भक्ष्याभक्ष्य: Difference between revisions
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क्रियाकोष/1257 लाडू पेड़ा पाक इत्यादि औषध रस और चूरण आदि। बहुत वस्तु करि जो नियजेह, एक द्रव्य जानो बुध तेह।</li> | क्रियाकोष/1257 लाडू पेड़ा पाक इत्यादि औषध रस और चूरण आदि। बहुत वस्तु करि जो नियजेह, एक द्रव्य जानो बुध तेह।</li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> रुग्णावस्था में अभक्ष्य का निषेध</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> रुग्णावस्था में अभक्ष्य का निषेध</strong> </span><br /> | ||
लाटी संहिता/2/80 <span class="SanskritGatha">मूलबीजा यथा प्रोक्ता फलकाद्यार्द्रकादयः। न भक्ष्या दैवयोगाद्वा रोगिणाप्यौषधच्छलात्।80। </span>= <span class="HindiText">उपरोक्त मूलबीज और अग्रबीज आदि अनन्तकायिक जो अदरख आदि वनस्पति उन्हें किसी भी अवस्था में भी नहीं खाना चाहिए। रोगियों को भी औषधि के बहाने उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> द्रव्य क्षेत्रादि व स्वास्थ्य स्थिति का विचार</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> द्रव्य क्षेत्रादि व स्वास्थ्य स्थिति का विचार</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/255/476 <span class="PrakritText">भक्तं खेत्तं कालं धादं व पडुच्च तह तवं कुज्जा। वादो पित्तो सिंभो व जहा खोभ्रं ण उवयांति। </span>= <span class="HindiText">अनेक प्रकार के भक्त पदार्थ, अनेक प्रकार के क्षेत्र, काल भी- शीत, उष्ण व वर्षा कालरूप तीन प्रकार हैं, धातु अर्थात् अपने शरीर की प्रकृति तथा देशकाल का विचार करके जिस प्रकार वात-पित्त-श्लेष्म का क्षोभ न होगा इस रीति से तप करके क्षपक को शरीर सल्लेखना करनी चाहिए। 255।<br /> | |||
देखें [[ आहार#I.3.2 | आहार - I.3.2 ]]सात्त्विक भोजन करे तथा योग्य मात्रा में करे जितना कि जठराग्नि सुगमता से पचा सके।</span><br /> | देखें [[ आहार#I.3.2 | आहार - I.3.2 ]]सात्त्विक भोजन करे तथा योग्य मात्रा में करे जितना कि जठराग्नि सुगमता से पचा सके।</span><br /> | ||
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/86 <span class="SanskritGatha"> यदनिष्टं तद्व्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात्। अभिसंधिकृता विरतिर्विषयाद्योग्याद् व्रतं भवति।86।</span> = <span class="HindiText">जो अनिष्ट अर्थात् शरीर को हानिकारक है वह छोड़े, जो उत्तम कुल के सेवन करके योग्य (मद्य-मांस आदि) नहीं वह भी छोड़े, तो वह व्रत, कुछ व्रत नहीं कहलाता, किन्तु योग्य विषयों से अभिप्राय पूर्वक किया हुआ त्याग ही वास्तविक व्रत है।<br /> | |||
आचारसार/4/64 रोगों का कारण होने से लाडू पेड़ा, चावल के बने पदार्थ वा चिकने पदार्थों का त्याग द्रव्यशुद्धि है।</span></li> | आचारसार/4/64 रोगों का कारण होने से लाडू पेड़ा, चावल के बने पदार्थ वा चिकने पदार्थों का त्याग द्रव्यशुद्धि है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">अभक्ष्य वस्तुओं को आहार से पृथक् करके वह आहार ग्रहण करने की आज्ञा </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4">अभक्ष्य वस्तुओं को आहार से पृथक् करके वह आहार ग्रहण करने की आज्ञा </strong> </span><br /> | ||
अनगारधर्मामृत/5/41 <span class="SanskritGatha">कन्दादिषट्कं त्यागार्हमित्यन्नाद्विभजेन्मुनिः। न शक्यते विभक्तुं चेत् त्यज्यतां तर्हि भोजनम् ।41।</span> =<span class="HindiText"> कन्द, बीज, मूल, फल, कण और कुण्ड ये छह वस्तुएँ आहार से पृथक् की जा सकती हैं। अतएव साधुओं को आहार में वस्तुएँ मिल गयी हों तो उनको पृथक् कर देना चाहिए। यदि कदाचित् उनका पृथक् करना अशक्य हो तो आहार ही छोड़ देना चाहिए। (मू.आ./भाव./484); (और भी देखें [[ विवेक#1 | विवेक - 1]])।</span></li> | |||
<li class="HindiText" name="1.5" id="1.5"><strong> नीच कुलीनों के हाथ का तथा अयोग्य क्षेत्र में रखे भोजन-पान का निषेध</strong> <br /> | <li class="HindiText" name="1.5" id="1.5"><strong> नीच कुलीनों के हाथ का तथा अयोग्य क्षेत्र में रखे भोजन-पान का निषेध</strong> <br /> | ||
भगवती आराधना/ भाषा./पृ. 675 अशुद्ध भूमि में पड्या भोजन, तथा म्लेछादिकनिकरि स्पर्श्या भोजन, पान तथा अस्पृश्य शूद्र का लाया जल तथा शूद्रादिक का किया भोजन तथा अयोग्य क्षेत्र में धर्या भोजन, तथा मांस भोजन करने वाले का भोजन, तथा नीच कुल के गृहनिमैं प्राप्त भया भोजन जलादिक अनुपसेव्य हैं। यद्यपि प्रासुक होइ हिंसा रहित होइ तथापि अणुपसेव्यापणातैं अंगीकार करने योग्य नहीं हैं। (और भी दे, वर्णव्यवस्था/4/1)।</li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6">अभक्ष्य पदार्थों के खाये जाने पर तद्योग्य प्रायश्चित्त</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6">अभक्ष्य पदार्थों के खाये जाने पर तद्योग्य प्रायश्चित्त</strong> <br /> | ||
देखें [[ प्रायश्चित्त#2.4.4 | प्रायश्चित्त - 2.4.4 ]]में | देखें [[ प्रायश्चित्त#2.4.4 | प्रायश्चित्त - 2.4.4 ]]में राजवार्तिक कारणवश अप्रासुक के ग्रहण करने में प्रासुक का विस्मरण हो जाये और पीछे स्मरण आ जाय तो विवेक (उत्सर्ग) करना ही प्रायश्चित है। </span><br /> | ||
अनगारधर्मामृत/5/40 <span class="SanskritGatha">पूयादिदोषे त्यक्त्वपि तदन्नं विधिवच्चरेत् । प्रायश्चित्तं नखे किंचिंत केशादौ त्वन्नमुत्सृजेत् ।40। </span>= <span class="HindiText">चौदह मलों (देखें [[ आहार#II.4.2 | आहार - II.4.2]]) में से आदि के पीव, रक्त मांस, हड्डी और चर्म इन पाँच दोषों को महादोष माना है। अतएव इनसे संसक्त आहार को केवल छोड़ ही न दे किन्तु उसको छोड़कर आगमोक्तविधि से प्रायश्चित्त भी ग्रहण करे। नख का दोष मध्यम दर्जे का है। अतएव नख युक्त आहार को छोड़ देना चाहिए, किन्तु कुछ प्रायश्चित्त लेना चाहिए। केश आदि का दोष जघन्य दर्जे का है। अतएव उनसे युक्त आहार केवल छोड़ देना चाहिए।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="1.7" id="1.7"><strong> पदार्थों की मर्यादाएँ</strong> <br /> | <li><span class="HindiText" name="1.7" id="1.7"><strong> पदार्थों की मर्यादाएँ</strong> <br /> | ||
<strong>नोट</strong>- (ऋतु परिवर्तन अष्टाह्निका से अष्टाह्निका पर्यन्त जानना चाहिए)। (व्रत विधान सं./31); (क्रिया कोष)। </span></li> | <strong>नोट</strong>- (ऋतु परिवर्तन अष्टाह्निका से अष्टाह्निका पर्यन्त जानना चाहिए)। (व्रत विधान सं./31); (क्रिया कोष)। </span></li> | ||
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<td width="294" valign="top"><p><span class="HindiText">( | <td width="294" valign="top"><p><span class="HindiText">( अमितगति श्रावकाचार/6/84 );( सागार धर्मामृत/3/11 ); ( चारित्तपाहुड़ टी./21/43/17)।</span></p></td> | ||
