आस्रव: Difference between revisions
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जीवके द्वारा प्रतिक्षण मनसे, वचनसे या कायसे जो कुछ भी शुभ या अशुभ प्रवृत्ति होतीहै उसे जीवका भावास्रव कहते हैं। उसके निमित्तसे कोई विशेष प्रकारकी जड़पुद्गल वर्गणाएँ आकर्षित होकर उसके प्रदेशोंमें प्रवेश करती हैं सो द्रव्यास्रव है। सर्व साधारणजनोंको तो कषायवश होनेके कारण यह आस्रव आगामी बन्धका कारण पड़ता है, इसलिए साम्परायिक कहलाता है, परन्तु वीतरागी जनोंको वह इच्छासे निरपेक्ष कर्मवश होती है इसलिए आगामी बन्धका कारण नहीं होता। और आनेके अनन्तर क्षणमें ही झड़ जानेसे ईर्यापथ नाम पाता है। | जीवके द्वारा प्रतिक्षण मनसे, वचनसे या कायसे जो कुछ भी शुभ या अशुभ प्रवृत्ति होतीहै उसे जीवका भावास्रव कहते हैं। उसके निमित्तसे कोई विशेष प्रकारकी जड़पुद्गल वर्गणाएँ आकर्षित होकर उसके प्रदेशोंमें प्रवेश करती हैं सो द्रव्यास्रव है। सर्व साधारणजनोंको तो कषायवश होनेके कारण यह आस्रव आगामी बन्धका कारण पड़ता है, इसलिए साम्परायिक कहलाता है, परन्तु वीतरागी जनोंको वह इच्छासे निरपेक्ष कर्मवश होती है इसलिए आगामी बन्धका कारण नहीं होता। और आनेके अनन्तर क्षणमें ही झड़ जानेसे ईर्यापथ नाम पाता है। | ||
१. आस्रवके भेद व लक्षण | |||
१. आस्रव सामान्यका लक्षण | |||
[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ६/१-२ कायवाङ्मनःकर्मयोगः ।।१।। स आस्रवः ।।२।। | |||
= काय, वचन, व मनकी क्रिया योग है ।।१।। वही आस्रव है ।।२।। | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या १/४/९,१६/२६ आस्रवत्यनेन आस्रवणमात्रं वा आस्रवः ।।९।। पुण्यपापमगद्वारलक्षण आस्रवः ।।१६।।...आस्रव इवास्रवः। क उपमार्थः। यथा मिथ्यादर्शनादिद्वारानुप्रविष्टैः कर्मभिरनिशमात्मा समापूर्यत इति। | |||
= जिसके कर्म आवे सो आस्रव है, यह करण साधनसे लक्षण है। आस्रवण मात्र अर्थात् कर्मोका आना मात्र आस्रव है, यह भावसाधन द्वारा लक्षण है ।।९।। पुण्यपाप रूप कर्मोंके आगमनके द्वारको आस्रव कहते हैं। जैसे नदियोंके द्वारा समुद्र प्रतिदिन जलसे भर जाता है, वैसे ही मिथ्यादर्शनादि स्रोतोंसे आत्मामें कर्म आते हैं | |||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ६/२/४,५/५०६) | |||
२. आस्रव भेद प्रभेद | |||
(न.च.वृ./मू.आस्रव १५२) | |||
द्रव्य भाव ([[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ६/४), ([[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ६/४/३२०/८) | |||
ईर्यापथ साम्परायिक | |||
दृष्टि नं. | |||
१. इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और २५ क्रिया रूप भेद | |||
([[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ६/५), ([[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या ४/८) | |||
२. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग | |||
([[बारसाणुवेक्खा]] गाथा संख्या ४७), ([[समयसार]] / मूल या टीका गाथा संख्या १६४), ([[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ७८६) | |||
३. मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग | |||
