उदीरणा: Difference between revisions
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Revision as of 22:39, 22 July 2020
कर्मके उदयकी भाँति उदरणा भी कर्मफलकी व्यक्तताका नाम है परन्तु यहाँ इतनी विशेषता है कि किन्हीं क्रियाओं या अनुष्ठान विशेषोंके द्वारा कर्मको अपने समयसे पहले ही पका लिया जाता है। या अपकर्षण द्वारा अपने कालसे पहले ही उदयमें ले आया जाता है। शेष सर्व कथन उदयवत् ही जानना चाहिए। कर्म प्रकृतियोंके उदय व उदीरणाकी प्ररूपणाओंमें भी कोई विशेष अन्तर नहीं है। जो है वह इस अधिकारमें दरशा दिया गया है।
1. उदीरणाका लक्षण व निर्देश 1. उदीरणाका लक्षण 2. उदीरणाके भेद 3. उदय व उदीरणाके स्वरूपमें अन्तर 4. उदीरणासे तीव्र परिणाम उत्पन्न होते हैं 5. उदीरणा उदयावलीकी नहीं सत्ताकी होती है 6. उदयगत प्रकृतियों की ही उदीरणा होती है • बध्यमान आयुकी उदीरणा नहीं होती - देखें आयु - 6 • उदीरणाकी आबाधा - देखें आबाधा - 2. कर्म प्रकृतियोंकी उदीरणा व उदीरणा स्थान प्ररूपणाएँ 1. उदय व उदीरणाकी प्ररूपणाओंमें कथंचित् समानता व असमानता 2. उदीरणा व्युच्छित्तिकी ओघ आदेश प्ररूपणा 3. उत्तर प्रकृति उदीरणाकी ओघ प्ररूपणा (सामान्य व विशेष कालकी अपेक्षा) 4. एक व नाना जीवापेक्षा मूल प्रकृति उदीरणाकी ओघ आदेश प्ररूपणा 5. मूल प्रकृति उदीरणास्थान ओघ प्ररूपणा • मूलोत्तर प्रकृतियोंकी सामान्य उदय स्थान प्ररूपणाएँ (प्रकृति विशेषता सहित उदयस्थानवत्) • प्रकृति उदीरणाकी स्वामित्व सन्निकर्ष व स्थान प्ररूपणा - देखें [[ ]]धवला पुस्तक संख्या 15/44-97 • स्थिति उदीरणाकी समुत्कीर्तना, भंगविचय व सन्निकर्ष प्ररूपणा - देखें [[ ]]धवला पुस्तक संख्या 15/100-147 • अनुभाग उदीरणाकी देश व सर्वघातीपना, सन्निकर्ष, भंगविचय व भुजगारादि प्ररूपणाएँ - देखें [[ ]]धवला पुस्तक संख्या 15/170-235 • भुजगारादि पदोंके उदीरकोंकी काल, अन्तर व अल्प बहुत्व प्ररूपणा- देखें [[ ]]धवला पुस्तक संख्या 15/50 • बन्ध व उदय व उदीरणाकी त्रिसंयोगी प्ररूपणा - देखें [[ ]]उदय 7 1. उदीरणाका लक्षण व निर्देश 1. उदीरणाका लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 3/3.....भुंजणकालो उदओ उदीरणापक्कपाचणफलं।
= कर्मोंके फल भोगनेके कालको उदय कहते हैं और अपक्वकर्मोंके पाचनको उदीरणा कहते हैं। (प्र.सं./सं. 3/3-4)
धवला पुस्तक संख्या 15/43/7 का उदीरणा णाम। अपक्वपाचणमुदीरणा। आवलियाए बाहिरट्ठिदिमादिं कादूण उवरिमाणं ठिदीणं बंधावलियवदिक्कंतपदेसग्गमसंखेज्जलोगपडिभागेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागेण वा ओक्कडिदूण उदयावलियाए देदि सा उदीरणा।
= प्रश्न-उदीरणा किसे कहते हैं। उत्तर-(अपक्व अर्थात्) नहीं पके हुए कर्मोंको पकानेका नाम उदीरणा है। आवली (उदयावली) से बाहरकी स्थितिको लेकर आगेकी स्थितियोंके, बन्धावली अतिक्रान्त प्रदेशाग्रको असंख्यातलोक प्रतिभागसे अथवा पल्योपमके असंख्यातवें भाग रूप प्रतिभागसे अपकर्षण करके उदयावलीमें देना, यह उदीरणा कहलाती है। (धवला पुस्तक संख्या 6/1,9-8,4/214); (गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या 439/592/8)
