व्यतिकर: Difference between revisions
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<p> | <p> स्याद्वादमञ्जरी/24/292/11 येन स्वभावेन सामान्यं तेन विशेषः, येन विशेषस्तेन सामान्यमिति व्यतिकरः । =<span class="HindiText"> पदार्थ, जिस स्वभाव से सामान्य है उसी स्वभाव से विशेष है और जिस स्वभाव से विशेष है उसी से सामान्य है । अनेकान्तवाद में यह बात दर्शाकर नैयायिक लोग इस सिद्धान्त में व्यतिकर दोष उठाते हैं । </span><br /> | ||
स.भ.त./82/8<span class="SanskritText"> परस्परविषयगमनं व्यतिकरः । </span>= <span class="HindiText">जिस अवच्छेदक स्वभाव से अस्तित्व है उससे नास्तित्व क्यों न बन बैठे और जिस स्वभाव से नास्तित्व नियत किया है उससे अस्तित्व व्यवस्थित हो जाये । इस प्रकार परस्पर में व्यवस्थापक धर्मों का विषयगमन करने से अनेकान्त पक्ष में व्यतिकर दोष आता है; ऐसा नैयायिक कहते हैं । </span></p> | स.भ.त./82/8<span class="SanskritText"> परस्परविषयगमनं व्यतिकरः । </span>= <span class="HindiText">जिस अवच्छेदक स्वभाव से अस्तित्व है उससे नास्तित्व क्यों न बन बैठे और जिस स्वभाव से नास्तित्व नियत किया है उससे अस्तित्व व्यवस्थित हो जाये । इस प्रकार परस्पर में व्यवस्थापक धर्मों का विषयगमन करने से अनेकान्त पक्ष में व्यतिकर दोष आता है; ऐसा नैयायिक कहते हैं । </span></p> | ||
Revision as of 19:15, 17 July 2020
स्याद्वादमञ्जरी/24/292/11 येन स्वभावेन सामान्यं तेन विशेषः, येन विशेषस्तेन सामान्यमिति व्यतिकरः । = पदार्थ, जिस स्वभाव से सामान्य है उसी स्वभाव से विशेष है और जिस स्वभाव से विशेष है उसी से सामान्य है । अनेकान्तवाद में यह बात दर्शाकर नैयायिक लोग इस सिद्धान्त में व्यतिकर दोष उठाते हैं ।
स.भ.त./82/8 परस्परविषयगमनं व्यतिकरः । = जिस अवच्छेदक स्वभाव से अस्तित्व है उससे नास्तित्व क्यों न बन बैठे और जिस स्वभाव से नास्तित्व नियत किया है उससे अस्तित्व व्यवस्थित हो जाये । इस प्रकार परस्पर में व्यवस्थापक धर्मों का विषयगमन करने से अनेकान्त पक्ष में व्यतिकर दोष आता है; ऐसा नैयायिक कहते हैं ।