अभिनन्दन: Difference between revisions
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| <p id="1">(1) अवसर्पिणी काल के चौथे दु:षमा-सुषमा काल मे उत्पन्न हुए चौथे तीर्थंकर एवं शलाका पुरुष । <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> 2.128, 134, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1.6, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-105 </span>तीसरे पूर्वभव में ये जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित मंगलावती देश में रत्नसंचय नगर के नृप थे, महाबल इनका नाम था । विमलवाहन गुरु से संयमी होकर इन्होंने सोलह भावनाओं का चिन्तन किया जिससे इन्हें तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हुआ । अन्त में ये समाधिमरण कर विजय नाम के प्रथम अनुत्तर विमान मे अहमिन्द्र हुए । <span class="GRef"> <span class="GRef"> महापुराण </span> 50.2-3, 10-13 </span>पद्<span class="GRef"> महापुराण </span>राण में इनके पूर्वभव का नाम विपुलवाहन, नगरी सुसीमा तथा प्राप्त स्वर्ग का नाम वैजयन्त बताया गया है । <span class="GRef"> पद्मपुराण 20.11, 35 </span>विजय स्वर्ग मे च्युत होकर ये जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित अयोध्या नगरी मे वैशाख मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि तथा सातवें शुभ पुनर्वसु नक्षत्र में सोलह स्वप्न पूर्वक इक्ष्वाकुवंशी, काश्यपगोत्री राजा स्वयंवर की रानी सिद्धार्थ के गर्भ मे आये और तीर्थंकर संभवनाथ के दस लाख करोड़ सागर वर्ष का अन्तराल बीत जाने पर माघ मास के शुक्लपक्ष की द्वादशी के दिन अदिति योग में जन्मे । जन्म से ही ये तीन ज्ञान के धारी थे, पचास लाख पूर्व प्रमाण उनकी आयु थी । शरीर तीन सौ पचास धनुष ऊँचा तथा बाल चन्द्रमा के समान कान्तियुक्त था । साढ़े बारह लाख पूर्व कुमारावस्था का समय निकल जाने पर इन्हें राज्य मिला, तथा राज्य के साढ़े छत्तीस लाख पूर्व काल बीत जाने पर और आयु के आठ पूर्वाद्ध शेष रहने पर मेघों की विनश्वरता देख ये विरक्त हुए । इन्होंने हस्तचित्रा यान से अग्रोद्यान जाकर माघ शुक्ला द्वादशी के दिन अपराह्न वेला में एक हजार प्रसिद्ध राजाओं के साथ जिनदीक्षा धारण की । उसी समय इन्हें मन:पर्ययज्ञान हुआ । इनकी प्रथम पारणा साकेत में इन्द्रदत्त राजा के यहाँ हुई । छद्मस्थ अवस्था में अठारह वर्ष मौन रहने के पश्चात् पौष शुक्ल-चतुर्दशी के दिन सायं बेला में असन वृक्ष के नीचे सातवें (पुनर्वसु) नक्षत्र में ये केवली हुए । तीन लाख मुनि, तीन काल तीस हजार छ: सौ आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएं इनके संघ मे थी । वज्रनाभि आदि एक सौ तीन गणधर थे । ये बारह सभाओं के नायक थे । विहार करते हुए ये सम्मेदगिरि आये और वहाँ प्रतिमायोग पूर्वक इन्होंने वैशाख शुक्ल षष्ठी के दिन प्रात: बेला में पुनर्वसु नक्षत्र में अनेक मुनियों के साथ परमपद (मोक्ष) प्राप्त किया । <span class="GRef"> महापुराण </span> 50.2-69, <span class="GRef"> पद्मपुराण 20.11-119, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 30.151-185,341-349 </span></p> | ||
<p id="2">(2) घातकीखण्ड द्वीप की पूर्व दिशा में स्थित पश्चिम विदेह क्षेत्र में गंधित देश के अयोध्या नगर के राजा जयवर्मा के दीक्षागृरु । <span class="GRef"> महापुराण </span> 7.40 -42</p> | <p id="2">(2) घातकीखण्ड द्वीप की पूर्व दिशा में स्थित पश्चिम विदेह क्षेत्र में गंधित देश के अयोध्या नगर के राजा जयवर्मा के दीक्षागृरु । <span class="GRef"> महापुराण </span> 7.40 -42</p> | ||
