ईर्यापथकर्म: Difference between revisions
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जिन कर्मोंका आस्रव होता है पर बन्ध नहीं होता उन्हें ईर्यापथकर्म कहते हैं। आनेके अगले क्षणमें ही बिना फल दिये वे झड़ जाते हैं। अतः इनमें एक समय मात्रकी स्थिति होती है अधिक नहीं। मोहका सर्वथा उपशम अथवा क्षय हो जाने पर ही ऐसे कर्म आया करते हैं। 10वें गुणस्थान तक जबतक मोहका किंचित् भी सद्भाव है तबतक ईर्यापथकर्म सम्भव नहीं, क्योंकि कषायके सद्भावमें स्थिति बन्धनेका नियम है।1. ईर्यापथकर्मका लक्षणषट्खण्डागम पुस्तक 13/5,4/सू.24/47 तं छदुमत्थवीयरायाणं सजोगिकेवलीणं वा तं सव्वमीरियावहकम्मं णाम ।24।= वह छद्मस्थ वीतरागोंके और सयोगि केवलियोंके होता है, वह सब ईर्यापथकर्म है।ल.सू.6/4 सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ।4।= कषायसहित और कषायरहित आत्माका योग क्रमसे साम्परायिक और ईर्यापथ कर्मके आस्रव रूप है।सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/4/321/1 ईरणमीर्या योगो गतिरित्यर्थः। तद्द्वारकं कर्म ईर्यापथम्।= ईर्याकी व्युत्पत्ति `ईरणं' होगी इसका अर्थ गति है। जो कर्म इसके द्वारा प्राप्त होता है वह ईर्यापथकर्म है।राजवार्तिक अध्याय 6/4/7/508/18 ईरणमीर्या योगगतिः ।6।...उपशान्तक्षीणकषाययोः सयोगिनश्च योगवशादुपात्तं कर्म कषायाभावाद् बन्धाभावे शुष्ककुड्यपतितलोष्टवद् अनन्तरसमये निवर्तमानमीर्यापथमित्युच्यते।= ईर्याकी व्युत्पत्ति ईरणं होती है उसका अर्थ गति है ।6। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, और सयोगकेवलीके योगसे आये हुए कर्म कषायोंका चेप न होनेसे सूखी दीवारपर पड़े हुए पत्थरकी तरह द्वितीय क्षणमें ही झड़ जाते हैं, बन्धते नहीं है। यह ईर्यापथ आस्रव कहलाता है।( तत्त्वार्थसार अधिकार 4/7) धवला पुस्तक 13/5,4,24/47/10 ईर्या योगः सः पन्था मार्गः हेतुः यस्य कर्मणः तदीर्यापथकर्म। जोगणिमित्तेणेव जं बज्झई तमीरियावहकम्मं त्ति भणिदं होदि।धवला पुस्तक 13/5,4,24/51/1 बंधमागयपरमाणू विदियसमए चेव णिस्सेसं णिज्ज रंति त्ति महव्वयं।= ईर्याका अर्थ योग है। वह जिस कार्माण शरीर का पथ, मार्ग, हेतु है वह ईर्यापथकर्म कहलाता है। योगमात्रके कारण जो कर्म बन्धता है वह ईर्यापथकर्म है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। बन्धको प्राप्त हुए कर्म परमाणु दूसरे समयमें ही सामस्त्य भावसे निर्जराको प्राप्त होते हैं, इसलिए ईर्यापथ कर्मस्कन्ध महान् व्ययवाले कहे गये हैं।2. नारकियोंके तथा सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान पर्यन्त ईर्यापथ कर्म नहीं होताधवला पुस्तक 13/5,4,31/91-92/5 आधाकम्म-इरियावथकम्म-तवोकम्माणि णत्थि; णेरइएसु ओरालियसरीरस्स उदयाभावादो पंचमहव्वयाभावादो।....सुहुमसांपराइएसु इरियावथकम्मं पि णत्थि, सकसाएसु तदसंभवादो।= अधःकर्म, ईर्यापथकर्म, और तपकर्म नहीं होते, क्योंकि नारकियोंके औदारिक शरीरका उदय और पाँच महाव्रत नहीं होते।....सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंके ईर्यापथकर्म नहीं होता, क्योंकि कषाय सहित जीवोंका ईर्यापथकर्म नहीं हो सकता।3. ईर्यापथ कर्ममें वर्ण रसादिकी अपेक्षा विशेषताएँ धवला पुस्तक 13/5,4, 24/2-4/48 अप्प बादरं मवुअं बहुअं ल्हुक्खं च सुक्किलं चेव। मंदं महव्वयं पि य सादब्भहियं च तं कम्मं ।2। गहिदमगहिदं च तहा बद्धमबद्धं च पुट्ठमपुट्ठं च। उदिदाणुदिदं वेदिदमवेदिदं चेव तं जाणे ।3। णिज्जरिदाणिज्जरिदं उदीरिदं चेव होदि णायव्वं अणुदीरिदं त्ति य पुणो इरियावहलक्खणं एदं ।4।