मुक्त जीवों का मृत शरीर आकार ऊर्ध्व गमन व अवस्थान: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 4: | Line 4: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> उनके मृत शरीर सम्बन्धी दो धारणाएँ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.1" id="5.1"> उनके मृत शरीर सम्बन्धी दो धारणाएँ</strong> </span><br /> | ||
हरिवंशपुराण/65/12-13 <span class="SanskritGatha">गन्धपुष्पादिभिर्दिव्यैः पूजितास्तनवः क्षणात् । जैनाद्या द्योतयन्त्यो द्यां विलीना विद्युतो यथा ।12। स्वभावोऽयं जिनादीनां शरीरपरमाणवः । मुच्यति स्कन्धतामन्ते क्षणात्क्षणरुचामिव ।13। </span>= <span class="HindiText">दिव्य गन्ध तथा पुष्प आदि से पूजित, तीर्थंकर आदि मोक्षगामी जीवों के शरीर क्षणभर में बिजली की नाईं आकाश को देदीप्यमान करते हुए विलीन हो गये ।12। क्योंकि यह स्वभाव है कि तीर्थंकर आदि के शरीर के परमाणु अन्तिम समय बिजली के समान क्षणभर में स्कन्धपर्याय को छोड़ देते हैं ।13। </span><br /> | |||
महापुराण/47/343 −350 <span class="SanskritText">तदागत्य सुराः सर्वे प्रान्तपूजाचिकीर्षया ।...शुचिनिर्मल ।343। शरीरं....शिविकार्पितम् । अग्नीन्द्ररत्नभाभासिप्रोत्तुङ्गमुकुटोद्भुवा ।344। चन्दनागुरुकर्पूर....आदिभिः ।...अप्तवृद्धिना हुतभोजिना ।345।...तदाकारोपमर्देन पर्यायान्तरमानयन् ।346। तस्य दक्षिणभागेऽभूद् गणभृत्संस्क्रियानलः ।347। तस्यापरस्मिन् दिग्भागे शेषकेवलिकायगः ।... ।348। ततो भस्म समादाय पञ्चकल्याणभागिनः ।.....स्वललाटे भुजद्वये ।349 । कण्ठे हृदयदेशे च तेन संस्पृश्य भक्तितः ।350। </span>= <span class="HindiText">भगवान् ॠषभदेव के मोक्ष कल्याणक के अवसर पर अग्निकुमार देवों ने भगवान् के पवित्र शरीर को पालकी में विराजमान किया । तदनन्तर अपने मुकुटों से उत्पन्न की हुई अग्नि को अगुरु, कपूर आदि सुगन्धित द्रव्यों से बढ़ाकर उसमें उस शरीर का वर्तमान आकार नष्ट कर दिया और इस प्रकार उसे दूसरी पर्याय प्राप्त करा दी ।343−346 । उस अग्निकुण्ड के दाहिनी ओर गणधरों के शरीर का संस्कार करने वाली तथा उसके बायीं ओर सामान्य केवलियों के शरीर का संस्कार करने वाली अग्नि स्थापित की । तदनन्तर इन्द्र ने भगवान् ॠषभदेव के शरीर की भस्म उठाकर अपने मस्तक पर चढ़ायी ।347-350 । ( महापुराण/67/204 )। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> संसार के चरमसमय में मुक्त होकर ऊपर को जाता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> संसार के चरमसमय में मुक्त होकर ऊपर को जाता है</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/10/5 <span class="SanskritText"> तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् ।5। </span>= <span class="HindiText">तदनन्तर मुक्त जीव लोक के अन्त तक ऊपर जाता है । </span><br /> | |||