<td width="108" valign="top"><p><span class="HindiText">16 पहर</span></p></td> | <td width="108" valign="top"><p><span class="HindiText">16 पहर</span></p></td> | ||
<td width="102" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">16 पहर</span></p></td> | <td width="102" colspan="2" valign="top"><p><span class="HindiText">16 पहर</span></p></td> | ||
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व्रत विधान सं./वृ. 19 ओला, घोखड़ा, निशि भोजन, बहुबीजक, बैंगन, संधान/बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर, पाकर-फल, जो होय अजान। कन्दमूल, माटी, विष, आमिष, मधु, माखन अरु मदिरापान। फल अति तुच्छ, तुषार, चलितरस, जिनमत ये बाईस अखान।</span></li> | व्रत विधान सं./वृ. 19 ओला, घोखड़ा, निशि भोजन, बहुबीजक, बैंगन, संधान/बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर, पाकर-फल, जो होय अजान। कन्दमूल, माटी, विष, आमिष, मधु, माखन अरु मदिरापान। फल अति तुच्छ, तुषार, चलितरस, जिनमत ये बाईस अखान।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> मद्य, मांस, मधु व नवनीत अभक्ष्य हैं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> मद्य, मांस, मधु व नवनीत अभक्ष्य हैं</strong></span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/19 <span class="SanskritText">मांसं मधु नवनीतं... च वर्जयेत् तत्स्पृष्टानि सिद्धान्यपि च न दद्यान्न खादेत्, न स्पृशेच्च। </span>= <span class="HindiText">मांस, मधु व मक्खन का त्याग करना चाहिए। इन पदार्थों का स्पर्श जिसको हुआ है, वह अन्न भी न खाना चाहिए और न छूना चाहिए।</span><br> पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय उ/71 <span class="SanskritGatha">मधु मद्यं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः। वल्भ्यन्ते न व्रतिना तद्वर्णा जन्तवस्तत्र।71।</span>–<span class="HindiText">शहद, मदिरा, मक्खन और मांस तथा महाविकारों को धारण किये पदार्थ व्रती पुरुष को भक्षण करने योग्य नहीं है क्योंकि उन वस्तुओं में उसी वर्ण व जाति के जीव होते हैं।71।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> चलित रस पदार्थ अभक्ष्य है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> चलित रस पदार्थ अभक्ष्य है</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/20 <span class="SanskritText"> विपन्नरूपीरसगन्धानि, कुथितानि पुष्पितानि, पुराणानि जन्तुसंस्पृष्टानि च न दद्यान्न खादेत् न स्पृशेच्च। </span>= <span class="HindiText">जिनका रूप, रस व गन्ध तथा स्पर्श चलित हुआ है, जो कुथित हुआ है अर्थात् फूई लगा हुआ है, जिसको जन्तुओं ने स्पर्श किया है ऐसा अन्न न देना चाहिए, न खाना चाहिए और न स्पर्श करना चाहिए।</span><br /> | |||
अमितगति श्रावकाचार/6/85 <span class="SanskritGatha">आहारो निःशेषो निजस्वभावादन्यभावमुपयातः। योऽनन्तकायिकोऽसौ परिहर्त्तव्यो दयालीढैः।85।</span> = <span class="HindiText">जो समस्त आहार अपने स्वभावतैं अन्यभाव को प्राप्त भया, चलितरस भया, बहुरि जो अनन्तकाय सहित है सो वह दया सहित पुरुषों के द्वारा त्याज्य है।</span><br /> | |||
चारित्तपाहुड़/ टी./21/43/16<span class="SanskritText"> सुललितपुष्पितस्वादचलितमन्नं त्यजेत्। </span>= <span class="HindiText">अंकुरित हुआ अर्थात् जड़ा हुआ, फुई लगा हुआ या स्वाद चलित अन्न अभक्ष्य है।</span><br /> | |||
लाटी संहिता/2/56 <span class="SanskritGatha">रूपगन्धरसस्पर्शाच्चलितं नैव भक्षयेत्। अवश्यं त्रसजीवानां निकोतानां समाश्रयात्।56। </span>= <span class="HindiText">जो पदार्थ रूप गन्ध रस और स्पर्श से चलायमान हो गये हैं, जिनका रूपादि बिगड़ गया है, ऐसे पदार्थों को भी कभी नहीं खाना चाहिए। क्योंकि ऐसे पदार्थों में अनेक त्रस जीवों की, और निगोद राशि की उत्पत्ति अवश्य हो जाती है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> बासी व अमर्यादित भोजन अभक्ष्य है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> बासी व अमर्यादित भोजन अभक्ष्य है</strong> </span><br /> | ||
अमितगति श्रावकाचार/6/84 ...<span class="SanskritText"> दिवसद्वितयोषिते च दधिमंथिते ... त्याज्या।</span> =<span class="HindiText"> दो दिनका बासी दही और छाछ .... त्यागना योग्य है। ( सागार धर्मामृत/3/11 ); ( लाटी संहिता/2/57 ) </span><br /> | |||
चारित्तपाहुड़/ टी./21/43/13<span class="SanskritText"> लवणतैलघृतधृतफलसंधानकमुर्हूतद्वयोपरिनवनीतमांसादिसेविभाण्डभाजनवर्जनं। ... षोडशप्रहरादुपरि तक्रं दधि च त्यजेत्। </span>=<span class="HindiText"> नमक, तेल व घी में रखा फल और आचार को दो मुहूर्त से ऊपर छोड़ देना चाहिए। तथा मक्खन व मांस जिस बर्तन में पका हो वह बर्तन भी छोड़ देना चाहिए। ... सोलह पहर से ऊपर के दही का भी त्याग कर देवे।</span><br /> | |||
लाटी संहिता/2/33 <span class="SanskritGatha">केवलेनाग्निना पक्वं मिश्रितेन घृतेन वा। उषितान्नं न भुञ्जीत पिशिताशनदोषवित्।33।</span> =<span class="HindiText">जो पदार्थ रोटी भात आदि केवल अग्नि पर पकाये हुए हैं, अथवा पूड़ी कचौड़ी आदि गर्म घी में पकाये हुए हैं अथवा परामठे आदि घी व अग्नि दोनों के संयोग से पकाये हुए हैं। ऐसे प्रकार का उषित अन्न मांस भक्षण के दोषों के जानने वालों को नहीं खाना चाहिए। (प्रश्नोत्तर श्रावकाचार)।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> अचार व मुरब्बे आदि अभक्ष्य हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> अचार व मुरब्बे आदि अभक्ष्य हैं</strong> </span><br /> | ||
वसुनन्दी श्रावकाचार/58 ... <span class="PrakritText">संघाण... णिच्चं तससंसिद्धाइं ताइं परिवज्जियव्वाइं।58।</span> = <span class="HindiText">अचार आदि... नित्य त्रस जीवों से संसिक्त रहते हैं, अतः इनका त्याग कर देना चाहिए। ( सागार धर्मामृत/3/11 )।</span><br /> | |||
लाटी संहिता/2/55 <span class="SanskritGatha">यवोषितं न भक्ष्यं स्यादन्नादि पलदोषत:। आसवारिष्ट संधानथानादीनां कथात्र का।55। </span>= <span class="HindiText">जहाँ बासी भोजन के भक्षण का त्याग कराया, वहाँ पर आसव, अरिष्ट, सन्धान व अथान अर्थात् अँचार-मुरब्बे की तो बात ही क्या।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> बीधा व सन्दिग्ध अन्न अभक्ष्य है </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> बीधा व सन्दिग्ध अन्न अभक्ष्य है </strong> </span><br /> | ||
अमितगति श्रावकाचार/6/84 <span class="SanskritText"> विद्धं पुष्पितमन्नं कालिङ्गद्रोणपुष्पिका त्याज्या।</span> = <span class="HindiText">बीधा और फूई लगा अन्न और कलींदा व राई ये त्यागने योग्य है। ( चारित्तपाहुड़/ टी./24/43/16)। </span><br /> | |||