धवला पुस्तक 13/5,4,24/49-50/12 इरियावहकम्मक्खंधा कक्खडादिगुणेण अवोहा मउअफासगुणेण सहिया चेव बंधमागच्छंति त्ति इरियावहकम्मं मउअं त्ति भण्णदे। सकसायजीववेयणीयसमयपबद्धादो पदेसेहि संखेज्जगुणत्तं दट्ठूण बहुअमिदि भण्णदे।.....पोग्गलपदेसेसु चिरकालावट्ठाणणिबंधणणिद्धगुणपडिवक्खगुणेण पडिग्गहियत्तादो ल्हुक्खं।....इरियावहकम्मस्स कम्मक्खंधा सुअंधा सच्छाया त्ति जाणावणफलो। इरियावहकम्मक्खंधा पंचवण्णा ण होंति, हंसधवला चेव होंति त्ति जाणावणट्ठं सुक्किलणिद्देसो कदो।....इरियाहकम्मक्खंधा रसेण सक्कारादो अहियमहुरत्तजुत्ता त्ति जाणावणट्ठं मंदणिद्देसो कदो।= वह ईर्यापथकर्म अल्प है, बादर है, मृदु है, बहुत है, रूक्ष है, शुक्ल है, मन्द है, अर्थात् मधुर, महान् व्ययवाला है और अत्यधिक साता रूप है ।2। उसे गृहीत होकर भी अगृहीत, बद्ध होकर भी अबद्ध, स्पृष्ट होकर भी अस्पृष्ट, उदित होकर भी अनुदित, और वेदित होकर भी अवेदित जानना ।3। वह निर्जरित होकर भी निर्जरित नहीं है, और उदीरित होकर भी अनुदीरित है। इस प्रकार यह ईर्यापथकर्मका लक्षण है ।4। (इसे अल्प व बादर कहनेका कारण-देखें [[ अगला शीर्षक ]]) ईर्यापथकर्म स्कन्ध कर्कशादि गुणोंसे रहित है, वह मृदु स्पर्शगुणसे संयुक्त होकर ही बन्धको प्राप्त होता है । इसलिए इसे `मृदु' कहा गया है। कषाय सहित जीवके वेदनीय कर्मके समयबद्धसे यहाँ बंधनेवाला समय प्रबद्ध प्रदेशोंकी अपेक्षा संख्यात गुणा होता है इसलिए ऐसा देखकर ईर्यापथकर्मको बहुत कहा।...ईर्यापथकर्म स्कन्ध रूक्ष है, क्योंकि पुद्गल प्रदेशोंमें चिरकाल तक अवस्थानका कारण स्निग्ध गुणका प्रतिपक्षीभूत गुण उसमें स्वीकार किया गया है। ईर्यापथकर्मके स्कन्ध अच्छी गन्धवाले और अच्छी कान्तिवाले होते हैं, यह जताना च शब्दका फल है। ईर्यापथकर्म स्कन्ध पाँचवर्णवाले नहीं होते, किन्तु हंसके समान धवल वर्णवाले ही होते हैं, इस बातका ज्ञान करानेके लिए गाथामें शुक्ल पदका निर्देश किया है। ईर्यापथकर्म रसकी अपेक्षा शक्करसे भी अधिक माधुर्ययुक्त होते हैं। इस बातका ज्ञान करानेके लिए गाथामें मन्द पदका निर्देश किया है। (गृहित-अगृहीत, बन्ध अबन्ध, स्पृष्ट अस्पृष्ट कहनेका कारण-देखें [[ शीर्षक सं#4 | शीर्षक सं - 4]],12; निर्जरित कहनेका कारण - देखें [[ शीर्षक सं#5 | शीर्षक सं - 5]]; उदीरित कहनेका कारण - देखें [[ शीर्षक सं#6 | शीर्षक सं - 6]])4. ईर्यापथकर्ममें बन्धकी अपेक्षा विशेषता धवला पुस्तक 13/5,4,24/48/10 कसायाभावेण ट्ठिदिबंधाजोग्गस्स कम्मभावेण परिणयविदियसमए चेव अकम्मभावं गच्छंतस्स जोगेणागदपोग्गलक्खंधस्स ट्ठिदिविरहिदएगसमए वट्टमाणस्स कालणिबंधणअप्पत्त दंसणादो इरियावहकम्ममप्पमिदि भणिदं।....उप्पण्णविदियादिसमयाणमवट्ठाणववएसुवलंभादो। ण उप्पत्तिसमओ अवट्ठाण होदि, उप्पत्तीए अभावप्पसंगादो।...अट्ठण्णं कम्माणं समयबद्धपदेसेहिंतो इरियावहसमयपद्धस्स पदेसा संखेज्जगुणा होंति, सादं मोत्तूण अण्णेसिं बंधाभावादो। तेण ढुक्कमाणकम्मक्खंधेहि थूलमिदि बादरं भणिदं।.....कसायाभावेण अणुभागबंधाभावादो। सकसायजीववेयणीयसमपबद्धदो पदेसेहिं संखेज्जगुणत्तं दट्ठूणबहुअमिदि भण्णदे।धवला पुस्तक 13/5,4,24/51-52/10 इरिवहकम्मं गहिदं पि तण्ण गहिदं। कुदो। सरागकम्मगहणमेव अणंतरसंसारफलणिव्वत्तणसत्तिविरहादो।....बद्धं पि तण्ण बद्धं चेव; विदियसमए चेव णिज्जरुवलंभादो.....पुट्ठं पि तण्ण पुट्ठं चेव; इरियावहबंधस्स संतसहावेण जिणिंदम्मि अवट्ठाणाभावादो।= कषायका अभाव होनेसे स्थिति बन्धके अयोग्य है। कर्म रूपसे परिणत होनेके दूसरे समयमें ही अकर्म भावको प्राप्त हो जाता है, और स्थिति बन्ध न होनेसे मात्र एक समय तक विद्यमान रहता है; ऐसे योगके निमित्त से आये हुए पुद्गल स्कन्धमें काल निमित्तक अल्पत्व देखा जाता है। इसलिए ईर्यापथकर्म अल्प है।....