दनय हैं। ( धवला 1/1,1,1/86/3 ), ( कषायपाहुड़ 1/184/222/1 +197/1), ( नयचक्र बृहद्/217 ) ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.20) ( तत्त्वसार/1/43 ) (स्या.प्र./28/319/29)।<br /> | |||
नोट‒यद्यपि ऊपर कहीं भी ज्ञाननय का जिक्र नहीं किया गया है, परन्तु जैसा कि आगे नैगमनय के लक्षणों पर से विदित है, इनमें से नैगमनय ज्ञाननय व अर्थनय दोनों रूप है। अर्थ को विषय करते समय यह अर्थनय है और संकल्प मात्र को ग्रहण करते समय ज्ञाननय है। इसके भूत, भावी आदि भेद भी ज्ञान को ही आश्रय करके किये गये हैं, क्योंकि वस्तु की भूत भावी पर्यायें वस्तु में नहीं ज्ञान में रहती हैं (देखें [[ नय#III.3.6 | नय - III.3.6 ]]में | नोट‒यद्यपि ऊपर कहीं भी ज्ञाननय का जिक्र नहीं किया गया है, परन्तु जैसा कि आगे नैगमनय के लक्षणों पर से विदित है, इनमें से नैगमनय ज्ञाननय व अर्थनय दोनों रूप है। अर्थ को विषय करते समय यह अर्थनय है और संकल्प मात्र को ग्रहण करते समय ज्ञाननय है। इसके भूत, भावी आदि भेद भी ज्ञान को ही आश्रय करके किये गये हैं, क्योंकि वस्तु की भूत भावी पर्यायें वस्तु में नहीं ज्ञान में रहती हैं (देखें [[ नय#III.3.6 | नय - III.3.6 ]]में श्लोकवार्तिक )। इसके अतिरिक्त भी ऊपर के दो प्रमाणों में प्रथम प्रमाण में इस नय को अर्थनयरूप से ग्रहण न करने का भी यही कारण प्रतीत होता है। दूसरे प्रमाण में इसे अर्थनय कहना भी विरोध को प्राप्त नहीं होता क्योंकि यह ज्ञाननय होने के साथ-साथ अर्थनय भी अवश्य है।)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.1.4" id="III.1.4"> सातों में अर्थ, शब्दनय विभाग का कारण</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.4" id="III.1.4"> सातों में अर्थ, शब्दनय विभाग का कारण</span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/86/3 <span class="SanskritText">अर्थनय: ऋजुसूत्र:। कुत:। ऋजु प्रगुणं सूत्रयतीति तत्सिद्धे:।...सन्त्वेतेऽर्थनया: अर्थव्यापृतत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">शब्दभेद की विवक्षा न करके केवल पदार्थ के धर्मों का निश्चय करने वाला अर्थनय है, और शब्दभेद से उसमें भेद करने वाला व्यंजननय है‒देखें [[ नय#I.4.2 | नय - I.4.2]]) यहां ऋजुसूत्रनय को अर्थनय समझना चाहिए। क्योंकि ऋजु सरल अर्थात् वर्तमान समयवर्ती पर्याय मात्र को जो ग्रहण करे उसे ऋजुसूत्रनय कहते हैं। इस तरह वर्तमान पर्यायरूप से अर्थ को ग्रहण करने वाला होने के कारण यह नय अर्थनय है, यह बात सिद्ध हो जाती है। अर्थ को विषय करने वाले होने के कारण नैगम, संग्रह और व्यवहार भी अर्थनय हैं। (शब्दभेद की अपेक्षा करके अर्थ में भेद डालने वाले होने के कारण शेष तीन नय व्यंजननय हैं।)</span><br /> | |||
स्याद्वादमञ्जरी/28/310/16 <span class="SanskritText">अभिप्रायस्तावद् अर्थद्वारेण शब्दद्वारेण वा प्रवर्तते, गत्यन्तराभावात् । तत्र ये केचनार्थनिरूपणप्रवणा: प्रमात्राभिप्रायास्ते सर्वेऽपि आद्ये नयचतुष्टयेऽन्तर्भवन्ति। ये च शब्दविचारचतुरास्ते शब्दादिनयत्रये इति।</span>=<span class="HindiText">अभिप्राय प्रगट करने के दो ही द्वार हैं‒अर्थ या शब्द। क्योंकि, इनके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। तहां प्रमाता के जो अभिप्राय अर्थ का प्ररूपण करने में प्रवीण हैं वे तो अर्थनय हैं जो नैगमादि चार नयों में अन्तर्भूत हो जाते हैं और जो शब्द विचार करने में चतुर हैं वे शब्दादि तीन व्यंजननय हैं। ( स्याद्वादमञ्जरी/28/319/29 )।<br /> | |||
देखें [[ नय#I.4.5 | नय - I.4.5 ]]शब्दनय केवल शब्द को विषय करता है अर्थ को नहीं।<br /> | देखें [[ नय#I.4.5 | नय - I.4.5 ]]शब्दनय केवल शब्द को विषय करता है अर्थ को नहीं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.1.5" id="III.1.5"> नौ भेद कहना भी विरुद्ध नहीं</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.5" id="III.1.5"> नौ भेद कहना भी विरुद्ध नहीं</span><br /> | ||