लाटी संहिता/2/ श्लोक न.<span class="SanskritGatha"> विद्धं त्रसाश्रितं यावद्वर्जयेत्तदभक्ष्यवत्। शतशः शोधितं चापि सावद्यानैर्दृगादिभिः।19। संदिग्धं च यदन्नादि श्रितं वा नाश्रितं त्रसैः। मनःशुद्धिप्रसिद्धार्थं श्रावकः क्वापि नाहरेत्।20। शोधितस्य चिरात्तस्य न कुर्याद् ग्रहणं कृती। कालस्यातिक्रमाद् भूयो दृष्टिपूतं समाचरेत्।32। </span>= <span class="HindiText">घुने हुए या बीधे हुए अन्न में भी अनेक त्रस जीव होते हैं। यदि सावधान होकर नेत्रों के द्वारा शोधा भी जाये तो भी उसमें से सब त्रस जीवों का निकल जाना असम्भव है। इसलिए सैकड़ों बार शोधा हुआ भी घुना व बीधा अन्न अभक्ष्य के समान त्याज्य है।19। जिस पदार्थ में त्रस जीवों के रहने का सन्देह हो। (इसमें त्रस जीव हैं या नहीं) इस प्रकार सन्देह बना ही रहे तो भी श्रावक की मनः शुद्धि के अर्थ छोड़ देना चाहिए।20। जिस अन्नादि पदार्थ को शोधे हुए कई दिन हो गये हों उनको ग्रहण नहीं करना चाहिए। जिस पदार्थ को शोधने पर मर्यादा से अधिक काल हो गया है, उनको पुनः शोधकर काम में लेना चाहिए।32।</span></li> | |||
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अथवा रुपया गरमाई, डारे पयमें दधि थाई।</span></li> | अथवा रुपया गरमाई, डारे पयमें दधि थाई।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">गोरस में दुग्धादिके त्याग का क्रम</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">गोरस में दुग्धादिके त्याग का क्रम</strong> </span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/1, 13, 14/ गा.112/पृ. 112/पृ.254 <span class="SanskritGatha">पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसव्रतो नो चेत् तस्मात्तत्त्वं त्रायत्मकम्।112। </span>=<span class="HindiText"> जिसका केवल दूध पीने का नियम है वह दही नहीं खाता दूध ही पीता है, इसी प्रकार जिसका दही खाने का नियम है वह दूध नहीं पीता है और जिसके गोरस नहीं खाने का व्रत है, वह दूध और दही दोनों को नहीं खाता है। ...।112।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> दूध अभक्ष्य नहीं है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> दूध अभक्ष्य नहीं है</strong> </span><br /> | ||
सागार धर्मामृत/2/10 पर उद्धृत फुटनोट-<span class="SanskritGatha"> मांसं जीवशरीरं, जीवशरीर भवेन्न वा मांसम्। यद्वन्निम्बो वृक्षो, वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः।9। शुद्धं दुग्धं न गोर्मांसं, वस्तुवै चित्र्यमेदृशम्। विषघ्नं रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः।10। हेयं पलं पयः पेयं, समे सत्यपि कारणे। विषद्रोरायुषे पत्रं, मूलं तु मृतये मतम्।11। </span>= <span class="HindiText">जो जीव का शरीर है वह माँस है ऐसी तर्कसिद्ध व्याप्ति नहीं है, किन्तु जो माँस है वह अवश्य जीव का शरीर है ऐसी व्याप्ति है। जैसे जो वृक्ष है वह अवश्य नीम है ऐसी व्याप्ति नहीं अपितु जो नीम है वह अवश्य वृक्ष है ऐसी व्याप्ति है।9। गाय का दूध तो शुद्ध है, माँस शुद्ध नहीं। जैसे -सर्प का रत्न तो विष का नाशक है किन्तु विष प्राणों का घातक है। यद्यपि मांस और दूध दोनों की उत्पत्ति गाय से है तथापि ऊपर के दृष्टान्त के अनुसार दूध ग्राह्य है मांस त्याज्य है। एक यह भी दृष्टान्त है कि - विष वृक्ष का पत्ता जीवनदाता वा जड़ मृत्युदायक है।11।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> कच्चे दूध-दही के साथ द्विदल दोष</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> कच्चे दूध-दही के साथ द्विदल दोष</strong> </span><br /> | ||
सागार धर्मामृत/5/18 <span class="SanskritText">आमगोरससंपृक्तं, द्विदलं प्रायशोऽनवम्। वर्षास्वदलितं चात्र ... नाहरेत्।18। </span>= <span class="HindiText">कच्चे दूध, दही व मट्ठा मिश्रित द्विदल को, बहुधा पुराने द्विदल को, वर्षा ऋतु में बिना दले द्विदल को ... नहीं खाना चाहिए।18। ( चारित्तपाहुड़/21/43/18 )।</span><br /> | |||
व्रत विधान सं./पृ. 33 पर उद्धृत–<span class="SanskritText">योऽपक्वतक्रं द्विदलान्नमिश्रं भुक्तं विधत्ते सुखवाष्पसंगे। तस्यास्यमध्ये मरणं प्रयत्ना: सन्मूर्च्छिका जीवगणा भवन्ति।</span> <span class="HindiText">=कच्चे दूध दही मट्ठा व द्विदल पदार्थों के मिलने से और मुख को लार का उनमें सम्बन्ध होने से असंख्य सम्मूर्च्छन त्रस जीव राशि पैदा होती है, इसके महान् हिंसा होती है। अत: वह सर्वथा त्याज्य है। ( | व्रत विधान सं./पृ. 33 पर उद्धृत–<span class="SanskritText">योऽपक्वतक्रं द्विदलान्नमिश्रं भुक्तं विधत्ते सुखवाष्पसंगे। तस्यास्यमध्ये मरणं प्रयत्ना: सन्मूर्च्छिका जीवगणा भवन्ति।</span> <span class="HindiText">=कच्चे दूध दही मट्ठा व द्विदल पदार्थों के मिलने से और मुख को लार का उनमें सम्बन्ध होने से असंख्य सम्मूर्च्छन त्रस जीव राशि पैदा होती है, इसके महान् हिंसा होती है। अत: वह सर्वथा त्याज्य है। ( लाटी संहिता/2/145 )। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">पक्के दूध-दही के साथ द्विदल दोष</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">पक्के दूध-दही के साथ द्विदल दोष</strong> <br /> | ||
व्रत विधान सं./पृ. 33 जब चार मुहूरत जाहीं, एकेन्द्रिय जिय उपजाहीं। बारा घटिका जब जाय, बेइन्द्रिय तामें थाम। षोडशघटिका ह्वैं जबहीं, तेइन्द्रिय उपजें तबहीं। जब बीस घड़ी गत जानी, उपजै चौइन्द्रिय प्राणी। गमियां घटिका जब चौबीस, पंचेन्द्रिय जिय पूरित तीस। ह्वै हैं नहीं संशय आनी, यों भाषै जिनवर वाणी। बुधि जन लाख ऐसो दोष, तजिये ततछिन अघकोष। कोई ऐसा कहवाई, खैहैं एक याम ही माहीं। मरयाद न सधि है मूल तजि हैं, जे व्रत अनुकूल। खावें में पाय अपार छाड़ें शुभगति है सार।</span></li> | व्रत विधान सं./पृ. 33 जब चार मुहूरत जाहीं, एकेन्द्रिय जिय उपजाहीं। बारा घटिका जब जाय, बेइन्द्रिय तामें थाम। षोडशघटिका ह्वैं जबहीं, तेइन्द्रिय उपजें तबहीं। जब बीस घड़ी गत जानी, उपजै चौइन्द्रिय प्राणी। गमियां घटिका जब चौबीस, पंचेन्द्रिय जिय पूरित तीस। ह्वै हैं नहीं संशय आनी, यों भाषै जिनवर वाणी। बुधि जन लाख ऐसो दोष, तजिये ततछिन अघकोष। कोई ऐसा कहवाई, खैहैं एक याम ही माहीं। मरयाद न सधि है मूल तजि हैं, जे व्रत अनुकूल। खावें में पाय अपार छाड़ें शुभगति है सार।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> पंच उदुम्बर फलों का निषेध व उसका कारण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> पंच उदुम्बर फलों का निषेध व उसका कारण</strong> </span><br /> | ||
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/72-73 <span class="SanskritGatha">योनिरुदुम्बर युग्मं प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि। त्रसजीवानां तस्मात्तेषां तद्भक्षणे हिंसा।72। यानि तु पुनर्भवेयुः कालोच्छिन्नत्रसाणि शुष्काणि। भजतस्तान्यपि हिंसा विशिष्टरागादिरूपा स्यात्।73।</span> = <span class="HindiText">ऊमर, कठूमर, पिलखन, बड़ और पीपल के फल त्रस जीवों की योनि हैं इस कारण उनके भक्षण में उन त्रस जीवों की हिंसा होती है।72। और फिर भी जो पाँच उदुम्बर सूखे हुए काल पाकर त्रस जीवों से रहित हो जावें तो उनको भी भक्षण करने वाले के विशेष रागादि रूप हिंसा होती है।73। ( सागार धर्मामृत/2/13 )।</span><br /> | |||
