अध्यवसान: Difference between revisions
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<p class="HindiText">= `मैं इन स्त्री आदि सर्व विषयों का स्वामी हूँ' ऐसी क्रिया `अहं क्रिया' है। इसके द्वारा प्रसक्त, संलग्न या प्रवृत्त मिथ्या है, असत्य है, अध्यवसाय है, अभिनिवेश है।</p> | <p class="HindiText">= `मैं इन स्त्री आदि सर्व विषयों का स्वामी हूँ' ऐसी क्रिया `अहं क्रिया' है। इसके द्वारा प्रसक्त, संलग्न या प्रवृत्त मिथ्या है, असत्य है, अध्यवसाय है, अभिनिवेश है।</p> | ||
<p>1. अध्यवसान के भेद</p> | <p>1. अध्यवसान के भेद</p> | ||
<p> समयसार / आत्मख्याति गाथा 217/298 इह खल्वध्यवसानोदयाः कतरेऽपि संसारविषयाः, कतरेऽपि शरीरविषयाः। तत्र यतरे संसार विषया ततरे | <p> समयसार / आत्मख्याति गाथा 217/298 इह खल्वध्यवसानोदयाः कतरेऽपि संसारविषयाः, कतरेऽपि शरीरविषयाः। तत्र यतरे संसार विषया ततरे बंधनिमित्ताः। यतरे शरीरविषयास्ततरे तूपभोगनिमित्ताः। यतरे बंधनिमित्तास्ततरे रागद्वेषमोहाद्याः यतरे उपभोगनिमित्तास्ततरे सुखदुःखाद्याः।</p> | ||
<p class="SanskritText">समयसार / आत्मख्याति गाथा 270/348 एतानि किल यानि त्रिविधा (अज्ञानादर्शनाचारित्रसंज्ञकानि) अध्यवसानानि समस्तान्यपि तानि | <p class="SanskritText">समयसार / आत्मख्याति गाथा 270/348 एतानि किल यानि त्रिविधा (अज्ञानादर्शनाचारित्रसंज्ञकानि) अध्यवसानानि समस्तान्यपि तानि शुभाशुभकर्मबंधनिमित्तानि, स्वयमज्ञानादिरूपत्वात्।</p> | ||
<p class="HindiText">= इस लोकमें निश्चय से अध्यवसान के उदय कितने ही तो संसार के विषय हैं और कितने ही शरीर के विषय हैं। उनमें-से जितने संसार के विषय हैं उतने तो | <p class="HindiText">= इस लोकमें निश्चय से अध्यवसान के उदय कितने ही तो संसार के विषय हैं और कितने ही शरीर के विषय हैं। उनमें-से जितने संसार के विषय हैं उतने तो बंध के निमित्त हैं और जितने शरीर के विषय हैं उतने उपभोग के निमित्त हैं। वहाँ जितने बंध के निमित्त हैं उतने तो राग द्वेष मोहादिक हैं और जितने उपभोग के निमित्त हैं उतने सुखदुःखादिक हैं। ये पूर्वोक्त अध्यवसान तीन प्रकार के हैं - अज्ञान, अदर्शन और अचारित्र। ये सभी शुभ अशुभ कर्म बंध के निमित्त हैं; क्योंकि ये स्वयं अज्ञानादि रूप हैं।</p> | ||
<p>2. अध्यवसान विशेष के लक्षण</p> | <p>2. अध्यवसान विशेष के लक्षण</p> | ||
<p class="SanskritText">समयसार / आत्मख्याति गाथा 270/348 एतानि किल यानि त्रिविधान्यध्यवसानाभिसमस्तान्यपि तानि | <p class="SanskritText">समयसार / आत्मख्याति गाथा 270/348 एतानि किल यानि त्रिविधान्यध्यवसानाभिसमस्तान्यपि तानि शुभाशुभकर्मबंधनिमित्तानि, स्वयमज्ञानादिरूपत्वात्। तथाहि, यदिदं हिनस्मीत्याद्यध्यवसानं तदज्ञानमयत्वेन आत्मनः सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियस्य रागद्वेषविपाकमयीनां हननादिक्रियाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम्। यत्पुनरेष धर्मो ज्ञायत इत्याद्यध्यवसान तदपि ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञानैकरूपस्य ज्ञेयमयानां धर्मादिरूपाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम्। ततो बंधनिमित्तांयेवैतानि समस्तान्यध्वसानानि। </p> | ||