(द्र.सं./बृ.मू.३०), ([[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या २/३७) | |||
४. शुभ और अशुभ | |||
([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या १/१४/३९/२५) | |||
मन वचन काय | |||
३. द्रव्यास्रवका लक्षण | |||
[[नयचक्रवृहद्]] गाथा संख्या १५३ लद्धूण तं णिमित्तं जोगं जं पुग्गले पदेसत्थं परणमदि कम्मभावं तं पि हु दव्वासवं बीजं ।।१५३।। | |||
= अपने-अपने निमित्त रूप योगको प्राप्त करके आत्म प्रदेशोंमे स्थित पुद्गल कर्म भाव रूपसे परिणमित हो जाते हैं, उसे द्रव्यास्रव कहते हैं ।।१५३।। | |||
द्र.स./मू.३१ णाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि। दव्वासवो स णेओ अणेयभेओ जिणक्खादो ।।३१।। | |||
= ज्ञानावरणादि कर्मोंके योग्य जो पुद्गल आता है उसको द्रव्यास्रव जानना चाहिए। वह अनेक भेदों वाला है, ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है ।।३१।। | |||
४. भावास्रवका लक्षण | |||
[[भगवती आराधना]] / [[विजयोदयी टीका]]/ गाथा संख्या ३८/१३४/१० आस्रवत्यनेनेत्यस्रवः। आस्रवत्यागच्छति जायते कर्मत्वपर्यायपुद्गलानां कारणभूतेनात्मपरिणामेन स परिणाम आस्रवः। | |||
= आत्माके जिस परिणामसे पुद्गल द्रवय् कर्म बनकर आत्मामें आता है उस परिणामको (भावास्रव) आस्रव कहते हैं। | |||
([[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या २९) | |||
[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या २८ निरास्रवस्वसंवित्तिलक्षणशुभाशुभपरिणामेन शुभाशुकर्मागमनमास्रवः। | |||
= आस्रव रहित निजात्मानुभवसे विलक्षण जो शुभ अशुभ परिणाम है, उससे जो शुभ अशुभ कर्मका आगमन है सो आस्रव है। | |||
५. साम्परायिक आस्रवका लक्षण | |||
[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ६/४ सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ।।४।। | |||
= कषाय सहित व कषाय रहित आत्माका योग क्रमसे साम्परायिक और ईर्यापथ कर्मके आस्रव रूप हैं। | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ६/४/३२१/१ सम्परायः संसारः। तत्प्रयोजनं कर्म साम्परायिकम्। | |||
= सम्पराय संसारका पर्यायवाची है। जो कर्म संसारका प्रयोजक है वह साम्परायिक है। | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ६/४/४-७/५०८ कर्मभिः समन्तादात्मनः पराभवोऽभिभवः सम्परायः इत्युच्यते ।।४।। तत्प्रयोजनं कर्म साम्परायिकमित्युच्यते यथा ऐन्द्रमहिकमिति ।।५।। ...मिथ्यादृष्टदीनां सूक्ष्मसाम्परायान्तानां कषायोदयपिच्छिलपरिणामानां योगवशादानीतं कर्म भावेनोपश्लिष्य माणं आर्द्रचर्माश्रित रेणुवत् स्थितिमापद्यमानं साम्परायिकमित्युच्यते। | |||
= कर्मोंके द्वारा चारों ओरसे स्वरूपका अभिभव होना साम्पराय है ।।४।।...इस साम्परायके लिए जो आस्रव होता है वह साम्परायिक आस्रव है ।।५।।...मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्म साम्पराय दशवें गुणस्थान तक कषायका चेप रहनेसे योगके द्वारा आये हुए कर्म गीले चमड़ेपर धूलकी तरह चिपक जाते हैं। अर्थात् उनमें स्थिति बन्ध हो जाता है। वही सम्पारयिकास्रव है। | |||
• ईर्यापथ आस्रवका लक्षण - दे. ईर्यापथ कर्म। | |||