धवला 9/4,1,45/181/4 <span class="SanskritText">नव नया: क्वचिच्छ्रूयन्त इति चेन्न नयानामियत्तासंख्यानियमाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒कहीं पर नौ नय सुने जाते हैं ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि ‘नय इतने हैं’ ऐसी संख्या के नियम का अभाव है। (विशेष देखें [[ नय#I.5.5 | नय - I.5.5]]) ( कषायपाहुड़/1/13-14/202/245/2 )<br /> | |||
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<li> <span class="HindiText" name="III.1.6" id="III.1.6">पूर्व पूर्व का नय अगले अगले का कारण है</span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.1.6" id="III.1.6">पूर्व पूर्व का नय अगले अगले का कारण है</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/7 <span class="SanskritText">एषां क्रम: पूर्वपूर्वहेतुकत्वाच्च।</span>=<span class="HindiText">पूर्व पूर्व का नय अगले-अगले नय का हेतु है, इसलिए भी यह क्रम (नैगम, संग्रह, व्यवहार एवंभूत) कहा गया है। ( राजवार्तिक/1/33/12/99/17 ) ( श्लोकवार्तिक/ पु.4/1/33/श्लो.82/269)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.1.7" id="III.1.7"> सातों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.7" id="III.1.7"> सातों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/7 <span class="SanskritText">उत्तरोत्तरसूक्ष्मविषयत्वादेषां क्रम:...। एवमेते नया: पूर्वपूर्वविरुद्धमहाविषया उत्तरोत्तरानुकूलाल्पविषया:।</span>=<span class="HindiText">उत्तरोत्तर सूक्ष्मविषय वाले होने के कारण इनका यह क्रम कहा है। इस प्रकार ये नय पूर्व पूर्व विरुद्ध महा विषयवाले और उत्तरोत्तर अनुकूल अल्प विषयवाले हैं ( राजवार्तिक/1/33/12/99/17 ), ( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लो.82/269), ( हरिवंशपुराण/58/50 ), ( तत्त्वसार/1/43 )</span><br /> | |||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.98,100/289 <span class="SanskritText">यत्र प्रवर्त्तते स्वार्थे नियमादुत्तरो नय:। पूर्वपूर्वनयस्तत्र वर्तमानो न वार्यते।98। पूर्वत्र नोत्तरा संख्या यथायातानुवर्त्यते। तथोत्तरनय: पूर्वनयार्थसकले सदा।100।</span>=<span class="HindiText">जहां जिस अर्थ को विषय करने वाला उत्तरवर्ती नय नियम से प्रवर्तता है तिस तिस में पूर्ववर्तीनय की प्रवृत्ति नहीं रोकी जा सकती।98। परन्तु उत्तरवर्ती नयें पूर्ववर्ती नयों के पूर्ण विषय में नहीं प्रवर्तती हैं। जैसे बड़ी संख्या में छोटी संख्या समा जाती है पर छोटी में बड़ी नहीं (पूर्व पूर्व का विरुद्ध विषय और उत्तर उत्तर का अनुकूल विषय होने का भी यही अर्थ है ( राजवार्तिक/ हि./1/33/12/494)</span><br /> | |||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.82-89/269 <span class="SanskritText">पूर्व: पूर्वो नयो भूमविषय: कारणात्मक:। पर: पर: पुन: सूक्ष्मगोचरो हेतुमानिह।82। सन्मात्रविषयत्वेन संग्रहस्य न युज्यते। महाविषयताभावाभावार्थान्नैगममान्नयात् ।83। यथा हि सति संकल्पस्यैवासति वेद्यते। तत्र प्रवर्तमानस्य नैगमस्य महार्थता।84। संग्रहाद्वयवहारोऽपि सद्विशेषावबोधक:। न भूमविषयोऽशेषसत्समूहोपदर्शिन:।85। नर्जूसूत्र: प्रभूतार्थो वर्तमानार्थगोचर:। कालात्रितयवृत्त्यर्थगोचराद्वयवहारत:।86। कालादिभेदतोऽप्यर्थमभिन्नमुपगच्छत:। नर्जुसूत्रान्महार्थोऽत्रशब्दस्तद्विपरीतवित् ।87। शब्दात्पर्यायभेदाभिन्नमर्थमभीप्सित:। न स्यात्समभिरूढोऽपि महार्थस्तद्विपर्यय:।88। क्रियाभेदेऽपि चाभिन्नमर्थमभ्युपगच्छत:। नैवंभूत: प्रभूतार्थो नय: समभिरूढत:।89।</span>=<span class="HindiText">इन नयों में पहले पहले के नय अधिक विषयवाले हैं, और आगे आगे के नय सूक्ष्म विषयवाले हैं। </span> | |||