<p class="HindiText">= ये पूर्वोक्त अध्यवसान तीन प्रकार के हैं - अज्ञान, अदर्शन और अचारित्र। यह सभी शुभअशुभ कर्म | <p class="HindiText">= ये पूर्वोक्त अध्यवसान तीन प्रकार के हैं - अज्ञान, अदर्शन और अचारित्र। यह सभी शुभअशुभ कर्म बंधके निमित्त हैं; क्योंकि ये स्वयं अज्ञानादि रूप हैं। किस तरह हैं सो कहते हैं - जो यह `मैं जीवको मारता हूँ' इत्यादि अध्यवसान है, वह अज्ञानादि रूप है, क्योंकि आत्मा तो ज्ञायक है, इस ज्ञायकपनसे ज्ञप्ति क्रिया मात्र ही (होने योग्य) है (हनन क्रिया नहीं) इसलिए सद्रूप द्रव्य दृष्टिसे किसीसे उत्पन्न नहीं, ऐसा नित्य रूप जानने मात्र ही क्रियावाला है। हनना, घातना आदि क्रियाएँ हैं वे रागद्वेष के उदय से हैं। इस प्रकार आत्मा और घातने आदि क्रियाके भेदको न जानने से आत्माको भिन्न नहीं जाना, इसलिए `मैं पर जीवका घात करता हूँ' ऐसा अध्यवसान मिथ्याज्ञान है। इसी प्रकार भिन्नात्माका श्रद्धान न होने से मिथ्यादर्शन है। इसी प्रकार भिन्नात्मा के अनाचरण से मिथ्याचारित्र है। `यह धर्म द्रव्य मुझसे जाना जाता है' ऐसा अध्यवसान भी अज्ञानादि रूप ही है। आत्मा तो ज्ञानमय होनेसे ज्ञानमात्र ही है, क्योंकि सद्रूप द्रव्य दृष्टिसे अहेतुक ज्ञानमात्र ही एक रूप वाला है। धर्मादिक तो ज्ञेयमय हैं। ऐसा ज्ञान ज्ञेय का विशेष न जानने से भिन्नात्मा के अज्ञानसे `मैं धर्म द्रव्य को जानता हूँ' ऐसा भी अज्ञान रूप अध्यवसान है। भिन्नात्मा के न देखने से श्रद्धान न होने से यह अध्यवसान मिथ्यादर्शन है और भिन्नात्मा के अनाचरण से यह अध्यवसान अचारित्र है। इसलिए ये सभी अध्यवसान बंधके निमित्त हैं।</p> | ||
<p class="SanskritText">समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 270/348 शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपं निश्चयरत्नत्रयलक्षणं भेदविज्ञानं यदा न भवति तदाहं जीवान् हिनस्मीत्यादि हिंसाध्यवसानं नारकोऽहमित्यादि कर्मोदयाध्यवसानं, धर्मास्तिकायोऽयमित्यादि ज्ञेयपदार्थाध्यवसानं च निर्विकल्पशुद्धात्मनः सकाशाद्भिन्नं न जानातीति। </p> | <p class="SanskritText">समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 270/348 शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपं निश्चयरत्नत्रयलक्षणं भेदविज्ञानं यदा न भवति तदाहं जीवान् हिनस्मीत्यादि हिंसाध्यवसानं नारकोऽहमित्यादि कर्मोदयाध्यवसानं, धर्मास्तिकायोऽयमित्यादि ज्ञेयपदार्थाध्यवसानं च निर्विकल्पशुद्धात्मनः सकाशाद्भिन्नं न जानातीति। </p> | ||