६. शुभ अशुभ मानसिक वाचनिक व कायिक आस्रवोंके लक्षण | |||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या १/७/१४/३९/२५ तत्र कायिको हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मादिषु प्रवृत्तिनिवृत्तिसंज्ञः। वाचिकः पुरुषाक्रोशपिशुनपरीपघातादिषु वचस्सु प्रवृत्तिनिवृत्तिसंज्ञः। मानसो मिथ्याश्रुत्यभिघातेर्ष्यासूयादिषु मनसः प्रवृत्तिनिवृत्तिसंज्ञः। | |||
= हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, आदिमें प्रवृत्ति अशुभ कायास्रव है। तथा निवृत्ति शुभ कायास्रव है। कठोर गाली चुगली आदि रूपसे परबाधक वचनोंकी प्रवृत्ति वाचनिक अशुभास्रव है और इनसे निवृत्ति वाचनिक शुभास्रव है। मिथ्याश्रुति ईर्षा मात्सर्य षड्यन्त्र आदि रूपसे मनकी प्रवृत्ति मानस अशुभास्रव है और निवृत्ति मानस शुभास्रव है। | |||
आस्रव निर्देश | |||
१. अगृहीत पुद्गलोंका आस्रव कम होता है और गृहीत का अधिक | |||
[[धवला]] पुस्तक संख्या ४/१,५,४/३३१/४ जे णोकम्मपज्जएणं परिणमिय अकम्मभावं गंतूण तेण अकम्मभावेण जे थोवकालमच्छिया ते बहुवारमागच्छंति, अविणट्ठ चउव्विहपाओग्गादो। जे पुण अप्पिदपोग्गलपरियट्टब्भंतरे ण गहिदा ते चिरेण आगच्छंति, अकम्मभावं गंतूण तत्थ चिरकालवट्ठाणेण विणट्ठचउव्विहपाओग्गत्तादो। | |||
= जो पुद्गल नोकर्म पर्याय से परिणमित होकर पुनः अकर्म भावको प्राप्त हो, उस अकर्म भावसे अल्पकाल तक रहते हैं, वे पुद्गल तो बहुत बार आते हैं, क्योंकि उनकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप चार प्रकारकी योग्यता नष्ट नहीं होती है। किन्तु जो पुद्गल विवक्षित पुद्गल परिवर्तनके भीतर नहीं ग्रहण किये गये हैं, वे चिरकालके बाद आते हैं। क्योंकि, अकर्म भावको प्राप्त होकर उस अवस्थामें चिरकाल तक रहनेसे द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव रूप संस्कारका विनाश हो जाता है। | |||
२. आस्रवमें तरतमताका कारण | |||
[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ६/६ तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः। | |||
= तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और वीर्य विशेषके भेदसे उसकी अर्थात् आस्रवकी विशेषता होती है। | |||
३. योगद्वारको आस्रव कहनेका कारण | |||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ६/२/३१९/५ यथा सरस्सलिलावाहिद्वारं तदास्रवकारणत्वात् आस्रव इत्याख्यायते तथा योगप्रणालिकया आत्मनः कर्म आस्रवतीति योग आस्रव इति व्यपदेशमर्हति । | |||
= जिस प्रकार तालाबमें जब लाने का दरवाजा जलके आनेका कारण होनेसे आस्रव कहलाता है उसी प्रकार आत्मासे बँधनेके लिए कर्म योगरूपी नालीके द्वारा आते हैं इसलिए योग आस्रव संज्ञाको प्राप्त होता है। | |||
४. विस्रसोपचय ही कर्म रूपसे परिणत होते हैं, फिर भी कर्मोका आना क्यों कहते हो | |||
[[भगवती आराधना]] / [[विजयोदयी टीका]]/ गाथा संख्या ३८/१३४/११ ननु कर्मपुद्गलानां नान्यतः आगमनमस्ति यमाकाशप्रदेशमाश्रित आत्मा तत्रैवावस्थिताः पुद्गलाः अनन्तप्रदेशिनः कर्मपर्यायं भजन्ते।..तत् किमुच्यते आगच्छतीति। न दोषः। आगच्छन्ति ढौकन्ते ज्ञानावरणादिपर्यायामित्येवं ग्रहीतव्यं। | |||
