असही: Difference between revisions
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[[भगवती आराधना]] / [[विजयोदयी टीका]]/ गाथा संख्या १५०/३४५/११ जिनायतनं यतिनिवासं वा प्रविशन् प्रदक्षिणीकुर्यान्निसीधिकाशब्दप्रयोगं च। निर्गंतुकाम आसीधिकेति। आदिशब्देन परिगृहीतस्थानभोजनशयनगमनादिक्रिया।<br>= जिनमन्दिर अथवा यतिका निवास अर्थात् मठमें प्रवेश कर प्रदक्षिणा करें। उस समय निसिधिका शब्दका उच्चारण करें, और वहांसे लोटते समय आसीधिका शब्दका उच्चारण करें। इसी तरह स्थान, भोजन, शयन, गमनादि क्रिया करते समय भी मुनियोंको प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए।< | [[भगवती आराधना]] / [[विजयोदयी टीका]]/ गाथा संख्या १५०/३४५/११ जिनायतनं यतिनिवासं वा प्रविशन् प्रदक्षिणीकुर्यान्निसीधिकाशब्दप्रयोगं च। निर्गंतुकाम आसीधिकेति। आदिशब्देन परिगृहीतस्थानभोजनशयनगमनादिक्रिया।<br> | ||
<p class="HindiSentence">= जिनमन्दिर अथवा यतिका निवास अर्थात् मठमें प्रवेश कर प्रदक्षिणा करें। उस समय निसिधिका शब्दका उच्चारण करें, और वहांसे लोटते समय आसीधिका शब्दका उच्चारण करें। इसी तरह स्थान, भोजन, शयन, गमनादि क्रिया करते समय भी मुनियोंको प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए।</p> | |||
[[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या ८/१३२-१३३ वसत्यादौ विशेत् ततस्थं भूतादिं निसहीगीरा। आपृच्छ्य तस्मान्नर्गच्चेत्तंचापृच्छ्यासहीगिरा ।।१३२।। आत्मान्यात्मासितो येन त्यक्ता वाशास्य भावातः। नीसह्यसह्यौ स्तोऽन्यस्य तदुच्चारणमात्रकम् ।।१३३।।<br> | |||
<p class="HindiSentence">= साधुओंको जब मठ चैत्यालय या वसति आदिमें प्रवेश करना हो तब उन मठादिकोंमें रहनेवाले भूत यक्ष नाग आदिकोंसे `निसही' इस शब्दको बोलकर पूछकर प्रवेश करना चाहिए। इसी तरह जब वहाँ से निकलना हो तब `असही' इसी शब्दके द्वारा उनसे पूछकर निकलना चाहिए ।।१३२।। निसही और असही शब्दका निश्चयनयकी अपेक्षा अर्थ बताते हैं। जिस साधुने अपनी आत्माको अपनी आत्मामें ही स्थापित कर रखा है उसके निश्चयनयसे `निसही' समझना चाहिए। और जिसने इस लोक परलोक आदि सम्पूर्ण विषयोंकी आशाका परित्याग कर दिया है उसके निश्चय नयसे `असही' समझना चाहिए। किन्तु उसके प्रतिकूल जो बहिरात्मा हैं अथवा आशावान हैं उसके ये निसही और असही केवल शब्दोच्चारणमात्र ही समझना चाहिए।</p> | |||
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Revision as of 04:17, 8 May 2009
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या १५०/३४५/११ जिनायतनं यतिनिवासं वा प्रविशन् प्रदक्षिणीकुर्यान्निसीधिकाशब्दप्रयोगं च। निर्गंतुकाम आसीधिकेति। आदिशब्देन परिगृहीतस्थानभोजनशयनगमनादिक्रिया।
= जिनमन्दिर अथवा यतिका निवास अर्थात् मठमें प्रवेश कर प्रदक्षिणा करें। उस समय निसिधिका शब्दका उच्चारण करें, और वहांसे लोटते समय आसीधिका शब्दका उच्चारण करें। इसी तरह स्थान, भोजन, शयन, गमनादि क्रिया करते समय भी मुनियोंको प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए।
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ८/१३२-१३३ वसत्यादौ विशेत् ततस्थं भूतादिं निसहीगीरा। आपृच्छ्य तस्मान्नर्गच्चेत्तंचापृच्छ्यासहीगिरा ।।१३२।। आत्मान्यात्मासितो येन त्यक्ता वाशास्य भावातः। नीसह्यसह्यौ स्तोऽन्यस्य तदुच्चारणमात्रकम् ।।१३३।।
= साधुओंको जब मठ चैत्यालय या वसति आदिमें प्रवेश करना हो तब उन मठादिकोंमें रहनेवाले भूत यक्ष नाग आदिकोंसे `निसही' इस शब्दको बोलकर पूछकर प्रवेश करना चाहिए। इसी तरह जब वहाँ से निकलना हो तब `असही' इसी शब्दके द्वारा उनसे पूछकर निकलना चाहिए ।।१३२।। निसही और असही शब्दका निश्चयनयकी अपेक्षा अर्थ बताते हैं। जिस साधुने अपनी आत्माको अपनी आत्मामें ही स्थापित कर रखा है उसके निश्चयनयसे `निसही' समझना चाहिए। और जिसने इस लोक परलोक आदि सम्पूर्ण विषयोंकी आशाका परित्याग कर दिया है उसके निश्चय नयसे `असही' समझना चाहिए। किन्तु उसके प्रतिकूल जो बहिरात्मा हैं अथवा आशावान हैं उसके ये निसही और असही केवल शब्दोच्चारणमात्र ही समझना चाहिए।