<p class="HindiText">= शुद्धात्मा का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व अनुचरणरूप निश्चयरत्नत्रय लक्षणवाला भेदज्ञान जब नहीं होता तब `मैं जीवों का हनन करता हूँ' इत्यादि हिंसा आदि रूप अध्यवसान होता है। `मैं नारकी हूँ' इत्यादि कर्मोदयरूप अध्यवसान होता है। `यह धर्मास्तिकाय है' इत्यादि ज्ञेय पदार्थ अध्यवसान होता है। निर्विकल्प शुद्धात्म को इन सबसे भिन्न नहीं जानता है।</p> | <p class="HindiText">= शुद्धात्मा का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व अनुचरणरूप निश्चयरत्नत्रय लक्षणवाला भेदज्ञान जब नहीं होता तब `मैं जीवों का हनन करता हूँ' इत्यादि हिंसा आदि रूप अध्यवसान होता है। `मैं नारकी हूँ' इत्यादि कर्मोदयरूप अध्यवसान होता है। `यह धर्मास्तिकाय है' इत्यादि ज्ञेय पदार्थ अध्यवसान होता है। निर्विकल्प शुद्धात्म को इन सबसे भिन्न नहीं जानता है।</p> | ||
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<p> समयसार / मूल या टीका गाथा 266/343 दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि। जा एसा मूढमई णिरत्थया साहु दे मिच्छा ॥266॥</p> | <p> समयसार / मूल या टीका गाथा 266/343 दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि। जा एसा मूढमई णिरत्थया साहु दे मिच्छा ॥266॥</p> | ||
<p> समयसार / आत्मख्याति गाथा 266/343 यदेतदध्यवसानं तत्सर्वमपि परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थ क्रियाकारित्वाभावात् खकुसुमं लुनामीत्यध्यवसानवन्मिथ्यारूपं केवलमात्मनोऽनर्थायैव।</p> | <p> समयसार / आत्मख्याति गाथा 266/343 यदेतदध्यवसानं तत्सर्वमपि परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थ क्रियाकारित्वाभावात् खकुसुमं लुनामीत्यध्यवसानवन्मिथ्यारूपं केवलमात्मनोऽनर्थायैव।</p> | ||
<p class="SanskritText">समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 266/343 सुखितदुःखितान् जीवान् करोमि, | <p class="SanskritText">समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 266/343 सुखितदुःखितान् जीवान् करोमि, बंधयामि, तथा विमोचयामि या एषा तव मतिः सा निरर्थिका निष्प्रयोजना स्फुटम्। अहो ततः कारणात् मिथ्या वितथा व्यलीका भवति।</p> | ||
<p class="HindiText">= भाई! तेरी जो ऐसी मूढ़बुद्धि है कि मैं जीवों को दुःखी-सुखी करता हूँ, बँधाता हूँ और छुड़ाता हूँ, वह मोहस्वरूप बुद्धि निरर्थक है सत्यार्थ नहीं है, इसलिए निश्चय से मिथ्या है। जो यह अध्यवसान है वह सभी मिथ्या है, क्योंकि परभाव का परमें व्यापार न होनेसे स्वार्थ-क्रियाकारीपन नहीं है। परभाव परमें प्रवेश नहीं करता। जैसे कोई ऐसा अध्यवसान करे कि `मैं आकाश-पुष्प को तोड़ता हूँ' इसी प्रकार के अध्यवसानवत् (वे सब उपर्युक्त भाव भी) मिथ्यारूप हैं, मात्र अपने अनर्थ के लिए ही हैं, परका कुछ भी करनेवाले नहीं हैं। मैं जीवों को सुखी व दुःखी करता हूँ, बँधाता व छुड़ाता हूँ, ऐसी जो तेरी बुद्धि है वह स्पष्टरूप से निरर्थक व निष्प्रयोजन हैं। क्योंकि अन्य को दुःखी-सुखी करने का अन्य का कार्य नहीं है। इसी कारण यह अध्यवसान मिथ्या है, वितथ है, व्यलीक है।