प्रमाद: Difference between revisions
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महापुराण/ 62/305 <span class="PrakritGatha">कायवाक्चेतसां वृत्तिर्व्रतानां मलकारिणी । या सा षष्ठगुणस्थाने प्रमादो बन्धवृत्त ये ।305।</span> = <span class="HindiText">छठे गुणस्थान में व्रतों में संशय उत्पन्न करने वाली जो मन, वचन, काय की प्रवृत्ति है उसे प्रमाद कहते हैं, यह बन्ध का कारण है ।</span><br /> | |||
समयसार / आत्मख्याति/307/ क. 190<span class="SanskritText"> कषायभरगौंरवादलसता प्रमादो यतः ।</span> = <span class="HindiText">कषाय के भार के भारी होने को आलस्य का होना कहा है, उसे प्रमाद कहते हैं ।</span><br /> | |||
तत्त्वसार/5/10 <span class="SanskritGatha">शुद्ध्यष्ट के तथा धर्मे क्षान्त्यादिदशलक्षणे । योऽनुत्साहः स सर्वज्ञैः प्रमादः परिकीर्तितः ।10।</span> = <span class="HindiText">आठ शुद्धि और दश धर्मों में जो उत्साह न रखना उसे सर्वज्ञदेवने प्रमाद कहा है । </span><br /> | |||
द्रव्यसंग्रह टीका/30/88/4 <span class="SanskritText">अभ्यन्तरे निष्प्रमादशुद्धात्मानुभूतिचलनरूपः, बहिर्विषये तु मूलोत्तरगुणमलजनकश्चेति प्रमादः ।</span> = <span class="HindiText">अन्तरंग में प्रमाद रहित शुद्धात्मानुभव से डिगानेरूप, और बाह्य विषय में मूलगुणों तथा उत्तरगुणों में मैल उत्पन्न करने वाला प्रमाद है ।<br /> | |||
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पं.सं./प्रा./1/15<span class="PrakritGatha"> विकहा तहा कसाया इंदियणिद्दा तहेव पणओ य । चदु चदु पण एगेगं होंति पमादा हु पण्णरसा ।15।</span> =<span class="HindiText"> चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, एक निन्द्रा, और एक प्रणय ये पन्द्रह प्रमाद होते हैं ।15। ( | पं.सं./प्रा./1/15<span class="PrakritGatha"> विकहा तहा कसाया इंदियणिद्दा तहेव पणओ य । चदु चदु पण एगेगं होंति पमादा हु पण्णरसा ।15।</span> =<span class="HindiText"> चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, एक निन्द्रा, और एक प्रणय ये पन्द्रह प्रमाद होते हैं ।15। ( धवला 1/1,1,14/ गा,114/178) (गो,जी./मू./34/64) (पं.सं./सं./1/33) ।</span><br /> | ||
राजवार्तिक/8/1/30/564/29 <span class="SanskritText">प्रमादोऽनेकविधः ।30। भावकायविनयेर्यापथभै-क्ष्यशयनासनप्रतिष्ठापनवाक्यशुद्धिलक्षणाष्टविधसंयम - उत्तम - क्षमामार्द वार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्यादिविषयानुत्साहभेदादनेकविदं प्रमादोऽवसेयः ।</span> = <span class="HindiText">भाव, काय, विनय, ईर्यापथ, भैक्ष्य, शयन, आसन, प्रतिष्ठापन और वाक्यशुद्धि इन आठ शुद्धियों तथा उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन धर्मों में अनुत्साह या अनादर, भाव के भेद से प्रमाद अनेक प्रकार का है । ( सर्वार्थसिद्धि/8/1/376/3 ।</span><br /> | |||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/612/812/4 <span class="SanskritText">प्रमादः पञ्चविधः । विकथाः, कषायाः, इन्द्रियविषयासक्तता, निद्रा, प्रणयश्चेति । अथवा प्रमादो नाम संक्लिष्टहस्तकर्म, कुशीलानुवृत्ति, बाह्यशास्त्रशिक्षणं, काव्यकरणं, समितिष्वनुपयुक्तता ।</span> = <span class="HindiText">प्रमाद के पाँच प्रकार हैं - विकथा, कषाय,इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति, निद्रा और स्नेह; अथवा संक्लिष्ट हस्तकर्म, कुशीलानुवृत्ति, बाह्यशास्त्र, काव्यकरण और समिति में उपयोग न देना ऐसे भी प्रमाद के पाँच प्रकार हैं ।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> अन्य सम्बन्धित विषय</strong><br /> | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> अन्य सम्बन्धित विषय</strong><br /> |
Revision as of 19:13, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- प्रमाद
- कषाय के अर्थ में
सर्वार्थसिद्धि/7/13/351/2 प्रमादः सकषायत्वं । = प्रमाद कषाय-सहित अवस्था को कहते हैं ।
धवला 7/2, 1,7/11/11 चदुसंजलण-णवणोकसायाणं तिव्वोदओ । = चार संज्वलन कषाय और नव नोकषाय, इन तेरह के तीव्र उदय का नाम प्रमाद है ।
