सौधर्म: Difference between revisions
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<strong>1. सौधर्म का लक्षण</strong></p> | <strong>1. सौधर्म का लक्षण</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText"> | <span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/4/19/249/7 सुधर्मा नाम सभा, सास्मिन्नस्तीति सौधर्म: कल्प:। तदस्मिन्नस्तीति अण् । तत्कल्पसाहचर्यादिन्द्रोऽपि सौधर्म:।</span> =<span class="HindiText"> सुधर्मा नाम की सभा है वह जहाँ है उस कल्प का नाम सौधर्म है। यहाँ ‘तदस्मिन्नस्ति’ इससे अण्, प्रत्यय हुआ है। और इस कल्प के सम्बन्ध से वहाँ का इन्द्र भी सौधर्म कहलाता है।</span></p> | ||
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<strong>2. सुधर्मा सभा का अवस्थान व विस्तार</strong></p> | <strong>2. सुधर्मा सभा का अवस्थान व विस्तार</strong></p> | ||
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<span class="PrakritText"> | <span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/8/407-408 सक्कस्स मंदिरादो ईसाणदिसे सुधम्मणामसभा। तिसहस्सकोसउदया चउसयदीहा तदद्धवित्थारा।407। तीए दुवारछेहो कोसा चउसट्ठि तद्दलं रुंदो। सेसाओ वण्णाओ सक्कप्पासादसरिसाओ।408।</span> =<span class="HindiText"> सौधर्म इन्द्र के मन्दिर से ईशान दिशा में तीन हजार (तीन सौ) कोश ऊँची, चार सौ कोश लम्बी और इससे आधी विस्तार वाली सुधर्मा नामक सभा है।407। सुधर्मा सभा के द्वारों की ऊँचाई चौसठ कोश और विस्तार इससे आधा है। शेष वर्णन सौधर्म इन्द्र के प्रासाद से सदृश है।408।</span></p> | ||
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<span class="PrakritText"> | <span class="PrakritText"> त्रिलोकसार/515-516 अमरावदिपुरमज्झे थंभगिहीसाणदो सुधम्मक्खं। अट्ठाणमण्डवं सयतद्दलदीहदु तदुभयदल उदयं।515। पुव्वुत्तरदक्खिणदिस तद्दारा अट्ठवास सोलुदया।...।516।</span> =<span class="HindiText"> अमरावती नाम का इन्द्र का पुर है उसके मध्य इन्द्र के रहने के मन्दिर से ईशान विदिशा में सुधर्मा नाम सभा स्थान है। वह स्थान सौ योजन लम्बा, पचास योजन चौड़ा और पचहत्तर योजन ऊँचा है।515। इस सभा स्थान के पूर्व, उत्तर, व दक्षिण विदिशा में तीन द्वार हैं, उस एक द्वार की ऊँचाई सोलह योजन और चौड़ाई आठ योजन है।516।</span></p> | ||
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<strong>3. सुधर्मा सभा का स्वरूप</strong></p> | <strong>3. सुधर्मा सभा का स्वरूप</strong></p> | ||
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<span class="PrakritText"> | <span class="PrakritText"> त्रिलोकसार/516-522 मज्झे हरिसिंहासणपडदेवीणासणं पुरदो।516। तव्वाहिं पुव्वादिसु सलोयवालाणतुणेरिदिए।517। सेणावईणमवरे समाणियाणं तु पवणईसाणे। तणुरक्खाणं भद्दासणाणि चउदिसगयाणि बहिं।518। तस्सग्गे इगिबासो छत्तीसुदओ सबीढ वज्जमओ। माणत्थंभो गोरुदवित्थारय बारकोडिजुदो।519। चिट्ठंति तत्थ गोरुदचउत्थवित्थारकोसदीहजुदा। तित्थयरा भरणचिदा करंडया रयणसिक्कधिया।520। तुरियजुदविजुदछज्जोयणाणि उवरिं अधोवि ण करण्डा। सोहम्मदुगे भरहेरावदतित्थयरपडिबद्धा।521। साणक्कुमारजुगले पुव्ववर विदेहतित्थयर घूसा। ठविदच्चिदा सुरेहिं कोडी परिणाह वारंसो।522।</span> =<span class="HindiText"> सुधर्मा सभा के मध्य में इन्द्र का सिंहासन है। और उस सिंहासन के आगे आठ पटदेवियों के आठ सिंहासन है।