वसुनन्दी श्रावकाचार/58 <span class="PrakritGatha">उंवार-वड-पिप्पल-पिंपरीय-संधाण-तरुपसूणाइं। णिच्चं तससंसिद्धाइं ताइं परिवज्जियव्वाइं।58।</span> = <span class="HindiText">ऊंबर, बड़, पीपल, कठूमर और पाकर फल, इन पाँचों उदुम्बर फल, तथा संधानक (अँचार) और वृक्षों के फूल ये सब नित्य त्रस जीवों से संसिक्त अर्थात् भरे हुए रहते हैं, इसलिए इनका त्याग करना चाहिए।58।</span><br /> | |||
लाटी संहिता/2/78 <span class="SanskritGatha"> उदम्बरफलान्येव नादेयानि दृगात्मभिः। नित्यं साधारणान्येव त्रसाङ्गैराश्रितानि च।78।</span> = <span class="HindiText">सम्यग्दृष्टियों को उदुम्बर फल नहीं खाने चाहिए क्योंकि वे नित्य साधारण (अनन्तकायिक) हैं। तथा अनेक त्रस जीवों से भरे हुए हैं। <br /> | |||
देखें [[ श्रावक#4.1 | श्रावक - 4.1 ]]पाँच उदुम्बर फल तथा उसी के अन्तर्गत खून्बी व साँप की छतरी भी त्याज्य है।</span></li> | देखें [[ श्रावक#4.1 | श्रावक - 4.1 ]]पाँच उदुम्बर फल तथा उसी के अन्तर्गत खून्बी व साँप की छतरी भी त्याज्य है।</span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> अनजाने फलों का निषेध</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> अनजाने फलों का निषेध</strong> <br /> | ||
देखें [[ उदुम्बर ]], उदुम्बर त्यागी, जिन फलों का नाम मालूम नहीं है ऐसे सम्पूर्ण अजानफलों को नहीं खावे।</li> | देखें [[ उदुम्बर ]], उदुम्बर त्यागी, जिन फलों का नाम मालूम नहीं है ऐसे सम्पूर्ण अजानफलों को नहीं खावे।</li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> कंदमूल का निषेध व कारण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> कंदमूल का निषेध व कारण</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/1533/1414 <span class="SanskritText">ण य खंति ... पलंडुमादीयं।</span> = <span class="HindiText">कुलीन पुरुष .. प्याज, लहसुन वगैरह कन्दों का भक्षण नहीं करते हैं।</span><br /> | |||
मू.आ./825 <span class="PrakritGatha">फलकंदमूलवीयं अणग्गिपवकं तु आमयं किं चि। णच्चा अणेसणीयं णवि य पडिच्छंति ते धीरा।825।</span> = <span class="HindiText">अग्नि कर नहीं पके पदार्थ फल कन्दमूल बीज तथा अन्य भी जो कच्चा पदार्थ उसको अभक्ष्य जानकर वे धीर मुनि खाने की इच्छा नहीं करते। ( | मू.आ./825 <span class="PrakritGatha">फलकंदमूलवीयं अणग्गिपवकं तु आमयं किं चि। णच्चा अणेसणीयं णवि य पडिच्छंति ते धीरा।825।</span> = <span class="HindiText">अग्नि कर नहीं पके पदार्थ फल कन्दमूल बीज तथा अन्य भी जो कच्चा पदार्थ उसको अभक्ष्य जानकर वे धीर मुनि खाने की इच्छा नहीं करते। ( भावपाहुड़/ मू./103)। </span><br /> | ||
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/85 <span class="SanskritText">अल्पफलबहुविघातान्मूलकमार्द्राणि ङ्गवेराणि। ... अवहेयं।85।</span> = <span class="HindiText">फल थोड़ा परन्तु त्रस हिंसा अधिक होने से सचित्त मूली, गाजर, आर्द्रक,... इत्यादि छोड़ने योग्य हैं।85। ( सर्वार्थसिद्धि/7/21/361/10 )।</span><br /> | |||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका 1206/1204/19 <span class="SanskritText">फलं अदारितं, मूलं, पत्रं, साङ्कुरं कन्दं च वर्जयेत्।</span> = <span class="HindiText">नहीं विदारा हुआ फल, मूल, पत्र, अंकुर और कन्द का त्याग करना चाहिए। ( योगसार (अमितगति)/8/63 )।</span><br> सागार धर्मामृत/5/16-17 <span class="SanskritGatha">नालीसूरणकालिन्दद्रोणपुष्पादि वर्जयेत्। आजन्म तद्भुजां ह्यल्पं, फलं घातश्च भूयसाम्।16। अनन्तकाया: सर्वेऽपि, सदा हेया दयापरै:। यदेकमति तं हन्तुं, प्रवृत्तो हन्त्यनन्तकान्।17।</span> = <span class="HindiText">धार्मिक श्रावक नाली, सूरण, कलींदा और द्रोणपुष्प आदि सम्पूर्ण पदाथों को जीवन पर्यन्त के लिए छोड़ देवें क्योंकि इनके खाने वाले को उन पदार्थों के खाने में फल थोड़ा है और घात बहुत जीवों का होता है।16। दयालु श्रावकों के द्वारा सर्वदा के लिए सब ही साधारण वनस्पति त्याग दी जानी चाहिए क्योंकि एक भी उस साधारण वनस्पति को मारने के लिए प्रवृत्त व्यक्ति अनन्त जीवोंको मारता है।17।</span><br /> | |||
चारित्तपाहुड़/ टी./21/43/10 <span class="SanskritText">मूलनालिकापद्मिनीकन्दलशुनकन्दतुम्बकफलकुसुम्भशाककलिंगफलसुरणकन्दत्यागश्च।</span> =<span class="HindiText"> मूली, कमल की डण्डी, लहसुन, तुम्बक फल, कुसुभे का शाक, कलिंग फल, आलू आदि का त्याग भी कर देना चाहिए।</span><br /> | |||
भावपाहुड़ टीका/101/254/3 <span class="SanskritText"> कन्दं सूरणं लशुनं पलाण्डु क्षुद्रबृहन्तमुस्तांशालूकं उत्पमूलं शृङ्गवेरं आर्द्रवरं आर्द्रहरिद्रेत्यर्थ: ... किमपि ऐर्वापतिकं अशित्वा .. भ्रतिस्त्वं हे जीव अनन्तसंसारे।</span> = <span class="HindiText">कन्द अर्थात् सूरण, लहसुन, आलू छोटी या बड़ी शालूक, उत्पलमूल (भिस), शृंगवेर, अद्रक, गीली हल्दी आदि इन पदार्थों में से कुछ भी खाकर हे जीव ! तुझे अनन्त संसार में भ्रमण करना पड़ा है।</span><br /> | |||
लाटी संहिता/2/79-80 <span class="SanskritGatha">अत्रोदुम्बरशब्दस्तु नूनं स्यादुपलक्षणम्। तेन साधारणास्त्याज्या ये वनस्पतिकायिकाः।79। मूलबीजा यथा प्रोक्ता फलकाद्यार्द्रकादयः। न भक्ष्या दैवयोगाद्वा रोगिणाप्यौषधच्छ- लात्।80।</span> = <span class="HindiText">यहाँ पर जो उद्रुम्बर फलों का त्याग कराया है वह उपलक्षण मात्र है। इसलिए जितने वनस्पति साधारण या अनन्तकायिक हैं उन सबका त्याग कर देना चाहिए।97। ऊपर जो अदरख आलू आदि मूलबीज, अग्रबीज, पोरबीजादि अनन्तकायात्मक साधारण बतलाये हैं, उन्हें कभी न खाना चाहिए। रोग हो जाने पर भी इनका भक्षण न करें।80।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> पुष्प व पत्र जाति का निषेध</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> पुष्प व पत्र जाति का निषेध</strong> </span><br /> | ||
भावपाहुड़/ मू. 103<span class="PrakritGatha"> कंदमूलं वीयं पुप्फं पत्तादि किंचि सच्चित्तं। असिऊण माणगव्वं भमिओसि अणंतसंसारे।103।</span> = <span class="HindiText">जमीकन्द, बीज अर्थात् चनादिक अन्न, मूल अर्थात् गाजर आदिक, पुष्प अर्थात् फूल, पत्र अर्थात् नागरवेल आदिक इनको आदि लेकर जो कुछ सचित्त वस्तुओं को गर्व से भक्षण कर, हे जीव! तू अनन्त संसार में भ्रमण करता रहा है।</span><br /> | |||
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/85 <span class="SanskritText">निम्बकुसुमं कैतकमित्येबमवहेयं।85।</span> = <span class="HindiText">नीम के फूल, केतकी के फूल इत्यादि वस्तुएँ छोड़ने योग्य हैं। </span><br /> | |||