- अनुत्साह के अर्थ में
सर्वार्थसिद्धि/8/1/374/8 स च प्रमादः कुशलेष्वनादरः । = अच्छे कार्यों के करने में आदर भाव का न होना यह प्रमाद है । ( राजवार्तिक/8/1/30/564/30 ) ।
महापुराण/ 62/305 कायवाक्चेतसां वृत्तिर्व्रतानां मलकारिणी । या सा षष्ठगुणस्थाने प्रमादो बन्धवृत्त ये ।305। = छठे गुणस्थान में व्रतों में संशय उत्पन्न करने वाली जो मन, वचन, काय की प्रवृत्ति है उसे प्रमाद कहते हैं, यह बन्ध का कारण है ।
समयसार / आत्मख्याति/307/ क. 190 कषायभरगौंरवादलसता प्रमादो यतः । = कषाय के भार के भारी होने को आलस्य का होना कहा है, उसे प्रमाद कहते हैं ।
तत्त्वसार/5/10 शुद्ध्यष्ट के तथा धर्मे क्षान्त्यादिदशलक्षणे । योऽनुत्साहः स सर्वज्ञैः प्रमादः परिकीर्तितः ।10। = आठ शुद्धि और दश धर्मों में जो उत्साह न रखना उसे सर्वज्ञदेवने प्रमाद कहा है ।
द्रव्यसंग्रह टीका/30/88/4 अभ्यन्तरे निष्प्रमादशुद्धात्मानुभूतिचलनरूपः, बहिर्विषये तु मूलोत्तरगुणमलजनकश्चेति प्रमादः । = अन्तरंग में प्रमाद रहित शुद्धात्मानुभव से डिगानेरूप, और बाह्य विषय में मूलगुणों तथा उत्तरगुणों में मैल उत्पन्न करने वाला प्रमाद है ।
- कषाय के अर्थ में
- अप्रमाद का लक्षण
धवला 14/5,6,92/89/11 पंच महव्वयाणि पंच समदीयो तिण्णि गुत्तीओ णिस्सेसकसायाभावो च अप्पमादो णाम । = पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति और समस्त कषायों के अभाव का नाम अप्रमाद है ।
- प्रमाद के भेद
पं.सं./प्रा./1/15 विकहा तहा कसाया इंदियणिद्दा तहेव पणओ य । चदु चदु पण एगेगं होंति पमादा हु पण्णरसा ।15। = चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, एक निन्द्रा, और एक प्रणय ये पन्द्रह प्रमाद होते हैं ।15। ( धवला 1/1,1,14/ गा,114/178) (गो,जी./मू./34/64) (पं.सं./सं./1/33) ।
राजवार्तिक/8/1/30/564/29 प्रमादोऽनेकविधः ।30। भावकायविनयेर्यापथभै-क्ष्यशयनासनप्रतिष्ठापनवाक्यशुद्धिलक्षणाष्टविधसंयम - उत्तम - क्षमामार्द वार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्यादिविषयानुत्साहभेदादनेकविदं प्रमादोऽवसेयः । = भाव, काय, विनय, ईर्यापथ, भैक्ष्य, शयन, आसन, प्रतिष्ठापन और वाक्यशुद्धि इन आठ शुद्धियों तथा उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन धर्मों में अनुत्साह या अनादर, भाव के भेद से प्रमाद अनेक प्रकार का है । ( सर्वार्थसिद्धि/8/1/376/3 ।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/612/812/4 प्रमादः पञ्चविधः । विकथाः, कषायाः, इन्द्रियविषयासक्तता, निद्रा, प्रणयश्चेति । अथवा प्रमादो नाम संक्लिष्टहस्तकर्म, कुशीलानुवृत्ति, बाह्यशास्त्रशिक्षणं, काव्यकरणं, समितिष्वनुपयुक्तता । = प्रमाद के पाँच प्रकार हैं - विकथा, कषाय,इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति, निद्रा और स्नेह; अथवा संक्लिष्ट हस्तकर्म, कुशीलानुवृत्ति, बाह्यशास्त्र, काव्यकरण और समिति में उपयोग न देना ऐसे भी प्रमाद के पाँच प्रकार हैं ।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- प्रमाद के 37500 भेद तथा इनकी अक्षसंचार विधि । - देखें गणित - II.3.3 ।
- प्रमाद कर्मबन्ध प्रत्यय के रूप में । -देखें बन्ध - 1.2.1
- प्रमाद का कषाय में अन्तर्भाव । - देखें प्रत्यय - 1.3
- प्रमाद व अविरति प्रत्यय में अन्तर । -देखें प्रत्यय - 1.5
- साधु को प्रमादवश लगने वाले दोषों की सीमा - देखें संयत - 3 ।
- प्रमाद के 37500 भेद तथा इनकी अक्षसंचार विधि । - देखें गणित - II.3.3 ।
पुराणकोष से
(1) छठे गुणस्थान में व्रतों में असावधानता को उत्पन्न करने वाली मन-वचन और काय की प्रवृत्ति । इससे कर्मबन्ध होता है । इसके पन्द्रह भेद होते हैं । ये भेद हैं― चार कषाय, चार विकथा, पांच इन्द्रिय-विषय, निद्रा और स्नेह । ये भेद संज्वलन कषाय का उदय होने से होते हैं तथा सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि इन तीन चारित्रों से युक्त जीव के प्रायश्चित्त के कारण बनते हैं । महापुराण 47.309, 62. 305-306, हरिवंशपुराण 58. 192
(2) मद्यपायी के सदृश शिथिल आचरण । पांडवपुराण 23.32