क्योंकि उत्पन्न होनेके पश्चात् द्वितीयादि समयोंकी अवस्थान संज्ञा पायी जाती है। उत्पत्तिके समयको ही अवस्थान नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि ऐसा माननेसे उत्पत्तिके अभावका प्रसंग आ जायेगा। आठों कर्मोंके समयप्रबद्ध प्रदेशोंसे ईर्यापथकर्मके समय प्रबद्ध प्रदेश संख्यात गुणे होते हैं; क्योंकि यहाँ साता वेदनीयके सिवाय अन्य कर्मोंका बन्ध नहीं होता। इसलिए ईर्यापथ रूपसे जो कर्म आते हैं, वे स्थूल हैं, अतः उन्हें `बादर' कहा है। .....कषायका अभाव होने से अनुभाग बन्ध नहीं पाया जाता है। कषाय सहित जीवके वेदनीय कर्मके समयप्रबद्धसे यहाँ बन्धनेवाला समयप्रबद्ध प्रदेशोंकी अपेक्षा संख्यात गुणा होता है। ऐसा देखकर ईर्यापथकर्मको बहुत कहा है। गृहीत होकर भी वह गृहीत नहीं है, क्योंकि वह सरागीके द्वारा ग्रहण किये गये कर्मके समान संसारको उत्पन्न करनेवाली शक्तिसे रहित है। बद्ध होकर भी बद्ध नहीं है, क्योंकि दूसरे समयमें ही उनकी निर्जरा देखी जाती है.....स्पृष्ट होकर भी स्पृष्ट नहीं है, कारण कि ईर्यापथ बन्धका सत्त्व रूपसे जिनेन्द्र भगवान्के अवस्थान नहीं पाया जाता है।(और भी-देखें [[ ईर्यापथ#3.1 | ईर्यापथ - 3.1]])5. ईर्यापथकर्ममें निर्जराकी अपेक्षा विशेषता धवला पुस्तक 13/5,4,24/41,54/1 बंधमागयपरमाणू विदियसमए च णिस्सेसं णिज्जरंति त्ति महव्वयं॥.....णिज्जरिदमपि तण्ण णिज्जरिदं, सकषायकम्मणिज्जरा इव अण्णेसिमणंताणं कम्मक्खंधाणं बंधमकाऊण णिज्जिण्णत्तादो।बन्धको प्राप्त हुए परमाणु दूसरे समयमें ही सामस्त्य भावसे निर्जराको प्राप्त होते हैं, इसलिए ईर्यापथकर्म स्कन्ध महान् व्ययवाले कहे गये हैं।....निर्जरित होकर भी वह ईर्यापथकर्म निर्जरित नहीं है, क्योंकि कषायके सद्भावमें जैसी कर्मोंकी निर्जरा होती है वैसी अन्य अनन्त कर्म स्कन्धोंकी, बन्धके बिना ही निर्जरा होती है।(और भी-देखें [[ ईर्यापथ#4.2 | ईर्यापथ - 4.2]])6. ईर्यापथकर्ममें उदय उदीरणाकी अपेक्षा विशेषताधवला पुस्तक 13/5,4,24/52-54/क्रमशः 7,2,6 उदिण्णमपि तण्ण उदिण्णं दद्धगोहूमरासि व्व पत्तणिव्वीयावत्तादो। (52/7) वेदिदं पि असादवेदणीयं ण वेदिदं; सगसहकारिकारणधादिकम्माभावेण दुक्खजण्णसत्तिरोहादो (53/2)। उदीरिदं पि ण उदीरिदं, बंधाभावेण जम्मंतरुप्पायणसत्तीए अभावेण च णिज्जराए फलाभावादो (54/6)।= उदीरणा होकर भी उदीर्ण नहीं है, क्योंकि वे दग्ध गेहूंके समान निर्बीज भावको प्राप्त हो गये हैं। (10)। असाता वेदित होकर भी वेदित नहीं है, क्योंकि अपने सहकारी कारण रूप घातिया कर्मोंका अभाव हो जानेसे उसमें दुःखको उत्पन्न करनेकी शक्ति मानने में विरोध आता है। (11)। उदीरित होकर भी वे उदीरित नहीं हैं क्योंकि बन्धका अभाव होनेसे और जन्मान्तरको उत्पन्न करनेकी शक्तिका अभाव होनेसे निर्जराका कोई फल नहीं देखा जाता।7. ईर्यापथकर्ममें सुखकी विशेषताधवला पुस्तक 13/5,4,24,51/3 देव-माणुससुहेहिंतो बहुयरसुहुप्पायणत्तादो इरियावहकम्मं सादब्भहियं।= देव और मनुष्योंके सुखसे अधिक सुखका उत्पादक है, इसलिए ईर्यापथकर्मको अत्यधिक साता रूप कहा है।8. ईर्यापथके रूक्ष परमाणुओंका बन्ध कैसे सम्भव हैधवला पुस्तक 13/5,4,24/50/6 जइ एवं तो इरियावहकम्मम्मि ण क्खंधो, ल्हुक्खेगगुणाणं परोप्परबंधाभावादो। ण, तत्थ दुरहियाणं बंधुवलंभादो।= प्रश्न-यहाँ पर रूक्षगुण यदि इस प्रकार है तो (ईर्यापथ कर्मबन्धके नियममें कथित रूपसे) ईर्यापथ कर्मका स्कन्ध नहीं बन सकता, क्योंकि एक मात्र रूक्ष गुणवालोंका परस्पर बन्ध नहीं हो सकता। उत्तर-नहीं, क्योंकि वहाँ भी द्विअधिक गुणवालोंका बन्ध पाया जाता है।