अप्राप्तकाल: Difference between revisions
From जैनकोष
(New page: न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय संख्या ५/२/११ अवयवविपर्यासवचनमप...) |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
[[न्यायदर्शन सूत्र]] / मूल या टीका अध्याय संख्या ५/२/११ अवयवविपर्यासवचनमप्राप्तकालम् ।।११।।<br>= प्रतिज्ञा आदि अवयवोंका जैसा लक्षण कहा गया है, उससे विपरीत आगे पीछे कहना। अर्थात् जिस अवयवके पहिले या पीछे जिस अवयवके कहनेका समय है, उस प्रकारसे न कहनेको अप्राप्त काल नामक निग्रहस्थान कहते हैं। क्योंकि क्रमसे विपरीत अवयवोंके कहनेसे साध्यकी सिद्धि नहीं होती।< | [[न्यायदर्शन सूत्र]] / मूल या टीका अध्याय संख्या ५/२/११ अवयवविपर्यासवचनमप्राप्तकालम् ।।११।।<br> | ||
<p class="HindiSentence">= प्रतिज्ञा आदि अवयवोंका जैसा लक्षण कहा गया है, उससे विपरीत आगे पीछे कहना। अर्थात् जिस अवयवके पहिले या पीछे जिस अवयवके कहनेका समय है, उस प्रकारसे न कहनेको अप्राप्त काल नामक निग्रहस्थान कहते हैं। क्योंकि क्रमसे विपरीत अवयवोंके कहनेसे साध्यकी सिद्धि नहीं होती।</p> | |||
([[श्लोकवार्तिक]] पुस्तक संख्या पु.४/न्या.२११/३९१/१)<br> | |||
[[Category:अ]] | |||
[[Category:न्यायदर्शन सूत्र]] | |||
[[Category:श्लोकवार्तिक]] |
Revision as of 00:59, 8 May 2009
न्यायदर्शन सूत्र / मूल या टीका अध्याय संख्या ५/२/११ अवयवविपर्यासवचनमप्राप्तकालम् ।।११।।
= प्रतिज्ञा आदि अवयवोंका जैसा लक्षण कहा गया है, उससे विपरीत आगे पीछे कहना। अर्थात् जिस अवयवके पहिले या पीछे जिस अवयवके कहनेका समय है, उस प्रकारसे न कहनेको अप्राप्त काल नामक निग्रहस्थान कहते हैं। क्योंकि क्रमसे विपरीत अवयवोंके कहनेसे साध्यकी सिद्धि नहीं होती।
(श्लोकवार्तिक पुस्तक संख्या पु.४/न्या.२११/३९१/१)