अंतरकरण: Difference between revisions
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पूर्वोपार्जित कर्म यथा काल उदयमें आकर जीवके गुणोंका पराभव करनेमें कारण पड़ते रहते हैं। और इस प्रकार जीव उसके प्रभावसे कभी भी मुक्त नहीं हो पाता। परन्तु आध्यात्मिक साधनाओंके द्वारा उनमें कदाचित् अन्तर पड़ना सम्भव है। कुछ काल सम्बन्धी कर्म निषेक अपना स्थान छोड़कर आगे-पीछे हो जाते हैं। उस कालसे पूर्व भी कर्मोंका उदय रहता है और उस कालके पीछे भी। परन्तु उतने काल तक कर्म उदयमें नहीं आता। कर्मोंके इस प्रकार अन्तर उत्पन्न करनेको ही अन्तरकरण कहते हैं। इसी विषयका कथन इस अधिकार के अन्तर्गत किया गया है।<br> | पूर्वोपार्जित कर्म यथा काल उदयमें आकर जीवके गुणोंका पराभव करनेमें कारण पड़ते रहते हैं। और इस प्रकार जीव उसके प्रभावसे कभी भी मुक्त नहीं हो पाता। परन्तु आध्यात्मिक साधनाओंके द्वारा उनमें कदाचित् अन्तर पड़ना सम्भव है। कुछ काल सम्बन्धी कर्म निषेक अपना स्थान छोड़कर आगे-पीछे हो जाते हैं। उस कालसे पूर्व भी कर्मोंका उदय रहता है और उस कालके पीछे भी। परन्तु उतने काल तक कर्म उदयमें नहीं आता। कर्मोंके इस प्रकार अन्तर उत्पन्न करनेको ही अन्तरकरण कहते हैं। इसी विषयका कथन इस अधिकार के अन्तर्गत किया गया है।<br> | ||
<OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> अन्तरकरण विधान </LI> </OL> | |||
<OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> अन्तरकरणका लक्षण </LI> </OL> | |||
[[लब्धिसार]] / भाषा. ८४/११९ विवक्षित कोई निषेकनिका सर्व द्रव्यको अन्य निषेकनिविषैं निक्षेपण करि तिनि निषेकनिका जो अभाव करना सो अन्तरकरण कहिये।<br> | |||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तरकरण-विधान </LI> </OL> | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-८,६/२३१/१४/विशेषार्थ – अन्तरकरण प्रारम्भ करनेके समयसे पूर्व उदयमें आनेवाले मिथ्यात्व कर्मकी अन्तर्मुहूर्त प्रमित स्थितिको उल्लंघन कर उससे ऊपरकी अन्तर्मुहूर्त प्रमित स्थितिके निषेकोंका उत्कीरण कर कुछ कर्म प्रदेशोंको प्रथम स्थितिमें क्षेपण करता है और कुछको द्वितीय स्थितिमें। अन्तरकरणसे नीचेकी अन्तर्मुहूर्त प्रमित स्थितिको प्रथम स्थिति कहते हैं, और अन्तरकरणसे ऊपरकी स्थितिको द्वितीयस्थिति कहते हैं। इस प्रकार प्रतिसमय अन्तरायाम सम्बन्धी कर्म प्रदेशोंको ऊपर नीचेकी स्थितियोंमें तबतक देता रहता है जबतक कि अन्तरायाम सम्बन्धी समस्त निषेकोंका अभाव नहीं हो जाता है। यह क्रिया एक अन्तर्मुहूर्त कालतक जारी रहती है। जब अन्तरायामके समस्त निषेक ऊपर या नीचेकी स्थितिमें दे दिये जाते हैं और अन्तरकाल मिथ्यात्व स्थितिके कर्म निषेकोंसे सर्वथा शून्य हो जाता है तब अन्तर कर दिया गया ऐसा समझना चाहिए। वि. - दे.<br> | |||
([[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-८,६/२३१/३); ([[लब्धिसार]] / मूल या टीका गाथा संख्या ८४-८६/११९-१२१)<br> | |||
<OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तरकरणकी संदृष्टि व यन्त्र </LI> </OL> | |||
उदयागत निषेक-०<br> | |||
सत्तास्थित निषेक-०<br> | |||
उत्कीरित निषेक-x<br> | |||
निक्षिप्त निषेक-०<br> | |||
(Chitra-2) <br> | |||