9. ईर्यापथकर्ममें स्थितिका अभाव कैसे कहते होधवला पुस्तक 13/5,4,24/48/13 कम्मभावेण एगसमयवट्ठिदस्स कधमवट्ठाणाभावो भण्णदे। ण, उप्पणविदियादिसमयाणवट्ठाणववएसुवलंभादो। ण, उप्पत्तिसमओ अवट्ठाणं होदि, उप्पत्तीए अभावप्पसंगादो। ण च अणुप्पण्णस्स अवट्ठाणमत्थि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो। ण च उप्पत्तिअवट्ठाणाणमेयत्तं, पुव्वुत्तरकालभावियाणमेयत्तविरोहादो।= प्रश्न-जबकि ईर्यापथ कर्म कर्मरूपसे एक समय तक अवस्थित रहता है तब उसके अवस्थानका अभाव क्यों बताया? उत्तर-नहीं क्योंकि उत्पन्न होनेके पश्चात् द्वितीयादि समयोंकी अवस्थान संज्ञा पायी जाती है। उत्पत्तिके समयको ही अवस्थान नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा माननेसे उत्पत्तिके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाये कि अनुत्पन्न वस्तुका अवस्थान बन जायेगा, सो भी बात नहीं है; क्योंकि अन्यत्र ऐसा देखा नहीं जाता। यदि उत्पत्ति और अवस्थानको एक कहा जाये सो भी बात नहीं क्योंकि ये दोनों पूर्वोत्तर कालभावी हैं, इसलिए इन्हें एक माननेमें विरोध आता है। यही कारण है कि यहाँ ईर्यापथ कर्मके अवस्थानका अभाव है।10. ईर्यापथकर्ममें अनुभागका अभाव कैसे है धवला पुस्तक 13/5,4,24/49/6 ण कसायाभावेण अणुभागबंधाभावादो। कम्मइयक्खंधाण कम्मभावेण परिणमणकालेसव्वजीवेहि अणंतगुणेण अणुभागेण होदव्वं, अण्णहा कम्मभावपरिणामाणुववत्तीदो त्ति। ण एस दोसो जहण्णाणुभागट्ठाणस्स जहण्णफद्दयादो अणंतगुणहोणाणुभागेण कम्मक्खंधो बंधमागच्छदि त्ति कादूण अणुभागबंधो णत्थि त्ति भण्णदे। तेण बंधो एगसमयट्ठिदिणिवत्तयअणुभागसहियो अत्थि चेवे त्ति घेत्तव्वो। = प्रश्न-कार्माण स्कन्धोंका कर्मरूपसे परिणमन करनेके एक समयमें ही सब जीवोंसे अनन्तगुणा अनुभाग होना चाहिए, क्योंकि अन्यथा उनका कर्मरूपसे परिणमन करना नहीं बन सकता? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ पर जघन्य अनुभाग स्थानके जघन्य स्पर्धकसे अनन्तगुणे हीन अनुभागसे युक्त कर्मस्कन्ध बन्धको प्राप्त होते हैं; ऐसा समझकर अनुभाग बन्ध नहीं है, ऐसा कहा है। इसलिये एक समयकी स्थितिका निवर्तक ईर्यापथ कर्मबन्ध अनुभाग सहित है ही, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।11. ईर्यापथकर्मके साथ गोत्रादिका भी बन्ध नहीं होताधवला पुस्तक 13/5,4,24/52/8 इरियावहकम्मस्स लक्खणे भण्णमाणे सेसकम्माणं वावारो किमिदि परूविज्जदे। ण, इरियावहकम्मसहचरिदसेसकम्माणं पि इरियावहत्तसिद्धीए तल्लक्खणस्स वि इरियावहलक्खणत्तुववत्तीदो।= प्रश्न-ईर्यापथ कर्मका लक्षण कहते समय शेष कर्मोंके (गोत्र आदिके) व्यापारका कथन क्यों किया जा रहा है? उत्तर-नहीं, क्योंकि ईर्यापथके साथ रहनेवाले शेष कर्मोंमें भी ईर्यापथत्व सिद्ध है। इसलिए उनके लक्षणमें भी ईर्यापथका लक्षण घटित हो जाता है।12. ईर्यापथकर्मोंमें स्थित जीवोंके देवत्व कैसे हैधवला पुस्तक 13/5,4,24/51/8 जलमज्झणिवदियतत्तलोहुंडओ व्व इरियावहकम्मजलं समसव्वजीवपदेसेहि गेण्हमाणो केवली कधं परमप्पएण समाणत्तं पडिवज्जदि त्ति भणिदे तण्णिण्णयत्थमिदं वुच्चदे-इरियावह कम्मं गहिदं पि तण्ण गहिदं। कुदो। सरागकम्मगहणस्सेव अणंतसंसारफलणिव्वत्तणसत्तिविरहादो।= प्रश्न-जलके बीच पड़े हुए तप्तलोह पिण्डके समान ईर्यापथकर्मरूपी जलको अपने सर्वप्रदेशोंसे ग्रहण करते हुए `केवली जिन' परमात्माके समान कैसे हो सकते हैं? उत्तर-ऐसा पूछनेपर उसका निर्णय करनेके लिए यह कहा गया है कि ईर्यापथकर्म गृहीत होकर भी गृहीत नहीं है, क्योंकि सरागीके द्वारा ग्रहण किये कर्मके समान पुनर्जन्म रूप संसार फलको उत्पन्न करनेवाली शक्तिसे रहित है।• ईर्यापथकर्मविषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ- देखें [[ वह वह नाम ]]। | |||