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 3/47/5 उदीरणा नाम अपक्वपाचनं दीर्घकाले उदेष्यतोऽग्रनिषेकाद् अपकृष्याल्पस्थितिकाधस्तननिषेकेषु उदयावल्यां दत्वा उदयमुखेनानुभूय कर्मरूपं त्याजयित्वा पुद्गलान्तररूपेण परिणमयतीत्यर्थः।
= उदीरणा नाम अपक्वपाचनका है। दीर्घकाल पीछे उदय आने योग्य अग्रिम निषेकोंको अपकर्षण करके अल्प स्थितिवाले अधस्तन निषेकोंमें या उदयावलीमें देकर, उदयमुख रूपसे उनका अनुभवकर लेनेपर वह कर्मस्कन्ध कर्मरूपको छोड़कर अन्य पुद्गलरूप से परिणमन कर जाता है। ऐसा तात्पर्य है। विशेष देखें [[ ]]- उदय 2/7 2. उदीरणाके भेद
धवला पुस्तक संख्या 15/43/5 उदीरणा चउविहा-पयडि-ट्ठिदि-अणुभागपदेसउदीरणा चेदि।
= उदीरणा चार प्रकारकी है - प्रकृतिउदीरणा, स्थितिउदीरणा, अनुभागउदीरणा, और प्रदेशउदीरणा। 3. उदय व उदीरणाके स्वरूपमें अन्तर
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 3/3 भुंजणकालो उदओ उदीरणापक्वपाचणकालं।
= कर्मका फल भोगनेके कालको उदय कहते हैं और अपक्व कर्मोंके पाचनको उदीरणा कहते हैं।
धवला पुस्तक संख्या 6/1,9-8,4/213/11 उदय उदीरणाणं को विसेसो। उच्चदे-जे कम्मक्खंधा ओकड्डुक्कडुणादिपओगेण विणा ट्ठिदिक्खयं पाविदूण अप्पप्पणो फलं देंति; तेसिं कम्मखंधाणमुदओ त्ति सण्णा। जे कम्मक्खंधा महंतेसु ट्ठिदि-अणुभागेसु अवट्ठिदा ओक्कडिदूण फलदाइणो कीरंति तेसिमुदीरणा त्ति सण्णा, अपपक्वाचनस्य उदीरणाव्यपदेशात्।
= प्रश्न-उदय और उदीरणामें क्या भेद है। उत्तर-कहते हैं-जो कर्म-स्कन्ध अपकर्षण, उत्कर्षण आदि प्रयोगके बिना स्थिति क्षयको प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते हैं, उन कर्मस्कन्धोंकी `उदय' यह संज्ञा है। जो महान् स्थिति और अनुभागोंमें अवस्थित कर्मस्कन्ध अपकर्षण करके फल देनेवाले किये जाते हैं, उन कर्मस्कन्धोंकी `उदीरणा' यह संज्ञा हैं, क्योंकि, अपक्व कर्म-स्कन्ध पाचन करनेको उदीरणा कहा गया है। ( कषायपाहुड़ सुत्त./मू.गा. 59/पृ. 465) 4. उदीरणासे तीव्र परिणाम उत्पन्न होते हैं
राजवार्तिक अध्याय संख्या 6/6/1-2/111/32 बाह्याभ्यन्तरहेतूदीरणवशादुद्रिक्तः परिणामः तीवनात स्थूलभावात् तीव्र इत्युच्यते ।1। अनुदीरणप्रत्ययसंनिधानात् उत्पद्यमानोऽनुद्रिकक्तः परिणामो मन्दनात् गमनात् मन्दः इत्युच्यते।
= बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंसे कषायोंकी उदीरणा होनेपर अत्यन्त प्रवृद्ध परिणामोंको तीव्र कहते हैं। इससे विपरीत अनुद्रिक्त परिणाम मन्द हैं। अर्थात् केवल अनुदीर्ण प्रत्यय(उदय) के सन्निधानसे होनेवाले परिणाम मन्द हैं। 5. उदीरणा उदयावलीकी नहीं सत्ताकी होती है
धवला पुस्तक संख्या 15/44/1 णाणावरणीय-दंसणावरणीय-अंतराइयाणं मिच्छाइट्ठिमादिं कादूण जाव खीणकसाओ त्ति ताव एदे उदीरया। णवरि खीणकसायद्धाए समयाहियावलियसेसाए एदासिं तिण्णं पयडीणं उदीरणा वोच्छिण्णा।
= ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, और अन्तराय तीन कर्मोंके मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त, ये जीव उदीरक हैं। विशेष इतना है कि क्षीण कषायके कालमें एक समय अधिक आवलीके शेष रहनेपर इन तीनों प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। (इसी प्रकार अन्य 4 प्रकृतियोंकी भी प्ररूपणा की गयी है। तहाँ सर्वत्र ही उदय व्युच्छित्तिवाले गुणस्थानकी अन्तिम आवली शेष रहनेपर उन-उन प्रकृतियोंकी उदीरणाकी व्युच्छित्ति बतायी है)।
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 4/226 पृ. 178 अत्रापक्वपाचनमुदीरणेति वचनादुदयावलिकायां प्रविष्टायाः कर्मस्थितेर्नोदीरणेति मरणावलिकायामायुषः उदीरणा नास्ति।
= `अपक्वपाचन उदीरणा है' इस वचनपर-से यह बात जानी जाती है कि उदयावलीमें प्रवेश किये हुए निषेकों या कर्मस्थितिकी उदीरणा नहीं होती है। इसी प्रकार मरणावलीके शेष रहनेपर आयुकी उदीरणा नहीं होती है। 6. उदयगत प्रकृतियोंकी ही उदीरणा होती है
सं./प्रा. 473 उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो। नोत्तण य इगिदालं सेसाणं सव्वपयडीणं।
= वक्ष्यमाण 41 प्रकृतियोंको छोड़कर (देखो आगे सारणी) शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है। विशेषार्थ - सामान्य नियम यह है कि जहाँपर जिस कर्मका उदय होता है, वहाँपर उस कर्मकी उदीरणा अवश्य होती है-किन्तु इसमें कुछ अपवाद है। (देखो आगे सारणी) ( पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या 5/442)
लब्धिसार / जीवतत्त्व प्रदीपिका / मूल या टीका गाथा संख्या व.भाषा 30/67/3 पुनरुदयवतां प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशानां चतुर्णामुदीरको भवति स जीवः, उदयोदीरणयोः स्वामिभेदाभावात्।
= प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग जे उदयरूप कहे तिनिहीका यहु उदीरणा करनेवाला हो है जातै जाकैं जिनिका उदय ताकौं तिनिहोकी उदीरणा भी संभवै। 2. कर्म प्रकृतियोंकी उदीरणा व उदीरणा स्थान प्ररूपणाएँ 1. उदय व उदीरणाकी प्ररूपणाओंमें कथंचित् समानता व असमानता
सं.प्रा. 3/44-47 उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जइ विसेसो। मोत्तूण तिण्णि-ठाणं पमत्त जोई अजोई य ।44।
= स्वामित्व की अपेक्षा उदय और उदीरणामें प्रमत्त विरत, सयोगि केवली और अयोगिकेवली इन तीन गुणस्थानोंको छोड़कर कोई विशेष नहीं है। (गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या 278/407); (कर्मस्त 38-39)
पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 5/473 उदयस्सुदीरणस्स य सामित्तादो ण विज्जदि विसेसो। मोत्तूण य इगिदालं सेसाणं सव्वपयडीणं ।473।
= वक्ष्यमाण इकतालीस प्रकृतियोंको छोड़कर शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है। ( पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 5/473-475); (गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या 278-281); (कर्मस्त 39-43); ( पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या 3/56-60)। अपवाद संख्या अपवाद गत 41 प्रकृतियाँ 1 साता, असाता व मनुष्यायु इन तीनोंकी उदय व्युच्छित्ति 14 वें गुणस्थानमें होती है पर उदीरणा व्युच्छित्ति 6 ठे में। 