<OL start=4 class="HindiNumberList"> <LI> द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तरकरण विधान </LI> </OL> | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-८,१४/२९०/३ तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण दंसणमोहणीयस्स अंतरं करेदि। तं जधा-सम्मत्तस्स पढमट्ठिदिमंतोमुहुत्तमेत्तं मोत्तूण अंतरं करेदि, मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुदयावलियं मोत्तूण अंतरं करेदि। अंतरम्हि उक्कीरिज्जमाणपदेसग्गं विदियट्ठिदिम्हि ण संछुहदि, बंधाभावादो सव्वमाणेदूण सम्मत्तपढमट्ठिदिम्हि णिक्खिवदि। सम्मत्तपदेसग्गमप्पणो पढमट्ठिदिम्हि चेव संछुहदि। मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त-सम्मत्ताणं विदियट्ठिदिपदेसग्गं ओकड्डिदूण सम्मत्तपढमट्ठिदीए देदि, अणुक्कीरिज्जमाणासु ट्ठिदीसु च देदि। सम्मत्तपढमट्ठिदिसमाणासु ट्ठिदीसु ट्ठिद-मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तपदेसग्गं सम्मत्तपढमट्ठिदिसु संकामेदि। जाव अंतरदुचरिमफाली पददि ताव इमो कमो होदि। पुणो चरिमफालीए पदमाणाए मिच्छत्तसम्मामिच्छत्ताणमंतरट्ठिदिपदेसग्गं सव्वं सम्मत्तपढमट्ठिदीए संछुहदि। एवं सम्मत्त-अंतरट्ठिदिपदेसं पि अप्पणो पढमट्ठिदीए चेव देदि। विदियट्ठिदिपदेसग्गं पि ताव पढमट्ठिदिमेदि जाव आवलिय-पडिआवलियाओ पढमट्ठिदीए सेसाओ त्ति। <br> | |||
- इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल जाकर दर्शनमोहनीयका अन्तर करता है। वह इस प्रकार है - सम्यक्त्वप्रकृतिको अन्तर्मुहूर्त मात्र प्रथम स्थितिको छोड़कर अन्तर करता है। तथा मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंको उदयावलीको छोड़कर अन्तर करता है। इस अन्तरकरणमें उत्कीरण किये जानेवाले प्रदेशाग्रको द्वितीय स्थितिमें नहीं स्थापित करता है, किन्तु बन्धका अभाव होनेसे सबको लाकर सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथमस्थितिमें स्थापित करता है। सम्यक्त्वप्रकृतिके प्रदेशाग्रको अपनी प्रथम स्थितिमें ही स्थापित करता है। मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिके द्वितीय स्थिति सम्बन्धी प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितिमें देता है, और अनुत्कीर्यमाण (द्वितीय स्थितिकी) स्थितियोंमें भी देता है। सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितिके समान स्थितियोंमें स्थित मिथ्यात्व और सम्यग्-मिथ्यात्व प्रकृतियोंके प्रदेशाग्रको सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितियोंमें संक्रमण कराता है। जबतक अन्तरकरणकालकी द्विचरम काली प्राप्त होती है तबतक यही क्रम रहता है। पुनः अन्तिम कालीके प्राप्त होनेपर मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके सब अन्तरस्थितिसम्बन्धी प्रदेशाग्रको, सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितिमें स्थापित करता है। इस प्रकार सम्यक्त्वप्रकृतिके अन्तरस्थिति सम्बन्धी प्रदेशको भी अपनी प्रथम स्थितिमें ही देता है। द्वितीय स्थिति सम्बन्धी प्रदेशाग्र भी तबतक प्रथमस्थितिको प्राप्त होता है तबतक कि प्रथम स्थितिमें आवली और प्रत्यावली शेष रहती है।<br> | |||
<OL start=5 class="HindiNumberList"> <LI> द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तरकरणकी संदृष्टि व यन्त्र </LI> </OL> | |||