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<li class="HindiText"> संग्रहनय सन्मात्र को जानता है और नैगमनय संकल्प द्वारा विद्यमान व अविद्यमान दोनों को जानता है, इसलिए संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय का अधिक विषय है। </li> | <li class="HindiText"> संग्रहनय सन्मात्र को जानता है और नैगमनय संकल्प द्वारा विद्यमान व अविद्यमान दोनों को जानता है, इसलिए संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय का अधिक विषय है। </li> | ||
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की अपेक्षा भिन्नरूप से जानता है, (अथवा उनमें से किसी एक ही शब्द को वाचकरूप से रूढ़ करता है), परन्तु शब्दनय में यह सूक्ष्मता नहीं रहती, अतएव समभिरूढ़ से शब्दनय का विषय अधिक है। </li> | की अपेक्षा भिन्नरूप से जानता है, (अथवा उनमें से किसी एक ही शब्द को वाचकरूप से रूढ़ करता है), परन्तु शब्दनय में यह सूक्ष्मता नहीं रहती, अतएव समभिरूढ़ से शब्दनय का विषय अधिक है। </li> | ||
<li class="HindiText"> समभिरूढ़नय से जाने हुए पदार्थों में क्रिया के भेद से वस्तु में भेद मानना (अर्थात् समभिरूढ़ द्वारा रूढ़ शब्द को उसी समय उसका वाचक मानना जबकि वह वस्तु तदनुकूल क्रियारूप से परिणत हो) एवंभूत है। जैसे कि समभिरूढ़ की अपेक्षा पुरन्दर और शचीपति (इन शब्दों के अर्थ) में भेद होने पर भी नगरों का नाश न करने के समय भी पुरन्दर शब्द इन्द्र के अर्थ में प्रयुक्त होता है, परन्तु एवंभूत की अपेक्षा नगरों का नाश करते समय ही इन्द्र को पुरन्दर नाम से कहा जा सकता है।) अतएव एवंभूत से समभिरूढ़नय का विषय अधिक है। </li> | <li class="HindiText"> समभिरूढ़नय से जाने हुए पदार्थों में क्रिया के भेद से वस्तु में भेद मानना (अर्थात् समभिरूढ़ द्वारा रूढ़ शब्द को उसी समय उसका वाचक मानना जबकि वह वस्तु तदनुकूल क्रियारूप से परिणत हो) एवंभूत है। जैसे कि समभिरूढ़ की अपेक्षा पुरन्दर और शचीपति (इन शब्दों के अर्थ) में भेद होने पर भी नगरों का नाश न करने के समय भी पुरन्दर शब्द इन्द्र के अर्थ में प्रयुक्त होता है, परन्तु एवंभूत की अपेक्षा नगरों का नाश करते समय ही इन्द्र को पुरन्दर नाम से कहा जा सकता है।) अतएव एवंभूत से समभिरूढ़नय का विषय अधिक है। </li> | ||
<li class="HindiText"> (और अन्तिम एवंभूत का विषय सर्वत: स्तोक है; क्योंकि, इसके आगे वाचक शब्द में किसी अपेक्षा भी भेद किया जाना सम्भव नहीं है।) ( | <li class="HindiText"> (और अन्तिम एवंभूत का विषय सर्वत: स्तोक है; क्योंकि, इसके आगे वाचक शब्द में किसी अपेक्षा भी भेद किया जाना सम्भव नहीं है।) ( स्याद्वादमञ्जरी/28/319/30 ) ( राजवार्तिक/ हि./1/33/493) (और भी देखो आगे शीर्षक नं.9)।<br /> | ||
धवला 1/1,1,1/13/11 (विशेषार्थ)‒वर्तमान समयवर्ती पर्याय को विषय करना ऋजुसूत्रनय है, इसलिए जब तक द्रव्यगत भेदों की ही मुख्यता रहती है तब तक व्यवहारनय चलता है। (देखें [[ नय#V.4 | नय - V.4]],4,3), और जब कालकृत भेद प्रारम्भ हो जाता है, तभी से ऋजुसूत्रनय का प्रारम्भ होता है। शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत इन तीनों नयों का विषय भी वर्तमान पर्यायमात्र है। परन्तु उनमें ऋजुसूत्र के विषयभूत अर्थ के वाचक शब्दों की मुख्यता है, इसलिए उनका विषय ऋजुसूत्र से सूक्ष्म सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम माना गया है। अर्थात् ऋजुसूत्र के विषय में लिंग आदि से भेद करने वाला शब्दनय है। शब्दनय से स्वीकृत (समान) लिंग वचन आदि वाले शब्दों में व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद करने वाले समभिरूढ़नय हैं। और पर्यायशब्द को उस शब्द से ध्वनित होने वाला क्रियाकाल में ही वाचक मानने वाला एवंभूतनय समझना चाहिए। इस तरह ये शब्दादिनय उस ऋजुसूत्र की शाखा उपशाखा हैं।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.1.8" id="III.1.8"> सातों की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता का उदाहरण </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.8" id="III.1.8"> सातों की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता का उदाहरण </span><br /> | ||
