सन्निपातिक भाव: Difference between revisions
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</span>=<span class="HindiText">सान्निपातिक नाम का एक स्वतन्त्र भाव नहीं है। संयोग भंग की अपेक्षा उसका ग्रहण किया।...जैसे औदयिक-औपशमिक-मनुष्य और उपशान्त क्रोध। ( | </span>=<span class="HindiText">सान्निपातिक नाम का एक स्वतन्त्र भाव नहीं है। संयोग भंग की अपेक्षा उसका ग्रहण किया।...जैसे औदयिक-औपशमिक-मनुष्य और उपशान्त क्रोध। ( ज्ञानार्णव/6/42 ) जीव भाव सान्निपातिक है।</span></p> | ||
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</span>=<span class="HindiText">एक ही गुणस्थान या जीवसमास में जो बहुत से भाव आकर एकत्रित होते हैं, उन भावों की सान्निपातिक ऐसी संज्ञा है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">एक ही गुणस्थान या जीवसमास में जो बहुत से भाव आकर एकत्रित होते हैं, उन भावों की सान्निपातिक ऐसी संज्ञा है।</span></p> | ||
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<strong>2. सान्निपातिक भावों के भेद</strong></p> | <strong>2. सान्निपातिक भावों के भेद</strong></p> | ||
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पाँच संयोगी क्रम से 10,10,5 तथा 1 इस प्रकार छब्बीस बताये हैं ( | पाँच संयोगी क्रम से 10,10,5 तथा 1 इस प्रकार छब्बीस बताये हैं ( धवला 5/1,7,1/193/3 )।</span></p> | ||
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</span>=<span class="HindiText">सान्निपातिक भाव 26, 36 और 41 आदि प्रकार के आगम में बताये गये हैं [41 भंगों में 26 व 36 आदि सर्व भंग गर्भित हैं इसलिए नीचे 41 भंगों का निर्देश किया जाता है]।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">सान्निपातिक भाव 26, 36 और 41 आदि प्रकार के आगम में बताये गये हैं [41 भंगों में 26 व 36 आदि सर्व भंग गर्भित हैं इसलिए नीचे 41 भंगों का निर्देश किया जाता है]।</span></p> | ||
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Revision as of 19:16, 17 July 2020
1. सन्निपातिक भाव सामान्य का लक्षण
राजवार्तिक/2/7/22/114/10 सान्निपातिक एको भावो नास्तीति...संयोगभङ्गापेक्षया अस्ति। ...(यथा) औदयिकौपशमिकसान्निपातिकजीवाभावो नाम। =सान्निपातिक नाम का एक स्वतन्त्र भाव नहीं है। संयोग भंग की अपेक्षा उसका ग्रहण किया।...जैसे औदयिक-औपशमिक-मनुष्य और उपशान्त क्रोध। ( ज्ञानार्णव/6/42 ) जीव भाव सान्निपातिक है।
धवला 5/1,7,1/193/1 एक्कम्हि गुणट्ठाणे जीवसमासे वा बहवो भावा जम्हि सण्णिवदंति तेसिं भावाणं सण्णिवादिएत्ति सण्णा। =एक ही गुणस्थान या जीवसमास में जो बहुत से भाव आकर एकत्रित होते हैं, उन भावों की सान्निपातिक ऐसी संज्ञा है।
2. सान्निपातिक भावों के भेद
राजवार्तिक/2/7/22/114/15 पर उद्धृत-दुग तिग चदु पंचेव य संयोगा होंति सन्निवादेसु। दस दस पंच य एक्क य भावा छव्वीस पिंडेण।=सान्निपातिक भाव दो संयोगी, तीन, चार तथा पाँच संयोगी क्रम से 10,10,5 तथा 1 इस प्रकार छब्बीस बताये हैं ( धवला 5/1,7,1/193/3 )।
