योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 142: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- (स्व -चारित्रभ्रष्टा:) श्वाभ्र-तिर्यङ्-नर-स्वर्गि-गतिं जाता: शरीरिण: (जीवा:) कर्म-संभवं शारीरं मानसं दु:खं सहन्ते । </p> | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- (स्व -चारित्रभ्रष्टा:) श्वाभ्र-तिर्यङ्-नर-स्वर्गि-गतिं जाता: शरीरिण: (जीवा:) कर्म-संभवं शारीरं मानसं दु:खं सहन्ते । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- शुभाशुभ भावों में उपादेयबुद्धि रखने के कारण अपने चारित्र से भ्रष्ट होकर पुण्य- पाप कर्म के संचय करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवगति को प्राप्त करते हुए कर्मजन्य शारीरिक तथा मानसिक दु:ख को सहन करते हैं । </p> | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- शुभाशुभ भावों में उपादेयबुद्धि रखने के कारण अपने चारित्र से भ्रष्ट होकर पुण्य- पाप कर्म के संचय करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवगति को प्राप्त करते हुए कर्मजन्य शारीरिक तथा मानसिक दु:ख को सहन करते हैं । </p> | ||
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Latest revision as of 10:38, 15 May 2009
मिथ्याचारित्र का फल -
श्वाभ्र-तिर्यङ्-नर-स्वर्गिगतिं जाता: शरीरिण: ।
शारीरं मानसं दु:खं सहन्ते कर्म-संभवम् ।।१४२।।
अन्वय :- (स्व -चारित्रभ्रष्टा:) श्वाभ्र-तिर्यङ्-नर-स्वर्गि-गतिं जाता: शरीरिण: (जीवा:) कर्म-संभवं शारीरं मानसं दु:खं सहन्ते ।
सरलार्थ :- शुभाशुभ भावों में उपादेयबुद्धि रखने के कारण अपने चारित्र से भ्रष्ट होकर पुण्य- पाप कर्म के संचय करनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवगति को प्राप्त करते हुए कर्मजन्य शारीरिक तथा मानसिक दु:ख को सहन करते हैं ।