</p> | <p class="HindiText">= भाई! तेरी जो ऐसी मूढ़बुद्धि है कि मैं जीवों को दुःखी-सुखी करता हूँ, बँधाता हूँ और छुड़ाता हूँ, वह मोहस्वरूप बुद्धि निरर्थक है सत्यार्थ नहीं है, इसलिए निश्चय से मिथ्या है। जो यह अध्यवसान है वह सभी मिथ्या है, क्योंकि परभाव का परमें व्यापार न होनेसे स्वार्थ-क्रियाकारीपन नहीं है। परभाव परमें प्रवेश नहीं करता। जैसे कोई ऐसा अध्यवसान करे कि `मैं आकाश-पुष्प को तोड़ता हूँ' इसी प्रकार के अध्यवसानवत् (वे सब उपर्युक्त भाव भी) मिथ्यारूप हैं, मात्र अपने अनर्थ के लिए ही हैं, परका कुछ भी करनेवाले नहीं हैं। मैं जीवों को सुखी व दुःखी करता हूँ, बँधाता व छुड़ाता हूँ, ऐसी जो तेरी बुद्धि है वह स्पष्टरूप से निरर्थक व निष्प्रयोजन हैं। क्योंकि अन्य को दुःखी-सुखी करने का अन्य का कार्य नहीं है। इसी कारण यह अध्यवसान मिथ्या है, वितथ है, व्यलीक है।</p> | ||
Revision as of 16:16, 19 August 2020
समयसार / आत्मख्याति गाथा /271/350 बुद्धी ववसाओ वि य अज्झवसाणं मई व विण्णाणं। एक्कट्ठमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो ॥271॥ स्वपरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवसितमात्रमध्यवसानम्। तदेव च बोधनमात्रत्वादबुद्धिः। व्यवसानमात्रत्वाद् व्यवसायः। मननमात्रत्वान्मतिः। विज्ञप्तिमात्रत्वाद्विज्ञानम्। चेतनमात्रत्वाच्चित्तम्। चित्तो भवनमात्रत्वाद् भावः। चित्तः परिणमनमात्रत्वाद् परिणामः।
= बुद्धि, व्यवसाय, अध्यवसान, मति, विज्ञान, चित्त, भाव और परिणाम ये सब एकार्थ ही हैं ॥271॥ स्व और परका ज्ञान न होनेसे जो जीवकी निश्चिति होना यह अध्यवसान है। वही बोधन मात्रपनसे बुद्धि है, निश्चयमात्रपनसे व्यवसाय है, जानन मात्रपनसे मति है, विज्ञप्तिमात्रपनसे विज्ञान है, चेतन मात्रपनसे चित्त है, चेतनके भवन मात्रपनसे भाव है और परिणमन मात्रपनसे परिणाम है। अतः सब शब्द एकार्थवाची हैं।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 95/152 विकल्पः यदा ज्ञेयतत्त्वविचारकाले करोति जीवः तदा शुद्धात्मस्वरूपं विस्मरति तस्मिन्विकल्पे कृते सति धर्मोऽहमिति विकल्प उपचारेण घटत इति भावार्थः।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 270/348 भेदविज्ञानं यदा न भवति तदाहं जीवान् हिनस्मीत्यादि हिंसाध्यवसानं नारकोऽहमित्यादि कर्मोदय अध्यवसानं, धर्मास्तिकायोऽहमित्यादि ज्ञेयपदार्थाध्यवसानं च निर्विकल्प शुद्धात्मानः सकाशाद्भिन्नं न जानातीति।
= ज्ञेय पदार्थ का विचार करते समय जब जीव विकल्प करता है तब शुद्धात्म स्वरूप को भूल जाता है। उस विकल्प के होनेपर `मैं धर्मास्तिकाय द्रव्य हूँ' ऐसा विकल्प उपचार से घटता है - यह भावार्थ है। भेद विज्ञान जब नहीं होता तब `मैं जीवों को मारता हूँ' इस प्रकार का हिंसाध्यवसान होता है। `मैं नारकी हूँ' इस प्रकार का कर्मोदय अध्यवसान होता है। `मैं धर्मास्तिकाय हूँ' इस प्रकार का ज्ञेयपदार्थ अध्यवसान होता है।
स्वयंभू स्त्रोत्र / श्लोक 7/26 अहमस्य सर्वस्य स्त्र्यादिविषयस्य स्वामीति क्रिया `अहंक्रिया'। ताभिः प्रसक्तः संलग्नः प्रवृत्तो वा मिथ्या, असत्यो, अध्यवसायो, अभिनिवेशः।