सं.सि./7/21/361/10 <span class="SanskritText">केतक्युर्जुनपुष्पादीनि शृङ्गवेरमूलकादीनि बहुजन्तुयोनिस्थानान्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि बहुघाता- ल्पफलत्वात्।</span> = <span class="HindiText">जो बहुत जन्तुओं की उत्पत्ति के आधार हैं और जिन्हें अनन्तकाय कहते हैं, ऐसे केतकी के फूल और अर्जुन के फूल आदि तथा अदरख और मूली आदि का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि इनके सेवन में फल कम है और घात बहुत जीवों का है। ( | सं.सि./7/21/361/10 <span class="SanskritText">केतक्युर्जुनपुष्पादीनि शृङ्गवेरमूलकादीनि बहुजन्तुयोनिस्थानान्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि बहुघाता- ल्पफलत्वात्।</span> = <span class="HindiText">जो बहुत जन्तुओं की उत्पत्ति के आधार हैं और जिन्हें अनन्तकाय कहते हैं, ऐसे केतकी के फूल और अर्जुन के फूल आदि तथा अदरख और मूली आदि का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि इनके सेवन में फल कम है और घात बहुत जीवों का है। ( राजवार्तिक/7/21/27/550/4 )।</span><br /> | ||
गुणभद्र श्रावकाचार/178 <span class="SanskritGatha">मूलं फलं च शाकादि पुष्पं बीजं करीरकम्। अप्रासुकं त्यजेन्नीरं सचित्तविरतोगृही।178।</span> = <span class="HindiText">सचित्तविरत श्रावक सचित्त मूल, फल, शाक पुष्प, बीज, करीर व अप्रासुक जल का त्याग कर देता है ( वसुनन्दी श्रावकाचार/295 )।</span><br /> | |||
वसुनन्दी श्रावकाचार/58 <span class="PrakritText">तरुपसूणाइं। णिच्चं तससंसिद्धाइं ताइं परिबज्जिय- व्वाइं।58।</span> = <span class="HindiText">वृक्षों के फूल नित्य त्रसजीवों से संसिक्त रहते हैं। इसलिए इन सबका त्याग करना चाहिए। 58। </span><br /> | |||
सागार धर्मामृत/5/16 <span class="SanskritText">द्रोणपुष्पादि वर्जयेत्। आजन्म तद्भुजां ह्यल्पं, फलं घातश्च भूयसाम्।</span> = <span class="HindiText">द्रोणपुष्पादि सम्पूर्ण पदार्थों को जीवन पर्यन्त के लिए छोड़ देवे। क्योंकि इनके खाने में फल थोड़ा और घात बहुत जीवों का होता है। ( सागार धर्मामृत/3/13 )।</span><br> लाटी संहिता/2/35-37 <span class="SanskritText">शासकपत्राणि सर्वाणि नादेयानि कदाचन। श्रावकै- र्मासदोषस्य वर्जनार्थं प्रयत्नः।35। तत्रावश्यं त्रसाः सूक्ष्माः केचित्सयुर्द्दष्टिगोचराः। न त्यजन्ति कदाचित्तं शाकपत्राश्रयं मनाक्।36। तस्माद्धर्मार्थिना नूनमात्मनो हितमिच्छता। आताम्बूलं दलं त्याज्यं श्रावकैर्दर्शनान्वितैः।37।</span> = <span class="HindiText">श्रावकों को यत्नपूर्वक मांस के दोषों का त्याग करने के लिए सब तरह की पत्तेवाली शाक भाजी भी कभी ग्रहण नहीं करनी चाहिए।35। क्योंकि उस पत्तेवाले शाक में सूक्ष्म त्रस जीव अवश्य होते हैं उनमें से कितने ही जीव तो दृष्टिगोचर हो जाते हैं और कितनी ही दिखाई नहीं देते। किन्तु वे जीव उस पत्तेवाले शाक का आश्रय कभी नहीं छोड़ते।36। इसलिए अपने आत्मा का कल्याण चाहनेवाले धर्मात्मा जीवों को पत्तेवाले सब शाक तथा पान तक छोड़ देना चाहिए और दर्शन प्रतिमा को धारण करने वाले श्रावकों को विशेषकर इनका त्याग करना चाहिए।37। </span></li> | |||
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Revision as of 19:13, 17 July 2020
मोक्षमार्ग में यद्यपि अन्तरंग परिणाम प्रधान है, परन्तु उनका निमित्त होने के कारण भोजन में भक्ष्याभक्ष्य का विवेक रखना अत्यन्त आवश्यक है । मद्य, मांस, मधु व नवनीत तो हिंसा, मद व प्रमाद उत्पादक होने के कारण महाविकृतियाँ हैं ही, परन्तु पंच उदुम्बर फल, कन्दमूल, पत्र व पुष्प जाति की वनस्पतियाँ भी क्षुद्र त्रस जीवों की हिंसा के स्थान अथवा अनन्तकायिक होने के कारण अभक्ष्य हैं । इनके अतिरिक्त बासी, रस चलित, स्वास्थ्य बाधक, अमर्यादित, संदिग्ध व अशोधित सभी प्रकार की खाद्य वस्तुएँ अभक्ष्य हैं । दालों के साथ दूध व दही का संयोग होने पर विदल संज्ञावाला अभक्ष्य हो जाता है । विवेकी जनों को इन सबका त्याग करके शुद्ध अन्न जल आदि का ही ग्रहण करना योग्य है ।
- भक्ष्याभक्ष्य सम्बन्धी सामान्य विचार
- बहु पदार्थ मिश्रित द्रव्य एक समझा जाता है।
- रुग्णावस्था में अभक्ष्य भक्षण का निषेध।
- द्रव्य क्षेत्रादि व स्वास्थ्य स्थिति का विचार।
- अभक्ष्य वस्तुओं को आहार से पृथक् करके वह आहार ग्रहण करने की आज्ञा।
- नीच कुलीनों के हाथ का तथा अयोग्य क्षेत्र में रखे अन्न- पान का निषेध।
- अभक्ष्य पदार्थों के खाये जाने पर तद्योग्य प्रायश्चित्त।
- पदार्थों की मर्यादाएँ।
- बहु पदार्थ मिश्रित द्रव्य एक समझा जाता है।
- अभक्ष्य पदार्थ विचार
- बाईस अभक्ष्यों के नाम निर्देश
- मद्य, मांस, मधु व नवनीत अभक्ष्य है।
- चर्म निक्षिप्त वस्तु के त्याग में हेतु।–देखें मांस ।
- भोजन से हड्डी चमड़े आदि का स्पर्श होने पर अन्तराय हो जाता है।–देखें अन्तराय ।
- मद्य, मांस-मधु व नवनीत के अतिचार व निषेध।–देखें वह वह नाम ।
- चलित पदार्थ अभक्ष्य है।
- दुष्पक्व आहार।–देखें भोगोपभोग - 5।
- बासी व अमर्यादित भोजन अभक्ष्य है।
- रात्रि भोजन विचार।–देखें रात्रि भोजन ।
- अचार व मुरब्बे आदि अभक्ष्य हैं।
- बीधा व संदिग्ध अन्न अभक्ष्य है।
- अन्न शोधन विधि।–देखें आहार - I.2।
- सचित्ताचित्त विचार।–देखें सचित्त ।
- बाईस अभक्ष्यों के नाम निर्देश
- गोरस विचार
- दही के लिए शुद्ध जामन।
- गोरस में दुग्धादि के त्याग का क्रम।
- दूध अभक्ष्य नहीं है।
- दूध प्रासुक करने की विधि–देखें जल ।
- कच्चे दूध-दही के साथ द्विदल दोष।
- पक्के दूध-दही के साथ द्विदल दोष।
- द्विदल के भेद।
- दही के लिए शुद्ध जामन।
- वनस्पति विचार
- पंच उदुम्बर फलों का निषेध व उसका कारण।
- सूखे हुए भी उदम्बर फल वर्जनीय हैं।–देखें भक्ष्याभक्ष्य - 4.1।
- अनजाने फलों का निषेध।
- कंदमूल का निषेध व कारण।
- पुष्प व पत्र जाति का निषेध।
- पंच उदुम्बर फलों का निषेध व उसका कारण।
- भक्ष्याभक्ष्य सम्बन्धी सामान्य विचार
- बहु पदार्थ मिश्रित द्रव्य एक समझा जाता है
क्रियाकोष/1257 लाडू पेड़ा पाक इत्यादि औषध रस और चूरण आदि। बहुत वस्तु करि जो नियजेह, एक द्रव्य जानो बुध तेह। - रुग्णावस्था में अभक्ष्य का निषेध
लाटी संहिता/2/80 मूलबीजा यथा प्रोक्ता फलकाद्यार्द्रकादयः। न भक्ष्या दैवयोगाद्वा रोगिणाप्यौषधच्छलात्।80। = उपरोक्त मूलबीज और अग्रबीज आदि अनन्तकायिक जो अदरख आदि वनस्पति उन्हें किसी भी अवस्था में भी नहीं खाना चाहिए। रोगियों को भी औषधि के बहाने उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए। - द्रव्य क्षेत्रादि व स्वास्थ्य स्थिति का विचार
भगवती आराधना/255/476 भक्तं खेत्तं कालं धादं व पडुच्च तह तवं कुज्जा। वादो पित्तो सिंभो व जहा खोभ्रं ण उवयांति। = अनेक प्रकार के भक्त पदार्थ, अनेक प्रकार के क्षेत्र, काल भी- शीत, उष्ण व वर्षा कालरूप तीन प्रकार हैं, धातु अर्थात् अपने शरीर की प्रकृति तथा देशकाल का विचार करके जिस प्रकार वात-पित्त-श्लेष्म का क्षोभ न होगा इस रीति से तप करके क्षपक को शरीर सल्लेखना करनी चाहिए। 255।
