धर्माधर्म: Difference between revisions
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<p class="HindiText">लोक में छह द्रव्य स्वीकार किये गये हैं (देखें [[ द्रव्य ]])। | <p class="HindiText">लोक में छह द्रव्य स्वीकार किये गये हैं (देखें [[ द्रव्य ]])। तहाँ धर्म व अधर्म नाम के दो द्रव्य हैं। दोनों लोकाकाशप्रमाण व्यापक असंख्यात प्रदेशी अमूर्त द्रव्य हैं। ये जीव व पुद्गल के गमन व स्थिति में उदासीन रूप से सहकारी हैं, यही कारण है कि जीव व पुद्गल स्वयं समर्थ होते हुए भी इनकी सीमा से बाहर नहीं जाते, जैसे मछली स्वयं चलने में समर्थ होते हुए भी जल से बाहर नहीं जा सकती। इस प्रकार इन दोनों के द्वारा ही एक अखण्ड आकाश लोक व अलोक रूप दो विभाग उत्पन्न हो गये हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> दोनों अमूर्तीक अजीव द्रव्य हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">दोनों अमूर्तीक अजीव द्रव्य हैं</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/5/1,2,4 <span class="SanskritText">अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला:।1। द्रव्याणि।2। नित्यावस्थितान्यरूपाणि।4।</span>=<span class="HindiText">धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये चारों अजीवकाय हैं।1। चारों ही द्रव्य हैं।2। और नित्य अवस्थित व अरूपी हैं।4। ( नियमसार/37 ), ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/583,592 )</span><br /> | तत्त्वार्थसूत्र/5/1,2,4 <span class="SanskritText">अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला:।1। द्रव्याणि।2। नित्यावस्थितान्यरूपाणि।4।</span>=<span class="HindiText">धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये चारों अजीवकाय हैं।1। चारों ही द्रव्य हैं।2। और नित्य अवस्थित व अरूपी हैं।4। ( नियमसार/37 ), ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/583,592 )</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय/83 <span class="SanskritText">धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असद्दमप्फासं। </span>=<span class="HindiText">धर्मास्तिकाय अस्पर्श, अरस, अगन्ध, अवर्ण और अशब्द है।<br /> | पंचास्तिकाय/83 <span class="SanskritText">धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असद्दमप्फासं। </span>=<span class="HindiText">धर्मास्तिकाय अस्पर्श, अरस, अगन्ध, अवर्ण और अशब्द है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">दोनों असंख्यात प्रदेशी हैं</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/5/8 <span class="SanskritText">असंख्येया: प्रदेशा: धर्माधर्मेकजीवानां।8।</span>=<span class="HindiText">धर्म, अधर्म, और एक जीव इन तीनों के असंख्यात प्रदेश हैं। ( प्रवचनसार/135 ), ( नियमसार/35 ), ( पंचास्तिकाय/83 ); ( परमात्मप्रकाश/ मू./2/24); (द्र.स./मू./25), ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/591/1029 )।<br /> | तत्त्वार्थसूत्र/5/8 <span class="SanskritText">असंख्येया: प्रदेशा: धर्माधर्मेकजीवानां।8।</span>=<span class="HindiText">धर्म, अधर्म, और एक जीव इन तीनों के असंख्यात प्रदेश हैं। ( प्रवचनसार/135 ), ( नियमसार/35 ), ( पंचास्तिकाय/83 ); ( परमात्मप्रकाश/ मू./2/24); (द्र.स./मू./25), ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/591/1029 )।<br /> | ||
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तत्त्वार्थसूत्र/5/6 <span class="SanskritText">आ आकाशादेकद्रव्याणि।6। </span>=<span class="HindiText">धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों एक-एक द्रव्य हैं। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/588/1027 )</span><br /> | तत्त्वार्थसूत्र/5/6 <span class="SanskritText">आ आकाशादेकद्रव्याणि।6। </span>=<span class="HindiText">धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों एक-एक द्रव्य हैं। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/588/1027 )</span><br /> | ||
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/588/1027/18 <span class="SanskritText">धर्माधर्माकाशा: एकैक एव अखण्डद्रव्यत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">धर्म, अधर्म और आकाश एक-एक हैं, क्योंकि अखण्ड हैं। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/83 )<br /> | गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/588/1027/18 <span class="SanskritText">धर्माधर्माकाशा: एकैक एव अखण्डद्रव्यत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">धर्म, अधर्म और आकाश एक-एक हैं, क्योंकि अखण्ड हैं। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/83 )<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.7" id="1.7"><strong> इन दोनों से ही लोक व अलोक के विभाग की व्यवस्था है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.7" id="1.7"><strong> इन दोनों से ही लोक व अलोक के विभाग की व्यवस्था है</strong> </span><br /> | ||