राजवार्तिक/2/7/22/114/13 सान्निपातिकभाव:...षड्विंशतिविध: षड्त्रिंशद्विध एकचत्वारिंशद्विध: इत्येवमादिरागमे उक्त:। =सान्निपातिक भाव 26, 36 और 41 आदि प्रकार के आगम में बताये गये हैं [41 भंगों में 26 व 36 आदि सर्व भंग गर्भित हैं इसलिए नीचे 41 भंगों का निर्देश किया जाता है]।
संकेत - औद.=औदयिक; औप.=औपशमिक; क्षा.=क्षायिक; क्षयो.=क्षायोपशमिक; पा.=पारिणामिक।
1. द्विसंयोगी -
क्र. | भंग निर्देश | विवरण |
1 | औद.+औद. | मनुष्य और क्रोधी |
2 | औद.+औप. | मनुष्य और उपशान्त क्रोध |
3 | औद.+क्षा. | मनुष्य और क्षीणकषाय |
4 | औद.+क्षयो. | क्रोधी और मतिज्ञानी |
5 | औद.+पारि. | मनुष्य और भव्य |
6 | औप.+औप. | उपशम सम्यग्दृष्टि और उपशान्त कषाय |
7 | औप.+औद. | उपशान्त कषाय और मनुष्य |
8 | औप.+क्षा. | उपशान्त क्रोध और क्षायिक सम्यग्दृष्टि |
9 | औप.+क्षयो. | उपशान्त कषाय और अवधिज्ञानी |
10 | औप.+पारि. | उपशम सम्यग्दृष्टि और जीव |
11 | क्षा.+क्षा. | क्षायिक सम्यग्दृष्टि और क्षीणकषाय |
12 | क्षा.+औद. | क्षीणकषाय और मनुष्य |
13 | क्षा.+औप. | क्षायिक सम्यग्दृष्टि और उपशान्त वेद |
14 | क्षा.+क्षयो. | क्षीणकषायी और मतिज्ञानी |
15 | क्षा.+पारि. | क्षीण मोह और भव्य |
16 | क्षयो.+क्षयो. | संयत और अवधिज्ञानी |
17 | क्षयो.+औद. | संयत और मनुष्य |
18 | क्षयो.+औप. | संयत और उपशान्त कषाय |
19 | क्षयो.+क्षा. | संयतासंयत और क्षायिक सम्यग्दृष्टि |
20 | क्षयो.+पारि. | अप्रमत्त संयत और जीव |
21 | पारि.+पारि. | जीव और भव्य |
22 | पारि.+औद. | जीव और क्रोधी |
23 | पारि.+औप. | भव्य और उपशान्त कषाय |
24 | पारि.+क्षा. | भव्य और क्षीण कषाय |
25 | पारि.+क्षयो. | संयत और भव्य |
2. त्रिसंयोगी
क्र. | भंग निर्देश | विवरण |
1 | औद.+औप.+क्षा. | उपशान्त मोह और क्षायिक सम्यग्दृष्टि |
2 | औद.+औप.+क्षयो. | मनुष्य उपशान्त क्रोध और वाग्योगी |
3 | औद.+औप.+पा. | मनुष्य उपशान्तमोह और जीव |
4 | औद.+क्षा.+क्षयो. | मनुष्य क्षीणकषाय और श्रुतज्ञानी |
5 | औद.+क्षा.+पारि. | मनुष्य क्षायिक सम्यग्दृष्टि और जीव |
6 | औद.+क्षयो.+पारि. | मनुष्य मनोयोगी और जीव |
7 | औप.+क्षा.+पारि. | उपशान्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि और काययोगी |
8 | औप.+क्षा.+पारि. | उपशान्त वेद क्षायिकसम्यग्दृष्टि और भव्य |
9 | औप.+क्षयो.+पारि. | उपशान्तमान मतिज्ञानी और जीव |
10 | क्षा.+क्षयो.+पारि. | क्षीणमोह पंचेन्द्रिय और भव्य |
3. चतु: संयोगी
क्र. | भंग निर्देश | विवरण |
1 | औप.+क्षा.+क्षयो.+पारि. | उपशान्त लोभ क्षायिक सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रिय और जीव |
2 | औद.+क्षा.+क्षयो.+पारि. | मनुष्य क्षीणकषाय मतिज्ञानी और भव्य |
3 | औद.+औप.+क्षयो.+पारि. | मनुष्य उपशान्त वेद श्रुतज्ञानी और जीव |
4 | औद.+औप.+क्षा.+पारि. | मनुष्य उपशान्तराग क्षायिक सम्यग्दृष्टि और जीव |
5 | औद.+औप.+क्षा.+क्षयो. | मनुष्य उपशान्त मोह क्षायिक सम्यग्दृष्टि और अवधिज्ञानी |
4. पंच भाव संयोगी
औद.+औप.+क्षा.+क्षयो.+पारि.‒मनुष्य उपशान्तमोह क्षायिक सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रिय जीव।