तत्त्वसार/8/35 <span class="SanskritGatha"> द्रव्यस्य कर्मणो यद्वदुत्पत्त्यारम्भवीचयः । समं तथैव सिद्धस्य गतिर्मोक्षे भवक्षयात् ।35। </span>=<span class="HindiText"> जिस प्रकार द्रव्य कर्मों की उत्पत्ति होने से जीव में अशुद्धता आती है, उसी प्रकार कर्मबन्धन नष्ट हो जाने पर जीव का संसारवास नष्ट हो जाता है और मोक्षस्थान की तऱफ गमन शुरू हो जाता है । </span><br /> | |||
ज्ञानार्णव/42/59 <span class="SanskritGatha">लघुपञ्चक्षरोच्चारकालं स्थित्वा ततः परम् । स स्वभावाद्व्रजत्यूर्ध्वं शुद्धात्मा वीतबन्धनः ।59।</span> = <span class="HindiText">लघु पाँच अक्षरों का उच्चारण जितनी देर में होता है उतने काल तक चौदहवें गुणस्थान में ठहरकर, फिर कर्मबन्धन से रहित होने पर वे शुद्धात्मा स्वभाव ही से ऊर्ध्वगमन करते हैं । </span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/73/125/17 <span class="SanskritText"> सर्वतो मुक्तोऽपि । स्वाभाविकानन्तज्ञानादिगुणयुक्तः सन्नेकसमयलक्षणाविग्रहगत्योर्ध्वं गच्छति ।</span> = <span class="HindiText">द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के कर्मों से सर्वप्रकार मुक्त होकर स्वाभाविक ज्ञानादि गुणों से युक्त होकर एक सामयिक विग्रहगति के द्वारा ऊपर को चले जाते हैं । </span><br /> | |||
द्रव्यसंग्रह टीका /37/154/11 <span class="SanskritText">अयोगिचरमसमये द्रव्यविमोक्षो भवति ।</span> = <span class="HindiText">अयोगी गुणस्थानवर्ती जीव के चरम समय में द्रव्य मोक्ष होता है । <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> ऊर्ध्व ही गमन क्यों इधर-उधर क्यों नहीं</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> ऊर्ध्व ही गमन क्यों इधर-उधर क्यों नहीं</strong> <br /> | ||
देखें [[ गति#1.3 | गति - 1.3]]−6 (ऊर्ध्व गति जीव का स्वभाव है, इसलिए कर्म सम्पर्क के हट जाने पर वह ऊपर की ओर ही जाता है, अन्य दिशाओं में नहीं; क्योंकि संसारावस्था में जो उसकी षटोपक्रम गति देखी जाती है, वह कर्म निमित्तक होने से विभाव है, स्वभाव नहीं । परन्तु यह स्वभाव ज्ञानस्वभाव की भाँति कोई त्रिकाली स्वभाव नहीं है, जो कि सिद्धशिला से आगे उसका गमन रुक जाने पर जीव के अभाव की आशंका की जाये । </span><br /> | देखें [[ गति#1.3 | गति - 1.3]]−6 (ऊर्ध्व गति जीव का स्वभाव है, इसलिए कर्म सम्पर्क के हट जाने पर वह ऊपर की ओर ही जाता है, अन्य दिशाओं में नहीं; क्योंकि संसारावस्था में जो उसकी षटोपक्रम गति देखी जाती है, वह कर्म निमित्तक होने से विभाव है, स्वभाव नहीं । परन्तु यह स्वभाव ज्ञानस्वभाव की भाँति कोई त्रिकाली स्वभाव नहीं है, जो कि सिद्धशिला से आगे उसका गमन रुक जाने पर जीव के अभाव की आशंका की जाये । </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/10/6 −7<span class="SanskritText"> पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ।6। आबिद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च ।7 । </span>=<span class="HindiText"> पूर्वप्रयोग से, संग का अभाव होने से बन्धन के टूटने और वैसा गमन करना स्वभाव होने से मुक्तजीव ऊर्ध्व गमन करता है ।6। जैसे कि घुमाया हुआ कुम्हार का चक्र, लेप से मुक्त हुई तूमड़ी, एरण्ड का बीज और अग्नि की शिखा ।7 । </span><br /> | |||
