अवमौदर्य: Difference between revisions
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<p class="HindiText">= तृप्ति करनेवाला, दर्प उत्पन्न करनेवाला ऐसा जो आहार उसका मन वचन काय रूप तीनों योगोंसे त्याग करना अवमौदर्य है।</p> | <p class="HindiText">= तृप्ति करनेवाला, दर्प उत्पन्न करनेवाला ऐसा जो आहार उसका मन वचन काय रूप तीनों योगोंसे त्याग करना अवमौदर्य है।</p> | ||
<p>2. अवमौदर्य तपके अतिचार</p> | <p>2. अवमौदर्य तपके अतिचार</p> | ||
<p class="SanskritText">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 487/707/5 रसवदाहारमंतरेण परिश्रमो मम नापै ति इति वा। षड्जीवनिकायबाधायां अन्यतमेन योगेन वृत्तिः। प्रचुरनिद्रतया संक्लेशकमनर्थमिदमनुष्ठितं मया, संतापकारीदं नाचरिष्यामि इति संकल्प अवमौदर्यातिचारः। मनसा बहुभोजनादरः। परं बहुभोजयामीति | <p class="SanskritText">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 487/707/5 रसवदाहारमंतरेण परिश्रमो मम नापै ति इति वा। षड्जीवनिकायबाधायां अन्यतमेन योगेन वृत्तिः। प्रचुरनिद्रतया संक्लेशकमनर्थमिदमनुष्ठितं मया, संतापकारीदं नाचरिष्यामि इति संकल्प अवमौदर्यातिचारः। मनसा बहुभोजनादरः। परं बहुभोजयामीति चिंता। भुंक्ष्व यावद्भवतस्तृप्तिरिति वचनं, भुक्तं मया बह्वित्युक्ते सम्यक्कृतमिति वा वचनं, हस्तसंज्ञया प्रदर्शनं कंठदेशमुपस्पृश्य।</p> | ||
<p class="HindiText">= रस युक्त आहारके बिना यह मेरा परिश्रम दूर न होगा, ऐसी | <p class="HindiText">= रस युक्त आहारके बिना यह मेरा परिश्रम दूर न होगा, ऐसी चिंता करना, षट्काय जीवोंको मन वचन कायमें-से किसी भी एक योगसे बाधा देनेमें प्रवृत्त होना। `मेरेको बहुत निद्रा आती है, और यह अवमौदर्य नामक तप मैंने व्यर्थ धारण किया है, यह संक्लेशदायक है, संताप उत्पन्न करनेवाला है, ऐसा यह तप तो मैं फिर कभी भी न करूँगा' ऐसा संकल्प करना-ये अवमौदर्य तपके अतिचार हैं। अथवा बहुत भोजन करनेकी मनमें इच्छा रखना; `दूसरोंको बहुत भोजन करनेमें प्रवृत्त करूँगा', ऐसा विचार रखना; `तुम तृप्ति होने तक भोजन करो' ऐसा कहना; यदि वह `मैंने बहुत भोजन किया है' ऐसा कहे तो `तुमने अच्छा किया' ऐसा बोलना; अपने गलेको हाथसे स्पर्शकर `यहाँ तक तुमने भोजन किया है ना?' ऐसा हस्त चिह्नसे अपना अभिप्राय प्रगट करना-ये सब अवमौदर्य तपके अतिचार हैं।</p> | ||
<p>3. अवमौदर्य तप किसके करने योग्य है</p> | <p>3. अवमौदर्य तप किसके करने योग्य है</p> | ||
<p class="SanskritText">धवला पुस्तक 13/5,4,26/56/12 एसो वि तवो केहि कायव्वो। पित्तप्पकोवेण उववास अक्खमेहि अद्धाहारेण उववासादो अहियपरिस्समेहि सगतवोमाहप्पेण भव्वजीवुवसमणवावदेहिं वा सगकुक्खिकिमिउप्पत्तिणिरोहकंखुएहिं वा अदिमत्ताहारभोयणेण वाहिवेयणाणिमित्तेण सज्झायभंगीभीरुएहिं वा।</p> | <p class="SanskritText">धवला पुस्तक 13/5,4,26/56/12 एसो वि तवो केहि कायव्वो। पित्तप्पकोवेण उववास अक्खमेहि अद्धाहारेण उववासादो अहियपरिस्समेहि सगतवोमाहप्पेण भव्वजीवुवसमणवावदेहिं वा सगकुक्खिकिमिउप्पत्तिणिरोहकंखुएहिं वा अदिमत्ताहारभोयणेण वाहिवेयणाणिमित्तेण सज्झायभंगीभीरुएहिं वा।</p> | ||