(Chitra-3) <br> | |||
<OL start=6 class="HindiNumberList"> <LI> चारित्रमोहके उपशमकी अपेक्षा अन्तरकरण विधान </LI> </OL> | |||
द्वितीयोपशमकी भाँति यहाँ भी दो प्रकारकी प्रकृतियाँ उपलब्ध हैं - उदयरूप, अनुदय रूप। इसके अतिरिक्त यहाँ एक विशेषता यह है कि यहाँ साथ-साथ चारित्र मोहकी किन्हीं प्रकृतियोंका नवीन बन्ध भी हो रहा है और किन्हींका नहीं भी हो रहा है।<br> | |||
इस देशघाती करणसे ऊपर संख्यात हजार स्थितिबन्धके पश्चात् मोहनीयकी २१ प्रकृतियोंका अन्तरकरण करता है। संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभमें कोई एकके, तथा तीनों वेदोंमें किसी एकके उदय सहित श्रेणी चढ़ता है। इन उदय रूप दो प्रकृतियोंकी तो प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्त स्थापै है और अनुदय रूप १९ प्रकृतियोंकी प्रथम स्थिति आवली मात्र (उदयावली) स्थापै है। इन प्रथम स्थिति प्रमाण निषेकोंको नीचे छोड़ ऊपरके निषेकोंका अन्तरकरण करता है, ऐसा अर्थ जानना। क्रम बिलकुल द्वितीयोपशमके समान ही है।<br> | |||
अन्तरके अर्थ उत्कीर्ण किये द्रव्यको अन्तरायाममें नहीं देता है। फिर किसमें देता है उसे कहते हैं। जिनका उदय नहीं होता केवल बन्ध ही होता है उन प्रकृतियोंके द्रव्यको उत्कर्षण करके तत्काल बँधनेवाली अपनी प्रकृतिकी आबाधाको छोड़कर, द्वितीय स्थितिके प्रथम समयसे लगाकर यथायोग्य अन्तपर्यन्त निक्षेपण करता है, और अपकर्षण करके उदय रूप जो अन्य कषाय उसकी प्रथम स्थितिमें निक्षेपण करता है।<br> | |||
जिन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता केवल उदय ही होता है, उनके द्रव्यका अपकर्षण करके अपनी प्रथम स्थितिमें देता है। और उत्कर्षण करके, जहाँ अन्य कषाय बँधती हैं उनकी द्वितीय स्थितिमें देता है, तथा अपकर्षण द्वारा उदय रूप अन्य क्रोधादि कषायकी प्रथम स्थितिमें संक्रमण कराके उदय प्रकृति रूप भी परिणमाता है।<br> | |||
जिन प्रकृतियोंका बन्ध भी है और उदय भी है, उनके `अन्तर' सम्बन्धी द्रव्यको अपकर्षण करके उदय रूप प्रथम स्थितिमें देता है तथा अन्य प्रकृति परिणमने रूप संक्रमण भी होता है। और उत्कर्षण करके जहाँ अन्य प्रकृति बँधती है उनकी द्वितीय स्थितिमें देता है।<br> | |||
बन्ध और उदय रहित प्रकृतियोंके अन्तर सम्बन्धी द्रव्यको अपकर्षण करके उदय रूप प्रकृतिकी प्रथम स्थितिमें संक्रमण कराता है वा तद्रूप परिणमाता है। और उत्कर्षण करके अन्य बँधनेवाली प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थिति रूप संक्रमण कराता है।<br> | |||
इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तकाल तक अन्तर करने रूप क्रियाकी समाप्ति होती है। जब उदयावलीका एक समय व्यतीत होता है, तब गुणश्रेणी का एक समय उदयावलीमें प्रवेश करता है, और तब ही अन्तरायामका एक-एक समय गुणश्रेणीमें मिलता है, और द्वितीय स्थितिका एक समय अन्तरायाममें मिलकर द्वितीय स्थिति घटती है। प्रथम स्थिति और अन्तरायाम उतनाका उतना ही रहता है। <br> | |||
(विशेष दे.-[[लब्धिसार]] / मूल गाथा संख्या व जीवप्रदीपिका २४१-२४७/२९७-३०४)<br> | |||
<OL start=7 class="HindiNumberList"> <LI> चारित्रमोह क्षपण की अपेक्षा अन्तरकरण विधान </LI> </OL> | |||
