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| [[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ७/३२/३७०/२ यावताऽर्थेनोपभोगपरिभोगौ सोऽर्थस्ततोऽन्यस्याधिक्यमानर्थक्यम्।<br>= उपयोग परिभोगके लिए जितनी वस्तुकी आवश्यकता है सो अर्थ है उससे अतिरिक्त अधिक वस्तु रखना उपभोग परिभोगानर्थक्य है।<br>[[Category:आ]] <br>[[Category:सर्वार्थसिद्धि]] <br>आनुपूर्वी - १. आनुपूर्वीके भेद <br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,१/७३/१ पुव्वाणुपुव्वी पच्छाणुपुव्वी जत्थतत्थ णुपुव्वी चेदि तिविहा आणुपुव्वी। <br>= पूर्वानुपूर्वी, पश्चातानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वी इस प्रकार आनुपूर्वीके तीन भेद है।<br>([[धवला]] पुस्तक संख्या ९/४,१,४५/१३५/१) ([[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१,१/$२२/२८/१) (म.प्र.२/०४)<br>२. पूर्वानुपूर्वी आदिके लक्षण<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,१/७३/१ जं मूलादो परिवाडीए उच्चदे सा पुव्वाणुपुव्वी। तिस्से उदाहरणं-उसहमजियं च वन्दे इच्चेवमादि। जं उवरीदो हेट्टा परिवाडीए उच्चदि सा पच्छाणुपुव्वी। तिस्से उदाहरणं - एस करेमि य पणमं जिणवरसहस्स वड्ढमाणस्स। सेसाणं च जिणाणं सिव-सुह-कंखा विलोमेण ।।६५।। इदि। जमणुलोभ-विलोमेहि विणा जहा तहा उच्चदि सा जत्थतत्थाणुपुव्वी। तिस्से उदाहरणं-गय-गवल-सजल-जलहर-परहुव-सिहि -गलय-भमर-संकासो। हरिउल-वंसपईवो सिव-माउव-वच्छओ-जयऊ ।।६६।। इच्चेवमादिं।<br>= जो वस्तुका विवेचन मूलके परिपाटो-द्वारा किया जाता है उसे पूर्वानुपूर्वी कहते हैं। उसका उदाहरण इस प्रकार है, ऋषभनाथकी वन्दना करता हूँ, अजितनाथकी वन्दना करता हूँ इत्यादि। क्रमसे ऋषभनाथको आदि लेकर महावीर स्वामी पर्यन्त क्रमवार वन्दना करना सो पूर्वानुपूर्वी उपक्रम है। जो वस्तुका विवेचन ऊपरसे अर्थात् अन्तसे लेकर आदि तक परिपाटी क्रमसे (प्रतिलोम पद्धतिसे) किया जाता है। उसे पश्चातानुपूर्वी उपक्रम कहते हैं। जैसे-मोक्ष सुखकी अभिलाषासे यह मैं जिनवरोमें श्रेष्ठ ऐसे महावीर स्वामीको नमस्कार करता हूँ। और विलोम क्रमसे अर्थात् वर्द्धमानके बाद पार्श्वनाथको, पार्श्वानाथके बाद नेमिनाथको इत्यादि क्रमसे शेष जिनेन्द्रोंकी भी नमस्कार करता हूँ ।।६५।। जो कथन अनुलोम और प्रतिलोम क्रमके बिना जहाँ कहीं से भी किया जाता है उसे यथातथानुपूर्वी कहते हैं। जैसे - हाथी, अरण्य, भैंसा, जलपरिपूर्ण और सघनमेघ, कोयल, मयूरका कण्ठ और भ्रमरके समान वर्णवाले हरिवंशके प्रदीप और शिवादेवी माताके लाल ऐसे नेमिनाथ भगवान् जयवन्त हों। इत्यादि।<br>[[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१,१/$२२/२८/२ जं जेण कमेण सुत्तकारेहि ठइदमुप्पण्णं वा तस्स तेण कमेण गणणा पुव्वाणुपुव्वी णाम। तस्स विलोमेण गणणा पच्छाणुपुव्वी। जत्थ व तत्थ वा अप्पणा इच्छइदमादिं कादूण गणणा जत्थतत्थाणुपुव्वी होदि।<br>= जो पदार्थ जिस क्रमसे सूत्रकारके द्वारा स्थापित किया गया हो, अथवा, जो पदार्थ जिस क्रमसे उत्पन्न हुआ हो उसकी उसी क्रमसे गणना करना पूर्वानुपूर्वी है। उस पदार्थकी विलोम क्रमसे अर्थात् अन्तसे लेकर आदि तक गणना करना पश्चातानुपूर्वी है। और जहाँ कहीँसे अपने इच्छित पदार्थका आदि करके गणना यत्रतत्रानुपूर्वी है।<br>([[धवला]] पुस्तक संख्या ९/४,१,४५/१३५/१)<br>[[Category:आ]] <br>[[Category:धवला]] <br>[[Category:कषायपाहुड़]] <br> | | [[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ७/३२/३७०/२ यावताऽर्थेनोपभोगपरिभोगौ सोऽर्थस्ततोऽन्यस्याधिक्यमानर्थक्यम्। |
| | = उपयोग परिभोगके लिए जितनी वस्तुकी आवश्यकता है सो अर्थ है उससे अतिरिक्त अधिक वस्तु रखना उपभोग परिभोगानर्थक्य है। |
Revision as of 08:17, 8 May 2009
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ७/३२/३७०/२ यावताऽर्थेनोपभोगपरिभोगौ सोऽर्थस्ततोऽन्यस्याधिक्यमानर्थक्यम्।
= उपयोग परिभोगके लिए जितनी वस्तुकी आवश्यकता है सो अर्थ है उससे अतिरिक्त अधिक वस्तु रखना उपभोग परिभोगानर्थक्य है।