<p class="HindiText">= प्रश्न-यह तप किन्हें करना चाहिए? उत्तर-जो पित्तके प्रकोपवश उपवास करनेमें असमर्थ हैं, उन्हें आधे आहारकी अपेक्षा उपवास करनेमें अधिक थकान आती है, जो अपने तपके माहात्म्यसे भव्य जीवोंको | <p class="HindiText">= प्रश्न-यह तप किन्हें करना चाहिए? उत्तर-जो पित्तके प्रकोपवश उपवास करनेमें असमर्थ हैं, उन्हें आधे आहारकी अपेक्षा उपवास करनेमें अधिक थकान आती है, जो अपने तपके माहात्म्यसे भव्य जीवोंको उपशांत करनेमें लगे हैं, जो अपने उदरमें कृमिकी उत्पत्तिका निरोध करना चाहते हैं, और जो व्याधिजन्य वेदनाके निमित्तभूत अतिमात्रामें भोजन कर लेनेसे स्वाध्यायके भंग होनेका भय करते हैं, उन्हें यह अवमौदर्य तप करना चाहिए।</p> | ||
<p>4. अवमौदर्य तपका प्रयोजन</p> | <p>4. अवमौदर्य तपका प्रयोजन</p> | ||
<p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 351 धम्मावासयजोगे णाणादीये उवग्गहं कुणदि। ण य | <p class="SanskritText">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 351 धम्मावासयजोगे णाणादीये उवग्गहं कुणदि। ण य इंदियप्पदोसयरी उमोदरितवोवुत्ती ॥351॥</p> | ||
<p class="HindiText">= क्षमादि धर्मोमें सामायिकादि आवश्यकोंमें, वृक्षमूलादि योगों में तथा स्वाध्याय आदिमें यह अवमौदर्य तपकी वृत्ति उपकार करती है और | <p class="HindiText">= क्षमादि धर्मोमें सामायिकादि आवश्यकोंमें, वृक्षमूलादि योगों में तथा स्वाध्याय आदिमें यह अवमौदर्य तपकी वृत्ति उपकार करती है और इंद्रियोंको स्वेच्छाचारी नहीं होने देती।</p> | ||
<p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/19/438/7 संजमप्रजागरदोषप्रशमसंतोषस्वाध्यायादिसुखसिद्ध्यर्थमवमौदर्यम्।</p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/19/438/7 संजमप्रजागरदोषप्रशमसंतोषस्वाध्यायादिसुखसिद्ध्यर्थमवमौदर्यम्।</p> | ||
<p class="HindiText">= संयमको जागृत रखने, दोषोंके प्रशम करने, | <p class="HindiText">= संयमको जागृत रखने, दोषोंके प्रशम करने, संतोष और स्वाध्यायादिकी सुखपूर्वक सिद्धिके लिए अवमौदर्य तप किया जाता है।</p> | ||
Revision as of 16:18, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
1. अवमौदर्य तपका लक्षण-
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 350 बत्तीसा किरकवला पुरसस्स तु होदि पयदि आहारो। एगकवलादिहिं ततो ऊणियगहणं उमोदरियं ॥350॥
= पुरुषका स्वाभाविक आहार 32 ग्रास है उसमें-से एक ग्रास आदि कम करके लेना अवमौदर्य तप है।
(राजवार्तिक अध्याय 9/19/3/618/21) ( तत्त्वार्थसार अधिकार 7/9) ( अनगार धर्मामृत अधिकार 7/22/672) ( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 78/222/3)।
धवला पुस्तक 13/5,4,26/56/1 अद्धाहारणियमो अवमोदरियतवो। जो जस्स पयडिआहारो तत्तो ऊणाहारविसयअभिग्गहो अवमोदरियमिदि भणिदं होदि।
= आधे आहारका नियम करना अवमौदर्य तप है। जो जिसका प्राकृतिक आहार है उससे न्यून आहार विषयक अभिग्रह (प्रतिज्ञा) करना अवमौदर्य तप है।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 6/32/17 योगत्रयेण तृप्तिकारिण्यां भुजिक्रियायां दर्पवाहिन्यां निराकृतिः अवमौदर्यम्।
= तृप्ति करनेवाला, दर्प उत्पन्न करनेवाला ऐसा जो आहार उसका मन वचन काय रूप तीनों योगोंसे त्याग करना अवमौदर्य है।