= `मैं इन स्त्री आदि सर्व विषयों का स्वामी हूँ' ऐसी क्रिया `अहं क्रिया' है। इसके द्वारा प्रसक्त, संलग्न या प्रवृत्त मिथ्या है, असत्य है, अध्यवसाय है, अभिनिवेश है।
1. अध्यवसान के भेद
समयसार / आत्मख्याति गाथा 217/298 इह खल्वध्यवसानोदयाः कतरेऽपि संसारविषयाः, कतरेऽपि शरीरविषयाः। तत्र यतरे संसार विषया ततरे बंधनिमित्ताः। यतरे शरीरविषयास्ततरे तूपभोगनिमित्ताः। यतरे बंधनिमित्तास्ततरे रागद्वेषमोहाद्याः यतरे उपभोगनिमित्तास्ततरे सुखदुःखाद्याः।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 270/348 एतानि किल यानि त्रिविधा (अज्ञानादर्शनाचारित्रसंज्ञकानि) अध्यवसानानि समस्तान्यपि तानि शुभाशुभकर्मबंधनिमित्तानि, स्वयमज्ञानादिरूपत्वात्।
= इस लोकमें निश्चय से अध्यवसान के उदय कितने ही तो संसार के विषय हैं और कितने ही शरीर के विषय हैं। उनमें-से जितने संसार के विषय हैं उतने तो बंध के निमित्त हैं और जितने शरीर के विषय हैं उतने उपभोग के निमित्त हैं। वहाँ जितने बंध के निमित्त हैं उतने तो राग द्वेष मोहादिक हैं और जितने उपभोग के निमित्त हैं उतने सुखदुःखादिक हैं। ये पूर्वोक्त अध्यवसान तीन प्रकार के हैं - अज्ञान, अदर्शन और अचारित्र। ये सभी शुभ अशुभ कर्म बंध के निमित्त हैं; क्योंकि ये स्वयं अज्ञानादि रूप हैं।
2. अध्यवसान विशेष के लक्षण
समयसार / आत्मख्याति गाथा 270/348 एतानि किल यानि त्रिविधान्यध्यवसानाभिसमस्तान्यपि तानि शुभाशुभकर्मबंधनिमित्तानि, स्वयमज्ञानादिरूपत्वात्। तथाहि, यदिदं हिनस्मीत्याद्यध्यवसानं तदज्ञानमयत्वेन आत्मनः सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियस्य रागद्वेषविपाकमयीनां हननादिक्रियाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम्। यत्पुनरेष धर्मो ज्ञायत इत्याद्यध्यवसान तदपि ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञानैकरूपस्य ज्ञेयमयानां धर्मादिरूपाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम्। ततो बंधनिमित्तांयेवैतानि समस्तान्यध्वसानानि।
= ये पूर्वोक्त अध्यवसान तीन प्रकार के हैं - अज्ञान, अदर्शन और अचारित्र। यह सभी शुभअशुभ कर्म बंधके निमित्त हैं; क्योंकि ये स्वयं अज्ञानादि रूप हैं। किस तरह हैं सो कहते हैं - जो यह `मैं जीवको मारता हूँ' इत्यादि अध्यवसान है, वह अज्ञानादि रूप है, क्योंकि आत्मा तो ज्ञायक है, इस ज्ञायकपनसे ज्ञप्ति क्रिया मात्र ही (होने योग्य) है (हनन क्रिया नहीं) इसलिए सद्रूप द्रव्य दृष्टिसे किसीसे उत्पन्न नहीं, ऐसा नित्य रूप जानने मात्र ही क्रियावाला है। हनना, घातना आदि क्रियाएँ हैं वे रागद्वेष के उदय से हैं। इस प्रकार आत्मा और घातने आदि क्रियाके भेदको न जानने से आत्माको भिन्न नहीं जाना, इसलिए `मैं पर जीवका घात करता हूँ' ऐसा अध्यवसान मिथ्याज्ञान है। इसी प्रकार भिन्नात्माका श्रद्धान न होने से मिथ्यादर्शन है। इसी प्रकार भिन्नात्मा के अनाचरण