= प्रश्न - कर्मोंका अन्य स्थानसे आगमन नहीं होता है, जिस आकाश प्रेदेशमें आत्मा है उसी आकाश प्रदेशमें अनन्तप्रदेशी पुद्गल द्रव्य भी है, और वह कर्म स्वरूप बन जाता है। इसलिए “पुद्गल द्रव्य आत्मामें आते हैं'' आप ऐसा क्यों कहते हो। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है। यहाँ “पुद्गल द्रव्य आता है'' इसका अभिप्राय “ज्ञानावरणादि पर्याय को प्राप्त होता है'' ऐसा समझना। देशान्तरसे आकर पुद्गल कर्मावस्थाको धारण करते हों ऐसा अभिप्राय नहीं है। | |||
५. आस्रवसे निवृत्त होनेका उपाय | |||
[[मूलाचार]] / [[आचारवृत्ति]] / गाथा संख्या २४१ मिच्छत्ताविरदीहिंय कसायजोगेहिं जं च आसवदि। दंसणविरमणणिम्मह णिरोधेहिं तु णासवदि ।।२४१।। | |||
= मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगोंसे जो कर्म आते हैं वे कर्म सम्यग्दर्शन विरति, क्षमादिभाव और योग निरोधसे नहीं आने पाते-रुक जाते हैं। | |||
[[समयसार]] / मूल या टीका गाथा संख्या ७३-७४ अहमिक्को खलु सुद्धो णिम्मओ णाणदंसणसमग्गो। तह्मि ठिओ तच्चित्तो सव्वे एए खयं णेमि ।।७३।। जीवणिबद्धा एए अधुव अणिच्चा तदा असरणा य। दुक्खा दुखफलात्ति य णादूण णिवत्तए तेहिं ।।७४।। | |||
[[समयसार]] / [[ समयसार आत्मख्याति | आत्मख्याति]] गाथा संख्या ७४ यथा यथा विज्ञानस्वभावो भवती ति। तावद्विज्ञानघनस्वभावो भवति यावत्सम्यगास्रवेभ्यो निवर्त्तते।...इति ज्ञानास्रवनिवृत्त्योः समकालत्वं। | |||
= प्रश्न - आस्रवोंसे किस प्रकार निवृत्ति होती है। उत्तर - ज्ञानी विचारता है कि मैं निश्चयसे पृथक् हूँ, शुद्ध हूँ, ममता रहित हूँ, ज्ञान दर्शनसे पूर्ण हूँ, ऐसे स्वभावमें स्थित उसी चैतन्य अनुभवमें लीन हुआ मैं इन क्रोधादि समस्त आस्रवोंको क्षय कर देता हूँ ।।७३।। ये आस्रव जीवके साथ निबद्ध हैं; अध्रुव हैं, और अनित्य हैं, तथा अशरण हैं, दुःखरूप हैं, और जिनका फल दुःख ही है ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुष उनसे निवृत्ति करता है ।।७४।। जैसा-जैसा आस्रवोंसे निवृत्त होता जाता है, वैसा-वैसा विज्ञान धन स्वभाव होता जाता है। उतना विज्ञान घनस्वभाव होता है, जितना आस्रवोंसे सम्यक् निवृत्ति हुआ है। इस प्रकार ज्ञान और आस्रवकी निवृत्तिके समकालता है। | |||
भाषाकार - प्रश्न - `आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है' अर्थात् क्या? उत्तर- आत्मा ज्ञानमें स्थिर होता जाता है। | |||
६. आस्रव व बन्धमें अन्तर | |||
द्र.सं/टी.३३/९४ आस्रवे बन्धे च मिथ्यात्वाविरत्यादि कारणानि समानानि को विशेषः। इति चैतः नैव; प्रथमक्षणे कर्मस्कन्धानामागमनमास्रवः, आगमनान्तरं द्वितीयक्षणादौ जीवप्रदेशेष्ववस्थानं बन्ध इति भैदः। | |||
= प्रश्न - आस्रव बन्द होनेके मिथ्यात्व, अविरति आदि कारण समान हैं इसलिए आस्रव व बन्धमें क्या भेद है। उत्तर - यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि प्रथम क्षणमें जो कर्म स्कन्धोंका आगमन हैं, वह तो आस्रव है और कर्मस्कन्धोंके आगमनके पीछे द्वितीय क्षणमें जो उन कर्म स्कन्धोंका जीव प्रदेशोंमें स्थित होना सो बन्ध है। यह भेद आस्रव और बन्धमें है। | |||
७. आस्रव व बन्ध दोनों युगपत् होते हैं | |||