धवला 1/1, 1, 1/47/2 <span class="SanskritText">आयुष्यवेदनीयोदययोर्जीवोर्ध्वगमनसुखप्रतिबन्धकयोः सत्त्वात् । </span>=<span class="HindiText"> ऊर्ध्वगमन स्वभाव का प्रतिबन्धक आयुकर्म का उदय अरिहन्तों के पाया जाता है । <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> मुक्तजीव सर्वलोक में नहीं व्याप जाता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4"> मुक्तजीव सर्वलोक में नहीं व्याप जाता</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/10/4/469/2 <span class="SanskritText">स्यान्मतं, यदि शरीरानुविधायी जीवः तदभावात्स्वाभाविकलोकाकाशप्रदेशपरिमाणत्वात्तावद्विसर्पणं प्राप्नोतीति । नैष दोषः । कुतः । कारणाभावात् । नामकर्मसंबन्धो हि संहरणविसर्पणकारणम् । तदभावात्पुनः संहरणविसर्पणाभावः ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>यह जीव शरीर के आकार का अनुकरण करता है (देखें [[ जीव#3.9 | जीव - 3.9]]) तो शरीर का अभाव होने से उसके स्वाभाविक लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर होने के कारण जीव तत्प्रमाण प्राप्त होता है ? <strong>उत्तर−</strong>यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीव के तत्प्रमाण होने का कोई प्रमाण नहीं उपलब्ध होता । नामकर्म का सम्बन्ध जीव के संकोच और विस्तार का कारण है, किन्तु उसका अभाव हो जाने से जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्तार नहीं होता । ( राजवार्तिक/10/4/12 −13/643/27)। </span><br /> | |||
द्रव्यसंग्रह टीका/14/144/4 <span class="SanskritText"> कश्चिदाह−यथा प्रदीपस्य भाजनाद्यावरणे गते प्रकाशस्य विस्तारो भवति तथा देहाभावे लोकप्रमाणेन भाव्यमिति । तत्र परिहारमाह−प्रदीपसंबन्धी योऽसौ प्रकाशविस्तारः पूर्वं स्वभावेनैव तिष्ठति पश्चादावरणं जातं । जीवस्य तु लोकमात्रासंख्येयप्रदेशत्वं स्वभावो भवति, यस्तु प्रदेशानां संबन्धी विस्तारः स स्वभावो न भवति । कस्मादिति चेत्, पूर्वलोकमात्रप्रदेशा विस्तीर्णा निरावरणास्तिष्ठन्ति पश्चात् प्रदीपवदावरणं जातमेव । तन्न, किन्तु पूर्वमेवानादिसंतानरूपेण शरीरेणावृत्तस्तिष्ठन्ति ततः कारणात्प्रदेशानां संहारो न भवति, विस्तारश्च शरीरनामकर्माधीन एव न च स्वभावस्तेन कारणेन शरीराभावे विस्तारो न भवति । अपरमप्युदाहरणं दीयते−यथा हस्तचतुष्टयप्रमाणवस्त्रं पुरुषेण मुष्टौ बद्धं तिष्ठति, पुरुषाभावे संकोचविस्तारौ वा न करोति, निष्पत्तिकाले सार्द्रं मृन्मयभाजनं वा शुष्कं सज्जलाभावे सति; तथा जीवोऽपि पुरुषस्थानीयजलस्थानीयशरीराभावे विस्तारसंकोचौ न करोति । </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न−</strong>जैसे दीपक को ढँकने वाले पात्र आदि के हटा लेने पर उस दीपक के प्रकाश का विस्तार हो जाता है, उसी प्रकार देह का अभाव हो जाने पर सिद्धों का आत्मा भी फैलकर लोक प्रमाण होना चाहिए ? <strong>उत्तर−</strong>दीपक के प्रकाश का विस्तार तो पहले ही स्वभाव से दीपक में रहता है, पीछे उस दीपक के आवरण से संकुचित होता है । किन्तु जीव का लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशत्व स्वभाव है, प्रदेशों का लोकप्रमाण विस्तार स्वभाव नहीं है । <strong>प्रश्न−</strong>जीव के प्रदेश पहले लोक के बराबर फैले हुए, आवरण रहित रहते हैं, फिर जैसे प्रदीप के आवरण होता है उसी तरह जीवप्रदेशों के भी आवरण हुआ है ? <strong>उत्तर−</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि जीव के प्रदेश तो पहले अनादि काल से सन्तानरूप चले आये हुए शरीर के आवरणसहित ही रहते हैं । इस कारण जीव के प्रदेशों का संहार तथा विस्तार शरीर नामक नामकर्म के अधीन है, जीव का स्वभाव नहीं है । इस कारण जीव के शरीर का अभाव होने पर प्रदेशों का विस्तार नहीं होता । इस विषय में और भी उदाहरण देते हैं कि, जैसे कि मनुष्य की मुट्ठी के भीतर चार हाथ लम्बा वस्त्र भिंचा हुआ है । अब वह वस्त्र मुट्ठी खोल देने पर पुरुष के अभाव में संकोच तथा विस्तार नहीं करता । जैसा उस पुरुष ने छोड़ा वैसा ही रहता है । अथवा गीली मिट्टी का बर्तन बनते समय तो संकोच तथा विस्तार को प्राप्त होता जाता है, किन्तु जब वह सूख जाता है, तब जल का अभाव होने से संकोच व विस्तार को प्राप्त नहीं होता । इसी तरह मुक्त जीव भी पुरुष के स्थानभूत अथवा जल के स्थानभूत शरीर के अभाव में संकोच विस्तार नहीं करता । ( परमात्मप्रकाश टीका/54/52/6 )। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5"> मुक्तजीव पुरुषाकार छायावत् होते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5"> मुक्तजीव पुरुषाकार छायावत् होते हैं</strong> </span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/9/16 <span class="PrakritText">जावद्धम्मं दव्वं तावं गंतूण लोयसिहरम्मि । चेट्ठंति सव्वसिद्धा पुह पुह गयसित्थमूसगब्भणिहा । </span>= <span class="HindiText">जहाँ तक धर्मद्रव्य है वहाँ तक जाकर लोकशिखर पर सब सिद्ध पृथक्- पृथक् मोम से रहित मूषक के अभ्यन्तर आकाश के सदृश स्थित हो जाते हैं ।16। ( ज्ञानार्णव/40/25 ) । </span><br /> | |||
द्रव्यसंग्रह/ टी./51/217/2 <span class="PrakritText">पुरिसायारो अप्पा सिद्धोझाएह लोयसिहरत्थो ।51।</span>.....<span class="SanskritText">गतसिक्थमूषागर्भाकारवच्छायाप्रतिमावद्वा पुरुषाकारः </span>= <span class="HindiText">पुरुष के आकार वाले और लोक शिखर पर स्थित, ऐसा आत्मा सिद्ध परमेष्ठी है । अर्थात् मोम रहित मूस के आकार की तरह अथवा छाया के प्रतिबिम्ब के समान पुरुष के आकार को धारण करने वाला है । <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6"> मुक्तजीवों का आकार चरमदेह से किंचिदून है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6"> मुक्तजीवों का आकार चरमदेह से किंचिदून है</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/10/4/468/13 <span class="SanskritText">अनाकारत्वान्मुक्तानामभाव इति चेन्न, अतीतानन्तरशरीराकारत्वात् । </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न−</strong>अनाकार होने से मुक्त जीवों का अभाव प्राप्त होता है ? <strong>उत्तर−</strong>नहीं , क्योंकि उनके अतीत अनन्तर शरीर का आकार उपलब्ध होता है । ( राजवार्तिक/10/4/12/ 643/24 ); ( परमात्मप्रकाश/ मू./1/54) । </span><br /> | |||