पंचास्तिकाय/87 <span class="PrakritText">जादो अलोगलोगो जेसिं सब्भावदो य गमणठिदी।</span>=<span class="HindiText">जीव व पुद्गल की गति, स्थिति तथा अलोक और लोक का विभाग उन दो द्रव्यों के सद्भाव से होता है।</span><br /> | पंचास्तिकाय/87 <span class="PrakritText">जादो अलोगलोगो जेसिं सब्भावदो य गमणठिदी।</span>=<span class="HindiText">जीव व पुद्गल की गति, स्थिति तथा अलोक और लोक का विभाग उन दो द्रव्यों के सद्भाव से होता है।</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/5/12/278/3 <span class="SanskritText">लोकालोकविभागश्च धर्माधर्मास्तिकायसद्भावासद्भावाद्विज्ञेय:। असति हि तस्मिन्धर्मास्तिकाये जीवपुद्गलानां गतिनियमहेतुत्वभावाद्विभागो न स्यात् । असति चाधर्मास्तिकाये स्थितेराश्रयनिमित्ताभावात् स्थितेरभावो लोकालोकविभागाभावो वा स्यात् । तस्मादुभयसद्भावासद्भावाल्लोकालोकविभागसिद्धि:।</span>=<span class="HindiText">यह लोकालोक का विभाग धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा से जानना चाहिए। अर्थात् धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय | सर्वार्थसिद्धि/5/12/278/3 <span class="SanskritText">लोकालोकविभागश्च धर्माधर्मास्तिकायसद्भावासद्भावाद्विज्ञेय:। असति हि तस्मिन्धर्मास्तिकाये जीवपुद्गलानां गतिनियमहेतुत्वभावाद्विभागो न स्यात् । असति चाधर्मास्तिकाये स्थितेराश्रयनिमित्ताभावात् स्थितेरभावो लोकालोकविभागाभावो वा स्यात् । तस्मादुभयसद्भावासद्भावाल्लोकालोकविभागसिद्धि:।</span>=<span class="HindiText">यह लोकालोक का विभाग धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा से जानना चाहिए। अर्थात् धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जहाँ तक पाये जाते हैं, वह लोकाकाश है और इससे बाहर अलोकाकाश है, यदि धर्मास्तिकाय का सद्भाव न माना जाये तो जीव और पुद्गलों की गति के नियम का हेतु न रहने से लोकालोक का विभाग नहीं बनता। उसी प्रकार यदि अधर्मास्तिकाय का सद्भाव न माना जाये तो स्थिति का निमित्त न रहने से जीव और पुद्गलों की स्थिति का अभाव होता है, जिससे लोकालोक का विभाग नहीं बनता। इसलिए इन दोनों के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा लोकालोक के विभाग की सिद्धि होती है। ( सर्वार्थसिद्धि/10/8/471/4 ); ( राजवार्तिक/5/1/29/435/3 ); ( नयचक्र बृहद्/135 )<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2.2" id="2.2"><strong> दोनों का उदासीन निमित्तपना</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.2" id="2.2"><strong> दोनों का उदासीन निमित्तपना</strong> </span><br /> | ||
पंचास्तिकाय/85-86 <span class="PrakritGatha">उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहकरं हवदि लोए। तह जीवपुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणाहि।85। जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं। ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव।86।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार जगत् में पानी मछलियों को गमन में अनुग्रह करता है, उसी प्रकार धर्मद्रव्य जीव पुद्गलों को गमन में अनुग्रह करता है ऐसा जानो।85। जिस प्रकार धर्म द्रव्य है उसी प्रकार का अधर्म नाम का द्रव्य है, परन्तु वह स्थिति क्रियायुक्त जीव पुद्गलों को पृथिवी की | पंचास्तिकाय/85-86 <span class="PrakritGatha">उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहकरं हवदि लोए। तह जीवपुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणाहि।85। जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं। ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव।86।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार जगत् में पानी मछलियों को गमन में अनुग्रह करता है, उसी प्रकार धर्मद्रव्य जीव पुद्गलों को गमन में अनुग्रह करता है ऐसा जानो।85। जिस प्रकार धर्म द्रव्य है उसी प्रकार का अधर्म नाम का द्रव्य है, परन्तु वह स्थिति क्रियायुक्त जीव पुद्गलों को पृथिवी की भाँति (उदासीन) कारणभूत है।</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/5/17/282/5 <span class="SanskritText">गतिपरिणामिनां जीवपुद्गलानां गत्युपग्रहे कर्त्तव्ये धर्मास्तिकाय: साधारणाश्रयो जलवन्मत्स्यगमने। तथा स्थितिपरिणामिनां जीवपुद्गलानां स्थित्युपग्रहे कर्त्तव्ये अधर्मास्तिकाय: साधारणाश्रय: पृथिवीधातुरिवाश्वादिस्थिताविति।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार मछली के गमन में जल साधारण निमित्त है, उसी प्रकार गमन करते हुए जीव और पुद्गलों के गमन में धर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है। तथा जिस प्रकार घोड़ा आदि के ठहरने में पृथिवी साधारण निमित्त है (या पथिक को ठहरने के लिए वृक्ष की छाया साधारण निमित्त है द्र.स.) उसी प्रकार ठहरने वाले जीव और पुद्गलों के ठहरने में अधर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है। ( राजवार्तिक/5/1/19-20/433/30 ); ( द्रव्यसंग्रह/17-18 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/605/1060/3 ); (विशेष देखें [[ कारण#III.2.2 | कारण - III.2.2]])<br /> | सर्वार्थसिद्धि/5/17/282/5 <span class="SanskritText">गतिपरिणामिनां जीवपुद्गलानां गत्युपग्रहे कर्त्तव्ये धर्मास्तिकाय: साधारणाश्रयो जलवन्मत्स्यगमने। तथा स्थितिपरिणामिनां जीवपुद्गलानां स्थित्युपग्रहे कर्त्तव्ये अधर्मास्तिकाय: साधारणाश्रय: पृथिवीधातुरिवाश्वादिस्थिताविति।</span>=<span class="HindiText">जिस प्रकार मछली के गमन में जल साधारण निमित्त है, उसी प्रकार गमन करते हुए जीव और पुद्गलों के गमन में धर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है। तथा जिस प्रकार घोड़ा आदि के ठहरने में पृथिवी साधारण निमित्त है (या पथिक को ठहरने के लिए वृक्ष की छाया साधारण निमित्त है द्र.स.) उसी प्रकार ठहरने वाले जीव और पुद्गलों के ठहरने में अधर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है। ( राजवार्तिक/5/1/19-20/433/30 ); ( द्रव्यसंग्रह/17-18 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/605/1060/3 ); (विशेष देखें [[ कारण#III.2.2 | कारण - III.2.2]])<br /> | ||