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Revision as of 14:17, 20 July 2020
जिन कर्मोंका आस्रव होता है पर बन्ध नहीं होता उन्हें ईर्यापथकर्म कहते हैं। आनेके अगले क्षणमें ही बिना फल दिये वे झड़ जाते हैं। अतः इनमें एक समय मात्रकी स्थिति होती है अधिक नहीं। मोहका सर्वथा उपशम अथवा क्षय हो जाने पर ही ऐसे कर्म आया करते हैं। 10वें गुणस्थान तक जबतक मोहका किंचित् भी सद्भाव है तबतक ईर्यापथकर्म सम्भव नहीं, क्योंकि कषायके सद्भावमें स्थिति बन्धनेका नियम है।1. ईर्यापथकर्मका लक्षणषट्खण्डागम पुस्तक 13/5,4/सू.24/47 तं छदुमत्थवीयरायाणं सजोगिकेवलीणं वा तं सव्वमीरियावहकम्मं णाम ।24।= वह छद्मस्थ वीतरागोंके और सयोगि केवलियोंके होता है, वह सब ईर्यापथकर्म है।ल.सू.6/4 सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ।4।= कषायसहित और कषायरहित आत्माका योग क्रमसे साम्परायिक और ईर्यापथ कर्मके आस्रव रूप है।सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/4/321/1 ईरणमीर्या योगो गतिरित्यर्थः। तद्द्वारकं कर्म ईर्यापथम्।= ईर्याकी व्युत्पत्ति `ईरणं' होगी इसका अर्थ गति है। जो कर्म इसके द्वारा प्राप्त होता है वह ईर्यापथकर्म है।राजवार्तिक अध्याय 6/4/7/508/18 ईरणमीर्या योगगतिः ।6।...उपशान्तक्षीणकषाययोः सयोगिनश्च योगवशादुपात्तं कर्म कषायाभावाद् बन्धाभावे शुष्ककुड्यपतितलोष्टवद् अनन्तरसमये निवर्तमानमीर्यापथमित्युच्यते।= ईर्याकी व्युत्पत्ति ईरणं होती है उसका अर्थ गति है ।6। उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, और सयोगकेवलीके योगसे आये हुए कर्म कषायोंका चेप न होनेसे सूखी दीवारपर पड़े हुए पत्थरकी तरह द्वितीय क्षणमें ही झड़ जाते हैं, बन्धते नहीं है। यह ईर्यापथ आस्रव कहलाता है।( तत्त्वार्थसार अधिकार 4/7) धवला पुस्तक 13/5,4,24/47/10 ईर्या योगः सः पन्था मार्गः हेतुः यस्य कर्मणः तदीर्यापथकर्म। जोगणिमित्तेणेव जं बज्झई तमीरियावहकम्मं त्ति भणिदं होदि।धवला पुस्तक 13/5,4,24/51/1 बंधमागयपरमाणू विदियसमए चेव णिस्सेसं णिज्ज रंति त्ति महव्वयं।= ईर्याका अर्थ योग है। वह जिस कार्माण शरीर का पथ, मार्ग, हेतु है वह ईर्यापथकर्म कहलाता है। योगमात्रके कारण जो कर्म बन्धता है वह ईर्यापथकर्म है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। बन्धको प्राप्त हुए कर्म परमाणु दूसरे समयमें ही सामस्त्य भावसे निर्जराको प्राप्त होते हैं, इसलिए ईर्यापथ कर्मस्कन्ध महान् व्ययवाले कहे गये हैं।2. नारकियोंके तथा सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान पर्यन्त ईर्यापथ कर्म नहीं होताधवला पुस्तक 13/5,4,31/91-92/5 आधाकम्म-इरियावथकम्म-तवोकम्माणि णत्थि; णेरइएसु ओरालियसरीरस्स उदयाभावादो पंचमहव्वयाभावादो।....सुहुमसांपराइएसु इरियावथकम्मं पि णत्थि, सकसाएसु तदसंभवादो।= अधःकर्म, ईर्यापथकर्म, और तपकर्म नहीं होते, क्योंकि नारकियोंके औदारिक शरीरका उदय और पाँच महाव्रत नहीं होते।....सूक्ष्मसाम्पराय संयत जीवोंके ईर्यापथकर्म नहीं होता, क्योंकि कषाय सहित जीवोंका ईर्यापथकर्म नहीं हो सकता।3. ईर्यापथ कर्ममें वर्ण रसादिकी अपेक्षा विशेषताएँ धवला पुस्तक 13/5,4, 24/2-4/48 अप्प बादरं मवुअं बहुअं ल्हुक्खं च सुक्किलं चेव। मंदं महव्वयं पि य सादब्भहियं च तं कम्मं ।2। गहिदमगहिदं च तहा बद्धमबद्धं च पुट्ठमपुट्ठं च। उदिदाणुदिदं वेदिदमवेदिदं चेव तं जाणे ।3। णिज्जरिदाणिज्जरिदं उदीरिदं चेव होदि णायव्वं अणुदीरिदं त्ति य पुणो इरियावहलक्खणं एदं ।4।