अगाढ़: Difference between revisions
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<p class="SanskritText"> [[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या २/५७-५८ वृद्धयष्टिरिवात्यक्तस्थाना करतले स्थिता। स्थान एव स्थिते कम्प्रमगाढं वेदकं यथा ।।५७।। स्वकारितेऽर्हच्चैत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते। अन्यस्यासाविति भ्राम्यन्मोहाच्छ्राद्धोऽपि चेष्टते ।।५८।।<br> </p> | <p class="SanskritText"> [[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या २/५७-५८ वृद्धयष्टिरिवात्यक्तस्थाना करतले स्थिता। स्थान एव स्थिते कम्प्रमगाढं वेदकं यथा ।।५७।। स्वकारितेऽर्हच्चैत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते। अन्यस्यासाविति भ्राम्यन्मोहाच्छ्राद्धोऽपि चेष्टते ।।५८।।<br> </p> | ||
<p class="SanskritText"> [[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या २/६१ की टीका में उद्धृत- यच्चलं मलिनं चास्मादगाढमनवस्थितम्। नित्यं चान्तर्मुहूर्तादिषट्षष्ट्यब्ध्यन्तर्वर्ति यत्।। <br> </p> | <p class="SanskritText"> [[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या २/६१ की टीका में उद्धृत- यच्चलं मलिनं चास्मादगाढमनवस्थितम्। नित्यं चान्तर्मुहूर्तादिषट्षष्ट्यब्ध्यन्तर्वर्ति यत्।। <br> </p> | ||
<p class="HindiText"> = जिस प्रकार वृद्ध पुरुष की लकड़ी तो | <p class="HindiText"> = जिस प्रकार वृद्ध पुरुष की लकड़ी तो हाथ में ही बनी रहती है, परन्तु अपने स्थान को न छोड़ती हुई भी कुछ काँपती रहती है उसी प्रकार क्षयोपशम सम्यग्दर्शन देव गुरु व तत्त्वादि की श्रद्धामें स्थित रहते हुए भी सकम्प होता है। उसको अगाढ़ वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं ।।५७।। वह भ्रम व संशय को प्राप्त होकर अपने बनाये हुए चैत्यादि में यह मेरा देव है' और अन्य के बनाये हुए चैत्यादि में `यह अन्य का देव है' ऐसा व्यवहार करने लगता है ।।५८।। <br></p> | ||
([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या २५/५१/१५) <br> | ([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या २५/५१/१५) <br> | ||
इस प्रकार जो क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन चल मलिन अगाढ़ व अनवस्थित है वही नित्य भी है। अन्तर्मुहूर्त से लेकर ६६ सागर पर्यन्त अवस्थित रहता है।<br> | इस प्रकार जो क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन चल मलिन अगाढ़ व अनवस्थित है वही नित्य भी है। अन्तर्मुहूर्त से लेकर ६६ सागर पर्यन्त अवस्थित रहता है।<br> |
Revision as of 09:06, 15 August 2020
सम्यग्दर्शन का एक दोष।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या २/५७-५८ वृद्धयष्टिरिवात्यक्तस्थाना करतले स्थिता। स्थान एव स्थिते कम्प्रमगाढं वेदकं यथा ।।५७।। स्वकारितेऽर्हच्चैत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते। अन्यस्यासाविति भ्राम्यन्मोहाच्छ्राद्धोऽपि चेष्टते ।।५८।।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या २/६१ की टीका में उद्धृत- यच्चलं मलिनं चास्मादगाढमनवस्थितम्। नित्यं चान्तर्मुहूर्तादिषट्षष्ट्यब्ध्यन्तर्वर्ति यत्।।
= जिस प्रकार वृद्ध पुरुष की लकड़ी तो हाथ में ही बनी रहती है, परन्तु अपने स्थान को न छोड़ती हुई भी कुछ काँपती रहती है उसी प्रकार क्षयोपशम सम्यग्दर्शन देव गुरु व तत्त्वादि की श्रद्धामें स्थित रहते हुए भी सकम्प होता है। उसको अगाढ़ वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं ।।५७।। वह भ्रम व संशय को प्राप्त होकर अपने बनाये हुए चैत्यादि में यह मेरा देव है' और अन्य के बनाये हुए चैत्यादि में `यह अन्य का देव है' ऐसा व्यवहार करने लगता है ।।५८।।
(गोम्मट्टसार जीवकाण्ड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा संख्या २५/५१/१५)
इस प्रकार जो क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन चल मलिन अगाढ़ व अनवस्थित है वही नित्य भी है। अन्तर्मुहूर्त से लेकर ६६ सागर पर्यन्त अवस्थित रहता है।