516। पटदेवियों के आसन की पूर्वादि दिशाओं में चारों लोकपालों के चार आसन हैं। इन्द्र के आसन से आग्नेय, यम और नैर्ऋति दिशाओं में तीन जाति के परिषदों के क्रम से 12000, 14000 और 16000 आसन हैं। और त्रयस्त्रिंशत् देवों के 33 आसन नैर्ऋतदिशा में ही हैं।517। सेना नायकों के सात आसन पश्चिम दिशा में, सामानिक देवों के वायु और ईशान दिशा में हैं। इनमें चौरासी हजार सामानिक के आसनों में 42000 तो वायु दिशा में, 42000 ईशान दिशा में जानने। अंगरक्षक देवों के भद्रासन चारों दिशाओं में हैं तहाँ सौधर्म के पूर्वादि एक-एक दिशा में 84000 आसन जानने।518। इस मण्डप के आगे एक योजन चौड़ा, छत्तीस योजन ऊँचा, पीठ से युक्त वज्रमय एक-एक कोश विस्तार वाली 12 धाराओं से युक्त एक मानस्तम्भ है।519। तिस मानस्तम्भ में चौथाई कोश चौड़े, एक कोश लम्बे तीर्थंकर देव के आभरणों से भरे हुए रत्नों की सांकल में लटके हुए पिटारे हैं। मानस्तम्भ छत्तीस योजन ऊँचा है। उसमें नीचे से पौने छह योजन ऊँचाई तक पिटारे नहीं हैं। बीच में 24 योजन की ऊँचाई में पिटारे हैं, और फिर ऊपर सवा छह योजन की ऊँचाई में पिटारे नहीं हैं। सौधर्म द्विक में मानस्तम्भ भरत ऐरावत के तीर्थंकर सम्बन्धी हैं।520-521। सनत्कुमार युगल सम्बन्धी मानस्तम्भों के पिटारों में पूर्व पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों के आभूषण स्थापित करके देवों के द्वारा पूजनीय हैं।522।</span></p> | ||
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<strong>* अन्य सम्बन्धित विषय</strong></p> | <strong>* अन्य सम्बन्धित विषय</strong></p> |
Revision as of 19:16, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
1. सौधर्म का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/4/19/249/7 सुधर्मा नाम सभा, सास्मिन्नस्तीति सौधर्म: कल्प:। तदस्मिन्नस्तीति अण् । तत्कल्पसाहचर्यादिन्द्रोऽपि सौधर्म:। = सुधर्मा नाम की सभा है वह जहाँ है उस कल्प का नाम सौधर्म है। यहाँ ‘तदस्मिन्नस्ति’ इससे अण्, प्रत्यय हुआ है। और इस कल्प के सम्बन्ध से वहाँ का इन्द्र भी सौधर्म कहलाता है।
2. सुधर्मा सभा का अवस्थान व विस्तार
तिलोयपण्णत्ति/8/407-408 सक्कस्स मंदिरादो ईसाणदिसे सुधम्मणामसभा। तिसहस्सकोसउदया चउसयदीहा तदद्धवित्थारा।407। तीए दुवारछेहो कोसा चउसट्ठि तद्दलं रुंदो। सेसाओ वण्णाओ सक्कप्पासादसरिसाओ।408। = सौधर्म इन्द्र के मन्दिर से ईशान दिशा में तीन हजार (तीन सौ) कोश ऊँची, चार सौ कोश लम्बी और इससे आधी विस्तार वाली सुधर्मा नामक सभा है।407। सुधर्मा सभा के द्वारों की ऊँचाई चौसठ कोश और विस्तार इससे आधा है। शेष वर्णन सौधर्म इन्द्र के प्रासाद से सदृश है।408।
त्रिलोकसार/515-516 अमरावदिपुरमज्झे थंभगिहीसाणदो सुधम्मक्खं। अट्ठाणमण्डवं सयतद्दलदीहदु तदुभयदल उदयं।515। पुव्वुत्तरदक्खिणदिस तद्दारा अट्ठवास सोलुदया।...।516। = अमरावती नाम का इन्द्र का पुर है उसके मध्य इन्द्र के रहने के मन्दिर से ईशान विदिशा में सुधर्मा नाम सभा स्थान है। वह स्थान सौ योजन लम्बा, पचास योजन चौड़ा और पचहत्तर योजन ऊँचा है।515। इस सभा स्थान के पूर्व, उत्तर, व दक्षिण विदिशा में तीन द्वार हैं, उस एक द्वार की ऊँचाई सोलह योजन और चौड़ाई आठ योजन है।516।
3. सुधर्मा सभा का स्वरूप