2 मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, सुभग, त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थंकर, उच्चगोत्र इन 10 प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्ति 14 वें में होती है पर उदीरणा व्युच्छित्ति 13 वें में। 3 ज्ञानावरण 5, दर्शनावरण 4, अन्तराय 5, इन 14 की उदय व्युच्छित्ति 12 वें में एक आवली काल पश्चात् होती है और उदीरणा व्युच्छित्ति तहाँ ही एक आवली पहले होती है। 4 चारों आयुका उदय भवके अन्तिम समय तक रहता है परन्तु उदीरणाकी व्युच्छित्ति एक आवली काल पहले होती है। 5 पाँचों निद्राओं का शरीर पर्याप्त पूर्ण होनेके पश्चात् इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण होने तक उदय होता है उदीरणा नहीं। 6 अन्तरकरण करनेके पश्चात् प्रथम स्थितिमें एक आवली शेष रहनेपर-उपशम सम्यक्त्व सन्मुखके मिथ्यात्वका; क्षायिक सन्मुखके सम्यक् प्रकृतिका; और उपशम श्रेणी आरूढ़के यथायोग्य तीनों वेदोंका (जो जिस वेदके उदयसे श्रेणी चढ़ा है उसके उस वेदका) इन सात प्रकृतियोंका उदय होता है उदीरणा नहीं। 7 जिन प्रकृतियोंका उदय 14 वें गुणस्थान तक होता है उनकी उदीरणा 13 वें तक होती है (देखो ऊपर नं. 2) ये सात अपवादवाली कुल प्रकृतियाँ 41 हैं - इनको छोड़कर शेष 107 प्रकृतियोंकी उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं। 2. उदीरणा व्युच्छित्तिकी ओघ आदेश प्ररूपणा। ( पंचसंग्रह / प्राकृत / परिशिष्ट/पृ. 748); ( पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 3/44-48,56-60); (गो.क.278-281/407-410) उदीरणा योग्य प्रकृतियाँ-उदय योग्यवाली ही = 122 संकेत = प्रकृतियोंके छोटे नाम (देखो उदय 6/1) गुणस्थान व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ अनुदीरणा पुनः उदीरणा उदीरणायोग्य अनुदीरणा पुनः उदीरणा कुल उदीरणा ओघ प्ररूपणा 1 आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, मिथ्यात्व=5 तीर्थं., आहा. द्वि. सम्य. मिश्र=5 - 122 5 - 11 2. 1-4 इन्द्रिय, स्थावर, अनन्तानुबन्धी चतुष्क=9 नारकानुपूर्वी=1 - 112 1 - 111 3 मिश्र मोहनीय=1 मनु. तिर्य.देव-आनु.=3 मिश्रमोह=1 102 3 1 100 4 अप्र. चतु., वैक्रि. द्वि., नरकत्रिक, देवत्रिक, मनु.तिर्य. आनु., दुर्भग, अनादेय, अयश=17 - चारों. आनु., सम्य.=5 99 5 5 104 5 प्रत्या. चतु., तिर्य. आयु. नीच गोत्र, तिर्य. गति, उद्योत=8 - - 87 - - 87 - आहा. द्वि., स्त्यानगृद्धि. निद्रा निद्रा, प्रचला प्रचला, साता असाता, मनुष्यायु=8 - आहा द्वि=2 79 - 2 81 7 सम्य. मोह, अर्धनाराच, कीलित, सृपाटिका=4 - - 73 - - 73 8/1 हास्य, रति, भय, जुगुप्सा=4 - - 69 - - 69 8/अंत अरति, शोक=2 - - 65 - - 65 9/15 सवेद भागमें तीनों वेद=3 - - 63 - - 63 9/6 क्रोध=1 - - 60 - - 60 9/7 मान=1 - - 59 - - 59 9/8 माया=1 - - 58 - - 58 9/9 लोभ (बादर)=X - - 57 - - 57 10 लोभ (सूक्ष्म)=1 - - 57 - - 57 11 वज्र नाराच, नाराच=2 - - 56 - - 56 12/i निद्रा, प्रचला=2 - - 54 - - 54 12/ii 5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण, 5 अन्तराय=14 - - 52 - - 52 13 (नाना जीवापेक्षा) :- वज्रऋषभनाराच, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर, प्रशस्त-अप्रशस्त, विहायो, औदा.