<p id="3">(3) चारणऋद्धिधारी योगी (मुनि) इनके साथ जगन्नन्दन नाम के योगी थे । ये दोनों मनोहर वन में आये थे जहाँ ज्वलनजटी ने इनसे सम्यग्दर्शन ग्रहण किया था । <span class="GRef"> पांडवपुराण 4.12-16 </span></p> | <p id="3">(3) चारणऋद्धिधारी योगी (मुनि) इनके साथ जगन्नन्दन नाम के योगी थे । ये दोनों मनोहर वन में आये थे जहाँ ज्वलनजटी ने इनसे सम्यग्दर्शन ग्रहण किया था । <span class="GRef"> पांडवपुराण 4.12-16 </span></p> |
Revision as of 16:17, 19 August 2020
(1) अवसर्पिणी काल के चौथे दु:षमा-सुषमा काल मे उत्पन्न हुए चौथे तीर्थंकर एवं शलाका पुरुष । महापुराण 2.128, 134, हरिवंशपुराण 1.6, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-105 तीसरे पूर्वभव में ये जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित मंगलावती देश में रत्नसंचय नगर के नृप थे, महाबल इनका नाम था । विमलवाहन गुरु से संयमी होकर इन्होंने सोलह भावनाओं का चिन्तन किया जिससे इन्हें तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हुआ । अन्त में ये समाधिमरण कर विजय नाम के प्रथम अनुत्तर विमान मे अहमिन्द्र हुए । महापुराण 50.2-3, 10-13 पद् महापुराण राण में इनके पूर्वभव का नाम विपुलवाहन, नगरी सुसीमा तथा प्राप्त स्वर्ग का नाम वैजयन्त बताया गया है । पद्मपुराण 20.11, 35 विजय स्वर्ग मे च्युत होकर ये जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित अयोध्या नगरी मे वैशाख मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी तिथि तथा सातवें शुभ पुनर्वसु नक्षत्र में सोलह स्वप्न पूर्वक इक्ष्वाकुवंशी, काश्यपगोत्री राजा स्वयंवर की रानी सिद्धार्थ के गर्भ मे आये और तीर्थंकर संभवनाथ के दस लाख करोड़ सागर वर्ष का अन्तराल बीत जाने पर माघ मास के शुक्लपक्ष की द्वादशी के दिन अदिति योग में जन्मे । जन्म से ही ये तीन ज्ञान के धारी थे, पचास लाख पूर्व प्रमाण उनकी आयु थी । शरीर तीन सौ पचास धनुष ऊँचा तथा बाल चन्द्रमा के समान कान्तियुक्त था । साढ़े बारह लाख पूर्व कुमारावस्था का समय निकल जाने पर इन्हें राज्य मिला, तथा राज्य के साढ़े छत्तीस लाख पूर्व काल बीत जाने पर और आयु के आठ पूर्वाद्ध शेष रहने पर मेघों की विनश्वरता देख ये विरक्त हुए । इन्होंने हस्तचित्रा यान से अग्रोद्यान जाकर माघ शुक्ला द्वादशी के दिन अपराह्न वेला में एक हजार प्रसिद्ध राजाओं के साथ जिनदीक्षा धारण की । उसी समय इन्हें मन:पर्ययज्ञान हुआ । इनकी प्रथम पारणा साकेत में इन्द्रदत्त राजा के यहाँ हुई । छद्मस्थ अवस्था में अठारह वर्ष मौन रहने के पश्चात् पौष शुक्ल-चतुर्दशी के दिन सायं बेला में असन वृक्ष के नीचे सातवें (पुनर्वसु) नक्षत्र में ये केवली हुए । तीन लाख मुनि, तीन काल तीस हजार छ: सौ आर्यिकाएँ, तीन लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएं इनके संघ मे थी । वज्रनाभि आदि एक सौ तीन गणधर थे । ये बारह सभाओं के नायक थे । विहार करते हुए ये सम्मेदगिरि आये और वहाँ प्रतिमायोग पूर्वक इन्होंने वैशाख शुक्ल षष्ठी के दिन प्रात: बेला में पुनर्वसु नक्षत्र में अनेक मुनियों के साथ परमपद (मोक्ष) प्राप्त किया । महापुराण 50.2-69, पद्मपुराण 20.11-119, हरिवंशपुराण 30.151-185,341-349
(2) घातकीखण्ड द्वीप की पूर्व दिशा में स्थित पश्चिम विदेह क्षेत्र में गंधित देश के अयोध्या नगर के राजा जयवर्मा के दीक्षागृरु । महापुराण 7.40 -42
(3) चारणऋद्धिधारी योगी (मुनि) इनके साथ जगन्नन्दन नाम के योगी थे । ये दोनों मनोहर वन में आये थे जहाँ ज्वलनजटी ने इनसे सम्यग्दर्शन ग्रहण किया था । पांडवपुराण 4.12-16
(4) अन्धकवृष्णि और सुभद्रा का नवम पुत्र । महापुराण 70.95-96
(5) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.167