धवला 7/2,1,4/ गा.1-6/28-29 <span class="PrakritGatha">णयाणामभिप्पाओ एत्थ उच्चदे। तं जहा‒कं पि णरं दठ्ठूण य पावजणसमागमं करेमाणं। णेगमणएण भण्णई णेरइओ एस पुरिसो त्ति।1। ववहारस्सा दु वयणं जइया कोदंडकंडगयहत्थो। भमइ मए मग्गंतो तइया सो होइ णेरइओ।2। उज्जुसुदस्स दु वयणं जइया इर ठाइदूण ठाणम्मि। आहणदि मए पावो तइया सो होइ णेरइओ।3। सद्दणयस्स दु वयणं जइया पाणेहि मोइदो जन्तू। तइया सो णेरइओ हिसाकम्मेण संजुतो।4। वयणं तु समभिरूढं णारयकम्मस्स बंधगो जइया। तइया सो णेरइओ णारयकम्मेण संजुत्तो।5। णिरयगइं संपत्तो जइया अणुहवइ णारयं दुक्खं। तइया सो णेरइओ एवंभूदो णओ भणदि।6।</span>=<span class="HindiText">यहां (नरक गति के प्रकरण में) नयों का अभिप्राय बतलाते हैं। वह इस प्रकार है‒ </span> | |||
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<li class="HindiText"> किसी मनुष्य को पापी लोगों का समागम करते हुए देखकर नैगमनय से कहा जाता है कि यह पुरुष नारकी है।1। </li> | <li class="HindiText"> किसी मनुष्य को पापी लोगों का समागम करते हुए देखकर नैगमनय से कहा जाता है कि यह पुरुष नारकी है।1। </li> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.1.9" id="III.1.9"> शब्दादि तीन नयों में अन्तर</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.1.9" id="III.1.9"> शब्दादि तीन नयों में अन्तर</span><br /> | ||
राजवार्तिक/4/42/17/261/11 <span class="SanskritText"> व्यञ्जनपर्यायास्तु शब्दनया द्विविधं वचनं प्रकल्पयन्ति‒अभेदनाभिधानं भेदेन च। यथा शब्दे पर्यायशब्दान्तरप्रयोगेऽपि तस्यैवार्थस्याभिधानादभेद:। समभिरूढे वा प्रवृत्तिनिमित्तस्य अप्रवृत्तिनिमित्तस्य च घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानात् । एवंभूतेषु प्रवृत्तिनिमित्तस्य भिन्नस्यैकस्यैवार्थस्याभिधानात् भेदेनाभिधानम् ।<br /> | |||
अथवा, अन्यथा द्वैविध्यम् ‒ एकस्मिन्नर्थेऽनेकशब्दवृत्ति:, प्रत्यर्थं वा शब्दविनिवेश इति। यथा शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य: एक: समभिरूढे वा नैमित्तिकत्वात् शब्दस्यैकशब्दवाच्य: एक:। एवंभूते वर्तमाननिमित्तशब्द एकवाच्य एक:।</span> = | अथवा, अन्यथा द्वैविध्यम् ‒ एकस्मिन्नर्थेऽनेकशब्दवृत्ति:, प्रत्यर्थं वा शब्दविनिवेश इति। यथा शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य: एक: समभिरूढे वा नैमित्तिकत्वात् शब्दस्यैकशब्दवाच्य: एक:। एवंभूते वर्तमाननिमित्तशब्द एकवाच्य एक:।</span> = | ||
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Revision as of 19:11, 17 July 2020
- सातों नयों का समुदित सामान्य निर्देश
- सातों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग
सर्वार्थसिद्धि/1/33/140/8 स द्वेधा द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति।...तयोर्भेदा नैगमादय:। =नय के दो भेद हैं‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। इन दोनों नयों के उत्तर भेद नैगमादि हैं। ( राजवार्तिक/1/33/1/94/25 ) (देखें नय - I.1.4)
धवला 9/4,1,45/ पृष्ठ/पंक्ति‒स, एवंविधो नयो द्विविध:, द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति। (167/10)। तत्र योऽसौ द्रव्यार्थिकनय: स त्रिविधो नैगमसंग्रहव्यवहारभेदेन।(168/4)। पर्यायार्थिको नयश्चतुर्विध: ऋजुसूत्रशब्द-समभिरूढैवंभूतभेदेन।((171/7)।=इस प्रकार की वह नय दो प्रकार है‒द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक। तहां जो द्रव्यार्थिक नय है वह तीन प्रकार है‒नैगम, संग्रह व व्यवहार। पर्यायार्थिकनय चार प्रकार है‒ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ व एवंभूत ( धवला 1/1,1,1/ गा.5-7/12-13), ( कषायपाहुड़ 1/13-14/181-182/ गा.87-89/218-220), ( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लो.3/215) ( हरिवंशपुराण/58/42 ), ( धवला 1/1,1,1/83/10 +84/2+85/2+86/3+86/6); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/177/211/4 +182/219/1 +184/222/1 + 197/235/1); ( नयचक्र बृहद्/ श्रुत/217) (न.च./पृ.20) ( तत्त्वसार/1/41-42/36 ); ( स्याद्वादमञ्जरी/82/317/1 +318/22)।