द्वि., तैजस, कार्माण, 6 संस्थान, वर्ण रस, गन्ध, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रत्येक शरीर=29 मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, सुभग, त्रिस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र=10 (39) तीर्थङ्कर=1 38 - 1 39 14 X - - - - आदेश प्ररूपणा यथा योग्य रूपसे उदयवत् जान लेना, केवल ओघवत् 6ठे, 13वें व 14वें गुणस्थानमें निर्दिष्ट अन्तर डाल देना। 3. उत्तर प्रकृति उदीरणा की ओघ प्ररूपणा ( पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 3/6-7); ( राजवार्तिक अध्याय संख्या 9/36/9/631); (पंचसंग्रह / अधिकार संख्या 3/14-16) गुणस्थान कुल उदीरणा योग्य प्रकृत गुण स्थानकी अवस्थामें कभी भी प्रकृत गुण स्थानमें अन्यतम प्रकृति की मरण कालसे 1 आवली पूर्व - - कुल प्रकृति विशेष कुल प्रकृति विशेष कुल प्रकृति विशेष 1 18 9 1-4 इन्द्रिय जातिआतप. स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त साधारण 9 अनन्तानुबन्धी चतुष्क, चारों आनुपूर्वी. मनु-मनुष्यायु 1 मनुष्यायु 2 9 - - 9 अनन्तानुबन्धी चतुष्क, चारों. आनुपूर्वी, मनु. मनुष्यायु 3 1 1 सम्यग्मिथ्यात्व 4 18 8 अप्रत्याख्यानावरण 4, नरक व देवगति वैक्रियक शरीर व अंगोपांग 5 दुर्भग, अनादेय, अयश, सम्यक प्रकृति, मनुष्यायु 7 चारों आनुपूर्वी, मनुष्य व नरक आयु 5 11 8 प्रत्याख्यानावरण 4, तिर्यंचगति, उद्योत नीचगोत्र 2 सम्यक प्रकृति मनुष्यायु 2 मनुष्य व तिर्यंच आयु 6 9 5 निद्रा निद्रा, प्रचला, प्रचला, स्त्यानगृद्धि साता असाता 4 सम्यक् प्रकृति, मनुष्यायु, आहारक शरीर व अंगोपांग 3 मनुष्यायु, आहारक शरीर व अंगोपांग 7 4 3 नीचेवाली तीनों संहनन 1 सम्यक्प्रकृति 8 6 6 हास्य, रति, अरति, शोक भय, जुगुप्सा 9 6 6 तीनों वेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया 10 1 1 संज्वलन लोभ 11 2 2 वज्र नाराच, नाराच संहनन 12i 2 - X - - 2 निद्रा, प्रचला 12/ii 14 - - - - 14 5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण, 5 अन्तराय 13 38 38 मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर व अंगोपांग तैजस, व कार्मण शरीर, छहों संस्थान, वज्रऋषभ नाराच, संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, उच्छ्वास, प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, यश, निर्माण, उच्चगोत्र, तीर्थङ्कर 14 X X X X X 4. एक व नानाजीवापेक्षा मूलप्रकृति उदीरणाकी ओघ आदेश प्ररूपणा 1. ओघ प्ररूपणा ( पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 4/222-226); ( पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या 4/86-91), (शतक 29-32); (धवला पुस्तक संख्या 15/44) नाम प्रकृति गुण स्थान एक जीवापेक्षया काल एक जीवापेक्षया अन्तर नाना जीवापेक्षया अल्प बहुत्व - - जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट अल्प बहुत्व विशेषका प्रमाण आयु- (केवल आवली काल अवशेष रहते) 1 1 या 2 समय 1 आवली कम 33 सागर 1 आवली अन्तर्मुहूर्त सर्वतः स्तोक स्व स्थितिके अन्त तक 2-6 1 या 2 समय 1 आवली कम 33 सागर 1 आवली अन्तर्मुहूर्त सर्वतः स्तोक वेदनीय 1-6 अन्तर्मुहूर्त अर्ध.