जैन दर्शन: Difference between revisions
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Revision as of 14:21, 20 July 2020
- जैन दर्शन परिचय
रागद्वेष विवर्जित, तथा अनन्त ज्ञान दर्शन समग्र परमार्थोपदेशक अर्हंत व सिद्ध भगवान् ही देव या ईश्वर हैं, इनसे अतिरिक्त अन्य कोई जगत्व्यापी एक ईश्वर नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति कर्मों का समूल क्षय करके परमात्मा बन सकता है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा व मोक्ष–ये नौ तत्त्व या पदार्थ हैं। तहाँ चैतन्य लक्षण जीव है जो शुभाशुभ कर्मों का कर्त्ता व उनके फल का भोक्ता है। इससे विपरीत जड़ पदार्थ अजीव है। वह भी पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल के भेद से पाँच प्रकार का है। पुद्गल से जीव के शरीरों व कर्मों का निर्माण होता है। सत्कर्मों को पुण्य और असत्कर्मों को पाप कहते हैं। मिथ्यात्व व रागादि हेतुओं से जीव पुद्गलकर्म व शरीर के साथ बन्ध को प्राप्त होकर संसार में भ्रमण करता है। तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान करके बाह्य प्रवृत्ति का निरोध करना संवर है। उस संवर पूर्वक मन को अधिकाधिक स्वरूप में एकाग्र करना गुप्ति, ध्यान या समाधि कहलाते हैं। उससे पूर्वबद्ध संस्कार व कर्मों का धीरे-धीरे नाश होना सो निर्जरा है। स्वरूप में निश्चल होकर बाह्य की बाधाओं व परिषहों की परवाह न करना तप है, उससे अनन्तगुणी निर्जरा प्रतिक्षण होती है और लघुमात्र काल में ही अनादि के कर्म भस्म हो जाने से जीव को मोक्ष प्राप्त हो जाता है। फिर वह संसार में कभी भी नहीं आता। यह सिद्ध दशा है। तत्त्वों के श्रद्धान व ज्ञान रूप सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान सहित धारा गया चारित्र व तप आदि उस मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है। अत: सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रत्नत्रय कहलाते हैं।
सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है। वह दो प्रकार है–प्रत्यक्ष व परोक्ष। प्रत्यक्ष भी दो प्रकार है–सांव्यवहारिक व पारमार्थिक। इन्द्रिय ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है और अवधि, मन:पर्यय व केवलज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष। तिनमें भी अवधि व मन:पर्यय विकल प्रत्यक्ष है और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष। यह ज्ञान क्षीणकर्मा अर्हन्त और सिद्धों को ही होता है। सत् उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक होने से प्रत्येक पदार्थ अनन्तधर्मात्म है, जो प्रमाण व नय के द्वारा भली भाँति जाना जाता है। प्रमाण के अशं को नय कहते हैं, वह वस्तु के एकदेश या एकधर्म को जानता है। बिना नय विवक्षा के वस्तु का सम्यक् प्रकार निर्णय होना सम्भव नहीं है। (तत्त्वार्थ सूत्र); (षट् दर्शन समुच्चय/45-58/39-62)। - सर्वदर्शन मिलकर एक जैन दर्शन बन जाता है―देखें अनेकान्त - 2.6।