धवला पुस्तक 13/5,4,24/49-50/12 इरियावहकम्मक्खंधा कक्खडादिगुणेण अवोहा मउअफासगुणेण सहिया चेव बंधमागच्छंति त्ति इरियावहकम्मं मउअं त्ति भण्णदे। सकसायजीववेयणीयसमयपबद्धादो पदेसेहि संखेज्जगुणत्तं दट्ठूण बहुअमिदि भण्णदे।.....पोग्गलपदेसेसु चिरकालावट्ठाणणिबंधणणिद्धगुणपडिवक्खगुणेण पडिग्गहियत्तादो ल्हुक्खं।....इरियावहकम्मस्स कम्मक्खंधा सुअंधा सच्छाया त्ति जाणावणफलो। इरियावहकम्मक्खंधा पंचवण्णा ण होंति, हंसधवला चेव होंति त्ति जाणावणट्ठं सुक्किलणिद्देसो कदो।....इरियाहकम्मक्खंधा रसेण सक्कारादो अहियमहुरत्तजुत्ता त्ति जाणावणट्ठं मंदणिद्देसो कदो।= वह ईर्यापथकर्म अल्प है, बादर है, मृदु है, बहुत है, रूक्ष है, शुक्ल है, मन्द है, अर्थात् मधुर, महान् व्ययवाला है और अत्यधिक साता रूप है ।2। उसे गृहीत होकर भी अगृहीत, बद्ध होकर भी अबद्ध, स्पृष्ट होकर भी अस्पृष्ट, उदित होकर भी अनुदित, और वेदित होकर भी अवेदित जानना ।3। वह निर्जरित होकर भी निर्जरित नहीं है, और उदीरित होकर भी अनुदीरित है। इस प्रकार यह ईर्यापथकर्मका लक्षण है ।4। (इसे अल्प व बादर कहनेका कारण-देखें अगला शीर्षक ) ईर्यापथकर्म स्कन्ध कर्कशादि गुणोंसे रहित है, वह मृदु स्पर्शगुणसे संयुक्त होकर ही बन्धको प्राप्त होता है । इसलिए इसे `मृदु' कहा गया है। कषाय सहित जीवके वेदनीय कर्मके समयबद्धसे यहाँ बंधनेवाला समय प्रबद्ध प्रदेशोंकी अपेक्षा संख्यात गुणा होता है इसलिए ऐसा देखकर ईर्यापथकर्मको बहुत कहा।...ईर्यापथकर्म स्कन्ध रूक्ष है, क्योंकि पुद्गल प्रदेशोंमें चिरकाल तक अवस्थानका कारण स्निग्ध गुणका प्रतिपक्षीभूत गुण उसमें स्वीकार किया गया है। ईर्यापथकर्मके स्कन्ध अच्छी गन्धवाले और अच्छी कान्तिवाले होते हैं, यह जताना च शब्दका फल है। ईर्यापथकर्म स्कन्ध पाँचवर्णवाले नहीं होते, किन्तु हंसके समान धवल वर्णवाले ही होते हैं, इस बातका ज्ञान करानेके लिए गाथामें शुक्ल पदका निर्देश किया है। ईर्यापथकर्म रसकी अपेक्षा शक्करसे भी अधिक माधुर्ययुक्त होते हैं। इस बातका ज्ञान करानेके लिए गाथामें मन्द पदका निर्देश किया है। (गृहित-अगृहीत, बन्ध अबन्ध, स्पृष्ट अस्पृष्ट कहनेका कारण-देखें शीर्षक सं - 4,12; निर्जरित कहनेका कारण - देखें शीर्षक सं - 5; उदीरित कहनेका कारण - देखें शीर्षक सं - 6)4. ईर्यापथकर्ममें बन्धकी अपेक्षा विशेषता धवला पुस्तक 13/5,4,24/48/10 कसायाभावेण ट्ठिदिबंधाजोग्गस्स कम्मभावेण परिणयविदियसमए चेव अकम्मभावं गच्छंतस्स जोगेणागदपोग्गलक्खंधस्स ट्ठिदिविरहिदएगसमए वट्टमाणस्स कालणिबंधणअप्पत्त दंसणादो इरियावहकम्ममप्पमिदि भणिदं।....उप्पण्णविदियादिसमयाणमवट्ठाणववएसुवलंभादो। ण उप्पत्तिसमओ अवट्ठाण होदि, उप्पत्तीए अभावप्पसंगादो।...अट्ठण्णं कम्माणं समयबद्धपदेसेहिंतो इरियावहसमयपद्धस्स पदेसा संखेज्जगुणा होंति, सादं मोत्तूण अण्णेसिं बंधाभावादो। तेण ढुक्कमाणकम्मक्खंधेहि थूलमिदि बादरं भणिदं।.....कसायाभावेण अणुभागबंधाभावादो। सकसायजीववेयणीयसमपबद्धदो पदेसेहिं संखेज्जगुणत्तं दट्ठूणबहुअमिदि भण्णदे।धवला पुस्तक 13/5,4,24/51-52/10 इरिवहकम्मं गहिदं पि तण्ण गहिदं। कुदो। सरागकम्मगहणमेव अणंतरसंसारफलणिव्वत्तणसत्तिविरहादो।....बद्धं पि तण्ण बद्धं चेव; विदियसमए चेव णिज्जरुवलंभादो.....पुट्ठं पि तण्ण पुट्ठं चेव; इरियावहबंधस्स संतसहावेण जिणिंदम्मि अवट्ठाणाभावादो।= कषायका अभाव होनेसे स्थिति बन्धके अयोग्य है। कर्म रूपसे परिणत होनेके दूसरे समयमें ही अकर्म भावको प्राप्त हो जाता है, और स्थिति बन्ध न होनेसे मात्र एक समय तक विद्यमान रहता है; ऐसे योगके निमित्त से आये हुए पुद्गल स्कन्धमें काल निमित्तक अल्पत्व देखा जाता है। इसलिए ईर्यापथकर्म अल्प है।....