मल: Difference between revisions
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<li><strong class="HindiText" name="1" id="1">मल</strong><br> | <li><strong class="HindiText" name="1" id="1">मल</strong><br> तिलोयपण्णत्ति/1 –गाथा-<span class="PrakritText">दोण्णि वियप्पा होंति हु मलस्स इमं दव्वभावभेएहिं। दव्वमलं दुविहप्पं बाहिरमब्भंतरं चेय।10। सेदमलरेणुकद्दमपहुदी बाहिरमलंसमुद्दिट्ठं। पुणु दिढजीवपदेसे णिबंधरूवाइ पयडिठिदिआई।11। अणुभागपदेसाइं चउहिं पत्तेकभेज्जमाणं तु। णाणावरणप्पहुदी अट्ठविहं कम्ममखिलपावरयं।12। अब्भंतरदव्वमलं जीवपदेसे णिबद्धमिदि हेदो। भावमलं णादव्वं अणाणदंसणादिपरिणामो।13। अहवा बहुभेयगयं णाणावरणादि दव्वभावमलभेदा।14। पावमलं ति भण्णइ उवचारसरूवएण जीवाणं।17। </span>= <span class="HindiText">द्रव्य और भाव के भेद से मल के दो भेद हैं। इनमें से द्रव्यमल भी दो प्रकार का है–बाह्य व अभ्यन्तर।10। स्वेद, मल, रेणु, कर्दम इत्यादिक बाह्य द्रव्यमल कहा गया है, और दृढ़रूप से जीव के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाहरूप बन्ध को प्राप्त, तथा प्रकृति स्थिति अनुभाग व प्रदेश इन चार भेदों से प्रत्येक भेद को प्राप्त होने वाला, ऐसा ज्ञानावरणादि आठ प्रकार का सम्पूर्ण कर्मरूपी पापरज, चूँकि जीव के प्रदेशों में सम्बद्ध है, इस हेतु से वह अभ्यन्तर द्रव्यमल है। अज्ञान अदर्शन इत्यादिक जीव के परिणामों को भावमल समझना चाहिए।11-13। अथवा ज्ञानावरणादिक द्रव्यमल के और ज्ञानावरणादिक भावमल के भेद से मल के अनेक भेद हैं।14। अथवा जीवों के पाप को उपचार से मल कहा जाता है।17। ( धवला 1/1,1,1/32/6 )।</span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/33/2 अथवा <span class="SanskritText">अर्थाभिधानप्रत्ययभेदात्त्रिविधं मलम्। उक्तमर्थमलम्। अभिधानमलं तद्वाचक: शब्द–। तयोरुत्पन्नबुद्धि: प्रत्ययमलम्। अथवा चतुर्विधं मलं नामस्थापनाद्रव्यभावमलभेदात्। अनेकविधं वा।</span> = <span class="HindiText">अथवा अर्थ, अभिधान व प्रत्यय के भेद से मल तीन प्रकार का होता है। अर्थमल तो द्रव्य व भावमल के रूप में ऊपर कहा जा चुका है। मल के वाचक शब्दों को अभिधानमल कहते हैं। तथा अर्थमल और अभिधानमल में उत्पन्न बुद्धि को प्रत्ययमल कहते हैं। अथवा नाममल, स्थापनामल, द्रव्यमल और भावमल के भेद से मल चार प्रकार का है। अथवा इसी प्रकार विवक्षा भेद से मल अनेक प्रकार का भी है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> सम्यग्दर्शन का मल दोष</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong> सम्यग्दर्शन का मल दोष</strong> </span><br /> | ||
अनगारधर्मामृत/2/59/183 <span class="SanskritGatha"> तदप्यलब्धमाहात्म्यं पाकात्सम्यक्त्वकर्मण:। मलिनं मलसङ्गेन शुद्धं स्वर्णमिवोद्भवेत्।59। </span><br /> | |||