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पंचास्तिकाय/92-95 <span class="PrakritText"> आगासं अवगासं गमणट्ठिदिकारणेहिं देदि जदि। उड्ढंगदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठन्ति किध तत्थ।92। जम्हा उवरिट्ठाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं। तम्हा गमणट्ठाणं आयासे जाण णत्थि त्ति।93। जदि हवदि गमणहेदू आगासं ठाणकारणं तेसिं। पसजदि अलोगहाणी लोगस्स च अंतपरिवड्ढी।94। तम्हा धम्माधम्मा गमणट्ठिदिकारणाणि णागासं। इदि जिणवरेहिं भणिदं लोगसहावं सणंताणं।95।</span>= | पंचास्तिकाय/92-95 <span class="PrakritText"> आगासं अवगासं गमणट्ठिदिकारणेहिं देदि जदि। उड्ढंगदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठन्ति किध तत्थ।92। जम्हा उवरिट्ठाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं। तम्हा गमणट्ठाणं आयासे जाण णत्थि त्ति।93। जदि हवदि गमणहेदू आगासं ठाणकारणं तेसिं। पसजदि अलोगहाणी लोगस्स च अंतपरिवड्ढी।94। तम्हा धम्माधम्मा गमणट्ठिदिकारणाणि णागासं। इदि जिणवरेहिं भणिदं लोगसहावं सणंताणं।95।</span>= | ||
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<li class="HindiText"> यदि आकाश ही अवकाश हेतु की | <li class="HindiText"> यदि आकाश ही अवकाश हेतु की भाँति गतिस्थिति हेतु भी हो तो ऊर्ध्वगतिप्रधान सिद्ध उसमें (लोक में) क्यों स्थित हों। (आगे क्यों गमन न करें)।92। क्योंकि जिनवरों ने सिद्धों की स्थिति लोक शिखर पर कही है, इसलिए गति स्थिति (हेतुत्व) आकाश में नहीं होता, ऐसा जानो।93। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> यदि आकाश जीव व पुद्गलों की गतिहेतु और स्थितिहेतु हो तो अलोक की हानि का और लोक के अन्त की वृद्धि का प्रसंग आये।94। इसलिए गति और स्थिति के कारण धर्म और अधर्म हैं, आकाश नहीं है, ऐसा लोकस्वभाव के श्रोताओं से जिनवरों ने कहा है। </span>(और भी देखें [[ धर्माधर्म#1.7 | धर्माधर्म - 1.7]]) ( राजवार्तिक/5/17/21/462/31 ) सर्वार्थसिद्धि/5/17/283/1 <span class="SanskritText">आह धर्माधर्मयोर्य उपकार: स आकाशस्य युक्त:, सर्वगतत्वादिति चेत् । तदयुक्तम्; तस्यान्योपकारसद्भावात् । सर्वेषां धर्मादीनां द्रव्याणामवगाहनं तत्प्रयोजनम् । एकस्यानेकप्रयोजनकल्पनायां लोकालोकविभागाभाव:।</span>=</li> | <li><span class="HindiText"> यदि आकाश जीव व पुद्गलों की गतिहेतु और स्थितिहेतु हो तो अलोक की हानि का और लोक के अन्त की वृद्धि का प्रसंग आये।94। इसलिए गति और स्थिति के कारण धर्म और अधर्म हैं, आकाश नहीं है, ऐसा लोकस्वभाव के श्रोताओं से जिनवरों ने कहा है। </span>(और भी देखें [[ धर्माधर्म#1.7 | धर्माधर्म - 1.7]]) ( राजवार्तिक/5/17/21/462/31 ) सर्वार्थसिद्धि/5/17/283/1 <span class="SanskritText">आह धर्माधर्मयोर्य उपकार: स आकाशस्य युक्त:, सर्वगतत्वादिति चेत् । तदयुक्तम्; तस्यान्योपकारसद्भावात् । सर्वेषां धर्मादीनां द्रव्याणामवगाहनं तत्प्रयोजनम् । एकस्यानेकप्रयोजनकल्पनायां लोकालोकविभागाभाव:।</span>=</li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong>प्रश्न‒</strong>3. धर्म और अधर्म द्रव्य का जो उपकार है, उसे आकाश का मान लेना युक्त है, क्योंकि आकाश सर्वगत है? <strong>उत्तर</strong>‒यह कहना युक्त नहीं है; क्योंकि, आकाश का अन्य उपकार है। सब धर्मादिक द्रव्यों को अवगाहन देना आकाश का प्रयोजन है। यदि एक द्रव्य के अनेक प्रयोजन माने जाते हैं तो लोकालोक के विभाग का अभाव प्राप्त होता है। ( राजवार्तिक/5/17/20/462/23 )</span><br> राजवार्तिक/5/17/20-21/462/26 <span class="SanskritText">न चान्यस्य धर्मोऽन्यस्य भवितुमर्हति। यदि स्यात्, अप्तेजोगुणा द्रवदहनादय: पृथिव्या एव कल्प्यन्ताम् । किं च ...यथा अनिमिषस्य ब्रज्या जलोपग्रहाद्भवति, जलाभावे व भुवि न भवति सत्यप्याकाशे। यद्याकाशोपग्रहात् मीनस्य गतिर्भवेत् भुवि अपि भवेत् । तथा गतिस्थितिपरिणामिनाम् आत्मपुद्गलानां धर्मोऽधर्मोपग्रहात् गतिस्थिती भवतो नाकाशेपग्रहात् ।</span>=</li> | <li><span class="HindiText"><strong>प्रश्न‒</strong>3. धर्म और अधर्म द्रव्य का जो उपकार है, उसे आकाश का मान लेना युक्त है, क्योंकि आकाश सर्वगत है? <strong>उत्तर</strong>‒यह कहना युक्त नहीं है; क्योंकि, आकाश का अन्य उपकार है। सब धर्मादिक द्रव्यों को अवगाहन देना आकाश का प्रयोजन है। यदि एक द्रव्य के अनेक प्रयोजन माने जाते हैं तो लोकालोक के विभाग का अभाव प्राप्त होता है। ( राजवार्तिक/5/17/20/462/23 )</span><br> राजवार्तिक/5/17/20-21/462/26 <span class="SanskritText">न चान्यस्य धर्मोऽन्यस्य भवितुमर्हति। यदि स्यात्, अप्तेजोगुणा द्रवदहनादय: पृथिव्या एव कल्प्यन्ताम् । किं च ...यथा अनिमिषस्य ब्रज्या जलोपग्रहाद्भवति, जलाभावे व भुवि न भवति सत्यप्याकाशे। यद्याकाशोपग्रहात् मीनस्य गतिर्भवेत् भुवि अपि भवेत् । तथा गतिस्थितिपरिणामिनाम् आत्मपुद्गलानां धर्मोऽधर्मोपग्रहात् गतिस्थिती भवतो नाकाशेपग्रहात् ।</span>=</li> | ||