- इनमें द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक विभाग का कारण
धवला 1/1,1,1/84/7 एते त्रयोऽपि नया: नित्यवादिन: स्वविषये पर्यायाभावत: सामान्यविशेषकालयोरभावात् ।...द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययो: किंकृतो भेदश्चेदुच्यते ऋजुसूत्रवचनविच्छेदो मूलाधारो येषां नयानां ते पर्यायार्थिका:। विच्छिद्यतेऽस्मिन्काल इति विच्छेद:। ऋजुसूत्रवचनं नाम वर्तमानवचनं, तस्य विच्छेद: ऋजुसूत्रवचनविच्छेद:। स कालो मूलाधारो येषां नयानां ते पर्यायार्थिका:। ऋजुसूत्रवचनविच्छेदादारम्य आ एक समयाद्वस्तुस्थित्यध्यवसायिन: पर्यायार्थिका इति यावत् ।=ये तीनों ही (नैगम, संग्रह और व्यवहार) नय नित्यवादी हैं, क्योंकि इन तीनों ही नयों का विषय पर्याय न होने के कारण इन तीनों नयों के विषय में सामान्य और विशेषकाल का अभाव है। (अर्थात इन तीनों नयों में काल की विवक्षा नहीं होती।) प्रश्न‒द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक में किस प्रकार भेद है? उत्तर‒ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों का विच्छेद जिस काल में होता है, वह (काल) जिन नयों का मूल आधार है, वे पर्यायार्थिक नय हैं। विच्छेद अथवा अन्त जिसकाल में होता है, उस काल को विच्छेद कहते हैं। वर्तमान वचन को ऋजुसूत्रवचन कहते हैं और उसके विच्छेद को ऋजुसूत्रवचनविच्छेद कहते हैं। वह ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों का विच्छेदरूप काल जिन नयों का मूल आधार है उन्हें पर्यायार्थिकनय कहते हैं। अर्थात् ऋजुसूत्र के प्रतिपादक वचनों के विच्छेदरूप समय से लेकर एकसमय पर्यन्त वस्तु की स्थिति का निश्चय करने वाले पर्यायार्थिक नय हैं। (भावार्थ‒’देवदत्त’ इस शब्द का अन्तिम अक्षर ‘त’ मुख से निकल चुकने के पश्चात् से लेकर एक समय आगे तक ही देवदत्त नाम का व्यक्ति है, दूसरे समय में वह कोई अन्य हो गया है। ऐसा पर्यायार्थिक नय का मन्तव्य है। ( कषायपाहुड़ 1/13-14/185/223/3 )
- सातों में अर्थ शब्द व ज्ञाननय विभाग
राजवार्तिक/4/42/17/361/2 संग्रहव्यवहारर्जुसूत्रा अर्थनया:। शेषा: शब्दनया:।=संग्रह, व्यवहार, व ऋजुसूत्र ये अर्थनय हैं और शेष (शब्द, समभिरूढ और एवंभूत) शब्द या व्यंजननय हैं। ( धवला 9/4,1,45/181/1 )।
श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लो.81/269 तत्रर्जुसूत्रपर्यन्ताश्चत्वारोऽर्थनया मता:। त्रय: शब्दनया: शेषा: शब्दवाच्यार्थगोचरा:।81।=इन सातों में से नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय तो अर्थनय मानी गयी हैं, और शेष तीन (शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत) वाचक शब्द द्वारा अर्थ को विषय करने वाले शब्दनय हैं। ( धवला 1/1,1,1/86/3 ), ( कषायपाहुड़ 1/184/222/1 +197/1), ( नयचक्र बृहद्/217 ) ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.20) ( तत्त्वसार/1/43 ) (स्या.प्र./28/319/29)।
नोट‒यद्यपि ऊपर कहीं भी ज्ञाननय का जिक्र नहीं किया गया है, परन्तु जैसा कि आगे नैगमनय के लक्षणों पर से विदित है, इनमें से नैगमनय ज्ञाननय व अर्थनय दोनों रूप है। अर्थ को विषय करते समय यह अर्थनय है और संकल्प मात्र को ग्रहण करते समय ज्ञाननय है। इसके भूत, भावी आदि भेद भी ज्ञान को ही आश्रय करके किये गये हैं, क्योंकि वस्तु की भूत भावी पर्यायें वस्तु में नहीं ज्ञान में रहती हैं (देखें नय - III.3.6 में श्लोकवार्तिक )। इसके अतिरिक्त भी ऊपर के दो प्रमाणों में प्रथम प्रमाण में इस नय को अर्थनयरूप से ग्रहण न करने का भी यही कारण प्रतीत होता है। दूसरे प्रमाण में इसे अर्थनय कहना भी विरोध को प्राप्त नहीं होता क्योंकि यह ज्ञाननय होने के साथ-साथ अर्थनय भी अवश्य है।)
