निर्ग्रंथ: Difference between revisions
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Revision as of 15:19, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- निष्परिग्रह के अर्थ में
धवला 9/4,1,67/323/7 ववहारणयं पडुच्च खेत्तादी गंथो, अब्भंतरंग कारणत्तादो। एदस्स परिहरणं णिग्गंथं। णिच्छयणयं पडुच्च मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारणत्तादो। तेसिं परिच्चागो णिग्गंथं। णइगमणएण तिरयणाणुवजोगी बज्झब्भंतरपरिग्गहपरिच्चाओ णिग्गंथं। =व्यवहारनय की अपेक्षा क्षेत्रादिक (बाह्य) ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे अभ्यन्तर ग्रन्थ (मिथ्यात्वादि) के कारण हैं, और इनका त्याग निर्ग्रन्थता है। निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यात्वादिक (अभ्यन्तर) ग्रन्थ हैं, क्योंकि, वे कर्मबन्ध के कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है। नैगमनय की अपेक्षा तो रत्नत्रय में उपयोगी पड़ने वाला जो भी बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रह (ग्रन्थ) का परित्याग है उसे निर्ग्रन्थता समझना चाहिए।–(बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रह के भेदों का निर्देश–देखें ग्रन्थ ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/44 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/43/142/2 तत् त्रितयमिह निर्ग्रन्थशब्देन भण्यते। =सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय को यहाँ निर्ग्रन्थ शब्द द्वारा कहा गया है। प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/204/278/15 व्यवहारेण नग्नत्वं यथाजातरूपं निश्चयेन तु स्वात्मरूपं तदित्थंभूतं यथाजातरूपं धरतीति यथाजातरूपधर: निर्ग्रन्थो जात इत्यर्थ:। =व्यवहारनय से नग्नत्व को यथाजातरूप कहते हैं और निश्चयनय से स्वात्मरूप को। इस प्रकार के व्यवहार व निश्चय यथाजातरूप को धारण करने वाला यथाजातरूपधर कहलाता है। ‘निर्ग्रन्थ होना’ इसका ऐसा अर्थ है। - निर्ग्रन्थ साधु विशेष के अर्थ में
सर्वार्थसिद्धि/9/46/460/10 उदकदण्डराजिवदनभिव्यक्तोदयकर्माण: ऊर्ध्वमुहूर्त्तादुद्भिद्यमानकेवलज्ञानदर्शनभाजो निर्ग्रन्था:। =जिस प्रकार जल में लकड़ी से की गयी रेखा अप्रगट रहती है, इसी प्रकार जिनके कर्मों का उदय अप्रगट हो, और अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही जिन्हें केवलज्ञान व केवलदर्शन प्रगट होने वाला है, वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं। ( राजवार्तिक/9/46/4/636/28 ); ( चारित्रसार/102/1 )\
नोट–निर्ग्रन्थसाधु की विशेषताएँ–देखें साधु - 5।
पुराणकोष से
निष्परिग्रही, शरीर से नि.स्पृही, करपात्री मुनि । ये तप का साधन मानकर देह की स्थिति के लिए एक, दो उपवास के बाद भिक्षा के समय याचना के बिना ही शास्त्रोक्त विधि के अनुसार आहार ग्रहण करते हैं । रक्षक एवं घातक दोनों के प्रति ये समभाव रखते हैं । ये सदैव ज्ञान और ध्यान में लीन रहते हैं । महापुराण 76. 402-409, पद्मपुराण 35.114-115 ये पाँच प्रकार के होते हैं—पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक । इनमें पुलाक साधु उत्तरगुणों की भावना से रहित होते हैं । मूल व्रतों का भी वे पूर्णत: पालन नहीं करते । वकुश मूलव्रतों का तो अखण्ड रूप से पालन करते हैं परन्तु शरीर और उपकरणों को साफ, सुन्दर रखने में लीन रहते हैं । इनका परिकर नियत नहीं होता है । इनमें जो कषाय रहित हैं वे प्रतिसेवनाकुशील और जिनके मात्र संज्वलन का उदय रह गया है वे कषायकुशील होते हैं । जिनके जल-रेखा के समान कर्मों का उदय अप्रकट है तथा जिन्हें एक मुहूर्त के बाद ही केवलज्ञान उत्पन्न होने वाला है वे निर्ग्रन्थ होते हैं । जिनके घातियाकर्म नष्ट हो गये हैं वे अर्हंत् स्नातक कहलाते हैं । हरिवंशपुराण 64.58-64