क्योंकि उत्पन्न होनेके पश्चात् द्वितीयादि समयोंकी अवस्थान संज्ञा पायी जाती है। उत्पत्तिके समयको ही अवस्थान नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि ऐसा माननेसे उत्पत्तिके अभावका प्रसंग आ जायेगा। आठों कर्मोंके समयप्रबद्ध प्रदेशोंसे ईर्यापथकर्मके समय प्रबद्ध प्रदेश संख्यात गुणे होते हैं; क्योंकि यहाँ साता वेदनीयके सिवाय अन्य कर्मोंका बन्ध नहीं होता। इसलिए ईर्यापथ रूपसे जो कर्म आते हैं, वे स्थूल हैं, अतः उन्हें `बादर' कहा है। .....कषायका अभाव होने से अनुभाग बन्ध नहीं पाया जाता है। कषाय सहित जीवके वेदनीय कर्मके समयप्रबद्धसे यहाँ बन्धनेवाला समयप्रबद्ध प्रदेशोंकी अपेक्षा संख्यात गुणा होता है। ऐसा देखकर ईर्यापथकर्मको बहुत कहा है। गृहीत होकर भी वह गृहीत नहीं है, क्योंकि वह सरागीके द्वारा ग्रहण किये गये कर्मके समान संसारको उत्पन्न करनेवाली शक्तिसे रहित है। बद्ध होकर भी बद्ध नहीं है, क्योंकि दूसरे समयमें ही उनकी निर्जरा देखी जाती है.....स्पृष्ट होकर भी स्पृष्ट नहीं है, कारण कि ईर्यापथ बन्धका सत्त्व रूपसे जिनेन्द्र भगवान्के अवस्थान नहीं पाया जाता है।(और भी-देखें ईर्यापथ - 3.1)5. ईर्यापथकर्ममें निर्जराकी अपेक्षा विशेषता धवला पुस्तक 13/5,4,24/41,54/1 बंधमागयपरमाणू विदियसमए च णिस्सेसं णिज्जरंति त्ति महव्वयं॥.....णिज्जरिदमपि तण्ण णिज्जरिदं, सकषायकम्मणिज्जरा इव अण्णेसिमणंताणं कम्मक्खंधाणं बंधमकाऊण णिज्जिण्णत्तादो।बन्धको प्राप्त हुए परमाणु दूसरे समयमें ही सामस्त्य भावसे निर्जराको प्राप्त होते हैं, इसलिए ईर्यापथकर्म स्कन्ध महान् व्ययवाले कहे गये हैं।....निर्जरित होकर भी वह ईर्यापथकर्म निर्जरित नहीं है, क्योंकि कषायके सद्भावमें जैसी कर्मोंकी निर्जरा होती है वैसी अन्य अनन्त कर्म स्कन्धोंकी, बन्धके बिना ही निर्जरा होती है।(और भी-देखें ईर्यापथ - 4.2)6. ईर्यापथकर्ममें उदय उदीरणाकी अपेक्षा विशेषताधवला पुस्तक 13/5,4,24/52-54/क्रमशः 7,2,6 उदिण्णमपि तण्ण उदिण्णं दद्धगोहूमरासि व्व पत्तणिव्वीयावत्तादो। (52/7) वेदिदं पि असादवेदणीयं ण वेदिदं; सगसहकारिकारणधादिकम्माभावेण दुक्खजण्णसत्तिरोहादो (53/2)। उदीरिदं पि ण उदीरिदं, बंधाभावेण जम्मंतरुप्पायणसत्तीए अभावेण च णिज्जराए फलाभावादो (54/6)।= उदीरणा होकर भी उदीर्ण नहीं है, क्योंकि वे दग्ध गेहूंके समान निर्बीज भावको प्राप्त हो गये हैं। (10)। असाता वेदित होकर भी वेदित नहीं है, क्योंकि अपने सहकारी कारण रूप घातिया कर्मोंका अभाव हो जानेसे उसमें दुःखको उत्पन्न करनेकी शक्ति मानने में विरोध आता है। (11)। उदीरित होकर भी वे उदीरित नहीं हैं क्योंकि बन्धका अभाव होनेसे और जन्मान्तरको उत्पन्न करनेकी शक्तिका अभाव होनेसे निर्जराका कोई फल नहीं देखा जाता।7. ईर्यापथकर्ममें सुखकी विशेषताधवला पुस्तक 13/5,4,24,51/3 देव-माणुससुहेहिंतो बहुयरसुहुप्पायणत्तादो इरियावहकम्मं सादब्भहियं।= देव और मनुष्योंके सुखसे अधिक सुखका उत्पादक है, इसलिए ईर्यापथकर्मको अत्यधिक साता रूप कहा है।8. ईर्यापथके रूक्ष परमाणुओंका बन्ध कैसे सम्भव हैधवला पुस्तक 13/5,4,24/50/6 जइ एवं तो इरियावहकम्मम्मि ण क्खंधो, ल्हुक्खेगगुणाणं परोप्परबंधाभावादो। ण, तत्थ दुरहियाणं बंधुवलंभादो।= प्रश्न-यहाँ पर रूक्षगुण यदि इस प्रकार है तो (ईर्यापथ कर्मबन्धके नियममें कथित रूपसे) ईर्यापथ कर्मका स्कन्ध नहीं बन सकता, क्योंकि एक मात्र रूक्ष गुणवालोंका परस्पर बन्ध नहीं हो सकता। उत्तर-नहीं, क्योंकि वहाँ भी द्विअधिक गुणवालोंका बन्ध पाया जाता है।