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<li class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒1. धर्म अधर्म द्रव्य के जो प्रयोजन हैं, पृथिवी व जल आदिक ही उनके करने में समर्थ हैं, अत: धर्म और अधर्म द्रव्य का मानना ठीक नहीं ? <strong>उत्तर‒</strong>नहीं, क्योंकि, धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थिति के साधारण कारण हैं, और यह (प्रश्न) <span class="HindiText">विशेषरूप से कहा है। ( राजवार्तिक/5/17/22/463/1 )। </span></li> | <li class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒1. धर्म अधर्म द्रव्य के जो प्रयोजन हैं, पृथिवी व जल आदिक ही उनके करने में समर्थ हैं, अत: धर्म और अधर्म द्रव्य का मानना ठीक नहीं ? <strong>उत्तर‒</strong>नहीं, क्योंकि, धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थिति के साधारण कारण हैं, और यह (प्रश्न) <span class="HindiText">विशेषरूप से कहा है। ( राजवार्तिक/5/17/22/463/1 )। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> तथा एक कार्य अनेक कारणों से होता है इसलिए धर्म अधर्म द्रव्य को मानना युक्त है। </span> राजवार्तिक/5/17/27/564/8 <span class="SanskritText">यथा नायमेकान्त:‒सर्वश्चक्षुष्मान् बाह्यप्रकाशोपग्रहाद् रूपं गृह्णातीति। यस्माद् द्वीपमार्जारादय:...विनापि बाह्यप्रदीपाद्युपग्रहाद्रूपग्रहणसमर्था:,...यथा वा नायमेकान्त: सर्व एव गतिमन्तो यष्ट्याद्युपग्रहात् गतिमारभन्ते न वेति, ...तथा नायमेकान्त:‒सर्वेषामात्मपुद्गलानां सर्वे बाह्योपग्रहहेतव: सन्तीति, किन्तु केषांचित् पतत्त्रिप्रभृतीनां धर्माधर्मावेव, अपरेषां जलादयोऽपीत्यनेकान्त:।</span>=</li> | <li><span class="HindiText"> तथा एक कार्य अनेक कारणों से होता है इसलिए धर्म अधर्म द्रव्य को मानना युक्त है। </span> राजवार्तिक/5/17/27/564/8 <span class="SanskritText">यथा नायमेकान्त:‒सर्वश्चक्षुष्मान् बाह्यप्रकाशोपग्रहाद् रूपं गृह्णातीति। यस्माद् द्वीपमार्जारादय:...विनापि बाह्यप्रदीपाद्युपग्रहाद्रूपग्रहणसमर्था:,...यथा वा नायमेकान्त: सर्व एव गतिमन्तो यष्ट्याद्युपग्रहात् गतिमारभन्ते न वेति, ...तथा नायमेकान्त:‒सर्वेषामात्मपुद्गलानां सर्वे बाह्योपग्रहहेतव: सन्तीति, किन्तु केषांचित् पतत्त्रिप्रभृतीनां धर्माधर्मावेव, अपरेषां जलादयोऽपीत्यनेकान्त:।</span>=</li> | ||
<li class="HindiText"> जैसे यह कोई एकान्तिक नियम नहीं है कि सभी | <li class="HindiText"> जैसे यह कोई एकान्तिक नियम नहीं है कि सभी आँखवालों को रूप ग्रहण करने के लिए बाह्य प्रकाश का आश्रय हो ही, क्योंकि व्याघ्र बिल्लों आदि को बाह्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं भी रहती। जैसे यह कोई नियम नहीं कि सभी चलने वाले लाठी का सहारा लेते ही हों। उसी प्रकार यह कोई नियम नहीं कि सभी जीव और पुद्गलों को सर्वबाह्य पदार्थ निमित्त ही हों, किन्तु पक्षी आदिकों को धर्म व अधर्म ही निमित्त हैं और किन्हीं अन्य को धर्म व अधर्म के साथ जल आदिक भी निमित्त है, ऐसा अनेकान्त है। </li> | ||
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Revision as of 14:24, 20 July 2020
लोक में छह द्रव्य स्वीकार किये गये हैं (देखें द्रव्य )। तहाँ धर्म व अधर्म नाम के दो द्रव्य हैं। दोनों लोकाकाशप्रमाण व्यापक असंख्यात प्रदेशी अमूर्त द्रव्य हैं। ये जीव व पुद्गल के गमन व स्थिति में उदासीन रूप से सहकारी हैं, यही कारण है कि जीव व पुद्गल स्वयं समर्थ होते हुए भी इनकी सीमा से बाहर नहीं जाते, जैसे मछली स्वयं चलने में समर्थ होते हुए भी जल से बाहर नहीं जा सकती। इस प्रकार इन दोनों के द्वारा ही एक अखण्ड आकाश लोक व अलोक रूप दो विभाग उत्पन्न हो गये हैं।
- धर्माधर्म द्रव्यों का लोक व्यापक रूप
- दोनों अमूर्तीक अजीव द्रव्य हैं
तत्त्वार्थसूत्र/5/1,2,4 अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला:।1। द्रव्याणि।2। नित्यावस्थितान्यरूपाणि।4।=धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये चारों अजीवकाय हैं।1। चारों ही द्रव्य हैं।2। और नित्य अवस्थित व अरूपी हैं।4। ( नियमसार/37 ), ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/583,592 )
पंचास्तिकाय/83 धम्मत्थिकायमरसं अवण्णगंधं असद्दमप्फासं। =धर्मास्तिकाय अस्पर्श, अरस, अगन्ध, अवर्ण और अशब्द है।
- दोनों असंख्यात प्रदेशी हैं
तत्त्वार्थसूत्र/5/8 असंख्येया: प्रदेशा: धर्माधर्मेकजीवानां।8।=धर्म, अधर्म, और एक जीव इन तीनों के असंख्यात प्रदेश हैं। ( प्रवचनसार/135 ), ( नियमसार/35 ), ( पंचास्तिकाय/83 ); ( परमात्मप्रकाश/ मू./2/24); (द्र.स./मू./25), ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/591/1029 )।
- द्रव्य में प्रदेश कल्पना व युक्ति—देखें द्रव्य /4।
- दोनों एक-एक व निष्क्रिय हैं—देखें द्रव्य /3।
- दोनों अस्तिकाय हैं—देखें अस्तिकाय ।
- दोनों की संख्या—देखें द्रव्य /2।
- दोनों एक एक व अखण्ड हैं
तत्त्वार्थसूत्र/5/6 आ आकाशादेकद्रव्याणि।6। =धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों एक-एक द्रव्य हैं। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/588/1027 )