तिलोयपण्णत्ति/9/10 <span class="PrakritText">दीहत्तं बाहल्लं चरिमभवे जस्स जारिसं ठाणं । तत्तो तिभागहीणं ओगाहण सव्वसिद्धाणं । </span>= <span class="HindiText">अन्तिम भव में जिसका जैसा आकार, दीर्घता और बाहल्य हो उससे तृतीय भाग से कम सब सिद्धों की अवगाहना होती है । </span><br /> | |||
द्रव्यसंग्रह मू. व टी./14/44/2 <span class="PrakritGatha">किंचूणा चरम देहदो सिद्धा ।.... ।14।</span> <span class="SanskritText">तत् किञ्चिदूनत्वं शरीराङ्गोपाङ्गजनितनासिकादिछिद्राणामपूर्णत्वे सति ।.... । </span>=<span class="HindiText"> वे सिद्ध चरम शरीर से किंचिदून होते हैं और वह किंचित् ऊनता शरीर व अंगोपांग नामकर्म से उत्पन्न नासिका आदि छिद्रों की पोलाहट के कारण से है । <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.7" id="5.7"> सिद्धलोक में मुक्तात्माओं का अवस्थान </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.7" id="5.7"> सिद्धलोक में मुक्तात्माओं का अवस्थान </strong></span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/9/15 <span class="PrakritText"> माणुसलोयपमाणे संठिय तणुवादउवरिमे भागे । सरिसा सिरा सव्वाणं हेट्ठिमभागम्मि विसरिसा केई </span>= <span class="HindiText">मनुष्यलोक प्रमाण स्थित तनुवात के उपरिम भाग में सब सिद्धों के सिर सदृश होते हैं । अधस्तन भाग में कोई विसदृश होते हैं । </span></li> | |||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> |
Revision as of 19:13, 17 July 2020
- मुक्त जीवों का मृत शरीर आकार ऊर्ध्व गमन व अवस्थान
- उनके मृत शरीर सम्बन्धी दो धारणाएँ
हरिवंशपुराण/65/12-13 गन्धपुष्पादिभिर्दिव्यैः पूजितास्तनवः क्षणात् । जैनाद्या द्योतयन्त्यो द्यां विलीना विद्युतो यथा ।12। स्वभावोऽयं जिनादीनां शरीरपरमाणवः । मुच्यति स्कन्धतामन्ते क्षणात्क्षणरुचामिव ।13। = दिव्य गन्ध तथा पुष्प आदि से पूजित, तीर्थंकर आदि मोक्षगामी जीवों के शरीर क्षणभर में बिजली की नाईं आकाश को देदीप्यमान करते हुए विलीन हो गये ।12। क्योंकि यह स्वभाव है कि तीर्थंकर आदि के शरीर के परमाणु अन्तिम समय बिजली के समान क्षणभर में स्कन्धपर्याय को छोड़ देते हैं ।13।