चारित्रमोह उपशम विधानवत् देशघाती करण तैं परैं संख्यात हजार स्थिति काण्डकों के पश्चात् चार संज्वलन और नव नोकषाय का अन्तर करता है। अन्तरकरण काल के प्रथम समय में पूर्व से अन्य प्रमाण लिये स्थितिकाण्डक, अनुभाग काण्डक व स्थिति बन्ध होता है। प्रथम समय में उन निषेकों के द्रव्य को अन्य निषेकों में निक्षेपण करता है।<br> | |||
संज्वलन चतुष्क में-से कोई एक, तीनों वेदों में-से कोई एक ऐसे दो प्रकृति की तो अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थिति स्थापै है। इनके अतिरिक्त जिनका उदय नहीं ऐसी १९ प्रकृतियों की आवली मात्र स्थिति स्थापै है। वर्तमान सम्बन्धी निषेक से लगाकर प्रथम स्थिति प्रमाण निषेकों को नीचे छोड़ इनके ऊपर के निषेकों का अन्तर करता है।<br> | |||
असंख्यातगुणा क्रम लिये अन्तर्मुहूर्तमात्र फालियों के द्वारा सर्व द्रव्य अन्य निषेकों में निक्षेपण करता है। अन्तर रूप निषेकों में क्षेपण नहीं करता। कहाँ निक्षेपण करता है उसे कहते हैं।<br> | |||
बन्ध उदय रहित वा केवल बन्ध सहित उदय रहित प्रकृतियों के द्रव्य को अपकर्षण करके उदयरूप अन्य प्रकृतियों की प्रथम स्थिति में संक्रमण रूप निक्षेपण करता है। बन्ध उदय रहित प्रकृतियों के द्रव्य को द्वितीय श्रेणी में निक्षेपण नहीं करता है क्योंकि बन्ध बिना उत्कर्षण होना सम्भव नहीं है। केवल बन्ध सहित प्रकृतियों के द्रव्य को उत्कर्षण करके अपनी द्वितीय स्थिति में देता है, वा बँधनेवाली अन्य प्रकृतियों की द्वितीय स्थिति में संक्रमण रूप से देता है।<br> | |||
केवल उदय सहित प्रकृतियों के द्रव्य को अपकर्षण करके प्रथम स्थिति में देता है और अन्य प्रकृतियों के द्रव्य को भी इनकी प्रथम स्थिति में संक्रमण रूप निक्षेपण करता है। इनका द्रव्य है सो उत्कर्षण करके बन्धनेवाली अन्य प्रकृतियों की द्वितीय स्थिति में निक्षेपण करता है। केवल उदयमान प्रकृतियों का द्रव्य अपनी द्वितीय स्थिति में निक्षेपण नहीं करता है।<br> | |||
बन्ध उदय सहित प्रकृतियों के द्रव्य को प्रथम स्थिति में वा बन्धती द्वितीय स्थिति में निक्षेपण करता है। विशेष - दे.-[[क्षपणासार]]भाषा ५३३-५३५/५१३)<br> | |||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> अन्तरकरण सम्बन्धी नियम </LI> </OL> | |||
<OL start=1 class="HindiNumberList"> <LI> अन्तरकरण की निष्पत्ति अनिवृत्तिकरण के काल में होती है </LI> </OL> | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ६/१,९-८,६/२३१/३ कम्हि अन्तरं करेदि। अणियट्टीअद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण। <br> | |||
<p class="HindiSentence">= शंका-किसमें अर्थात् कहाँ पर या किस करण के काल में अन्तर करता है। उत्तर-अनिवृत्तिकरण के काल में संख्यात भाग जाकर अन्तर करता है। </p> | |||
([[लब्धिसार]] / मूल या टीका गाथा संख्या ८४/११८)<br> | |||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> अन्तरकरण का काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है </LI> </OL> | |||
[[लब्धिसार]] / मूल या टीका गाथा संख्या ८५/११९ एयट्ठिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरस्स णिप्पत्ती। अंतोमुहुत्तमेत्ते अंतरकरणस्स अद्धाणं ।।८५।। <br> | |||