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/588/1027/18 धर्माधर्माकाशा: एकैक एव अखण्डद्रव्यत्वात् ।=धर्म, अधर्म और आकाश एक-एक हैं, क्योंकि अखण्ड हैं। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/83 )
- दोनों लोक में व्यापकर स्थित हैं
तत्त्वार्थसूत्र/5/12,13 लोकाकाशेऽवगाह:।12। धर्माधर्मयो: कृत्स्ने।13।=इन धर्मादिक द्रव्यों का अवगाह लोकाकाश में है।12। धर्म और अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हैं।13। ( पंचास्तिकाय/83 ), ( प्रवचनसार/136 )
सर्वार्थसिद्धि/5/8-18/ मू.पृष्ठ-पंक्ति—धर्माधर्मौ निष्क्रियौ लोकाकाशं व्याप्य स्थितौ। (8/274/9)। उक्तानां धर्मादीनां द्रव्याणां लोकाकाशेऽवगाहो न बहिरित्यर्थ:। (12/277/1)। कृत्स्नवचनमशेषव्याप्तिप्रदर्शनार्थम् । अगारे यथा घट इति यथा तथा धर्माधर्मयोर्लोकाकाशेऽवगाहो न भवति। किं तर्हि। कृत्स्ने तिलेषु तैलवदिति। (13/278/10)। धर्माधर्मावपि अवगाहक्रियाभावेऽपि सर्वत्रव्याप्तिदर्शनादवगाहिनावित्युपचर्यते। (18/284/6)।=धर्म और अधर्म द्रव्य निष्क्रिय हैं और लोकाकाश भर में फैले हुए हैं।8। धर्मादिक द्रव्यों का लोकाकाश में अवगाह है बाहन नहीं, यह इस सूत्र का तात्पर्य है।12। सब लोकाकाश के साथ व्याप्ति दिखलाने के लिए सूत्र में कृत्स्न पद रखा है। घर में जिस प्रकार घट अवस्थित रहता है, उस प्रकार लोकाकाश में धर्म व अधर्म द्रव्यों का अवगाह नहीं है। किन्तु जिस प्रकार तिल में तैल रहता है उस प्रकार सब लोकाकाश में धर्म और अधर्म का अवगाह है।13। यद्यपि धर्म और अधर्म द्रव्य में अवगाहनरूप क्रिया नहीं पायी जाती, तो भी लोकाकाश में सर्वत्र व्यापने से वे अवगाही हैं, ऐसा उपचार किया गया है।18। ( राजवार्तिक/5/13/1/456/14 ), ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/83 ), ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/136 ), ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/583/1024/8 )
- व्याप्त होते हुए भी पृथक् सत्ताधारी है
पंचास्तिकाय/96 धम्माधम्मागासाअपुथब्भूदासमाणपरिमाणा। अबुधगुणलद्धिविसेसा करिंति एगत्तमण्णत्तं।96।=धर्म, अधर्म और आकाश, समान परिमाणवाले तथा अपृथग्भूत होने से, तथा पृथक् उपलब्धि विशेष वाले होने से एकत्व तथा अन्यत्व को करते हैं। ( पंचास्तिकाय/ व टी./87)
सर्वार्थसिद्धि/5/13/278/11 अन्योऽन्यप्रदेशप्रवेशव्याघाताभाव: अवगाहनशक्तियोगाद्वेदितव्य:।=यद्यपि ये एक जगह रहते हैं, तो भी अवगाहनशक्ति के योग से, इनके प्रदेश परस्पर प्रविष्ट होकर व्याघात को प्राप्त नहीं होते। ( राजवार्तिक/5/13/2-3/456/18 )
राजवार्तिक/5/16/10-11/460/1 न धर्मादीनां नानात्वम्, कुत:। देशसंस्थानकालदर्शनस्पर्शनावगाहनाद्यभेदात् ।10। न अतस्तत्सिद्धे:।11। यत एव धर्मादीनां देशादिभि: अविशेषस्त्वया चोद्यते अत एव नानात्वसिद्धि:, यतो नासति नानात्वेऽविशेषसिद्धि:। न ह्येकस्याविशेषोऽस्ति। किं च, यथा रूपरसादीनां तुल्यदेशादित्वे नैकत्वं तथा धर्मादीनामपि नानात्वमिति।=प्रश्न‒जिस देश में धर्म द्रव्य है उसी देश में अधर्म और आकाशादि स्थित हैं, जो धर्म का आकार है वही अधर्मादिका भी है, और इसी प्रकार काल की अपेक्षा, स्पर्शन की अपेक्षा, केवलज्ञान का विषय होने की अपेक्षा और अरूपत्वद्रव्यत्व तथा ज्ञेयत्व आदि की अपेक्षा इनमें कोई विशेषता न होने से धर्मादि द्रव्यों में नानापना घटित नहीं होता ? उत्तर‒जिस कारण तुमने धर्मादि द्रव्यों में एकत्व का प्रश्न किया है, उसी कारण उनकी भिन्नता स्वयं सिद्ध है। जब वे भिन्न-भिन्न हैं, तभी तो उनमें अमुक दृष्टियों से एकत्व की सम्भावना की गयी है। यदि ये एक होते तो यह प्रश्न ही नहीं उठता। तथा जिस तरह रूप, रस आदि में तुल्य देशकालत्व आदि होने पर भी अपने-अपने विशिष्ट लक्षण के होने से अनेकता है, उसी तरह धर्मादि द्रव्यों में भी लक्षणभेद से अनेकता है। (देखें आगे धर्माधर्म - 2.1)
- लोकव्यापी मानने में हेतु
राजवार्तिक/5/17/ .../460/14 अणुस्कन्धभेदात् पुद्गलानाम्, असंख्येयप्रदेशत्वाच्च आत्मनाम्, अवगाहिनाम्, एकप्रदेशादिषु पुद्गलानाम्, असंख्येयभागादिषु च जीवानामवस्थानं युक्तमुक्तम् । तुल्ये पुनरसंख्ये प्रदेशत्वे कृत्स्नलोकव्यापित्वमेव धर्माधर्मयो: न पुनरसंख्येयभागादिवृत्तिरित्येतत्कथमनपदिष्टहेतुकमवसातुं शक्यमिति ? अत्र ब्रूम:‒अवसेयमसंशयम् । यथा मत्स्यगमनस्य जलमुपग्रहकारणमिति नासति जले मत्स्यगमनं भवति, तथा जीवपुद्गलानां प्रयोगविस्रसा परिणामनिमित्ताहितप्रकारां गतिस्थितिलक्षणां क्रियां स्वत एवाऽऽरभमाणानां सर्वत्रभावात् तदुपग्रहकारणाभ्यामपि धर्माधर्माभ्यां सर्वगताभ्यां भवितव्यम्; नासतोस्तयोर्गतिस्थितिवृत्तिरिति। =प्रश्न‒अणु स्कन्ध भेदरूप पुद्गल तथा असंख्यप्रदेशी जीव, ये तो अवगाही द्रव्य हैं। अत: एक प्रदेशादिक में पुद्गलों का और लोक के असंख्यातवें भाग आदि में जीवों का अवस्थान कहना तो युक्त है। परन्तु जो तुल्य असंख्यात प्रदेशी तथा लोकव्यापी हैं, ऐसे धर्म और अधर्म द्रव्यों की लोक के असंख्येय भाग आदि में वृत्ति कैसे हो सकती है? उत्तर‒नि:संशय रूप से हो सकती है।
जैसे जल मछली के तैरने में उपकारक है, जल के अभाव में मछली का तैरना सम्भव नहीं है, वैसे ही जीव और पुद्गलों की प्रायोगिक और स्वाभाविक गति और स्थिति रूप परिणमन में धर्म और अधर्म सहायक होते हैं (देखें आगे धर्माधर्म - 2)। क्योंकि स्वत: ही गति-स्थिति (लक्षणक्रिया को आरम्भ करने वाले जीव व पुद्गल लोक में सर्वत्र पाये जाते हैं, अत: यह जाना जाता है कि उनके उपकारक कारणों को भी सर्वगत ही होना चाहिए। क्योंकि उनके सर्वगत न होने पर उनकी सर्वत्र वृत्ति होना सम्भव नहीं है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/136 धर्माधर्मौ सर्वत्रलोके तन्निमित्तगमनस्थानानां जीवपुद्गलानां लोकाद्बहिस्तदेकदेशे च गमनस्थानासंभवात् ।=धर्म और अधर्म द्रव्य सर्वत्र लोक में हैं, क्योंकि उनके निमित्त से जिनकी गति और स्थिति होती है, ऐसे जीव और पुद्गलों की गति या स्थिति लोक से बाहर नहीं होती, और न लोक के एकदेश में होती है।