अनगारधर्मामृत/2/61 में उद्धृत–<span class="SanskritText">वेदकं मलिनं जातु शङ्काद्यैर्यत्कलंकयते।</span> = <span class="HindiText">जिस प्रकार शुद्ध भी स्वर्ण, चाँदी आदि मल के संसर्ग से मलिन हो जाता है उसी प्रकार सम्यक्प्रकृतिमिथ्यात्व नामक कर्म के उदय से शुद्ध भी सम्यग्दर्शन मलिन हो जाता है।59। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/25/51/22 में उद्धृत) शंका आदि दूषणों से कलंकित सम्यग्दर्शन को मलिन कहते हैं।</span></li> | |||
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सर्वार्थसिद्धि/9/9/426/4 <span class="SanskritText">अप्कायजन्तुपीडापरिहाराया मरणादस्नानव्रतधारिण: पटुरविकिरणप्रतापजनितप्रस्वेदाक्तपवनानीतपांसुनिचयस्य सिध्मकच्छूदद्रूदीर्ण कण्डूयायामुत्पन्नायामपि कण्डूयनविमर्दनसंघट्टनविवर्जितमूर्तै: स्वगतमलोपचयपरगतमलोपचयोरसंकलपितमनस: सज्ज्ञानचारित्रविमलसलिलप्रक्षालनेन कर्ममलपङ्कनिराकरणाय नित्यमुद्यतमतेर्मलपीडासहनमाख्यायते। </span>= <span class="HindiText">अप्कायिक जीवों की पीड़ा का परिहार करने के लिए जिसने मरणपर्यन्त अस्नानव्रत स्वीकार किया है, तीक्ष्ण किरणों के ताप से उत्पन्न हुए पसीने में जिसके पवन के द्वारा लाया गया धूलि संचय चिपक गया है, सिध्मदाद और खाज के होने पर भी जो खुजलाने, मर्दन करने और दूसरे पदार्थ से घिसनेरूप क्रिया से रहित है, स्वगत मल का उपचय और परगत मल का अपचय होने पर जिसके मन में किसी प्रकार विकल्प नहीं होता, तथा सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्ररूपी विमल जल के प्रक्षालन द्वारा जो कर्ममलपंक को दूर करने के लिए निरन्तर उद्यतमति है, उसके मलपीडासहन कहा गया है। ( राजवार्तिक/9/9/23/611/33 ) ( चारित्रसार/125/6 )।</span></li> | |||
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Revision as of 19:13, 17 July 2020
- मल
तिलोयपण्णत्ति/1 –गाथा-दोण्णि वियप्पा होंति हु मलस्स इमं दव्वभावभेएहिं। दव्वमलं दुविहप्पं बाहिरमब्भंतरं चेय।10। सेदमलरेणुकद्दमपहुदी बाहिरमलंसमुद्दिट्ठं। पुणु दिढजीवपदेसे णिबंधरूवाइ पयडिठिदिआई।11। अणुभागपदेसाइं चउहिं पत्तेकभेज्जमाणं तु। णाणावरणप्पहुदी अट्ठविहं कम्ममखिलपावरयं।12। अब्भंतरदव्वमलं जीवपदेसे णिबद्धमिदि हेदो। भावमलं णादव्वं अणाणदंसणादिपरिणामो।13। अहवा बहुभेयगयं णाणावरणादि दव्वभावमलभेदा।14। पावमलं ति भण्णइ उवचारसरूवएण जीवाणं।17। = द्रव्य और भाव के भेद से मल के दो भेद हैं। इनमें से द्रव्यमल भी दो प्रकार का है–बाह्य व अभ्यन्तर।10। स्वेद, मल, रेणु, कर्दम इत्यादिक बाह्य द्रव्यमल कहा गया है, और दृढ़रूप से जीव के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाहरूप बन्ध को प्राप्त, तथा प्रकृति स्थिति अनुभाग व प्रदेश इन चार भेदों से प्रत्येक भेद को प्राप्त होने वाला, ऐसा ज्ञानावरणादि आठ प्रकार का सम्पूर्ण कर्मरूपी पापरज, चूँकि जीव के प्रदेशों में सम्बद्ध है, इस हेतु से वह अभ्यन्तर द्रव्यमल है। अज्ञान अदर्शन इत्यादिक जीव के परिणामों को भावमल समझना चाहिए।11-13। अथवा ज्ञानावरणादिक द्रव्यमल के और ज्ञानावरणादिक भावमल के भेद से मल के अनेक भेद हैं।14। अथवा जीवों के पाप को उपचार से मल कहा जाता है।17। ( धवला 1/1,1,1/32/6 )।