<p class="HindiSentence">= एक स्थिति खण्डोत्कीरण काल विषै अन्तर की निष्पत्ति हो है। एक स्थिति काण्डोत्कीरण का जितना काल तितने काल करि अन्तर करे है। याकौ अन्तरकरण काल कहिए है, सो यह अन्तर्मुहूर्त मात्र है।</p> | |||
<OL start=3 class="HindiNumberList"> <LI> अन्तरायाम भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही होता है </LI> </OL> | |||
[[लब्धिसार]] / [[लब्धिसार जीवतत्त्व प्रदीपिका | जीवतत्त्व प्रदीपिका ]] / मूल या टीका गाथा संख्या २४३/२९९ एवं विधान्तरायामप्रमाणं च ताभ्यां द्वाभ्यामन्तर्मुहूर्तावलिमात्रीभ्यां प्रथमस्थिती ताभ्यां संख्यातगुणितमेव भवति। <br> | |||
<p class="HindiSentence">= बहुरि अन्तर्मुहूर्त वा आवलीमात्र जो उदय अनुदय प्रकृतिनिकी प्रथम स्थिति ताते संख्यातगुणा ऐसा अन्तर्मुहूर्त मात्र अंतरायाम है।</p> | |||
<OL start=4 class="HindiNumberList"> <LI> अन्तर पूरण करण </LI> </OL> | |||
[[लब्धिसार]] / मूल या टीका गाथा संख्या १०३/१३९ उवसमसम्मत्तुवरिं दंसणमोहं तुरंत पूरेदि। उदयिल्लास्सुदयादो सेसाणं उदयबाहिरदो ।।१०३।। <br> | |||
<p class="HindiSentence">= उपशम सम्यक्त्व के ऊपरि ताका अन्त समय के अनन्तरि दर्शन मोह की अन्तरायाम के उपरिवर्ती जो द्वितीय स्थिति ताके निषेकनिका द्रव्य कौ अपकर्षण करि अंतर कौ पूरै है।</p> | |||
[[Category:अ]] | |||
[[Category:लब्धिसार]] | |||
[[Category:धवला]] | |||
[[Category:क्षपणासार]] |
Revision as of 06:54, 3 May 2009
पूर्वोपार्जित कर्म यथा काल उदयमें आकर जीवके गुणोंका पराभव करनेमें कारण पड़ते रहते हैं। और इस प्रकार जीव उसके प्रभावसे कभी भी मुक्त नहीं हो पाता। परन्तु आध्यात्मिक साधनाओंके द्वारा उनमें कदाचित् अन्तर पड़ना सम्भव है। कुछ काल सम्बन्धी कर्म निषेक अपना स्थान छोड़कर आगे-पीछे हो जाते हैं। उस कालसे पूर्व भी कर्मोंका उदय रहता है और उस कालके पीछे भी। परन्तु उतने काल तक कर्म उदयमें नहीं आता। कर्मोंके इस प्रकार अन्तर उत्पन्न करनेको ही अन्तरकरण कहते हैं। इसी विषयका कथन इस अधिकार के अन्तर्गत किया गया है।
- अन्तरकरण विधान
- अन्तरकरणका लक्षण
लब्धिसार / भाषा. ८४/११९ विवक्षित कोई निषेकनिका सर्व द्रव्यको अन्य निषेकनिविषैं निक्षेपण करि तिनि निषेकनिका जो अभाव करना सो अन्तरकरण कहिये।
- प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तरकरण-विधान
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-८,६/२३१/१४/विशेषार्थ – अन्तरकरण प्रारम्भ करनेके समयसे पूर्व उदयमें आनेवाले मिथ्यात्व कर्मकी अन्तर्मुहूर्त प्रमित स्थितिको उल्लंघन कर उससे ऊपरकी अन्तर्मुहूर्त प्रमित स्थितिके निषेकोंका उत्कीरण कर कुछ कर्म प्रदेशोंको प्रथम स्थितिमें क्षेपण करता है और कुछको द्वितीय स्थितिमें। अन्तरकरणसे नीचेकी अन्तर्मुहूर्त प्रमित स्थितिको प्रथम स्थिति कहते हैं, और अन्तरकरणसे ऊपरकी स्थितिको द्वितीयस्थिति कहते हैं। इस प्रकार प्रतिसमय अन्तरायाम सम्बन्धी कर्म प्रदेशोंको ऊपर नीचेकी स्थितियोंमें तबतक देता रहता है जबतक कि अन्तरायाम सम्बन्धी समस्त निषेकोंका अभाव नहीं हो जाता है। यह क्रिया एक अन्तर्मुहूर्त कालतक जारी रहती है। जब अन्तरायामके समस्त निषेक ऊपर या नीचेकी स्थितिमें दे दिये जाते हैं और अन्तरकाल मिथ्यात्व स्थितिके कर्म निषेकोंसे सर्वथा शून्य हो जाता है तब अन्तर कर दिया गया ऐसा समझना चाहिए। वि. - दे.
(धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-८,६/२३१/३); (लब्धिसार / मूल या टीका गाथा संख्या ८४-८६/११९-१२१)
- प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तरकरणकी संदृष्टि व यन्त्र
उदयागत निषेक-०
सत्तास्थित निषेक-०
उत्कीरित निषेक-x
निक्षिप्त निषेक-०
(Chitra-2)
- द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तरकरण विधान
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-८,१४/२९०/३ तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण दंसणमोहणीयस्स अंतरं करेदि। तं जधा-सम्मत्तस्स पढमट्ठिदिमंतोमुहुत्तमेत्तं मोत्तूण अंतरं करेदि, मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुदयावलियं मोत्तूण अंतरं करेदि। अंतरम्हि उक्कीरिज्जमाणपदेसग्गं विदियट्ठिदिम्हि ण संछुहदि, बंधाभावादो सव्वमाणेदूण सम्मत्तपढमट्ठिदिम्हि णिक्खिवदि। सम्मत्तपदेसग्गमप्पणो पढमट्ठिदिम्हि चेव संछुहदि। मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त-सम्मत्ताणं विदियट्ठिदिपदेसग्गं ओकड्डिदूण सम्मत्तपढमट्ठिदीए देदि, अणुक्कीरिज्जमाणासु ट्ठिदीसु च देदि। सम्मत्तपढमट्ठिदिसमाणासु ट्ठिदीसु ट्ठिद-मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तपदेसग्गं सम्मत्तपढमट्ठिदिसु संकामेदि। जाव अंतरदुचरिमफाली पददि ताव इमो कमो होदि। पुणो चरिमफालीए पदमाणाए मिच्छत्तसम्मामिच्छत्ताणमंतरट्ठिदिपदेसग्गं सव्वं सम्मत्तपढमट्ठिदीए संछुहदि। एवं सम्मत्त-अंतरट्ठिदिपदेसं पि अप्पणो पढमट्ठिदीए चेव देदि। विदियट्ठिदिपदेसग्गं पि ताव पढमट्ठिदिमेदि जाव आवलिय-पडिआवलियाओ पढमट्ठिदीए सेसाओ त्ति।
- इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल जाकर दर्शनमोहनीयका अन्तर करता है। वह इस प्रकार है - सम्यक्त्वप्रकृतिको अन्तर्मुहूर्त मात्र प्रथम स्थितिको छोड़कर अन्तर करता है। तथा मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंको उदयावलीको छोड़कर अन्तर करता है। इस अन्तरकरणमें उत्कीरण किये जानेवाले प्रदेशाग्रको द्वितीय स्थितिमें नहीं स्थापित करता है, किन्तु बन्धका अभाव होनेसे सबको लाकर सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथमस्थितिमें स्थापित करता है। सम्यक्त्वप्रकृतिके प्रदेशाग्रको अपनी प्रथम स्थितिमें ही स्थापित करता है। मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिके द्वितीय स्थिति सम्बन्धी प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितिमें देता है, और अनुत्कीर्यमाण (द्वितीय स्थितिकी) स्थितियोंमें भी देता है। सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितिके समान स्थितियोंमें स्थित मिथ्यात्व और सम्यग्-मिथ्यात्व प्रकृतियोंके प्रदेशाग्रको सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितियोंमें संक्रमण कराता है। जबतक अन्तरकरणकालकी द्विचरम काली प्राप्त होती है तबतक यही क्रम रहता है। पुनः अन्तिम कालीके प्राप्त होनेपर मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके सब अन्तरस्थितिसम्बन्धी प्रदेशाग्रको, सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितिमें स्थापित करता है। इस प्रकार सम्यक्त्वप्रकृतिके अन्तरस्थिति सम्बन्धी प्रदेशको भी अपनी प्रथम स्थितिमें ही देता है। द्वितीय स्थिति सम्बन्धी प्रदेशाग्र भी तबतक प्रथमस्थितिको प्राप्त होता है तबतक कि प्रथम स्थितिमें आवली और प्रत्यावली शेष रहती है।