[[तत्त्वार्थसूत्र]] अध्याय संख्या ८/२ “सकषायत्वाज्जीवः कर्मणा योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः।'' | |||
= कषाय सहित होनेसे जीव कर्मके योग्य जो पुद्गलोंका ग्रहण करता है वह आस्रव है। (और भी दे. साम्परायिक आस्रवका लक्षण)। | |||
८. अन्य सम्बन्धित विषय | |||
• आठ कर्मोंके आस्रव योग्य परिणाम - दे. वह वह नाम | |||
• पुण्यपापका आस्रव तत्त्वमें अन्तर्भाव - दे. तत्त्व २ | |||
• कषाय अव्रत व क्रियारूप आस्रवोंमें अन्तर - दे. क्रिया | |||
• व्यवहार व निश्चय धर्ममें आस्रव व संवर सम्बन्धी चर्चा - दे. संवर २ | |||
• ज्ञानी-अज्ञानी के आस्रव तत्वके कर्तृत्वमें अन्तर - दे. मिथ्यादृष्टि ४ |
Revision as of 08:49, 8 May 2009
जीवके द्वारा प्रतिक्षण मनसे, वचनसे या कायसे जो कुछ भी शुभ या अशुभ प्रवृत्ति होतीहै उसे जीवका भावास्रव कहते हैं। उसके निमित्तसे कोई विशेष प्रकारकी जड़पुद्गल वर्गणाएँ आकर्षित होकर उसके प्रदेशोंमें प्रवेश करती हैं सो द्रव्यास्रव है। सर्व साधारणजनोंको तो कषायवश होनेके कारण यह आस्रव आगामी बन्धका कारण पड़ता है, इसलिए साम्परायिक कहलाता है, परन्तु वीतरागी जनोंको वह इच्छासे निरपेक्ष कर्मवश होती है इसलिए आगामी बन्धका कारण नहीं होता। और आनेके अनन्तर क्षणमें ही झड़ जानेसे ईर्यापथ नाम पाता है। १. आस्रवके भेद व लक्षण १. आस्रव सामान्यका लक्षण तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ६/१-२ कायवाङ्मनःकर्मयोगः ।।१।। स आस्रवः ।।२।। = काय, वचन, व मनकी क्रिया योग है ।।१।। वही आस्रव है ।।२।। राजवार्तिक अध्याय संख्या १/४/९,१६/२६ आस्रवत्यनेन आस्रवणमात्रं वा आस्रवः ।।९।। पुण्यपापमगद्वारलक्षण आस्रवः ।।१६।।...आस्रव इवास्रवः। क उपमार्थः। यथा मिथ्यादर्शनादिद्वारानुप्रविष्टैः कर्मभिरनिशमात्मा समापूर्यत इति। = जिसके कर्म आवे सो आस्रव है, यह करण साधनसे लक्षण है। आस्रवण मात्र अर्थात् कर्मोका आना मात्र आस्रव है, यह भावसाधन द्वारा लक्षण है ।।९।। पुण्यपाप रूप कर्मोंके आगमनके द्वारको आस्रव कहते हैं। जैसे नदियोंके द्वारा समुद्र प्रतिदिन जलसे भर जाता है, वैसे ही मिथ्यादर्शनादि स्रोतोंसे आत्मामें कर्म आते हैं ( राजवार्तिक अध्याय संख्या ६/२/४,५/५०६) २. आस्रव भेद प्रभेद (न.च.वृ./मू.आस्रव १५२)
द्रव्य भाव (तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ६/४), (सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ६/४/३२०/८) ईर्यापथ साम्परायिक दृष्टि नं. १. इन्द्रिय, कषाय, अव्रत और २५ क्रिया रूप भेद (तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ६/५), (तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या ४/८) २. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग (बारसाणुवेक्खा गाथा संख्या ४७), (समयसार / मूल या टीका गाथा संख्या १६४), (गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा संख्या ७८६) ३. मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग (द्र.सं./बृ.मू.३०), (अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या २/३७) ४. शुभ और अशुभ ( राजवार्तिक अध्याय संख्या १/१४/३९/२५) मन वचन काय