धवला 1/1,1,1/33/2 अथवा अर्थाभिधानप्रत्ययभेदात्त्रिविधं मलम्। उक्तमर्थमलम्। अभिधानमलं तद्वाचक: शब्द–। तयोरुत्पन्नबुद्धि: प्रत्ययमलम्। अथवा चतुर्विधं मलं नामस्थापनाद्रव्यभावमलभेदात्। अनेकविधं वा। = अथवा अर्थ, अभिधान व प्रत्यय के भेद से मल तीन प्रकार का होता है। अर्थमल तो द्रव्य व भावमल के रूप में ऊपर कहा जा चुका है। मल के वाचक शब्दों को अभिधानमल कहते हैं। तथा अर्थमल और अभिधानमल में उत्पन्न बुद्धि को प्रत्ययमल कहते हैं। अथवा नाममल, स्थापनामल, द्रव्यमल और भावमल के भेद से मल चार प्रकार का है। अथवा इसी प्रकार विवक्षा भेद से मल अनेक प्रकार का भी है। - सम्यग्दर्शन का मल दोष
अनगारधर्मामृत/2/59/183 तदप्यलब्धमाहात्म्यं पाकात्सम्यक्त्वकर्मण:। मलिनं मलसङ्गेन शुद्धं स्वर्णमिवोद्भवेत्।59।
अनगारधर्मामृत/2/61 में उद्धृत–वेदकं मलिनं जातु शङ्काद्यैर्यत्कलंकयते। = जिस प्रकार शुद्ध भी स्वर्ण, चाँदी आदि मल के संसर्ग से मलिन हो जाता है उसी प्रकार सम्यक्प्रकृतिमिथ्यात्व नामक कर्म के उदय से शुद्ध भी सम्यग्दर्शन मलिन हो जाता है।59। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/25/51/22 में उद्धृत) शंका आदि दूषणों से कलंकित सम्यग्दर्शन को मलिन कहते हैं। - अन्य मलों का निर्देश
- शरीर में मल का प्रमाण–देखें औदारिक - 1।
- मल-मूत्र निक्षेपण सम्बन्धी–देखें समिति - 1 में प्रतिष्ठापना समिति।
- शरीर में मल का प्रमाण–देखें औदारिक - 1।
- मल परिषह निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/9/9/426/4 अप्कायजन्तुपीडापरिहाराया मरणादस्नानव्रतधारिण: पटुरविकिरणप्रतापजनितप्रस्वेदाक्तपवनानीतपांसुनिचयस्य सिध्मकच्छूदद्रूदीर्ण कण्डूयायामुत्पन्नायामपि कण्डूयनविमर्दनसंघट्टनविवर्जितमूर्तै: स्वगतमलोपचयपरगतमलोपचयोरसंकलपितमनस: सज्ज्ञानचारित्रविमलसलिलप्रक्षालनेन कर्ममलपङ्कनिराकरणाय नित्यमुद्यतमतेर्मलपीडासहनमाख्यायते। = अप्कायिक जीवों की पीड़ा का परिहार करने के लिए जिसने मरणपर्यन्त अस्नानव्रत स्वीकार किया है, तीक्ष्ण किरणों के ताप से उत्पन्न हुए पसीने में जिसके पवन के द्वारा लाया गया धूलि संचय चिपक गया है, सिध्मदाद और खाज के होने पर भी जो खुजलाने, मर्दन करने और दूसरे पदार्थ से घिसनेरूप क्रिया से रहित है, स्वगत मल का उपचय और परगत मल का अपचय होने पर जिसके मन में किसी प्रकार विकल्प नहीं होता, तथा सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्ररूपी विमल जल के प्रक्षालन द्वारा जो कर्ममलपंक को दूर करने के लिए निरन्तर उद्यतमति है, उसके मलपीडासहन कहा गया है। ( राजवार्तिक/9/9/23/611/33 ) ( चारित्रसार/125/6 )।