- द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तरकरणकी संदृष्टि व यन्त्र
(Chitra-3)
- चारित्रमोहके उपशमकी अपेक्षा अन्तरकरण विधान
द्वितीयोपशमकी भाँति यहाँ भी दो प्रकारकी प्रकृतियाँ उपलब्ध हैं - उदयरूप, अनुदय रूप। इसके अतिरिक्त यहाँ एक विशेषता यह है कि यहाँ साथ-साथ चारित्र मोहकी किन्हीं प्रकृतियोंका नवीन बन्ध भी हो रहा है और किन्हींका नहीं भी हो रहा है।
इस देशघाती करणसे ऊपर संख्यात हजार स्थितिबन्धके पश्चात् मोहनीयकी २१ प्रकृतियोंका अन्तरकरण करता है। संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभमें कोई एकके, तथा तीनों वेदोंमें किसी एकके उदय सहित श्रेणी चढ़ता है। इन उदय रूप दो प्रकृतियोंकी तो प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्त स्थापै है और अनुदय रूप १९ प्रकृतियोंकी प्रथम स्थिति आवली मात्र (उदयावली) स्थापै है। इन प्रथम स्थिति प्रमाण निषेकोंको नीचे छोड़ ऊपरके निषेकोंका अन्तरकरण करता है, ऐसा अर्थ जानना। क्रम बिलकुल द्वितीयोपशमके समान ही है।
अन्तरके अर्थ उत्कीर्ण किये द्रव्यको अन्तरायाममें नहीं देता है। फिर किसमें देता है उसे कहते हैं। जिनका उदय नहीं होता केवल बन्ध ही होता है उन प्रकृतियोंके द्रव्यको उत्कर्षण करके तत्काल बँधनेवाली अपनी प्रकृतिकी आबाधाको छोड़कर, द्वितीय स्थितिके प्रथम समयसे लगाकर यथायोग्य अन्तपर्यन्त निक्षेपण करता है, और अपकर्षण करके उदय रूप जो अन्य कषाय उसकी प्रथम स्थितिमें निक्षेपण करता है।
जिन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता केवल उदय ही होता है, उनके द्रव्यका अपकर्षण करके अपनी प्रथम स्थितिमें देता है। और उत्कर्षण करके, जहाँ अन्य कषाय बँधती हैं उनकी द्वितीय स्थितिमें देता है, तथा अपकर्षण द्वारा उदय रूप अन्य क्रोधादि कषायकी प्रथम स्थितिमें संक्रमण कराके उदय प्रकृति रूप भी परिणमाता है।
जिन प्रकृतियोंका बन्ध भी है और उदय भी है, उनके `अन्तर' सम्बन्धी द्रव्यको अपकर्षण करके उदय रूप प्रथम स्थितिमें देता है तथा अन्य प्रकृति परिणमने रूप संक्रमण भी होता है। और उत्कर्षण करके जहाँ अन्य प्रकृति बँधती है उनकी द्वितीय स्थितिमें देता है।
बन्ध और उदय रहित प्रकृतियोंके अन्तर सम्बन्धी द्रव्यको अपकर्षण करके उदय रूप प्रकृतिकी प्रथम स्थितिमें संक्रमण कराता है वा तद्रूप परिणमाता है। और उत्कर्षण करके अन्य बँधनेवाली प्रकृतियोंकी द्वितीय स्थिति रूप संक्रमण कराता है।
इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तकाल तक अन्तर करने रूप क्रियाकी समाप्ति होती है। जब उदयावलीका एक समय व्यतीत होता है, तब गुणश्रेणी का एक समय उदयावलीमें प्रवेश करता है, और तब ही अन्तरायामका एक-एक समय गुणश्रेणीमें मिलता है, और द्वितीय स्थितिका एक समय अन्तरायाममें मिलकर द्वितीय स्थिति घटती है। प्रथम स्थिति और अन्तरायाम उतनाका उतना ही रहता है।
(विशेष दे.-लब्धिसार / मूल गाथा संख्या व जीवप्रदीपिका २४१-२४७/२९७-३०४)
- चारित्रमोह क्षपण की अपेक्षा अन्तरकरण विधान
चारित्रमोह उपशम विधानवत् देशघाती करण तैं परैं संख्यात हजार स्थिति काण्डकों के पश्चात् चार संज्वलन और नव नोकषाय का अन्तर करता है। अन्तरकरण काल के प्रथम समय में पूर्व से अन्य प्रमाण लिये स्थितिकाण्डक, अनुभाग काण्डक व स्थिति बन्ध होता है। प्रथम समय में उन निषेकों के द्रव्य को अन्य निषेकों में निक्षेपण करता है।