३. द्रव्यास्रवका लक्षण नयचक्रवृहद् गाथा संख्या १५३ लद्धूण तं णिमित्तं जोगं जं पुग्गले पदेसत्थं परणमदि कम्मभावं तं पि हु दव्वासवं बीजं ।।१५३।। = अपने-अपने निमित्त रूप योगको प्राप्त करके आत्म प्रदेशोंमे स्थित पुद्गल कर्म भाव रूपसे परिणमित हो जाते हैं, उसे द्रव्यास्रव कहते हैं ।।१५३।। द्र.स./मू.३१ णाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि। दव्वासवो स णेओ अणेयभेओ जिणक्खादो ।।३१।। = ज्ञानावरणादि कर्मोंके योग्य जो पुद्गल आता है उसको द्रव्यास्रव जानना चाहिए। वह अनेक भेदों वाला है, ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है ।।३१।। ४. भावास्रवका लक्षण भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ३८/१३४/१० आस्रवत्यनेनेत्यस्रवः। आस्रवत्यागच्छति जायते कर्मत्वपर्यायपुद्गलानां कारणभूतेनात्मपरिणामेन स परिणाम आस्रवः। = आत्माके जिस परिणामसे पुद्गल द्रवय् कर्म बनकर आत्मामें आता है उस परिणामको (भावास्रव) आस्रव कहते हैं। (द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या २९) द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा संख्या २८ निरास्रवस्वसंवित्तिलक्षणशुभाशुभपरिणामेन शुभाशुकर्मागमनमास्रवः। = आस्रव रहित निजात्मानुभवसे विलक्षण जो शुभ अशुभ परिणाम है, उससे जो शुभ अशुभ कर्मका आगमन है सो आस्रव है। ५. साम्परायिक आस्रवका लक्षण तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ६/४ सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ।।४।। = कषाय सहित व कषाय रहित आत्माका योग क्रमसे साम्परायिक और ईर्यापथ कर्मके आस्रव रूप हैं। सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ६/४/३२१/१ सम्परायः संसारः। तत्प्रयोजनं कर्म साम्परायिकम्। = सम्पराय संसारका पर्यायवाची है। जो कर्म संसारका प्रयोजक है वह साम्परायिक है। राजवार्तिक अध्याय संख्या ६/४/४-७/५०८ कर्मभिः समन्तादात्मनः पराभवोऽभिभवः सम्परायः इत्युच्यते ।।४।। तत्प्रयोजनं कर्म साम्परायिकमित्युच्यते यथा ऐन्द्रमहिकमिति ।।५।। ...मिथ्यादृष्टदीनां सूक्ष्मसाम्परायान्तानां कषायोदयपिच्छिलपरिणामानां योगवशादानीतं कर्म भावेनोपश्लिष्य माणं आर्द्रचर्माश्रित रेणुवत् स्थितिमापद्यमानं साम्परायिकमित्युच्यते। = कर्मोंके द्वारा चारों ओरसे स्वरूपका अभिभव होना साम्पराय है ।।४।।...इस साम्परायके लिए जो आस्रव होता है वह साम्परायिक आस्रव है ।।५।।...मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्म साम्पराय दशवें गुणस्थान तक कषायका चेप रहनेसे योगके द्वारा आये हुए कर्म गीले चमड़ेपर धूलकी तरह चिपक जाते हैं। अर्थात् उनमें स्थिति बन्ध हो जाता है। वही सम्पारयिकास्रव है। • ईर्यापथ आस्रवका लक्षण - दे. ईर्यापथ कर्म। ६. शुभ अशुभ मानसिक वाचनिक व कायिक आस्रवोंके लक्षण राजवार्तिक अध्याय संख्या १/७/१४/३९/२५ तत्र कायिको हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मादिषु प्रवृत्तिनिवृत्तिसंज्ञः। वाचिकः पुरुषाक्रोशपिशुनपरीपघातादिषु वचस्सु प्रवृत्तिनिवृत्तिसंज्ञः। मानसो मिथ्याश्रुत्यभिघातेर्ष्यासूयादिषु मनसः प्रवृत्तिनिवृत्तिसंज्ञः। = हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, आदिमें