अभीक्ष्णज्ञानोपयोग: Difference between revisions
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सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/24/338 जीवादिपदार्थस्वतत्त्वविषये सम्यग्ज्ञाने नित्यं युक्तता अभीक्ष्णज्ञानोपयोगः।= जीवादि पदार्थरूप स्वतत्त्वविषयक सम्यग्ज्ञानमें निरन्तर लगे रहना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है।( सागार धर्मामृत टीका / अधिकार 77/221/6)।राजवार्तिक अध्याय 6/24/4/529 मत्यादिविकल्पं ज्ञानं जीवादिपदार्थ स्वतत्त्वविषयं प्रत्यक्षपरोक्षलक्षणम् अज्ञाननिवृत्त्यव्यवहितफलं हिताहितानुभयप्राप्तिपरिहारीपेक्षाव्यवहितफलं यत्, तस्य भावनायां नित्ययुक्तता ज्ञानोपयोगः।= जीवादि पदार्थोंको प्रत्यक्ष और परोक्षरूपसे जाननेवाले मति आदि पाँच ज्ञान हैं। अज्ञाननिवृत्ति इनका साक्षात् फल है तथा हितप्राप्ति अहितपरिहार और उपेक्षा व्यवहित या परम्परा फल है। इस ज्ञानकी भावनामें सदा तत्पर रहना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है।( चारित्रसार पृष्ठ 53/3)।धवला पुस्तक 8/3,41/91/4 अभिक्खणमभिक्खणं णाम बहुबारमिदि भणिदं होदि। णाणोवजोगो त्ति भावसुदं दव्वसुदं वावेक्खदे। तेसु मुहुम्मुहुजुत्तदाए तित्थयरणामकम्मं बज्झइ। = अभीक्ष्णका अर्थ बहुत बार है। ज्ञानोपयोगसे भावश्रुत अथवा द्रव्यश्रुतकी अपेक्षा है। उन (द्रव्य व भावश्रुत) में बारबार उद्यत रहनेसे तीर्थंकर नाम कर्म बन्धता है।2. अभीक्ष्णज्ञानोपयोगकी 15 भावनाओंके साथ व्याप्तिधवला पुस्तक 8/3,41/91/6 दंसणविसुज्झदादीहि विणा एदिस्से अणुववत्तीदो।= दर्शनविशुद्धता आदिक (अन्य 15 भावनाओं) के बिना यह अभीक्ष्ण ज्ञानोपयुक्तता बन नहीं सकती।• एक अभीक्ष्णज्ञानोपयोगसे ही तीर्थंकरत्वका बन्ध सम्भव है-देखें [[ भावना#2 | भावना - 2]]। | |||
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Revision as of 14:16, 20 July 2020
== सिद्धांतकोष से == सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/24/338 जीवादिपदार्थस्वतत्त्वविषये सम्यग्ज्ञाने नित्यं युक्तता अभीक्ष्णज्ञानोपयोगः।= जीवादि पदार्थरूप स्वतत्त्वविषयक सम्यग्ज्ञानमें निरन्तर लगे रहना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है।( सागार धर्मामृत टीका / अधिकार 77/221/6)।राजवार्तिक अध्याय 6/24/4/529 मत्यादिविकल्पं ज्ञानं जीवादिपदार्थ स्वतत्त्वविषयं प्रत्यक्षपरोक्षलक्षणम् अज्ञाननिवृत्त्यव्यवहितफलं हिताहितानुभयप्राप्तिपरिहारीपेक्षाव्यवहितफलं यत्, तस्य भावनायां नित्ययुक्तता ज्ञानोपयोगः।= जीवादि पदार्थोंको प्रत्यक्ष और परोक्षरूपसे जाननेवाले मति आदि पाँच ज्ञान हैं। अज्ञाननिवृत्ति इनका साक्षात् फल है तथा हितप्राप्ति अहितपरिहार और उपेक्षा व्यवहित या परम्परा फल है। इस ज्ञानकी भावनामें सदा तत्पर रहना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है।( चारित्रसार पृष्ठ 53/3)।धवला पुस्तक 8/3,41/91/4 अभिक्खणमभिक्खणं णाम बहुबारमिदि भणिदं होदि। णाणोवजोगो त्ति भावसुदं दव्वसुदं वावेक्खदे। तेसु मुहुम्मुहुजुत्तदाए तित्थयरणामकम्मं बज्झइ। = अभीक्ष्णका अर्थ बहुत बार है। ज्ञानोपयोगसे भावश्रुत अथवा द्रव्यश्रुतकी अपेक्षा है। उन (द्रव्य व भावश्रुत) में बारबार उद्यत रहनेसे तीर्थंकर नाम कर्म बन्धता है।2. अभीक्ष्णज्ञानोपयोगकी 15 भावनाओंके साथ व्याप्तिधवला पुस्तक 8/3,41/91/6 दंसणविसुज्झदादीहि विणा एदिस्से अणुववत्तीदो।= दर्शनविशुद्धता आदिक (अन्य 15 भावनाओं) के बिना यह अभीक्ष्ण ज्ञानोपयुक्तता बन नहीं सकती।• एक अभीक्ष्णज्ञानोपयोगसे ही तीर्थंकरत्वका बन्ध सम्भव है-देखें भावना - 2।
पुराणकोष से
तीर्थंकर नाम कर्म में कारणभूत सोलह भावनाओं में चौथी भावना― निरन्तर श्रुत (शास्त्र) की भावना रखना । इस भावना से अज्ञान की निवृत्ति के लिए ज्ञान की प्रवृत्ति में निरन्तर उपयोग रहता है । महापुराण 63. 311, 323, हरिवंशपुराण 34.135