- सातों में अर्थ, शब्दनय विभाग का कारण
धवला 1/1,1,1/86/3 अर्थनय: ऋजुसूत्र:। कुत:। ऋजु प्रगुणं सूत्रयतीति तत्सिद्धे:।...सन्त्वेतेऽर्थनया: अर्थव्यापृतत्वात् ।=शब्दभेद की विवक्षा न करके केवल पदार्थ के धर्मों का निश्चय करने वाला अर्थनय है, और शब्दभेद से उसमें भेद करने वाला व्यंजननय है‒देखें नय - I.4.2) यहां ऋजुसूत्रनय को अर्थनय समझना चाहिए। क्योंकि ऋजु सरल अर्थात् वर्तमान समयवर्ती पर्याय मात्र को जो ग्रहण करे उसे ऋजुसूत्रनय कहते हैं। इस तरह वर्तमान पर्यायरूप से अर्थ को ग्रहण करने वाला होने के कारण यह नय अर्थनय है, यह बात सिद्ध हो जाती है। अर्थ को विषय करने वाले होने के कारण नैगम, संग्रह और व्यवहार भी अर्थनय हैं। (शब्दभेद की अपेक्षा करके अर्थ में भेद डालने वाले होने के कारण शेष तीन नय व्यंजननय हैं।)
स्याद्वादमञ्जरी/28/310/16 अभिप्रायस्तावद् अर्थद्वारेण शब्दद्वारेण वा प्रवर्तते, गत्यन्तराभावात् । तत्र ये केचनार्थनिरूपणप्रवणा: प्रमात्राभिप्रायास्ते सर्वेऽपि आद्ये नयचतुष्टयेऽन्तर्भवन्ति। ये च शब्दविचारचतुरास्ते शब्दादिनयत्रये इति।=अभिप्राय प्रगट करने के दो ही द्वार हैं‒अर्थ या शब्द। क्योंकि, इनके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। तहां प्रमाता के जो अभिप्राय अर्थ का प्ररूपण करने में प्रवीण हैं वे तो अर्थनय हैं जो नैगमादि चार नयों में अन्तर्भूत हो जाते हैं और जो शब्द विचार करने में चतुर हैं वे शब्दादि तीन व्यंजननय हैं। ( स्याद्वादमञ्जरी/28/319/29 )।
देखें नय - I.4.5 शब्दनय केवल शब्द को विषय करता है अर्थ को नहीं।
- नौ भेद कहना भी विरुद्ध नहीं
धवला 9/4,1,45/181/4 नव नया: क्वचिच्छ्रूयन्त इति चेन्न नयानामियत्तासंख्यानियमाभावात् ।=प्रश्न‒कहीं पर नौ नय सुने जाते हैं ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि ‘नय इतने हैं’ ऐसी संख्या के नियम का अभाव है। (विशेष देखें नय - I.5.5) ( कषायपाहुड़/1/13-14/202/245/2 )
- पूर्व पूर्व का नय अगले अगले का कारण है
सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/7 एषां क्रम: पूर्वपूर्वहेतुकत्वाच्च।=पूर्व पूर्व का नय अगले-अगले नय का हेतु है, इसलिए भी यह क्रम (नैगम, संग्रह, व्यवहार एवंभूत) कहा गया है। ( राजवार्तिक/1/33/12/99/17 ) ( श्लोकवार्तिक/ पु.4/1/33/श्लो.82/269)
- सातों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता
सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/7 उत्तरोत्तरसूक्ष्मविषयत्वादेषां क्रम:...। एवमेते नया: पूर्वपूर्वविरुद्धमहाविषया उत्तरोत्तरानुकूलाल्पविषया:।=उत्तरोत्तर सूक्ष्मविषय वाले होने के कारण इनका यह क्रम कहा है। इस प्रकार ये नय पूर्व पूर्व विरुद्ध महा विषयवाले और उत्तरोत्तर अनुकूल अल्प विषयवाले हैं ( राजवार्तिक/1/33/12/99/17 ), ( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लो.82/269), ( हरिवंशपुराण/58/50 ), ( तत्त्वसार/1/43 )
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.98,100/289 यत्र प्रवर्त्तते स्वार्थे नियमादुत्तरो नय:। पूर्वपूर्वनयस्तत्र वर्तमानो न वार्यते।98। पूर्वत्र नोत्तरा संख्या यथायातानुवर्त्यते। तथोत्तरनय: पूर्वनयार्थसकले सदा।100।=जहां जिस अर्थ को विषय करने वाला उत्तरवर्ती नय नियम से प्रवर्तता है तिस तिस में पूर्ववर्तीनय की प्रवृत्ति नहीं रोकी जा सकती।98। परन्तु उत्तरवर्ती नयें पूर्ववर्ती नयों के पूर्ण विषय में नहीं प्रवर्तती हैं। जैसे बड़ी संख्या में छोटी संख्या समा जाती है पर छोटी में बड़ी नहीं (पूर्व पूर्व का विरुद्ध विषय और उत्तर उत्तर का अनुकूल विषय होने का भी यही अर्थ है ( राजवार्तिक/ हि./1/33/12/494)