- इन दोनों से ही लोक व अलोक के विभाग की व्यवस्था है
पंचास्तिकाय/87 जादो अलोगलोगो जेसिं सब्भावदो य गमणठिदी।=जीव व पुद्गल की गति, स्थिति तथा अलोक और लोक का विभाग उन दो द्रव्यों के सद्भाव से होता है।
सर्वार्थसिद्धि/5/12/278/3 लोकालोकविभागश्च धर्माधर्मास्तिकायसद्भावासद्भावाद्विज्ञेय:। असति हि तस्मिन्धर्मास्तिकाये जीवपुद्गलानां गतिनियमहेतुत्वभावाद्विभागो न स्यात् । असति चाधर्मास्तिकाये स्थितेराश्रयनिमित्ताभावात् स्थितेरभावो लोकालोकविभागाभावो वा स्यात् । तस्मादुभयसद्भावासद्भावाल्लोकालोकविभागसिद्धि:।=यह लोकालोक का विभाग धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा से जानना चाहिए। अर्थात् धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जहाँ तक पाये जाते हैं, वह लोकाकाश है और इससे बाहर अलोकाकाश है, यदि धर्मास्तिकाय का सद्भाव न माना जाये तो जीव और पुद्गलों की गति के नियम का हेतु न रहने से लोकालोक का विभाग नहीं बनता। उसी प्रकार यदि अधर्मास्तिकाय का सद्भाव न माना जाये तो स्थिति का निमित्त न रहने से जीव और पुद्गलों की स्थिति का अभाव होता है, जिससे लोकालोक का विभाग नहीं बनता। इसलिए इन दोनों के सद्भाव और असद्भाव की अपेक्षा लोकालोक के विभाग की सिद्धि होती है। ( सर्वार्थसिद्धि/10/8/471/4 ); ( राजवार्तिक/5/1/29/435/3 ); ( नयचक्र बृहद्/135 )
- दोनों अमूर्तीक अजीव द्रव्य हैं
- दोनों का लक्षण व गुण गतिस्थितिहेतुत्व
- दोनों के लक्षण व विशेष गुण
प्रवचनसार/133 आगासस्सवगाहो धम्मदव्वस्स गमणहेदुत्तं। धम्मेदरदव्वस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा।=...धर्म द्रव्य का गमनहेतुत्व और अधर्म द्रव्य का गुण स्थान कारणता है। ( नियमसार/30 ); ( पंचास्तिकाय/84,86 ), ( तत्त्वार्थसूत्र/5/17 ); ( धवला/15/33/6 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/605/1060 ), ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 )
आलापपद्धति/2 धर्मद्रव्ये गतिहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमेते त्रयो गुणा:। अधर्मद्रव्ये स्थितिहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमिति।=धर्मद्रव्य में गतिहेतुत्व, अमूर्तत्व व अचेतनत्व ये तीन गुण हैं और अधर्म द्रव्य में स्थितिहेतुत्व, अमूर्तत्व व अचेतनत्व ये तीन गुण हैं। नोट‒इनके अतिरिक्त अस्तित्वादि 10 सामान्य गुण या स्वभाव होते हैं।‒(देखें गुण - 3)
- दोनों का उदासीन निमित्तपना
पंचास्तिकाय/85-86 उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहकरं हवदि लोए। तह जीवपुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाणाहि।85। जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं। ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव।86।=जिस प्रकार जगत् में पानी मछलियों को गमन में अनुग्रह करता है, उसी प्रकार धर्मद्रव्य जीव पुद्गलों को गमन में अनुग्रह करता है ऐसा जानो।85। जिस प्रकार धर्म द्रव्य है उसी प्रकार का अधर्म नाम का द्रव्य है, परन्तु वह स्थिति क्रियायुक्त जीव पुद्गलों को पृथिवी की भाँति (उदासीन) कारणभूत है।
सर्वार्थसिद्धि/5/17/282/5 गतिपरिणामिनां जीवपुद्गलानां गत्युपग्रहे कर्त्तव्ये धर्मास्तिकाय: साधारणाश्रयो जलवन्मत्स्यगमने। तथा स्थितिपरिणामिनां जीवपुद्गलानां स्थित्युपग्रहे कर्त्तव्ये अधर्मास्तिकाय: साधारणाश्रय: पृथिवीधातुरिवाश्वादिस्थिताविति।=जिस प्रकार मछली के गमन में जल साधारण निमित्त है, उसी प्रकार गमन करते हुए जीव और पुद्गलों के गमन में धर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है। तथा जिस प्रकार घोड़ा आदि के ठहरने में पृथिवी साधारण निमित्त है (या पथिक को ठहरने के लिए वृक्ष की छाया साधारण निमित्त है द्र.स.) उसी प्रकार ठहरने वाले जीव और पुद्गलों के ठहरने में अधर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है। ( राजवार्तिक/5/1/19-20/433/30 ); ( द्रव्यसंग्रह/17-18 ); ( गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/605/1060/3 ); (विशेष देखें कारण - III.2.2)
- धर्माधर्म दोनों की कथंचित् प्रधानता
भगवती आराधना 2134/1835 धम्माभावेण दु लोगग्गे पडिहम्मदे अलोगेण। गदिमुवकुणदि हु धम्मो जीवाणं पोग्गलाणं।2134।=धर्मास्तिकाय का अभाव होने के कारण सिद्धभगवान् लोक के ऊपर नहीं जाते। इसलिए धर्मद्रव्य ही सर्वदा जीव पुद्गल की गति को करता है। ( नियमसार/ सू./184); ( तत्त्वार्थसूत्र/10/8 )
भगवती आराधना 2139/1838 कालमणंतमधम्मोपग्गहिदो ठादि गयणमोगाढे। सो उवकारो इट्ठो अठिदि समावेण जीवाणं।2139।=अधर्म द्रव्य के निमित्त से ही सिद्धभगवान् लोकशिखर पर अनन्तकाल निश्चल ठहरते हैं। इसलिए अधर्म ही सर्वदा जीव व पुद्गल की स्थिति के कर्ता हैं।