देखें आहार - I.3.2 सात्त्विक भोजन करे तथा योग्य मात्रा में करे जितना कि जठराग्नि सुगमता से पचा सके।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/86 यदनिष्टं तद्व्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात्। अभिसंधिकृता विरतिर्विषयाद्योग्याद् व्रतं भवति।86। = जो अनिष्ट अर्थात् शरीर को हानिकारक है वह छोड़े, जो उत्तम कुल के सेवन करके योग्य (मद्य-मांस आदि) नहीं वह भी छोड़े, तो वह व्रत, कुछ व्रत नहीं कहलाता, किन्तु योग्य विषयों से अभिप्राय पूर्वक किया हुआ त्याग ही वास्तविक व्रत है।
आचारसार/4/64 रोगों का कारण होने से लाडू पेड़ा, चावल के बने पदार्थ वा चिकने पदार्थों का त्याग द्रव्यशुद्धि है। - अभक्ष्य वस्तुओं को आहार से पृथक् करके वह आहार ग्रहण करने की आज्ञा
अनगारधर्मामृत/5/41 कन्दादिषट्कं त्यागार्हमित्यन्नाद्विभजेन्मुनिः। न शक्यते विभक्तुं चेत् त्यज्यतां तर्हि भोजनम् ।41। = कन्द, बीज, मूल, फल, कण और कुण्ड ये छह वस्तुएँ आहार से पृथक् की जा सकती हैं। अतएव साधुओं को आहार में वस्तुएँ मिल गयी हों तो उनको पृथक् कर देना चाहिए। यदि कदाचित् उनका पृथक् करना अशक्य हो तो आहार ही छोड़ देना चाहिए। (मू.आ./भाव./484); (और भी देखें विवेक - 1)। - नीच कुलीनों के हाथ का तथा अयोग्य क्षेत्र में रखे भोजन-पान का निषेध
भगवती आराधना/ भाषा./पृ. 675 अशुद्ध भूमि में पड्या भोजन, तथा म्लेछादिकनिकरि स्पर्श्या भोजन, पान तथा अस्पृश्य शूद्र का लाया जल तथा शूद्रादिक का किया भोजन तथा अयोग्य क्षेत्र में धर्या भोजन, तथा मांस भोजन करने वाले का भोजन, तथा नीच कुल के गृहनिमैं प्राप्त भया भोजन जलादिक अनुपसेव्य हैं। यद्यपि प्रासुक होइ हिंसा रहित होइ तथापि अणुपसेव्यापणातैं अंगीकार करने योग्य नहीं हैं। (और भी दे, वर्णव्यवस्था/4/1)। - अभक्ष्य पदार्थों के खाये जाने पर तद्योग्य प्रायश्चित्त
देखें प्रायश्चित्त - 2.4.4 में राजवार्तिक कारणवश अप्रासुक के ग्रहण करने में प्रासुक का विस्मरण हो जाये और पीछे स्मरण आ जाय तो विवेक (उत्सर्ग) करना ही प्रायश्चित है।
अनगारधर्मामृत/5/40 पूयादिदोषे त्यक्त्वपि तदन्नं विधिवच्चरेत् । प्रायश्चित्तं नखे किंचिंत केशादौ त्वन्नमुत्सृजेत् ।40। = चौदह मलों (देखें आहार - II.4.2) में से आदि के पीव, रक्त मांस, हड्डी और चर्म इन पाँच दोषों को महादोष माना है। अतएव इनसे संसक्त आहार को केवल छोड़ ही न दे किन्तु उसको छोड़कर आगमोक्तविधि से प्रायश्चित्त भी ग्रहण करे। नख का दोष मध्यम दर्जे का है। अतएव नख युक्त आहार को छोड़ देना चाहिए, किन्तु कुछ प्रायश्चित्त लेना चाहिए। केश आदि का दोष जघन्य दर्जे का है। अतएव उनसे युक्त आहार केवल छोड़ देना चाहिए। - पदार्थों की मर्यादाएँ
नोट- (ऋतु परिवर्तन अष्टाह्निका से अष्टाह्निका पर्यन्त जानना चाहिए)। (व्रत विधान सं./31); (क्रिया कोष)।
- बहु पदार्थ मिश्रित द्रव्य एक समझा जाता है
नं0 |
पदार्थ का नाम |
मर्यादाएँ |
|||
शीत |
ग्रीष्म |
वर्षा |
|||
1 |
बूरा |
1 मास |
15 दिन |
7 दिन |
|
2 |
दूध (दुहाने के पश्चात्) |
2 घड़ी |
2 घड़ी |
2 घड़ी |
|
|
दूध (उबालने के पश्चात्) |
8 पहर |
8 पहर |
8 पहर |
|
|
नोट-यदि स्वाद बिगड़ जाय तो त्याज्य है। |
|
|
||
3 |
दही (गर्म दूध का) |
8 पहर |
8 पहर |
8 पहर |
|
|
( अमितगति श्रावकाचार/6/84 );( सागार धर्मामृत/3/11 ); ( चारित्तपाहुड़ टी./21/43/17)। |
16 पहर |
16 पहर |
16 पहर |
|
4 |
छाछ–बिलोते समय पानी डाले |
4 पहर |
4 पहर |
4 पहर |
|
|
पीछे पानी डालें तो |
2 घड़ी |
2 घड़ी |
2 घड़ी |
|
5 |
घी |
जब तक स्वाद न बिगड़े |
|||
6 |
तेल |
जब तक स्वाद न बिगड़े |
|||
7 |
गुड़ |
जब तक स्वाद न बिगड़े |
|||
8 |
आटा सर्व प्रकार |
7 दिन |
5 दिन |
3 दिन |
|
9 |
मसाले पीसे हुए |
7 दिन |
5 दिन |
3 दिन |
|
10 |
नमक पिसा हुआ |
2 घड़ी |
2 घड़ी |
2 घड़ी |
|
|
मसाला मिला दें तो |
6 घण्टे |
6 घण्टे |
6 घण्टे |
|
11 |
खिचड़ी, कढ़ी, रायता, तरकारी |
2 पहर |
2 पहर |
2 पहर |
|
12 |
अधिक जल वाले पदार्थ रोटी, पूरी, हलवा, बड़ा आदि। |
4 पहर |
4 पहर |
4 पहर |
|
13 |
मौन वाले पकवान |
8 पहर |
8 पहर |
8 पहर |
|
14 |
बिना पानी के पकवान |
7 दिन |
5 दिन |
3 दिन |
|
15 |
मीठे पदार्थ मिला दही |
2 घड़ी |
2 घड़ी |
2 घड़ी |
|
16 |
गुड़ मिला दही व छाछ |
सर्वथा अभक्ष्य |
- अभक्ष्य पदार्थ विचार
- बाईस अभक्ष्यों के नाम निर्देश
व्रत विधान सं./वृ. 19 ओला, घोखड़ा, निशि भोजन, बहुबीजक, बैंगन, संधान/बड़, पीपल, ऊमर, कठूमर, पाकर-फल, जो होय अजान। कन्दमूल, माटी, विष, आमिष, मधु, माखन अरु मदिरापान। फल अति तुच्छ, तुषार, चलितरस, जिनमत ये बाईस अखान। - मद्य, मांस, मधु व नवनीत अभक्ष्य हैं
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/19 मांसं मधु नवनीतं... च वर्जयेत् तत्स्पृष्टानि सिद्धान्यपि च न दद्यान्न खादेत्, न स्पृशेच्च। = मांस, मधु व मक्खन का त्याग करना चाहिए। इन पदार्थों का स्पर्श जिसको हुआ है, वह अन्न भी न खाना चाहिए और न छूना चाहिए।
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय उ/71 मधु मद्यं नवनीतं पिशितं च महाविकृतयस्ताः। वल्भ्यन्ते न व्रतिना तद्वर्णा जन्तवस्तत्र।71।–शहद, मदिरा, मक्खन और मांस तथा महाविकारों को धारण किये पदार्थ व्रती पुरुष को भक्षण करने योग्य नहीं है क्योंकि उन वस्तुओं में उसी वर्ण व जाति के जीव होते हैं।71। - चलित रस पदार्थ अभक्ष्य है
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1206/1204/20 विपन्नरूपीरसगन्धानि, कुथितानि पुष्पितानि, पुराणानि जन्तुसंस्पृष्टानि च न दद्यान्न खादेत् न स्पृशेच्च। = जिनका रूप, रस व गन्ध तथा स्पर्श चलित हुआ है, जो कुथित हुआ है अर्थात् फूई लगा हुआ है, जिसको जन्तुओं ने स्पर्श किया है ऐसा अन्न न देना चाहिए, न खाना चाहिए और न स्पर्श करना चाहिए।
अमितगति श्रावकाचार/6/85 आहारो निःशेषो निजस्वभावादन्यभावमुपयातः। योऽनन्तकायिकोऽसौ परिहर्त्तव्यो दयालीढैः।85। = जो समस्त आहार अपने स्वभावतैं अन्यभाव को प्राप्त भया, चलितरस भया, बहुरि जो अनन्तकाय सहित है सो वह दया सहित पुरुषों के द्वारा त्याज्य है।
चारित्तपाहुड़/ टी./21/43/16 सुललितपुष्पितस्वादचलितमन्नं त्यजेत्। = अंकुरित हुआ अर्थात् जड़ा हुआ, फुई लगा हुआ या स्वाद चलित अन्न अभक्ष्य है।
लाटी संहिता/2/56 रूपगन्धरसस्पर्शाच्चलितं नैव भक्षयेत्। अवश्यं त्रसजीवानां निकोतानां समाश्रयात्।56। = जो पदार्थ रूप गन्ध रस और स्पर्श से चलायमान हो गये हैं, जिनका रूपादि बिगड़ गया है, ऐसे पदार्थों को भी कभी नहीं खाना चाहिए। क्योंकि ऐसे पदार्थों में अनेक त्रस जीवों की, और निगोद राशि की उत्पत्ति अवश्य हो जाती है।
- बासी व अमर्यादित भोजन अभक्ष्य है
अमितगति श्रावकाचार/6/84 ... दिवसद्वितयोषिते च दधिमंथिते ... त्याज्या। = दो दिनका बासी दही और छाछ .... त्यागना योग्य है। ( सागार धर्मामृत/3/11 ); ( लाटी संहिता/2/57 )