पु.परिव. 1 समय अन्तर्मुहूर्त विशेषाधिक अन्तिम आवलीमें संचित अनन्त मोहनीय 1-10 अन्तर्मुहूर्त अर्ध.पु.परिव. 1 समय अन्तर्मुहूर्त विशेषाधिक 7-10 गुणस्थान वाले जीव ज्ञानावरणी 1-12 अनादि सान्त अनादि अनन्त निरन्तर निरन्तर विशेषाधिक 1-12 गुणस्थान वाले जीव दर्शनावरणी 1-12 अनादि सान्त अनादि अनन्त निरन्तर निरन्तर उपरोक्तवत् उपरोक्तवत् अन्तराय 1-12 अनादि सान्त अनादि अनन्त निरन्तर निरन्तर उपरोक्तवत् उपरोक्तवत् नाम 1-13 अनादि सान्त अनादि अनन्त निरन्तर निरन्तर विशेषाधिक सयोगी केवली प्रमाण गोत्र 1-13 अनादि सान्त अनादि अनन्त निरन्तर निरन्तर उपरोक्तवत् उपरोक्तवत् 2. आदेश प्ररूपणा (दे.धवला पुस्तक संख्या 15/47) 5. मूल प्रकृति उदीरणा स्थान ओघ प्ररूपणा ( पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 3/6); ( पंचसंग्रह / प्राकृत अधिकार संख्या 4/222-226); ( पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या 3/14) ( पंचसंग्रह / संस्कृत अधिकार संख्या 4/89-91); (शतक 29-32), (धवला पुस्तक संख्या 15/48-50) संकेत - आ = आवली. भंग सं. स्थानका विवरण गुणस्थान गुण स्थानके अन्त तक या कुछ काल शेष रहते एक जीवापेक्षया काल एक जीवापेक्षया अन्तर - - - - जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट 1 आठों कर्म 1-6 अन्त तक 1,2 समय 33 सागर-1 आ. 1 आवली अन्तर्मुहूर्त 2 आयु बिना 7 कर्म 1,2,4,5,6 अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर 1,2 समय 1 आवली क्षुद्र भव-1 आवली 33 सागर-1 आवली X - 3 - - यह गुण स्थान नहीं होता - 3 आयु व वेदनी बिना 6 7-10 अन्त तक 1,2 समय अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त अर्ध.पु.परि. 4 आयु वेदनी व मोहके बिना-5 कर्म 10 आ. शेष रहनेपर 1,2 समय अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त अर्ध.पु.परि. - आयु वेदनी व मोहके बिना-5 कर्म 11-12 अन्त तक 1,2 समय अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त अर्ध.पु.परि. 5 नाम व गोत्र=2 कर्म 12 आ. शेष रहनेपर अन्तर्मुहूर्त कुछ कम 1 पूर्व कोडि निरन्तर निरन्तर - नाम व गोत्र=2 कर्म 13 अन्ततक अन्तर्मुहूर्त कुछ कम 1 पूर्व कोडि निरन्तर निरन्तर - - 14 अन्त तक भंग सं. स्थानका विवरण गुण स्थान गुण स्थानके अन्त तक या कुछ काल शेष रहते नाना जीवापेक्षया काल नाना जीवापेक्षया अन्तर अल्प बहुत्व - - - - जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट 1 आयु, मोह, वेदनीयके बिना 5 कर्म 11-12 - 1 समय अन्तर्मुहूर्त 1 समय 6 मास सर्वतःस्तोक 2 नाम गोत्र 2 कर्म 13 - सर्वदा सर्वदा निरन्तर निरन्तर सं. गुणे 3 आयु वेदनी बिना 6 कर्म 7 - सर्वदा सर्वदा निरन्तर निरन्तर सं. गुणे 4 आयु बिना 7 कर्म 1-6 - सर्वदा सर्वदा निरन्तर निरन्तर अनन्त गुणे 5 सर्व ही 8 कर्म 1-6 - सर्वदा सर्वदा निरन्तर निरन्तर सं. गुणे पूर्व पृष्ठ अगला पृष्ठ