संज्वलन चतुष्क में-से कोई एक, तीनों वेदों में-से कोई एक ऐसे दो प्रकृति की तो अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थिति स्थापै है। इनके अतिरिक्त जिनका उदय नहीं ऐसी १९ प्रकृतियों की आवली मात्र स्थिति स्थापै है। वर्तमान सम्बन्धी निषेक से लगाकर प्रथम स्थिति प्रमाण निषेकों को नीचे छोड़ इनके ऊपर के निषेकों का अन्तर करता है।
असंख्यातगुणा क्रम लिये अन्तर्मुहूर्तमात्र फालियों के द्वारा सर्व द्रव्य अन्य निषेकों में निक्षेपण करता है। अन्तर रूप निषेकों में क्षेपण नहीं करता। कहाँ निक्षेपण करता है उसे कहते हैं।
बन्ध उदय रहित वा केवल बन्ध सहित उदय रहित प्रकृतियों के द्रव्य को अपकर्षण करके उदयरूप अन्य प्रकृतियों की प्रथम स्थिति में संक्रमण रूप निक्षेपण करता है। बन्ध उदय रहित प्रकृतियों के द्रव्य को द्वितीय श्रेणी में निक्षेपण नहीं करता है क्योंकि बन्ध बिना उत्कर्षण होना सम्भव नहीं है। केवल बन्ध सहित प्रकृतियों के द्रव्य को उत्कर्षण करके अपनी द्वितीय स्थिति में देता है, वा बँधनेवाली अन्य प्रकृतियों की द्वितीय स्थिति में संक्रमण रूप से देता है।
केवल उदय सहित प्रकृतियों के द्रव्य को अपकर्षण करके प्रथम स्थिति में देता है और अन्य प्रकृतियों के द्रव्य को भी इनकी प्रथम स्थिति में संक्रमण रूप निक्षेपण करता है। इनका द्रव्य है सो उत्कर्षण करके बन्धनेवाली अन्य प्रकृतियों की द्वितीय स्थिति में निक्षेपण करता है। केवल उदयमान प्रकृतियों का द्रव्य अपनी द्वितीय स्थिति में निक्षेपण नहीं करता है।
बन्ध उदय सहित प्रकृतियों के द्रव्य को प्रथम स्थिति में वा बन्धती द्वितीय स्थिति में निक्षेपण करता है। विशेष - दे.-क्षपणासारभाषा ५३३-५३५/५१३)
- अन्तरकरण सम्बन्धी नियम
- अन्तरकरण की निष्पत्ति अनिवृत्तिकरण के काल में होती है
धवला पुस्तक संख्या ६/१,९-८,६/२३१/३ कम्हि अन्तरं करेदि। अणियट्टीअद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण।
= शंका-किसमें अर्थात् कहाँ पर या किस करण के काल में अन्तर करता है। उत्तर-अनिवृत्तिकरण के काल में संख्यात भाग जाकर अन्तर करता है।
(लब्धिसार / मूल या टीका गाथा संख्या ८४/११८)
- अन्तरकरण का काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा संख्या ८५/११९ एयट्ठिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरस्स णिप्पत्ती। अंतोमुहुत्तमेत्ते अंतरकरणस्स अद्धाणं ।।८५।।
= एक स्थिति खण्डोत्कीरण काल विषै अन्तर की निष्पत्ति हो है। एक स्थिति काण्डोत्कीरण का जितना काल तितने काल करि अन्तर करे है। याकौ अन्तरकरण काल कहिए है, सो यह अन्तर्मुहूर्त मात्र है।
- अन्तरायाम भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही होता है
लब्धिसार / जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा संख्या २४३/२९९ एवं विधान्तरायामप्रमाणं च ताभ्यां द्वाभ्यामन्तर्मुहूर्तावलिमात्रीभ्यां प्रथमस्थिती ताभ्यां संख्यातगुणितमेव भवति।
= बहुरि अन्तर्मुहूर्त वा आवलीमात्र जो उदय अनुदय प्रकृतिनिकी प्रथम स्थिति ताते संख्यातगुणा ऐसा अन्तर्मुहूर्त मात्र अंतरायाम है।
- अन्तर पूरण करण
लब्धिसार / मूल या टीका गाथा संख्या १०३/१३९ उवसमसम्मत्तुवरिं दंसणमोहं तुरंत पूरेदि। उदयिल्लास्सुदयादो सेसाणं उदयबाहिरदो ।।१०३।।
= उपशम सम्यक्त्व के ऊपरि ताका अन्त समय के अनन्तरि दर्शन मोह की अन्तरायाम के उपरिवर्ती जो द्वितीय स्थिति ताके निषेकनिका द्रव्य कौ अपकर्षण करि अंतर कौ पूरै है।