महापुराण/47/343 −350 तदागत्य सुराः सर्वे प्रान्तपूजाचिकीर्षया ।...शुचिनिर्मल ।343। शरीरं....शिविकार्पितम् । अग्नीन्द्ररत्नभाभासिप्रोत्तुङ्गमुकुटोद्भुवा ।344। चन्दनागुरुकर्पूर....आदिभिः ।...अप्तवृद्धिना हुतभोजिना ।345।...तदाकारोपमर्देन पर्यायान्तरमानयन् ।346। तस्य दक्षिणभागेऽभूद् गणभृत्संस्क्रियानलः ।347। तस्यापरस्मिन् दिग्भागे शेषकेवलिकायगः ।... ।348। ततो भस्म समादाय पञ्चकल्याणभागिनः ।.....स्वललाटे भुजद्वये ।349 । कण्ठे हृदयदेशे च तेन संस्पृश्य भक्तितः ।350। = भगवान् ॠषभदेव के मोक्ष कल्याणक के अवसर पर अग्निकुमार देवों ने भगवान् के पवित्र शरीर को पालकी में विराजमान किया । तदनन्तर अपने मुकुटों से उत्पन्न की हुई अग्नि को अगुरु, कपूर आदि सुगन्धित द्रव्यों से बढ़ाकर उसमें उस शरीर का वर्तमान आकार नष्ट कर दिया और इस प्रकार उसे दूसरी पर्याय प्राप्त करा दी ।343−346 । उस अग्निकुण्ड के दाहिनी ओर गणधरों के शरीर का संस्कार करने वाली तथा उसके बायीं ओर सामान्य केवलियों के शरीर का संस्कार करने वाली अग्नि स्थापित की । तदनन्तर इन्द्र ने भगवान् ॠषभदेव के शरीर की भस्म उठाकर अपने मस्तक पर चढ़ायी ।347-350 । ( महापुराण/67/204 )।
- संसार के चरमसमय में मुक्त होकर ऊपर को जाता है
तत्त्वार्थसूत्र/10/5 तदनन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् ।5। = तदनन्तर मुक्त जीव लोक के अन्त तक ऊपर जाता है ।
तत्त्वसार/8/35 द्रव्यस्य कर्मणो यद्वदुत्पत्त्यारम्भवीचयः । समं तथैव सिद्धस्य गतिर्मोक्षे भवक्षयात् ।35। = जिस प्रकार द्रव्य कर्मों की उत्पत्ति होने से जीव में अशुद्धता आती है, उसी प्रकार कर्मबन्धन नष्ट हो जाने पर जीव का संसारवास नष्ट हो जाता है और मोक्षस्थान की तऱफ गमन शुरू हो जाता है ।
ज्ञानार्णव/42/59 लघुपञ्चक्षरोच्चारकालं स्थित्वा ततः परम् । स स्वभावाद्व्रजत्यूर्ध्वं शुद्धात्मा वीतबन्धनः ।59। = लघु पाँच अक्षरों का उच्चारण जितनी देर में होता है उतने काल तक चौदहवें गुणस्थान में ठहरकर, फिर कर्मबन्धन से रहित होने पर वे शुद्धात्मा स्वभाव ही से ऊर्ध्वगमन करते हैं ।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/73/125/17 सर्वतो मुक्तोऽपि । स्वाभाविकानन्तज्ञानादिगुणयुक्तः सन्नेकसमयलक्षणाविग्रहगत्योर्ध्वं गच्छति । = द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के कर्मों से सर्वप्रकार मुक्त होकर स्वाभाविक ज्ञानादि गुणों से युक्त होकर एक सामयिक विग्रहगति के द्वारा ऊपर को चले जाते हैं ।
द्रव्यसंग्रह टीका /37/154/11 अयोगिचरमसमये द्रव्यविमोक्षो भवति । = अयोगी गुणस्थानवर्ती जीव के चरम समय में द्रव्य मोक्ष होता है ।
- ऊर्ध्व ही गमन क्यों इधर-उधर क्यों नहीं
देखें गति - 1.3−6 (ऊर्ध्व गति जीव का स्वभाव है, इसलिए कर्म सम्पर्क के हट जाने पर वह ऊपर की ओर ही जाता है, अन्य दिशाओं में नहीं; क्योंकि संसारावस्था में जो उसकी षटोपक्रम गति देखी जाती है, वह कर्म निमित्तक होने से विभाव है, स्वभाव नहीं । परन्तु यह स्वभाव ज्ञानस्वभाव की भाँति कोई त्रिकाली स्वभाव नहीं है, जो कि सिद्धशिला से आगे उसका गमन रुक जाने पर जीव के अभाव की आशंका की जाये ।
तत्त्वार्थसूत्र/10/6 −7 पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ।6। आबिद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालाबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच्च ।7 । = पूर्वप्रयोग से, संग का अभाव होने से बन्धन के टूटने और वैसा गमन करना स्वभाव होने से मुक्तजीव ऊर्ध्व गमन करता है ।6। जैसे कि घुमाया हुआ कुम्हार का चक्र, लेप से मुक्त हुई तूमड़ी, एरण्ड का बीज और अग्नि की शिखा ।7 ।