चारित्तपाहुड़/ टी./21/43/13 लवणतैलघृतधृतफलसंधानकमुर्हूतद्वयोपरिनवनीतमांसादिसेविभाण्डभाजनवर्जनं। ... षोडशप्रहरादुपरि तक्रं दधि च त्यजेत्। = नमक, तेल व घी में रखा फल और आचार को दो मुहूर्त से ऊपर छोड़ देना चाहिए। तथा मक्खन व मांस जिस बर्तन में पका हो वह बर्तन भी छोड़ देना चाहिए। ... सोलह पहर से ऊपर के दही का भी त्याग कर देवे।
लाटी संहिता/2/33 केवलेनाग्निना पक्वं मिश्रितेन घृतेन वा। उषितान्नं न भुञ्जीत पिशिताशनदोषवित्।33। =जो पदार्थ रोटी भात आदि केवल अग्नि पर पकाये हुए हैं, अथवा पूड़ी कचौड़ी आदि गर्म घी में पकाये हुए हैं अथवा परामठे आदि घी व अग्नि दोनों के संयोग से पकाये हुए हैं। ऐसे प्रकार का उषित अन्न मांस भक्षण के दोषों के जानने वालों को नहीं खाना चाहिए। (प्रश्नोत्तर श्रावकाचार)। - अचार व मुरब्बे आदि अभक्ष्य हैं
वसुनन्दी श्रावकाचार/58 ... संघाण... णिच्चं तससंसिद्धाइं ताइं परिवज्जियव्वाइं।58। = अचार आदि... नित्य त्रस जीवों से संसिक्त रहते हैं, अतः इनका त्याग कर देना चाहिए। ( सागार धर्मामृत/3/11 )।
लाटी संहिता/2/55 यवोषितं न भक्ष्यं स्यादन्नादि पलदोषत:। आसवारिष्ट संधानथानादीनां कथात्र का।55। = जहाँ बासी भोजन के भक्षण का त्याग कराया, वहाँ पर आसव, अरिष्ट, सन्धान व अथान अर्थात् अँचार-मुरब्बे की तो बात ही क्या। - बीधा व सन्दिग्ध अन्न अभक्ष्य है
अमितगति श्रावकाचार/6/84 विद्धं पुष्पितमन्नं कालिङ्गद्रोणपुष्पिका त्याज्या। = बीधा और फूई लगा अन्न और कलींदा व राई ये त्यागने योग्य है। ( चारित्तपाहुड़/ टी./24/43/16)।
लाटी संहिता/2/ श्लोक न. विद्धं त्रसाश्रितं यावद्वर्जयेत्तदभक्ष्यवत्। शतशः शोधितं चापि सावद्यानैर्दृगादिभिः।19। संदिग्धं च यदन्नादि श्रितं वा नाश्रितं त्रसैः। मनःशुद्धिप्रसिद्धार्थं श्रावकः क्वापि नाहरेत्।20। शोधितस्य चिरात्तस्य न कुर्याद् ग्रहणं कृती। कालस्यातिक्रमाद् भूयो दृष्टिपूतं समाचरेत्।32। = घुने हुए या बीधे हुए अन्न में भी अनेक त्रस जीव होते हैं। यदि सावधान होकर नेत्रों के द्वारा शोधा भी जाये तो भी उसमें से सब त्रस जीवों का निकल जाना असम्भव है। इसलिए सैकड़ों बार शोधा हुआ भी घुना व बीधा अन्न अभक्ष्य के समान त्याज्य है।19। जिस पदार्थ में त्रस जीवों के रहने का सन्देह हो। (इसमें त्रस जीव हैं या नहीं) इस प्रकार सन्देह बना ही रहे तो भी श्रावक की मनः शुद्धि के अर्थ छोड़ देना चाहिए।20। जिस अन्नादि पदार्थ को शोधे हुए कई दिन हो गये हों उनको ग्रहण नहीं करना चाहिए। जिस पदार्थ को शोधने पर मर्यादा से अधिक काल हो गया है, उनको पुनः शोधकर काम में लेना चाहिए।32।
- बाईस अभक्ष्यों के नाम निर्देश
- गोरस विचार
- दही के लिए शुद्ध जामन
व्रत विधान सं./34 दही बाँधे कपडे माहीं, जब नीर न बूँद रहाहीं।
तिहिं की दे बड़ी सुखाई राखे अति जतन कराई।।
प्रासुक जल में धो लीजे, पयमाहीं जामन दोजे।
मरयादा भाषी जेह, यह जावन सों लख लीजै।।
अथवा रुपया गरमाई, डारे पयमें दधि थाई। - गोरस में दुग्धादिके त्याग का क्रम
कषायपाहुड़ 1/1, 13, 14/ गा.112/पृ. 112/पृ.254 पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसव्रतो नो चेत् तस्मात्तत्त्वं त्रायत्मकम्।112। = जिसका केवल दूध पीने का नियम है वह दही नहीं खाता दूध ही पीता है, इसी प्रकार जिसका दही खाने का नियम है वह दूध नहीं पीता है और जिसके गोरस नहीं खाने का व्रत है, वह दूध और दही दोनों को नहीं खाता है। ...।112। - दूध अभक्ष्य नहीं है
सागार धर्मामृत/2/10 पर उद्धृत फुटनोट- मांसं जीवशरीरं, जीवशरीर भवेन्न वा मांसम्। यद्वन्निम्बो वृक्षो, वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः।9। शुद्धं दुग्धं न गोर्मांसं, वस्तुवै चित्र्यमेदृशम्। विषघ्नं रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः।10। हेयं पलं पयः पेयं, समे सत्यपि कारणे। विषद्रोरायुषे पत्रं, मूलं तु मृतये मतम्।11। = जो जीव का शरीर है वह माँस है ऐसी तर्कसिद्ध व्याप्ति नहीं है, किन्तु जो माँस है वह अवश्य जीव का शरीर है ऐसी व्याप्ति है। जैसे जो वृक्ष है वह अवश्य नीम है ऐसी व्याप्ति नहीं अपितु जो नीम है वह अवश्य वृक्ष है ऐसी व्याप्ति है।9। गाय का दूध तो शुद्ध है, माँस शुद्ध नहीं। जैसे -सर्प का रत्न तो विष का नाशक है किन्तु विष प्राणों का घातक है। यद्यपि मांस और दूध दोनों की उत्पत्ति गाय से है तथापि ऊपर के दृष्टान्त के अनुसार दूध ग्राह्य है मांस त्याज्य है। एक यह भी दृष्टान्त है कि - विष वृक्ष का पत्ता जीवनदाता वा जड़ मृत्युदायक है।11। - कच्चे दूध-दही के साथ द्विदल दोष
सागार धर्मामृत/5/18 आमगोरससंपृक्तं, द्विदलं प्रायशोऽनवम्। वर्षास्वदलितं चात्र ... नाहरेत्।18। = कच्चे दूध, दही व मट्ठा मिश्रित द्विदल को, बहुधा पुराने द्विदल को, वर्षा ऋतु में बिना दले द्विदल को ... नहीं खाना चाहिए।18। ( चारित्तपाहुड़/21/43/18 )।
व्रत विधान सं./पृ. 33 पर उद्धृत–योऽपक्वतक्रं द्विदलान्नमिश्रं भुक्तं विधत्ते सुखवाष्पसंगे। तस्यास्यमध्ये मरणं प्रयत्ना: सन्मूर्च्छिका जीवगणा भवन्ति। =कच्चे दूध दही मट्ठा व द्विदल पदार्थों के मिलने से और मुख को लार का उनमें सम्बन्ध होने से असंख्य सम्मूर्च्छन त्रस जीव राशि पैदा होती है, इसके महान् हिंसा होती है। अत: वह सर्वथा त्याज्य है। ( लाटी संहिता/2/145 )। - पक्के दूध-दही के साथ द्विदल दोष
व्रत विधान सं./पृ. 33 जब चार मुहूरत जाहीं, एकेन्द्रिय जिय उपजाहीं। बारा घटिका जब जाय, बेइन्द्रिय तामें थाम। षोडशघटिका ह्वैं जबहीं, तेइन्द्रिय उपजें तबहीं। जब बीस घड़ी गत जानी, उपजै चौइन्द्रिय प्राणी। गमियां घटिका जब चौबीस, पंचेन्द्रिय जिय पूरित तीस। ह्वै हैं नहीं संशय आनी, यों भाषै जिनवर वाणी। बुधि जन लाख ऐसो दोष, तजिये ततछिन अघकोष। कोई ऐसा कहवाई, खैहैं एक याम ही माहीं। मरयाद न सधि है मूल तजि हैं, जे व्रत अनुकूल। खावें में पाय अपार छाड़ें शुभगति है सार। - द्विदल के भेद
व्रत विधान संग्रह/पृ.34- अन्नद्विदल–मूंग, मोठ, अरहर, मसूर, उर्द, चना, कुल्थी आदि।
- काष्ठ द्विदल–चारोली, बादाम, पिस्ता, जीरा, धनिया आदि।
- हरीद्विदल–तोरइ, भिण्डी, फदकुली, घीतोरई, खरबूजा, ककड़ी, पेठा, परवल, सेम, लौकी, करेला, खीरा आदि घने बीज युक्त पदार्थ। नोट–(इन वस्तुओं में भिण्डी व परवल के बीज दो दाल वाले नहीं होते फिर भी अधिक बीजों की अपेक्षा उन्हें द्विदल में गिनाया गया है ऐसा प्रतीत होता है और खरबूजे व पेठे के बीज से ही द्विदल होता है, उसके गूदे से नहीं।)
- शिखरनी–दही और छाछ में कोई मीठा पदार्थ डालने पर उसकी मर्यादा कुल अन्तर्मुहूर्त मात्र रहती है।
- कांजी–दही छाछ में राई व नमक आदि मिलाकर दाल पकौड़े आदि डालना। यह सर्वथा अभक्ष्य है।
- दही के लिए शुद्ध जामन
- वनस्पति विचार
- पंच उदुम्बर फलों का निषेध व उसका कारण
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/72-73 योनिरुदुम्बर युग्मं प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि। त्रसजीवानां तस्मात्तेषां तद्भक्षणे हिंसा।72। यानि तु पुनर्भवेयुः कालोच्छिन्नत्रसाणि शुष्काणि। भजतस्तान्यपि हिंसा विशिष्टरागादिरूपा स्यात्।73। = ऊमर, कठूमर, पिलखन, बड़ और पीपल के फल त्रस जीवों की योनि हैं इस कारण उनके भक्षण में उन त्रस जीवों की हिंसा होती है।72। और फिर भी जो पाँच उदुम्बर सूखे हुए काल पाकर त्रस जीवों से रहित हो जावें तो उनको भी भक्षण करने वाले के विशेष रागादि रूप हिंसा होती है।73। ( सागार धर्मामृत/2/13 )।