प्रवृत्ति अशुभ कायास्रव है। तथा निवृत्ति शुभ कायास्रव है। कठोर गाली चुगली आदि रूपसे परबाधक वचनोंकी प्रवृत्ति वाचनिक अशुभास्रव है और इनसे निवृत्ति वाचनिक शुभास्रव है। मिथ्याश्रुति ईर्षा मात्सर्य षड्यन्त्र आदि रूपसे मनकी प्रवृत्ति मानस अशुभास्रव है और निवृत्ति मानस शुभास्रव है। आस्रव निर्देश १. अगृहीत पुद्गलोंका आस्रव कम होता है और गृहीत का अधिक धवला पुस्तक संख्या ४/१,५,४/३३१/४ जे णोकम्मपज्जएणं परिणमिय अकम्मभावं गंतूण तेण अकम्मभावेण जे थोवकालमच्छिया ते बहुवारमागच्छंति, अविणट्ठ चउव्विहपाओग्गादो। जे पुण अप्पिदपोग्गलपरियट्टब्भंतरे ण गहिदा ते चिरेण आगच्छंति, अकम्मभावं गंतूण तत्थ चिरकालवट्ठाणेण विणट्ठचउव्विहपाओग्गत्तादो। = जो पुद्गल नोकर्म पर्याय से परिणमित होकर पुनः अकर्म भावको प्राप्त हो, उस अकर्म भावसे अल्पकाल तक रहते हैं, वे पुद्गल तो बहुत बार आते हैं, क्योंकि उनकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप चार प्रकारकी योग्यता नष्ट नहीं होती है। किन्तु जो पुद्गल विवक्षित पुद्गल परिवर्तनके भीतर नहीं ग्रहण किये गये हैं, वे चिरकालके बाद आते हैं। क्योंकि, अकर्म भावको प्राप्त होकर उस अवस्थामें चिरकाल तक रहनेसे द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव रूप संस्कारका विनाश हो जाता है। २. आस्रवमें तरतमताका कारण तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ६/६ तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः। = तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और वीर्य विशेषके भेदसे उसकी अर्थात् आस्रवकी विशेषता होती है। ३. योगद्वारको आस्रव कहनेका कारण सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ६/२/३१९/५ यथा सरस्सलिलावाहिद्वारं तदास्रवकारणत्वात् आस्रव इत्याख्यायते तथा योगप्रणालिकया आत्मनः कर्म आस्रवतीति योग आस्रव इति व्यपदेशमर्हति । = जिस प्रकार तालाबमें जब लाने का दरवाजा जलके आनेका कारण होनेसे आस्रव कहलाता है उसी प्रकार आत्मासे बँधनेके लिए कर्म योगरूपी नालीके द्वारा आते हैं इसलिए योग आस्रव संज्ञाको प्राप्त होता है। ४. विस्रसोपचय ही कर्म रूपसे परिणत होते हैं, फिर भी कर्मोका आना क्यों कहते हो भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ३८/१३४/११ ननु कर्मपुद्गलानां नान्यतः आगमनमस्ति यमाकाशप्रदेशमाश्रित आत्मा तत्रैवावस्थिताः पुद्गलाः अनन्तप्रदेशिनः कर्मपर्यायं भजन्ते।..तत् किमुच्यते आगच्छतीति। न दोषः। आगच्छन्ति ढौकन्ते ज्ञानावरणादिपर्यायामित्येवं ग्रहीतव्यं। = प्रश्न - कर्मोंका अन्य स्थानसे आगमन नहीं होता है, जिस आकाश प्रेदेशमें आत्मा है उसी आकाश प्रदेशमें अनन्तप्रदेशी पुद्गल द्रव्य भी है, और वह कर्म स्वरूप बन जाता है। इसलिए “पुद्गल द्रव्य आत्मामें आते हैं आप ऐसा क्यों कहते हो। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है। यहाँ “पुद्गल द्रव्य आता है इसका अभिप्राय “ज्ञानावरणादि पर्याय को प्राप्त होता है ऐसा समझना। देशान्तरसे आकर पुद्गल कर्मावस्थाको धारण करते हों ऐसा अभिप्राय नहीं है। ५. आस्रवसे निवृत्त होनेका उपाय मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा संख्या २४१ मिच्छत्ताविरदीहिंय कसायजोगेहिं जं च आसवदि। दंसणविरमणणिम्मह णिरोधेहिं तु णासवदि ।।