धवला 1/1, 1, 1/47/2 आयुष्यवेदनीयोदययोर्जीवोर्ध्वगमनसुखप्रतिबन्धकयोः सत्त्वात् । = ऊर्ध्वगमन स्वभाव का प्रतिबन्धक आयुकर्म का उदय अरिहन्तों के पाया जाता है ।
- मुक्तजीव सर्वलोक में नहीं व्याप जाता
सर्वार्थसिद्धि/10/4/469/2 स्यान्मतं, यदि शरीरानुविधायी जीवः तदभावात्स्वाभाविकलोकाकाशप्रदेशपरिमाणत्वात्तावद्विसर्पणं प्राप्नोतीति । नैष दोषः । कुतः । कारणाभावात् । नामकर्मसंबन्धो हि संहरणविसर्पणकारणम् । तदभावात्पुनः संहरणविसर्पणाभावः । = प्रश्न−यह जीव शरीर के आकार का अनुकरण करता है (देखें जीव - 3.9) तो शरीर का अभाव होने से उसके स्वाभाविक लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर होने के कारण जीव तत्प्रमाण प्राप्त होता है ? उत्तर−यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीव के तत्प्रमाण होने का कोई प्रमाण नहीं उपलब्ध होता । नामकर्म का सम्बन्ध जीव के संकोच और विस्तार का कारण है, किन्तु उसका अभाव हो जाने से जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्तार नहीं होता । ( राजवार्तिक/10/4/12 −13/643/27)।
द्रव्यसंग्रह टीका/14/144/4 कश्चिदाह−यथा प्रदीपस्य भाजनाद्यावरणे गते प्रकाशस्य विस्तारो भवति तथा देहाभावे लोकप्रमाणेन भाव्यमिति । तत्र परिहारमाह−प्रदीपसंबन्धी योऽसौ प्रकाशविस्तारः पूर्वं स्वभावेनैव तिष्ठति पश्चादावरणं जातं । जीवस्य तु लोकमात्रासंख्येयप्रदेशत्वं स्वभावो भवति, यस्तु प्रदेशानां संबन्धी विस्तारः स स्वभावो न भवति । कस्मादिति चेत्, पूर्वलोकमात्रप्रदेशा विस्तीर्णा निरावरणास्तिष्ठन्ति पश्चात् प्रदीपवदावरणं जातमेव । तन्न, किन्तु पूर्वमेवानादिसंतानरूपेण शरीरेणावृत्तस्तिष्ठन्ति ततः कारणात्प्रदेशानां संहारो न भवति, विस्तारश्च शरीरनामकर्माधीन एव न च स्वभावस्तेन कारणेन शरीराभावे विस्तारो न भवति । अपरमप्युदाहरणं दीयते−यथा हस्तचतुष्टयप्रमाणवस्त्रं पुरुषेण मुष्टौ बद्धं तिष्ठति, पुरुषाभावे संकोचविस्तारौ वा न करोति, निष्पत्तिकाले सार्द्रं मृन्मयभाजनं वा शुष्कं सज्जलाभावे सति; तथा जीवोऽपि पुरुषस्थानीयजलस्थानीयशरीराभावे विस्तारसंकोचौ न करोति । = प्रश्न−जैसे दीपक को ढँकने वाले पात्र आदि के हटा लेने पर उस दीपक के प्रकाश का विस्तार हो जाता है, उसी प्रकार देह का अभाव हो जाने पर सिद्धों का आत्मा भी फैलकर लोक प्रमाण होना चाहिए ? उत्तर−दीपक के प्रकाश का विस्तार तो पहले ही स्वभाव से दीपक में रहता है, पीछे उस दीपक के आवरण से संकुचित होता है । किन्तु जीव का लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशत्व स्वभाव है, प्रदेशों का लोकप्रमाण विस्तार स्वभाव नहीं है । प्रश्न−जीव के प्रदेश पहले लोक के बराबर फैले हुए, आवरण रहित रहते हैं, फिर जैसे प्रदीप के आवरण होता है उसी तरह जीवप्रदेशों के भी