सर्वार्थसिद्धि/10/8/471/2 आह—यदि मुक्त ऊर्ध्वगतिस्वभावो लोकान्तादूर्ध्वमपि कस्मान्नोत्पततीत्यत्रोच्यते‒गत्युपग्रहकारणभूतो धर्मास्तिकायो नोपर्यस्तीत्यलोके गमनाभाव:। तदभावे च लोकालोकविभागाभाव: प्रसज्यते।=प्रश्न‒यदि मुक्त जीव ऊर्ध्वगति स्वभाववाला है तो लोकान्त से ऊपर भी किस कारण से गमन नहीं करता? उत्तर‒गतिरूप उपकार का कारणभूत धर्मास्तिकाय लोकान्त के ऊपर नहीं है, इसलिए अलोक में गमन नहीं होता। और यदि अलोक में गमन माना जाता है तो लोकालोक के विभाग का अभाव प्राप्त होता है। (देखें धर्माधर्म - 1.7); ( राजवार्तिक/10/8/1/646/9 ); ( धवला 13/5,5,26/223/3 ); ( तत्त्वसार/8/44 )
पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/87 तत्र जीवपुद्गलौ स्वरसत एव गतितत्पूर्वस्थितिपरिणामापन्नौ। तयोर्यदि गतिपरिणामं तत्पूर्वस्थितिपरिणामं वा स्वयमनुभवतोर्बहिरङ्गहेतू धर्माधर्मौ न भवेताम्, तदा तयोर्निरर्गलगतिस्थितिपरिणामत्वादलोकेऽपि वृत्ति: केन वार्यते। ततो न लोकालोकविभाग: सिध्येत। =जीव व पुद्गल स्वभाव से ही गति परिणाम को तथा गतिपूर्वक स्थिति परिणाम को प्राप्त होते हैं। यदि गति परिणाम और गतिपूर्वक स्थिति परिणाम का स्वयं अनुभव करने वाले उन जीव पुद्गल को बहिरंगहेतु धर्म और अधर्म न हों, तो जीव पुद्गल के निरर्गल गतिपरिणाम और स्थितिपरिणाम होने से, अलोक में भी उनका होना किससे निवारा जा सकता है। इसलिए लोक और अलोक का विभाग सिद्ध नहीं होता। ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/92 ), (देखें धर्माधर्म - 3.5)
- दोनों के लक्षण व विशेष गुण
- धर्माधर्म द्रव्यों की सिद्धि
- दोनों में नित्य परिणमन होने का निर्देश
पंचास्तिकाय/84,86 अगुरुलघुगेहिं सया तेहिं अणंतेहि परिणदं णिच्चं। गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकज्जं।84। जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं...।86।=वह (धर्मास्तिकाय) अनन्त ऐसे जो अगुरुलघुगुण उन रूप सदैव परिणमित होता है। नित्य है, गतिक्रियायुक्त द्रव्यों की क्रिया में निमित्तभूत है और स्वयं अकार्य है। जैसा धर्मद्रव्य होता है वैसा ही अधर्मद्रव्य होता है। ( गोम्मटसार जीवकाण्ड/569/1015 )
- परस्पर में विरोध विषयक शंका का निरास
सर्वार्थसिद्धि/5/17/283/6 तुल्यबलत्वात्तयोर्गतिस्थितिप्रतिबन्ध इति चेत् । न, अप्रेरकत्वात् ।=प्रश्न‒धर्म और अधर्म ये दोनों द्रव्यतुल्य बलवाले हैं, अत: गति से स्थिति का और स्थिति से गति का प्रतिबन्ध होना चाहिए? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, ये अप्रेरक हैं। (विशेष देखें कारण - III.2.2)
- प्रत्यक्ष न होने सम्बन्धी शंका का निरास
सर्वार्थसिद्धि/5/17/283/6 अनुपलब्धेर्न तौ स्त: खरविषाणवदिति चेत् । न; सर्वप्रतिवादिन: प्रत्यक्षाप्रत्यक्षानर्थानभिवाञ्छति। अस्मान्प्रतिहेतोरसिद्धेश्च। सर्वज्ञेन निरतिशयप्रत्यक्षज्ञानचक्षुषा धर्मादय: सर्वे उपलभ्यन्ते। तदुपदेशाच्च श्रुतज्ञानिभिरपि।=प्रश्न‒धर्म और अधर्म द्रव्य नहीं हैं, क्योंकि, उनकी उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधे के सींग ? उत्तर—नहीं, क्योंकि इसमें सब वादियों को विवाद नहीं है। जितने भी वादी हैं, वे प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकार के पदार्थों को स्वीकार करते हैं। इसलिए इनका अभाव नहीं किया जा सकता। दूसरे हम जैनों के प्रति ‘अनुपलब्धि’ हेतु असिद्ध है, क्योंकि जिनके सातिशय प्रत्यक्ष ज्ञानरूपी नेत्र विद्यमान है, ऐसे सर्वज्ञ देव सब धर्मादिक द्रव्यों को प्रत्यक्ष जानते हैं और उनके उपदेश से श्रुतज्ञानी भी जानते हैं। ( राजवार्तिक/5/17/28-30/464/16 )
- दोनों के अस्तित्व की सिद्धि में हेतु
सर्वार्थसिद्धि/10/8/471/4 तदभावे च लोकालोकविभागाभाव: प्रसज्यते। =- उनका अभाव मानने पर लोकालोक के विभाग के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। ‒विशेष देखें धर्माधर्म - 1.7)
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/133 तथैकवारमेव गतिपरिणतसमस्तजीवपुद्गलानामालोकाद्गमनहेतुत्वमप्रदेशत्वात्कालपुद्गलयो: समुद्धातान्यत्र लोकासंख्येयभागमात्रत्वाज्जीवस्य लोकालोकसीम्नोऽचलित्वादाकाशस्य विरुद्धकार्यहेतुत्वादधर्मस्यासंभवाद्धर्ममधिगमयति। तथैकवारमेव स्थितिपरिणतसमस्तजीवपुद्गलानामालोकात्स्थानहेतुत्वम् ...अधर्ममधिगमयति।= - एक ही काल में गतिपरिणत समस्त जीव-पुद्गलों को लोक तक गमन का हेतुत्व धर्म को बतलाता है, क्योंकि काल और पुद्गल अप्रदेशी हैं, इसलिए उनके वह सम्भव नहीं है; जीव द्रव्य समुद्धात को छोड़कर अन्यत्र लोक के असंख्यातवें भाग मात्र है, इसलिए उसके वह सम्भव नहीं है। लोक अलोक की सीमा अचलित होने से आकाश के वह सम्भव नहीं है और विरुद्ध कार्य का हेतु होने से अधर्म के वह सम्भव नहीं है। इसी प्रकार एक ही काल में स्थितिपरिणत समस्त जीव-पुद्गलों को लोक तक स्थिति का हेतुत्व अधर्म द्रव्य को बतलाता है। (हेतु उपरोक्तवत् ही है) (विशेष देखें धर्माधर्म - 1.6)
- उनका अभाव मानने पर लोकालोक के विभाग के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। ‒विशेष देखें धर्माधर्म - 1.7)
- आकाश के गति हेतुत्व का निरास
पंचास्तिकाय/92-95 आगासं अवगासं गमणट्ठिदिकारणेहिं देदि जदि। उड्ढंगदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठन्ति किध तत्थ।92। जम्हा उवरिट्ठाणं सिद्धाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं। तम्हा गमणट्ठाणं आयासे जाण णत्थि त्ति।93। जदि हवदि गमणहेदू आगासं ठाणकारणं तेसिं। पसजदि अलोगहाणी लोगस्स च अंतपरिवड्ढी।94। तम्हा धम्माधम्मा गमणट्ठिदिकारणाणि णागासं। इदि जिणवरेहिं भणिदं लोगसहावं सणंताणं।95।=- यदि आकाश ही अवकाश हेतु की भाँति गतिस्थिति हेतु भी हो तो ऊर्ध्वगतिप्रधान सिद्ध उसमें (लोक में) क्यों स्थित हों। (आगे क्यों गमन न करें)।92। क्योंकि जिनवरों ने सिद्धों की स्थिति लोक शिखर पर कही है, इसलिए गति स्थिति (हेतुत्व) आकाश में नहीं होता, ऐसा जानो।93।