9. ईर्यापथकर्ममें स्थितिका अभाव कैसे कहते होधवला पुस्तक 13/5,4,24/48/13 कम्मभावेण एगसमयवट्ठिदस्स कधमवट्ठाणाभावो भण्णदे। ण, उप्पणविदियादिसमयाणवट्ठाणववएसुवलंभादो। ण, उप्पत्तिसमओ अवट्ठाणं होदि, उप्पत्तीए अभावप्पसंगादो। ण च अणुप्पण्णस्स अवट्ठाणमत्थि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो। ण च उप्पत्तिअवट्ठाणाणमेयत्तं, पुव्वुत्तरकालभावियाणमेयत्तविरोहादो।= प्रश्न-जबकि ईर्यापथ कर्म कर्मरूपसे एक समय तक अवस्थित रहता है तब उसके अवस्थानका अभाव क्यों बताया? उत्तर-नहीं क्योंकि उत्पन्न होनेके पश्चात् द्वितीयादि समयोंकी अवस्थान संज्ञा पायी जाती है। उत्पत्तिके समयको ही अवस्थान नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा माननेसे उत्पत्तिके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाये कि अनुत्पन्न वस्तुका अवस्थान बन जायेगा, सो भी बात नहीं है; क्योंकि अन्यत्र ऐसा देखा नहीं जाता। यदि उत्पत्ति और अवस्थानको एक कहा जाये सो भी बात नहीं क्योंकि ये दोनों पूर्वोत्तर कालभावी हैं, इसलिए इन्हें एक माननेमें विरोध आता है। यही कारण है कि यहाँ ईर्यापथ कर्मके अवस्थानका अभाव है।10. ईर्यापथकर्ममें अनुभागका अभाव कैसे है धवला पुस्तक 13/5,4,24/49/6 ण कसायाभावेण अणुभागबंधाभावादो। कम्मइयक्खंधाण कम्मभावेण परिणमणकालेसव्वजीवेहि अणंतगुणेण अणुभागेण होदव्वं, अण्णहा कम्मभावपरिणामाणुववत्तीदो त्ति। ण एस दोसो जहण्णाणुभागट्ठाणस्स जहण्णफद्दयादो अणंतगुणहोणाणुभागेण कम्मक्खंधो बंधमागच्छदि त्ति कादूण अणुभागबंधो णत्थि त्ति भण्णदे। तेण बंधो एगसमयट्ठिदिणिवत्तयअणुभागसहियो अत्थि चेवे त्ति घेत्तव्वो। = प्रश्न-कार्माण स्कन्धोंका कर्मरूपसे परिणमन करनेके एक समयमें ही सब जीवोंसे अनन्तगुणा अनुभाग होना चाहिए, क्योंकि अन्यथा उनका कर्मरूपसे परिणमन करना नहीं बन सकता? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ पर जघन्य अनुभाग स्थानके जघन्य स्पर्धकसे अनन्तगुणे हीन अनुभागसे युक्त कर्मस्कन्ध बन्धको प्राप्त होते हैं; ऐसा समझकर अनुभाग बन्ध नहीं है, ऐसा कहा है। इसलिये एक समयकी स्थितिका निवर्तक ईर्यापथ कर्मबन्ध अनुभाग सहित है ही, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।11. ईर्यापथकर्मके साथ गोत्रादिका भी बन्ध नहीं होताधवला पुस्तक 13/5,4,24/52/8 इरियावहकम्मस्स लक्खणे भण्णमाणे सेसकम्माणं वावारो किमिदि परूविज्जदे। ण, इरियावहकम्मसहचरिदसेसकम्माणं पि इरियावहत्तसिद्धीए तल्लक्खणस्स वि इरियावहलक्खणत्तुववत्तीदो।= प्रश्न-ईर्यापथ कर्मका लक्षण कहते समय शेष कर्मोंके (गोत्र आदिके) व्यापारका कथन क्यों किया जा रहा है? उत्तर-नहीं, क्योंकि ईर्यापथके साथ रहनेवाले शेष कर्मोंमें भी ईर्यापथत्व सिद्ध है। इसलिए उनके लक्षणमें भी ईर्यापथका लक्षण घटित हो जाता है।12. ईर्यापथकर्मोंमें स्थित जीवोंके देवत्व कैसे हैधवला पुस्तक 13/5,4,24/51/8 जलमज्झणिवदियतत्तलोहुंडओ व्व इरियावहकम्मजलं समसव्वजीवपदेसेहि गेण्हमाणो केवली कधं परमप्पएण समाणत्तं पडिवज्जदि त्ति भणिदे तण्णिण्णयत्थमिदं वुच्चदे-इरियावह कम्मं गहिदं पि तण्ण गहिदं। कुदो। सरागकम्मगहणस्सेव अणंतसंसारफलणिव्वत्तणसत्तिविरहादो।= प्रश्न-जलके बीच पड़े हुए तप्तलोह पिण्डके समान ईर्यापथकर्मरूपी जलको अपने सर्वप्रदेशोंसे ग्रहण करते हुए `केवली जिन' परमात्माके समान कैसे हो सकते हैं? उत्तर-ऐसा पूछनेपर उसका निर्णय करनेके लिए यह कहा गया है कि ईर्यापथकर्म गृहीत होकर भी गृहीत नहीं है, क्योंकि सरागीके द्वारा ग्रहण किये कर्मके समान पुनर्जन्म रूप संसार फलको उत्पन्न करनेवाली शक्तिसे रहित है।• ईर्यापथकर्मविषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ- देखें वह वह नाम ।