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.82-89/269 पूर्व: पूर्वो नयो भूमविषय: कारणात्मक:। पर: पर: पुन: सूक्ष्मगोचरो हेतुमानिह।82। सन्मात्रविषयत्वेन संग्रहस्य न युज्यते। महाविषयताभावाभावार्थान्नैगममान्नयात् ।83। यथा हि सति संकल्पस्यैवासति वेद्यते। तत्र प्रवर्तमानस्य नैगमस्य महार्थता।84। संग्रहाद्वयवहारोऽपि सद्विशेषावबोधक:। न भूमविषयोऽशेषसत्समूहोपदर्शिन:।85। नर्जूसूत्र: प्रभूतार्थो वर्तमानार्थगोचर:। कालात्रितयवृत्त्यर्थगोचराद्वयवहारत:।86। कालादिभेदतोऽप्यर्थमभिन्नमुपगच्छत:। नर्जुसूत्रान्महार्थोऽत्रशब्दस्तद्विपरीतवित् ।87। शब्दात्पर्यायभेदाभिन्नमर्थमभीप्सित:। न स्यात्समभिरूढोऽपि महार्थस्तद्विपर्यय:।88। क्रियाभेदेऽपि चाभिन्नमर्थमभ्युपगच्छत:। नैवंभूत: प्रभूतार्थो नय: समभिरूढत:।89।=इन नयों में पहले पहले के नय अधिक विषयवाले हैं, और आगे आगे के नय सूक्ष्म विषयवाले हैं।- संग्रहनय सन्मात्र को जानता है और नैगमनय संकल्प द्वारा विद्यमान व अविद्यमान दोनों को जानता है, इसलिए संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय का अधिक विषय है।
- व्यवहारनय संग्रह से जाने हुए पदार्थ को विशेष रूप से जानता है और संग्रह समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है, इसलिए संग्रह नय का विषय व्यवहारनय से अधिक है।
- व्यवहारनय तीनों कालों के पदार्थों को जानता है और ऋजुसूत्र से केवल वर्तमान पदार्थों का ज्ञान होता है, अतएव व्यवहारनय का विषय ऋजुसूत्र से अधिक है।
- शब्दनय काल आदि के भेद से वर्तमान पर्याय को जानता है (अर्थात् वर्तमान पर्याय के वाचक अनेक पर्यायवाची शब्दों में से काल, लिंग, संख्या, पुरुष आदि रूप व्याकरण सम्बन्धी विषमताओं का निराकरण करके मात्र समान काल, लिंग आदि वाले शब्दों को ही एकार्थवाची स्वीकार करता है)। ऋजुसूत्र में काल आदि का कोई भेद नहीं। इसलिए शब्दनय से ऋजुसूत्रनय का विषय अधिक है।
- समभिरूढ़नय इन्द्र शक्र आदि (समान काल, लिंग आदि वाले) एकार्थवाची शब्दों को भी व्युत्पत्ति
की अपेक्षा भिन्नरूप से जानता है, (अथवा उनमें से किसी एक ही शब्द को वाचकरूप से रूढ़ करता है), परन्तु शब्दनय में यह सूक्ष्मता नहीं रहती, अतएव समभिरूढ़ से शब्दनय का विषय अधिक है। - समभिरूढ़नय से जाने हुए पदार्थों में क्रिया के भेद से वस्तु में भेद मानना (अर्थात् समभिरूढ़ द्वारा रूढ़ शब्द को उसी समय उसका वाचक मानना जबकि वह वस्तु तदनुकूल क्रियारूप से परिणत हो) एवंभूत है। जैसे कि समभिरूढ़ की अपेक्षा पुरन्दर और शचीपति (इन शब्दों के अर्थ) में भेद होने पर भी नगरों का नाश न करने के समय भी पुरन्दर शब्द इन्द्र के अर्थ में प्रयुक्त होता है, परन्तु एवंभूत की अपेक्षा नगरों का नाश करते समय ही इन्द्र को पुरन्दर नाम से कहा जा सकता है।) अतएव एवंभूत से समभिरूढ़नय का विषय अधिक है।
- (और अन्तिम एवंभूत का विषय सर्वत: स्तोक है; क्योंकि, इसके आगे वाचक शब्द में किसी अपेक्षा भी भेद किया जाना सम्भव नहीं है।) ( स्याद्वादमञ्जरी/28/319/30 ) ( राजवार्तिक/ हि./1/33/493) (और भी देखो आगे शीर्षक नं.9)।
धवला 1/1,1,1/13/11 (विशेषार्थ)‒वर्तमान समयवर्ती पर्याय को विषय करना ऋजुसूत्रनय है, इसलिए जब तक द्रव्यगत भेदों की ही मुख्यता रहती है तब तक व्यवहारनय चलता है। (देखें नय - V.4,4,3), और जब कालकृत भेद प्रारम्भ हो जाता है, तभी से ऋजुसूत्रनय का प्रारम्भ होता है। शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत इन तीनों नयों का विषय भी वर्तमान पर्यायमात्र है। परन्तु उनमें ऋजुसूत्र के विषयभूत अर्थ के वाचक शब्दों की मुख्यता है, इसलिए उनका विषय ऋजुसूत्र से सूक्ष्म सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम माना गया है। अर्थात् ऋजुसूत्र के विषय में लिंग आदि से भेद करने वाला शब्दनय है। शब्दनय से स्वीकृत (समान) लिंग वचन आदि वाले शब्दों में व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद करने वाले समभिरूढ़नय हैं। और पर्यायशब्द को उस शब्द से ध्वनित होने वाला क्रियाकाल में ही वाचक मानने वाला एवंभूतनय समझना चाहिए। इस तरह ये शब्दादिनय उस ऋजुसूत्र की शाखा उपशाखा हैं।