२४१।। = मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगोंसे जो कर्म आते हैं वे कर्म सम्यग्दर्शन विरति, क्षमादिभाव और योग निरोधसे नहीं आने पाते-रुक जाते हैं। समयसार / मूल या टीका गाथा संख्या ७३-७४ अहमिक्को खलु सुद्धो णिम्मओ णाणदंसणसमग्गो। तह्मि ठिओ तच्चित्तो सव्वे एए खयं णेमि ।।७३।। जीवणिबद्धा एए अधुव अणिच्चा तदा असरणा य। दुक्खा दुखफलात्ति य णादूण णिवत्तए तेहिं ।।७४।। समयसार / आत्मख्याति गाथा संख्या ७४ यथा यथा विज्ञानस्वभावो भवती ति। तावद्विज्ञानघनस्वभावो भवति यावत्सम्यगास्रवेभ्यो निवर्त्तते।...इति ज्ञानास्रवनिवृत्त्योः समकालत्वं। = प्रश्न - आस्रवोंसे किस प्रकार निवृत्ति होती है। उत्तर - ज्ञानी विचारता है कि मैं निश्चयसे पृथक् हूँ, शुद्ध हूँ, ममता रहित हूँ, ज्ञान दर्शनसे पूर्ण हूँ, ऐसे स्वभावमें स्थित उसी चैतन्य अनुभवमें लीन हुआ मैं इन क्रोधादि समस्त आस्रवोंको क्षय कर देता हूँ ।।७३।। ये आस्रव जीवके साथ निबद्ध हैं; अध्रुव हैं, और अनित्य हैं, तथा अशरण हैं, दुःखरूप हैं, और जिनका फल दुःख ही है ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुष उनसे निवृत्ति करता है ।।७४।। जैसा-जैसा आस्रवोंसे निवृत्त होता जाता है, वैसा-वैसा विज्ञान धन स्वभाव होता जाता है। उतना विज्ञान घनस्वभाव होता है, जितना आस्रवोंसे सम्यक् निवृत्ति हुआ है। इस प्रकार ज्ञान और आस्रवकी निवृत्तिके समकालता है। भाषाकार - प्रश्न - `आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है' अर्थात् क्या? उत्तर- आत्मा ज्ञानमें स्थिर होता जाता है। ६. आस्रव व बन्धमें अन्तर द्र.सं/टी.३३/९४ आस्रवे बन्धे च मिथ्यात्वाविरत्यादि कारणानि समानानि को विशेषः। इति चैतः नैव; प्रथमक्षणे कर्मस्कन्धानामागमनमास्रवः, आगमनान्तरं द्वितीयक्षणादौ जीवप्रदेशेष्ववस्थानं बन्ध इति भैदः। = प्रश्न - आस्रव बन्द होनेके मिथ्यात्व, अविरति आदि कारण समान हैं इसलिए आस्रव व बन्धमें क्या भेद है। उत्तर - यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि प्रथम क्षणमें जो कर्म स्कन्धोंका आगमन हैं, वह तो आस्रव है और कर्मस्कन्धोंके आगमनके पीछे द्वितीय क्षणमें जो उन कर्म स्कन्धोंका जीव प्रदेशोंमें स्थित होना सो बन्ध है। यह भेद आस्रव और बन्धमें है। ७. आस्रव व बन्ध दोनों युगपत् होते हैं तत्त्वार्थसूत्र अध्याय संख्या ८/२ “सकषायत्वाज्जीवः कर्मणा योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः। = कषाय सहित होनेसे जीव कर्मके योग्य जो पुद्गलोंका ग्रहण करता है वह आस्रव है। (और भी दे. साम्परायिक आस्रवका लक्षण)। ८. अन्य सम्बन्धित विषय • आठ कर्मोंके आस्रव योग्य परिणाम - दे. वह वह नाम • पुण्यपापका आस्रव तत्त्वमें अन्तर्भाव - दे. तत्त्व २ • कषाय अव्रत व क्रियारूप आस्रवोंमें अन्तर - दे. क्रिया • व्यवहार व निश्चय धर्ममें आस्रव व संवर सम्बन्धी चर्चा - दे. संवर २ • ज्ञानी-अज्ञानी के आस्रव तत्वके कर्तृत्वमें अन्तर - दे. मिथ्यादृष्टि ४