- यदि आकाश जीव व पुद्गलों की गतिहेतु और स्थितिहेतु हो तो अलोक की हानि का और लोक के अन्त की वृद्धि का प्रसंग आये।94। इसलिए गति और स्थिति के कारण धर्म और अधर्म हैं, आकाश नहीं है, ऐसा लोकस्वभाव के श्रोताओं से जिनवरों ने कहा है। (और भी देखें धर्माधर्म - 1.7) ( राजवार्तिक/5/17/21/462/31 ) सर्वार्थसिद्धि/5/17/283/1 आह धर्माधर्मयोर्य उपकार: स आकाशस्य युक्त:, सर्वगतत्वादिति चेत् । तदयुक्तम्; तस्यान्योपकारसद्भावात् । सर्वेषां धर्मादीनां द्रव्याणामवगाहनं तत्प्रयोजनम् । एकस्यानेकप्रयोजनकल्पनायां लोकालोकविभागाभाव:।=
- प्रश्न‒3. धर्म और अधर्म द्रव्य का जो उपकार है, उसे आकाश का मान लेना युक्त है, क्योंकि आकाश सर्वगत है? उत्तर‒यह कहना युक्त नहीं है; क्योंकि, आकाश का अन्य उपकार है। सब धर्मादिक द्रव्यों को अवगाहन देना आकाश का प्रयोजन है। यदि एक द्रव्य के अनेक प्रयोजन माने जाते हैं तो लोकालोक के विभाग का अभाव प्राप्त होता है। ( राजवार्तिक/5/17/20/462/23 )
राजवार्तिक/5/17/20-21/462/26 न चान्यस्य धर्मोऽन्यस्य भवितुमर्हति। यदि स्यात्, अप्तेजोगुणा द्रवदहनादय: पृथिव्या एव कल्प्यन्ताम् । किं च ...यथा अनिमिषस्य ब्रज्या जलोपग्रहाद्भवति, जलाभावे व भुवि न भवति सत्यप्याकाशे। यद्याकाशोपग्रहात् मीनस्य गतिर्भवेत् भुवि अपि भवेत् । तथा गतिस्थितिपरिणामिनाम् आत्मपुद्गलानां धर्मोऽधर्मोपग्रहात् गतिस्थिती भवतो नाकाशेपग्रहात् ।= - अन्य द्रव्य का धर्म अन्य द्रव्य का नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा मानने से तो जल और अग्नि के द्रवता और उष्णता गुण पृथिवी के भी मान लेने चाहिए। ( राजवार्तिक/5/17/23/463/9 ) ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/24/51/4 )।
- जिस प्रकार मछली की गति जल में होती है, जल के अभाव में पृथिवी पर नहीं होती, यद्यपि आकाश विद्यमान है। इसी प्रकार आकाश के रहने पर भी धर्माधर्म के होने पर ही जीव व पुद्गल की गति और स्थिति होती है। यदि आकाश को निमित्त माना जाये तो मछली की गति पृथिवी पर भी होना चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं होता। इसलिए धर्म व अधर्म ही गतिस्थिति में निमित्त हैं आकाश नहीं।
- भूमि जल आदि के गतिहेतुत्व का निरास
सर्वार्थसिद्धि/5/17/283/3 भूमिजलादीन्येव तत्प्रयोजनसमर्थानि नार्थो धर्माधर्माभ्यामिति चेत् । न; साधारणाश्रय इति विशिष्योक्तत्वात् । अनेककारणसाध्यत्वाच्चैकस्य कार्यस्य। =- प्रश्न‒1. धर्म अधर्म द्रव्य के जो प्रयोजन हैं, पृथिवी व जल आदिक ही उनके करने में समर्थ हैं, अत: धर्म और अधर्म द्रव्य का मानना ठीक नहीं ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थिति के साधारण कारण हैं, और यह (प्रश्न) विशेषरूप से कहा है। ( राजवार्तिक/5/17/22/463/1 )।
- तथा एक कार्य अनेक कारणों से होता है इसलिए धर्म अधर्म द्रव्य को मानना युक्त है। राजवार्तिक/5/17/27/564/8 यथा नायमेकान्त:‒सर्वश्चक्षुष्मान् बाह्यप्रकाशोपग्रहाद् रूपं गृह्णातीति। यस्माद् द्वीपमार्जारादय:...विनापि बाह्यप्रदीपाद्युपग्रहाद्रूपग्रहणसमर्था:,...यथा वा नायमेकान्त: सर्व एव गतिमन्तो यष्ट्याद्युपग्रहात् गतिमारभन्ते न वेति, ...तथा नायमेकान्त:‒सर्वेषामात्मपुद्गलानां सर्वे बाह्योपग्रहहेतव: सन्तीति, किन्तु केषांचित् पतत्त्रिप्रभृतीनां धर्माधर्मावेव, अपरेषां जलादयोऽपीत्यनेकान्त:।=
- जैसे यह कोई एकान्तिक नियम नहीं है कि सभी आँखवालों को रूप ग्रहण करने के लिए बाह्य प्रकाश का आश्रय हो ही, क्योंकि व्याघ्र बिल्लों आदि को बाह्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं भी रहती। जैसे यह कोई नियम नहीं कि सभी चलने वाले लाठी का सहारा लेते ही हों। उसी प्रकार यह कोई नियम नहीं कि सभी जीव और पुद्गलों को सर्वबाह्य पदार्थ निमित्त ही हों, किन्तु पक्षी आदिकों को धर्म व अधर्म ही निमित्त हैं और किन्हीं अन्य को धर्म व अधर्म के साथ जल आदिक भी निमित्त है, ऐसा अनेकान्त है।
- अमूर्तिकरूप हेतु का निरास
राजवार्तिक/5/17/40-41/466/3 अमूर्तत्वाद्गतिस्थितिनिमित्तत्वानुपपत्तिरिति चेत् । न; दृष्टान्ताभावात् । ...न हि दृष्टान्तोऽस्ति येनामूर्तत्वात् गतिस्थितिहेतुत्वं व्यावर्तेत। किं च‒आकाशप्रधानविज्ञानादिवत्तत्सिद्धे:।...यथा वा अपूर्वाख्यो धर्म: क्रियया अभिव्यक्त: सन्नमूर्त्तोऽपि पुरुषस्थोपकारी वर्तते, तथा धर्माधर्मयोरपि गतिस्थित्युपग्रहोऽवसेय:।=प्रश्न‒अमूर्त होने के कारण धर्म व अधर्म में गति व स्थिति के निमित्तपने की उपपत्ति नहीं बनती ? उत्तर- नहीं, क्योंकि, ऐसा कोई दृष्टान्त नहीं जिससे कि अमूर्तत्व के कारण गतिस्थिति का अभाव किया जा सके।
- जिस प्रकार अमूर्त भी आकाश सब द्रव्यों को अवकाश देने में निमित्त होता है, जिस प्रकार अमूर्त भी सांख्यमत का प्रधान तत्त्व पुरुष के भोग का निमित्त होता है, जिस प्रकार अमूर्त भी बौद्धों का विज्ञान नाम रूप की उत्पत्ति का कारण है, जिस प्रकार अमूर्त भी मीमांसकों का अदृष्ट पुरुष के उपभोग का साधन है, उसी प्रकार अमूर्त भी धर्म और अधर्म गति और स्थिति में साधारण निमित्त हो जाओ।
- दोनों में नित्य परिणमन होने का निर्देश
- निष्क्रिय होने के हेतु का निरास―देखें कारण - III.2.2।
- स्वभाव से गति स्थिति होने का निरास―देखें काल - 2.11।