त्रिलोकसार/516-522 मज्झे हरिसिंहासणपडदेवीणासणं पुरदो।516। तव्वाहिं पुव्वादिसु सलोयवालाणतुणेरिदिए।517। सेणावईणमवरे समाणियाणं तु पवणईसाणे। तणुरक्खाणं भद्दासणाणि चउदिसगयाणि बहिं।518। तस्सग्गे इगिबासो छत्तीसुदओ सबीढ वज्जमओ। माणत्थंभो गोरुदवित्थारय बारकोडिजुदो।519। चिट्ठंति तत्थ गोरुदचउत्थवित्थारकोसदीहजुदा। तित्थयरा भरणचिदा करंडया रयणसिक्कधिया।520। तुरियजुदविजुदछज्जोयणाणि उवरिं अधोवि ण करण्डा। सोहम्मदुगे भरहेरावदतित्थयरपडिबद्धा।521। साणक्कुमारजुगले पुव्ववर विदेहतित्थयर घूसा। ठविदच्चिदा सुरेहिं कोडी परिणाह वारंसो।522। = सुधर्मा सभा के मध्य में इन्द्र का सिंहासन है। और उस सिंहासन के आगे आठ पटदेवियों के आठ सिंहासन है।516। पटदेवियों के आसन की पूर्वादि दिशाओं में चारों लोकपालों के चार आसन हैं। इन्द्र के आसन से आग्नेय, यम और नैर्ऋति दिशाओं में तीन जाति के परिषदों के क्रम से 12000, 14000 और 16000 आसन हैं। और त्रयस्त्रिंशत् देवों के 33 आसन नैर्ऋतदिशा में ही हैं।517। सेना नायकों के सात आसन पश्चिम दिशा में, सामानिक देवों के वायु और ईशान दिशा में हैं। इनमें चौरासी हजार सामानिक के आसनों में 42000 तो वायु दिशा में, 42000 ईशान दिशा में जानने। अंगरक्षक देवों के भद्रासन चारों दिशाओं में हैं तहाँ सौधर्म के पूर्वादि एक-एक दिशा में 84000 आसन जानने।518। इस मण्डप के आगे एक योजन चौड़ा, छत्तीस योजन ऊँचा, पीठ से युक्त वज्रमय एक-एक कोश विस्तार वाली 12 धाराओं से युक्त एक मानस्तम्भ है।519। तिस मानस्तम्भ में चौथाई कोश चौड़े, एक कोश लम्बे तीर्थंकर देव के आभरणों से भरे हुए रत्नों की सांकल में लटके हुए पिटारे हैं। मानस्तम्भ छत्तीस योजन ऊँचा है। उसमें नीचे से पौने छह योजन ऊँचाई तक पिटारे नहीं हैं। बीच में 24 योजन की ऊँचाई में पिटारे हैं, और फिर ऊपर सवा छह योजन की ऊँचाई में पिटारे नहीं हैं। सौधर्म द्विक में मानस्तम्भ भरत ऐरावत के तीर्थंकर सम्बन्धी हैं।520-521। सनत्कुमार युगल सम्बन्धी मानस्तम्भों के पिटारों में पूर्व पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों के आभूषण स्थापित करके देवों के द्वारा पूजनीय हैं।522।
* अन्य सम्बन्धित विषय
- कल्पवासी देवों का एक भेद निर्देश-देखें स्वर्ग - 3।
- कल्पवासी देवों का अवस्थान-देखें स्वर्ग - 5।
- कल्प स्वर्गों का प्रथम कल्प है-देखें स्वर्ग - 5/2।
पुराणकोष से
सौलह कल्पों स्वर्ग में प्रथम कल्प । सौधर्म और ऐशान कल्पों में इकतीस पटल है उनके नाम हैं—1. ऋतु 2. विमल 3. चन्द्र 4. वल्गु 5. वीर 6. अरुण 7. नन्दन 8. नलिन 9. कांचन 10. रोहित 11. चंचत् 12. मारुत 13. ऋद्धीश 14. वैडूर्य 15. रुचक 16. रुचिर 17. अर्क 18. स्फटिक 19. तपनीयक 20. मेघ 21. भद्र 22. हारिद्र 23. पद्म 24. लोहिताक्ष 25. वज्र 26. नन्द्यावर्त 27. प्रभंकर 28. प्रष्टक 29. जगत् 30. मित्र और 31. प्रभा । इस स्वर्ग में बत्तीस लाख विमान हैं । विमानों में 640000 विमान संख्यात योजन विस्तार वाले हैं । यहाँ के भवनों के मूल शिलापीठ की मोटाई 1121 योजन और चौर चौड़ाई 120 योजन है । यहाँ के भवन काले, नीले, लाल, पीले और सफेद रंग के होते हैं । ये घनोदधि का आधार लिये रहते हैं । यहाँ देवों के मध्यम पीत लेश्या होती है । देवों का अवधिज्ञान का विषय धर्मा पृथिवी तक है । यहाँ देवियों के उत्पत्ति-स्थान छ: लाख है । यहाँ के प्रथन ऋतु विमान और मेरु की चूलिका में बाल मात्र का अन्तर है । ऋतु विमान 45 लाख योजन विस्तृत है । इस कल्प में संख्यात योजन विस्तार वाले विमानों से चौगुने असंख्यात योजन विस्तार वाले विमान है । हरिवंशपुराण 3.36, 6. 44-47, 55, 78-121 देखें कल्प