- सातों की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता का उदाहरण
धवला 7/2,1,4/ गा.1-6/28-29 णयाणामभिप्पाओ एत्थ उच्चदे। तं जहा‒कं पि णरं दठ्ठूण य पावजणसमागमं करेमाणं। णेगमणएण भण्णई णेरइओ एस पुरिसो त्ति।1। ववहारस्सा दु वयणं जइया कोदंडकंडगयहत्थो। भमइ मए मग्गंतो तइया सो होइ णेरइओ।2। उज्जुसुदस्स दु वयणं जइया इर ठाइदूण ठाणम्मि। आहणदि मए पावो तइया सो होइ णेरइओ।3। सद्दणयस्स दु वयणं जइया पाणेहि मोइदो जन्तू। तइया सो णेरइओ हिसाकम्मेण संजुतो।4। वयणं तु समभिरूढं णारयकम्मस्स बंधगो जइया। तइया सो णेरइओ णारयकम्मेण संजुत्तो।5। णिरयगइं संपत्तो जइया अणुहवइ णारयं दुक्खं। तइया सो णेरइओ एवंभूदो णओ भणदि।6।=यहां (नरक गति के प्रकरण में) नयों का अभिप्राय बतलाते हैं। वह इस प्रकार है‒- किसी मनुष्य को पापी लोगों का समागम करते हुए देखकर नैगमनय से कहा जाता है कि यह पुरुष नारकी है।1।
- (जब वह मनुष्य प्राणिवध करने का विचार कर सामग्री संग्रह करता है तब वह संग्रहनय से नारकी कहा जाता है)।
- व्यवहारनय का वचन इस प्रकार है‒जब कोई मनुष्य हाथ में धनुष और बाण लेकर मृगों की खोज में भटकता फिरता है, तब वह नारकी कहलाता है।2।
- ऋजुसूत्रनय का वचन इस प्रकार है‒जब आखेटस्थान पर बैठकर पापी मृगों पर आघात करता है तब वह नारकी कहलाता है।3।
- शब्दनय का वचन इस प्रकार है‒जब जन्तु प्राणों से विमुक्त कर दिया जाता है, तभी वह आघात करने वाला हिंसा कर्म से संयुक्त मनुष्य नारकी कहा जाता है।4।
- समभिरूढ़नय का वचन इस प्रकार है‒जब मनुष्य नारक (गति व आयु) कर्म का बन्धक होकर नरक कर्म से संयुक्त हो जाये तभी वह नारकी कहा जाये।5।
- जब वही मनुष्य नरकगति को पहुंचकर नरक के दु:ख अनुभव करने लगता है, तभी वह नारकी है, ऐसा एवंभूतनय कहता है।6। नोट‒(इसी प्रकार अन्य किसी भी विषय पर यथायोग्य रीति से ये सातों नय लागू की जा सकती हैं)।
- शब्दादि तीन नयों में अन्तर
राजवार्तिक/4/42/17/261/11 व्यञ्जनपर्यायास्तु शब्दनया द्विविधं वचनं प्रकल्पयन्ति‒अभेदनाभिधानं भेदेन च। यथा शब्दे पर्यायशब्दान्तरप्रयोगेऽपि तस्यैवार्थस्याभिधानादभेद:। समभिरूढे वा प्रवृत्तिनिमित्तस्य अप्रवृत्तिनिमित्तस्य च घटस्याभिन्नस्य सामान्येनाभिधानात् । एवंभूतेषु प्रवृत्तिनिमित्तस्य भिन्नस्यैकस्यैवार्थस्याभिधानात् भेदेनाभिधानम् ।
अथवा, अन्यथा द्वैविध्यम् ‒ एकस्मिन्नर्थेऽनेकशब्दवृत्ति:, प्रत्यर्थं वा शब्दविनिवेश इति। यथा शब्दे अनेकपर्यायशब्दवाच्य: एक: समभिरूढे वा नैमित्तिकत्वात् शब्दस्यैकशब्दवाच्य: एक:। एवंभूते वर्तमाननिमित्तशब्द एकवाच्य एक:। =- वाचक शब्द की अपेक्षा‒शब्दनय (वस्तु की) व्यंजनपर्यायों को विषय करते हैं (शब्द का विषय बनाते हैं) वे अभेद तथा भेद दो प्रकार के वचन प्रयोग को सामने लाते हैं (दो प्रकार के वाचक शब्दों का प्रयोग करते हैं।) शब्दनय में पर्यायवाची विभिन्न शब्दों का प्रयोग होने पर भी उसी अर्थ का कथन होता है अत: अभेद है। समभिरूढ़नय में घटन क्रिया में परिणत या अपरिणत, अभिन्न ही घट का निरूपण होता है। एवंभूत में प्रवृत्तिनिमित्त से भिन्न ही अर्थ का निरूपण होता है।
- वाच्य पदार्थ की अपेक्षा‒अथवा एक अर्थ में अनेक शब्दों की प्रवृत्ति या प्रत्येक में स्वतन्त्र शब्दों का प्रयोग, इस तरह भी दो प्रकार हैं। शब्दनय में अनेक पर्यायवाची शब्दों का वाच्य एक ही होता है। समभिरूढ़ में चूंकि शब्द नैमित्तिक है, अत: एक शब्द का वाच्य एक ही होता है। एवंभूत वर्तमान निमित्त को पकड़ता है। अत: उसके मत में भी एक शब्द का वाच्य एक ही है।
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