से मिथ्याचारित्र है। `यह धर्म द्रव्य मुझसे जाना जाता है' ऐसा अध्यवसान भी अज्ञानादि रूप ही है। आत्मा तो ज्ञानमय होनेसे ज्ञानमात्र ही है, क्योंकि सद्रूप द्रव्य दृष्टिसे अहेतुक ज्ञानमात्र ही एक रूप वाला है। धर्मादिक तो ज्ञेयमय हैं। ऐसा ज्ञान ज्ञेय का विशेष न जानने से भिन्नात्मा के अज्ञानसे `मैं धर्म द्रव्य को जानता हूँ' ऐसा भी अज्ञान रूप अध्यवसान है। भिन्नात्मा के न देखने से श्रद्धान न होने से यह अध्यवसान मिथ्यादर्शन है और भिन्नात्मा के अनाचरण से यह अध्यवसान अचारित्र है। इसलिए ये सभी अध्यवसान बंधके निमित्त हैं।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 270/348 शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपं निश्चयरत्नत्रयलक्षणं भेदविज्ञानं यदा न भवति तदाहं जीवान् हिनस्मीत्यादि हिंसाध्यवसानं नारकोऽहमित्यादि कर्मोदयाध्यवसानं, धर्मास्तिकायोऽयमित्यादि ज्ञेयपदार्थाध्यवसानं च निर्विकल्पशुद्धात्मनः सकाशाद्भिन्नं न जानातीति।
= शुद्धात्मा का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व अनुचरणरूप निश्चयरत्नत्रय लक्षणवाला भेदज्ञान जब नहीं होता तब `मैं जीवों का हनन करता हूँ' इत्यादि हिंसा आदि रूप अध्यवसान होता है। `मैं नारकी हूँ' इत्यादि कर्मोदयरूप अध्यवसान होता है। `यह धर्मास्तिकाय है' इत्यादि ज्ञेय पदार्थ अध्यवसान होता है। निर्विकल्प शुद्धात्म को इन सबसे भिन्न नहीं जानता है।
3. अध्यवसान भावों की अनर्थ कार्यकारिता
समयसार / मूल या टीका गाथा 266/343 दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि। जा एसा मूढमई णिरत्थया साहु दे मिच्छा ॥266॥
समयसार / आत्मख्याति गाथा 266/343 यदेतदध्यवसानं तत्सर्वमपि परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थ क्रियाकारित्वाभावात् खकुसुमं लुनामीत्यध्यवसानवन्मिथ्यारूपं केवलमात्मनोऽनर्थायैव।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 266/343 सुखितदुःखितान् जीवान् करोमि, बंधयामि, तथा विमोचयामि या एषा तव मतिः सा निरर्थिका निष्प्रयोजना स्फुटम्। अहो ततः कारणात् मिथ्या वितथा व्यलीका भवति।
= भाई! तेरी जो ऐसी मूढ़बुद्धि है कि मैं जीवों को दुःखी-सुखी करता हूँ, बँधाता हूँ और छुड़ाता हूँ, वह मोहस्वरूप बुद्धि निरर्थक है सत्यार्थ नहीं है, इसलिए निश्चय से मिथ्या है। जो यह अध्यवसान है वह सभी मिथ्या है, क्योंकि परभाव का परमें व्यापार न होनेसे स्वार्थ-क्रियाकारीपन नहीं है। परभाव परमें प्रवेश नहीं करता। जैसे कोई ऐसा अध्यवसान करे कि `मैं आकाश-पुष्प को तोड़ता हूँ' इसी प्रकार के अध्यवसानवत् (वे सब उपर्युक्त भाव भी) मिथ्यारूप हैं, मात्र अपने अनर्थ के लिए ही हैं, परका कुछ भी करनेवाले नहीं हैं। मैं जीवों को सुखी व दुःखी करता हूँ, बँधाता व छुड़ाता हूँ, ऐसी जो तेरी बुद्धि है वह स्पष्टरूप से निरर्थक व निष्प्रयोजन हैं। क्योंकि अन्य को दुःखी-सुखी करने का अन्य का कार्य नहीं है। इसी कारण यह अध्यवसान मिथ्या है, वितथ है, व्यलीक है।