आवरण हुआ है ? उत्तर−ऐसा नहीं है, क्योंकि जीव के प्रदेश तो पहले अनादि काल से सन्तानरूप चले आये हुए शरीर के आवरणसहित ही रहते हैं । इस कारण जीव के प्रदेशों का संहार तथा विस्तार शरीर नामक नामकर्म के अधीन है, जीव का स्वभाव नहीं है । इस कारण जीव के शरीर का अभाव होने पर प्रदेशों का विस्तार नहीं होता । इस विषय में और भी उदाहरण देते हैं कि, जैसे कि मनुष्य की मुट्ठी के भीतर चार हाथ लम्बा वस्त्र भिंचा हुआ है । अब वह वस्त्र मुट्ठी खोल देने पर पुरुष के अभाव में संकोच तथा विस्तार नहीं करता । जैसा उस पुरुष ने छोड़ा वैसा ही रहता है । अथवा गीली मिट्टी का बर्तन बनते समय तो संकोच तथा विस्तार को प्राप्त होता जाता है, किन्तु जब वह सूख जाता है, तब जल का अभाव होने से संकोच व विस्तार को प्राप्त नहीं होता । इसी तरह मुक्त जीव भी पुरुष के स्थानभूत अथवा जल के स्थानभूत शरीर के अभाव में संकोच विस्तार नहीं करता । ( परमात्मप्रकाश टीका/54/52/6 )।
- मुक्तजीव पुरुषाकार छायावत् होते हैं
तिलोयपण्णत्ति/9/16 जावद्धम्मं दव्वं तावं गंतूण लोयसिहरम्मि । चेट्ठंति सव्वसिद्धा पुह पुह गयसित्थमूसगब्भणिहा । = जहाँ तक धर्मद्रव्य है वहाँ तक जाकर लोकशिखर पर सब सिद्ध पृथक्- पृथक् मोम से रहित मूषक के अभ्यन्तर आकाश के सदृश स्थित हो जाते हैं ।16। ( ज्ञानार्णव/40/25 ) ।
द्रव्यसंग्रह/ टी./51/217/2 पुरिसायारो अप्पा सिद्धोझाएह लोयसिहरत्थो ।51।.....गतसिक्थमूषागर्भाकारवच्छायाप्रतिमावद्वा पुरुषाकारः = पुरुष के आकार वाले और लोक शिखर पर स्थित, ऐसा आत्मा सिद्ध परमेष्ठी है । अर्थात् मोम रहित मूस के आकार की तरह अथवा छाया के प्रतिबिम्ब के समान पुरुष के आकार को धारण करने वाला है ।
- मुक्तजीवों का आकार चरमदेह से किंचिदून है
सर्वार्थसिद्धि/10/4/468/13 अनाकारत्वान्मुक्तानामभाव इति चेन्न, अतीतानन्तरशरीराकारत्वात् । = प्रश्न−अनाकार होने से मुक्त जीवों का अभाव प्राप्त होता है ? उत्तर−नहीं , क्योंकि उनके अतीत अनन्तर शरीर का आकार उपलब्ध होता है । ( राजवार्तिक/10/4/12/ 643/24 ); ( परमात्मप्रकाश/ मू./1/54) ।
तिलोयपण्णत्ति/9/10 दीहत्तं बाहल्लं चरिमभवे जस्स जारिसं ठाणं । तत्तो तिभागहीणं ओगाहण सव्वसिद्धाणं । = अन्तिम भव में जिसका जैसा आकार, दीर्घता और बाहल्य हो उससे तृतीय भाग से कम सब सिद्धों की अवगाहना होती है ।
द्रव्यसंग्रह मू. व टी./14/44/2 किंचूणा चरम देहदो सिद्धा ।.... ।14। तत् किञ्चिदूनत्वं शरीराङ्गोपाङ्गजनितनासिकादिछिद्राणामपूर्णत्वे सति ।.... । = वे सिद्ध चरम शरीर से किंचिदून होते हैं और वह किंचित् ऊनता शरीर व अंगोपांग नामकर्म से उत्पन्न नासिका आदि छिद्रों की पोलाहट के कारण से है ।
- सिद्धलोक में मुक्तात्माओं का अवस्थान
तिलोयपण्णत्ति/9/15 माणुसलोयपमाणे संठिय तणुवादउवरिमे भागे । सरिसा सिरा सव्वाणं हेट्ठिमभागम्मि विसरिसा केई = मनुष्यलोक प्रमाण स्थित तनुवात के उपरिम भाग में सब सिद्धों के सिर सदृश होते हैं । अधस्तन भाग में कोई विसदृश होते हैं ।
- उनके मृत शरीर सम्बन्धी दो धारणाएँ