2. अवमौदर्य तपके अतिचार
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 487/707/5 रसवदाहारमंतरेण परिश्रमो मम नापै ति इति वा। षड्जीवनिकायबाधायां अन्यतमेन योगेन वृत्तिः। प्रचुरनिद्रतया संक्लेशकमनर्थमिदमनुष्ठितं मया, संतापकारीदं नाचरिष्यामि इति संकल्प अवमौदर्यातिचारः। मनसा बहुभोजनादरः। परं बहुभोजयामीति चिंता। भुंक्ष्व यावद्भवतस्तृप्तिरिति वचनं, भुक्तं मया बह्वित्युक्ते सम्यक्कृतमिति वा वचनं, हस्तसंज्ञया प्रदर्शनं कंठदेशमुपस्पृश्य।
= रस युक्त आहारके बिना यह मेरा परिश्रम दूर न होगा, ऐसी चिंता करना, षट्काय जीवोंको मन वचन कायमें-से किसी भी एक योगसे बाधा देनेमें प्रवृत्त होना। `मेरेको बहुत निद्रा आती है, और यह अवमौदर्य नामक तप मैंने व्यर्थ धारण किया है, यह संक्लेशदायक है, संताप उत्पन्न करनेवाला है, ऐसा यह तप तो मैं फिर कभी भी न करूँगा' ऐसा संकल्प करना-ये अवमौदर्य तपके अतिचार हैं। अथवा बहुत भोजन करनेकी मनमें इच्छा रखना; `दूसरोंको बहुत भोजन करनेमें प्रवृत्त करूँगा', ऐसा विचार रखना; `तुम तृप्ति होने तक भोजन करो' ऐसा कहना; यदि वह `मैंने बहुत भोजन किया है' ऐसा कहे तो `तुमने अच्छा किया' ऐसा बोलना; अपने गलेको हाथसे स्पर्शकर `यहाँ तक तुमने भोजन किया है ना?' ऐसा हस्त चिह्नसे अपना अभिप्राय प्रगट करना-ये सब अवमौदर्य तपके अतिचार हैं।
3. अवमौदर्य तप किसके करने योग्य है
धवला पुस्तक 13/5,4,26/56/12 एसो वि तवो केहि कायव्वो। पित्तप्पकोवेण उववास अक्खमेहि अद्धाहारेण उववासादो अहियपरिस्समेहि सगतवोमाहप्पेण भव्वजीवुवसमणवावदेहिं वा सगकुक्खिकिमिउप्पत्तिणिरोहकंखुएहिं वा अदिमत्ताहारभोयणेण वाहिवेयणाणिमित्तेण सज्झायभंगीभीरुएहिं वा।
= प्रश्न-यह तप किन्हें करना चाहिए? उत्तर-जो पित्तके प्रकोपवश उपवास करनेमें असमर्थ हैं, उन्हें आधे आहारकी अपेक्षा उपवास करनेमें अधिक थकान आती है, जो अपने तपके माहात्म्यसे भव्य जीवोंको उपशांत करनेमें लगे हैं, जो अपने उदरमें कृमिकी उत्पत्तिका निरोध करना चाहते हैं, और जो व्याधिजन्य वेदनाके निमित्तभूत अतिमात्रामें भोजन कर लेनेसे स्वाध्यायके भंग होनेका भय करते हैं, उन्हें यह अवमौदर्य तप करना चाहिए।
4. अवमौदर्य तपका प्रयोजन
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 351 धम्मावासयजोगे णाणादीये उवग्गहं कुणदि। ण य इंदियप्पदोसयरी उमोदरितवोवुत्ती ॥351॥
= क्षमादि धर्मोमें सामायिकादि आवश्यकोंमें, वृक्षमूलादि योगों में तथा स्वाध्याय आदिमें यह अवमौदर्य तपकी वृत्ति उपकार करती है और इंद्रियोंको स्वेच्छाचारी नहीं होने देती।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/19/438/7 संजमप्रजागरदोषप्रशमसंतोषस्वाध्यायादिसुखसिद्ध्यर्थमवमौदर्यम्।
= संयमको जागृत रखने, दोषोंके प्रशम करने, संतोष और स्वाध्यायादिकी सुखपूर्वक सिद्धिके लिए अवमौदर्य तप किया जाता है।
पुराणकोष से
छ: बाह्य तपों में दूसरा बाह्य तप― दोषशमन, स्वाध्याय और ध्यान की सिद्धि के लिए भूख से न्यून आहार करना, अथवा नाम मात्र का आहार लेना । महापुराण 18.60-68, 20.175, पद्मपुराण 14.114-115, हरिवंशपुराण 64.22, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.32-41