वसुनन्दी श्रावकाचार/58 उंवार-वड-पिप्पल-पिंपरीय-संधाण-तरुपसूणाइं। णिच्चं तससंसिद्धाइं ताइं परिवज्जियव्वाइं।58। = ऊंबर, बड़, पीपल, कठूमर और पाकर फल, इन पाँचों उदुम्बर फल, तथा संधानक (अँचार) और वृक्षों के फूल ये सब नित्य त्रस जीवों से संसिक्त अर्थात् भरे हुए रहते हैं, इसलिए इनका त्याग करना चाहिए।58।
लाटी संहिता/2/78 उदम्बरफलान्येव नादेयानि दृगात्मभिः। नित्यं साधारणान्येव त्रसाङ्गैराश्रितानि च।78। = सम्यग्दृष्टियों को उदुम्बर फल नहीं खाने चाहिए क्योंकि वे नित्य साधारण (अनन्तकायिक) हैं। तथा अनेक त्रस जीवों से भरे हुए हैं।
देखें श्रावक - 4.1 पाँच उदुम्बर फल तथा उसी के अन्तर्गत खून्बी व साँप की छतरी भी त्याज्य है। - अनजाने फलों का निषेध
देखें उदुम्बर , उदुम्बर त्यागी, जिन फलों का नाम मालूम नहीं है ऐसे सम्पूर्ण अजानफलों को नहीं खावे। - कंदमूल का निषेध व कारण
भगवती आराधना/1533/1414 ण य खंति ... पलंडुमादीयं। = कुलीन पुरुष .. प्याज, लहसुन वगैरह कन्दों का भक्षण नहीं करते हैं।
मू.आ./825 फलकंदमूलवीयं अणग्गिपवकं तु आमयं किं चि। णच्चा अणेसणीयं णवि य पडिच्छंति ते धीरा।825। = अग्नि कर नहीं पके पदार्थ फल कन्दमूल बीज तथा अन्य भी जो कच्चा पदार्थ उसको अभक्ष्य जानकर वे धीर मुनि खाने की इच्छा नहीं करते। ( भावपाहुड़/ मू./103)।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/85 अल्पफलबहुविघातान्मूलकमार्द्राणि ङ्गवेराणि। ... अवहेयं।85। = फल थोड़ा परन्तु त्रस हिंसा अधिक होने से सचित्त मूली, गाजर, आर्द्रक,... इत्यादि छोड़ने योग्य हैं।85। ( सर्वार्थसिद्धि/7/21/361/10 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका 1206/1204/19 फलं अदारितं, मूलं, पत्रं, साङ्कुरं कन्दं च वर्जयेत्। = नहीं विदारा हुआ फल, मूल, पत्र, अंकुर और कन्द का त्याग करना चाहिए। ( योगसार (अमितगति)/8/63 )।
सागार धर्मामृत/5/16-17 नालीसूरणकालिन्दद्रोणपुष्पादि वर्जयेत्। आजन्म तद्भुजां ह्यल्पं, फलं घातश्च भूयसाम्।16। अनन्तकाया: सर्वेऽपि, सदा हेया दयापरै:। यदेकमति तं हन्तुं, प्रवृत्तो हन्त्यनन्तकान्।17। = धार्मिक श्रावक नाली, सूरण, कलींदा और द्रोणपुष्प आदि सम्पूर्ण पदाथों को जीवन पर्यन्त के लिए छोड़ देवें क्योंकि इनके खाने वाले को उन पदार्थों के खाने में फल थोड़ा है और घात बहुत जीवों का होता है।16। दयालु श्रावकों के द्वारा सर्वदा के लिए सब ही साधारण वनस्पति त्याग दी जानी चाहिए क्योंकि एक भी उस साधारण वनस्पति को मारने के लिए प्रवृत्त व्यक्ति अनन्त जीवोंको मारता है।17।
चारित्तपाहुड़/ टी./21/43/10 मूलनालिकापद्मिनीकन्दलशुनकन्दतुम्बकफलकुसुम्भशाककलिंगफलसुरणकन्दत्यागश्च। = मूली, कमल की डण्डी, लहसुन, तुम्बक फल, कुसुभे का शाक, कलिंग फल, आलू आदि का त्याग भी कर देना चाहिए।
भावपाहुड़ टीका/101/254/3 कन्दं सूरणं लशुनं पलाण्डु क्षुद्रबृहन्तमुस्तांशालूकं उत्पमूलं शृङ्गवेरं आर्द्रवरं आर्द्रहरिद्रेत्यर्थ: ... किमपि ऐर्वापतिकं अशित्वा .. भ्रतिस्त्वं हे जीव अनन्तसंसारे। = कन्द अर्थात् सूरण, लहसुन, आलू छोटी या बड़ी शालूक, उत्पलमूल (भिस), शृंगवेर, अद्रक, गीली हल्दी आदि इन पदार्थों में से कुछ भी खाकर हे जीव ! तुझे अनन्त संसार में भ्रमण करना पड़ा है।
लाटी संहिता/2/79-80 अत्रोदुम्बरशब्दस्तु नूनं स्यादुपलक्षणम्। तेन साधारणास्त्याज्या ये वनस्पतिकायिकाः।79। मूलबीजा यथा प्रोक्ता फलकाद्यार्द्रकादयः। न भक्ष्या दैवयोगाद्वा रोगिणाप्यौषधच्छ- लात्।80। = यहाँ पर जो उद्रुम्बर फलों का त्याग कराया है वह उपलक्षण मात्र है। इसलिए जितने वनस्पति साधारण या अनन्तकायिक हैं उन सबका त्याग कर देना चाहिए।97। ऊपर जो अदरख आलू आदि मूलबीज, अग्रबीज, पोरबीजादि अनन्तकायात्मक साधारण बतलाये हैं, उन्हें कभी न खाना चाहिए। रोग हो जाने पर भी इनका भक्षण न करें।80। - पुष्प व पत्र जाति का निषेध
भावपाहुड़/ मू. 103 कंदमूलं वीयं पुप्फं पत्तादि किंचि सच्चित्तं। असिऊण माणगव्वं भमिओसि अणंतसंसारे।103। = जमीकन्द, बीज अर्थात् चनादिक अन्न, मूल अर्थात् गाजर आदिक, पुष्प अर्थात् फूल, पत्र अर्थात् नागरवेल आदिक इनको आदि लेकर जो कुछ सचित्त वस्तुओं को गर्व से भक्षण कर, हे जीव! तू अनन्त संसार में भ्रमण करता रहा है।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/85 निम्बकुसुमं कैतकमित्येबमवहेयं।85। = नीम के फूल, केतकी के फूल इत्यादि वस्तुएँ छोड़ने योग्य हैं।
सं.सि./7/21/361/10 केतक्युर्जुनपुष्पादीनि शृङ्गवेरमूलकादीनि बहुजन्तुयोनिस्थानान्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि बहुघाता- ल्पफलत्वात्। = जो बहुत जन्तुओं की उत्पत्ति के आधार हैं और जिन्हें अनन्तकाय कहते हैं, ऐसे केतकी के फूल और अर्जुन के फूल आदि तथा अदरख और मूली आदि का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि इनके सेवन में फल कम है और घात बहुत जीवों का है। ( राजवार्तिक/7/21/27/550/4 )।
गुणभद्र श्रावकाचार/178 मूलं फलं च शाकादि पुष्पं बीजं करीरकम्। अप्रासुकं त्यजेन्नीरं सचित्तविरतोगृही।178। = सचित्तविरत श्रावक सचित्त मूल, फल, शाक पुष्प, बीज, करीर व अप्रासुक जल का त्याग कर देता है ( वसुनन्दी श्रावकाचार/295 )।
वसुनन्दी श्रावकाचार/58 तरुपसूणाइं। णिच्चं तससंसिद्धाइं ताइं परिबज्जिय- व्वाइं।58। = वृक्षों के फूल नित्य त्रसजीवों से संसिक्त रहते हैं। इसलिए इन सबका त्याग करना चाहिए। 58।
सागार धर्मामृत/5/16 द्रोणपुष्पादि वर्जयेत्। आजन्म तद्भुजां ह्यल्पं, फलं घातश्च भूयसाम्। = द्रोणपुष्पादि सम्पूर्ण पदार्थों को जीवन पर्यन्त के लिए छोड़ देवे। क्योंकि इनके खाने में फल थोड़ा और घात बहुत जीवों का होता है। ( सागार धर्मामृत/3/13 )।
लाटी संहिता/2/35-37 शासकपत्राणि सर्वाणि नादेयानि कदाचन। श्रावकै- र्मासदोषस्य वर्जनार्थं प्रयत्नः।35। तत्रावश्यं त्रसाः सूक्ष्माः केचित्सयुर्द्दष्टिगोचराः। न त्यजन्ति कदाचित्तं शाकपत्राश्रयं मनाक्।36। तस्माद्धर्मार्थिना नूनमात्मनो हितमिच्छता। आताम्बूलं दलं त्याज्यं श्रावकैर्दर्शनान्वितैः।37। = श्रावकों को यत्नपूर्वक मांस के दोषों का त्याग करने के लिए सब तरह की पत्तेवाली शाक भाजी भी कभी ग्रहण नहीं करनी चाहिए।35। क्योंकि उस पत्तेवाले शाक में सूक्ष्म त्रस जीव अवश्य होते हैं उनमें से कितने ही जीव तो दृष्टिगोचर हो जाते हैं और कितनी ही दिखाई नहीं देते। किन्तु वे जीव उस पत्तेवाले शाक का आश्रय कभी नहीं छोड़ते।36। इसलिए अपने आत्मा का कल्याण चाहनेवाले धर्मात्मा जीवों को पत्तेवाले सब शाक तथा पान तक छोड़ देना चाहिए और दर्शन प्रतिमा को धारण करने वाले श्रावकों को विशेषकर इनका त्याग करना चाहिए।37।
- पंच उदुम्बर फलों का निषेध व उसका कारण