अग्र: Difference between revisions
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[[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,५०/२८८/६ चारित्राच्छ्रुतं प्रधानमिति अग्र्यम्। कथं तत् श्रुतस्य प्रधानता। श्रुतज्ञानमन्तरेण चारित्रानुत्पत्तेः अथवा, अग्र्यं मोक्षः तत्साहचर्याच्छ्रुतमप्यग्र्मम्। < | <p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या १३/५,५,५०/२८८/६ चारित्राच्छ्रुतं प्रधानमिति अग्र्यम्। कथं तत् श्रुतस्य प्रधानता। श्रुतज्ञानमन्तरेण चारित्रानुत्पत्तेः अथवा, अग्र्यं मोक्षः तत्साहचर्याच्छ्रुतमप्यग्र्मम्। </p> | ||
<p class="HindiSentence">= चारित्र से श्रुत की प्रधानता है इसलिए उसकी अग्र संज्ञा है। <br> <b>प्रश्न</b> - चारित्र से श्रुत की प्रधानता किस कारण से है? <br> <b>उत्तर</b> - क्योंकि श्रुतज्ञान के बिना चारित्र की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए चारित्र की अपेक्षा श्रुत की प्रधानता है। अथवा अग्र्य शब्द का अर्थ मोक्ष है, इसके साहचर्य से श्रुत भी अग्र्य कहलाता है।</p> | <p class="HindiSentence">= चारित्र से श्रुत की प्रधानता है इसलिए उसकी अग्र संज्ञा है। <br> <b>प्रश्न</b> - चारित्र से श्रुत की प्रधानता किस कारण से है? <br> <b>उत्तर</b> - क्योंकि श्रुतज्ञान के बिना चारित्र की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए चारित्र की अपेक्षा श्रुत की प्रधानता है। अथवा अग्र्य शब्द का अर्थ मोक्ष है, इसके साहचर्य से श्रुत भी अग्र्य कहलाता है।</p> | ||
[[धवला]] पुस्तक संख्या १४/५,६,३२३/३६७/४ जहण्णणिव्वत्तिए चरिमणिसेओ अग्गं णाम। < | <p class="SanskritPrakritSentence">[[धवला]] पुस्तक संख्या १४/५,६,३२३/३६७/४ जहण्णणिव्वत्तिए चरिमणिसेओ अग्गं णाम। </p> | ||
<p class="HindiSentence">= जघन्य निर्वृत्ति के अन्तिम निषेक की अग्र संज्ञा है।</p> | <p class="HindiSentence">= जघन्य निर्वृत्ति के अन्तिम निषेक की अग्र संज्ञा है।</p> | ||
[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या /९/२७/४४४ अग्र मुखम्। < | <p class="SanskritPrakritSentence">[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या /९/२७/४४४ अग्र मुखम्। </p> | ||
<p class="HindiSentence">= अग्र है सो मुख है। (अर्थात् अग्र का मुख, सहारा, अवलंबन, आश्रय, प्रधान वा सम्मुख अर्थ है।)</p> | <p class="HindiSentence">= अग्र है सो मुख है। (अर्थात् अग्र का मुख, सहारा, अवलंबन, आश्रय, प्रधान वा सम्मुख अर्थ है।)</p> | ||
<OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> आत्मा के अर्थ में - </LI> </OL> | <OL start=2 class="HindiNumberList"> <LI> आत्मा के अर्थ में - </LI> </OL> | ||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/२७,३/६२५/२३ अङ्ग्यते तदङ्गमिति तस्मिन्निति व्याग्रं मुखम् ।।३।।<br> | [[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/२७,३/६२५/२३ अङ्ग्यते तदङ्गमिति तस्मिन्निति व्याग्रं मुखम् ।।३।।<br> | ||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/२७,७/६२५/३२ अर्थपर्यायवाची वा अग्रशब्द ।।७।। अथवा अङ्ग्यते इत्यग्रः अर्थ इत्यर्थः।<br> | [[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/२७,७/६२५/३२ अर्थपर्यायवाची वा अग्रशब्द ।।७।। अथवा अङ्ग्यते इत्यग्रः अर्थ इत्यर्थः।<br> | ||
[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/२७,२१/६२७/३ अङ्गतीत्यग्रमात्मेति वा ।।२१।।< | <p class="SanskritPrakritSentence">[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/२७,२१/६२७/३ अङ्गतीत्यग्रमात्मेति वा ।।२१।।</p> | ||
<p class="HindiSentence">= जिसके द्वारा जाना जाता है या जिसमें जाना जाता है ऐसा अग्र मुख है ।३। अग्र शब्द अर्थ का पर्यायवाची है, जिसके द्वारा गमन किया जाये या जाना जाये सो अग्र या अर्थ है ऐसा अर्थ समझना ।७। जो गमन करता है या जानता है सो अग्र आत्मा है ।२१।</p> | <p class="HindiSentence">= जिसके द्वारा जाना जाता है या जिसमें जाना जाता है ऐसा अग्र मुख है ।३। अग्र शब्द अर्थ का पर्यायवाची है, जिसके द्वारा गमन किया जाये या जाना जाये सो अग्र या अर्थ है ऐसा अर्थ समझना ।७। जो गमन करता है या जानता है सो अग्र आत्मा है ।२१।</p> | ||
[[तत्त्वानुशासन]] श्लोक संख्या ६२ अथवाङ्गति जानातीत्यग्रमात्मा निरुक्तितः। तत्त्वेषु चाग्रगण्यत्वादसावग्रमिति स्मृतः ।।६२।। < | <p class="SanskritPrakritSentence">[[तत्त्वानुशासन]] श्लोक संख्या ६२ अथवाङ्गति जानातीत्यग्रमात्मा निरुक्तितः। तत्त्वेषु चाग्रगण्यत्वादसावग्रमिति स्मृतः ।।६२।। </p> | ||
<p class="HindiSentence">= जो गमन करता है या जानता है सो अग्र आत्मा है ऐसी निरुक्ति है या तत्त्वों में अग्रणी होने के कारण यह आत्मा अग्र है ऐसा जाना जाता है।</p> | <p class="HindiSentence">= जो गमन करता है या जानता है सो अग्र आत्मा है ऐसी निरुक्ति है या तत्त्वों में अग्रणी होने के कारण यह आत्मा अग्र है ऐसा जाना जाता है।</p> | ||
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Revision as of 12:29, 24 May 2009
- विभिन्न अर्थों में -
धवला पुस्तक संख्या १३/५,५,५०/२८८/६ चारित्राच्छ्रुतं प्रधानमिति अग्र्यम्। कथं तत् श्रुतस्य प्रधानता। श्रुतज्ञानमन्तरेण चारित्रानुत्पत्तेः अथवा, अग्र्यं मोक्षः तत्साहचर्याच्छ्रुतमप्यग्र्मम्।
= चारित्र से श्रुत की प्रधानता है इसलिए उसकी अग्र संज्ञा है।
प्रश्न - चारित्र से श्रुत की प्रधानता किस कारण से है?
उत्तर - क्योंकि श्रुतज्ञान के बिना चारित्र की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए चारित्र की अपेक्षा श्रुत की प्रधानता है। अथवा अग्र्य शब्द का अर्थ मोक्ष है, इसके साहचर्य से श्रुत भी अग्र्य कहलाता है।
धवला पुस्तक संख्या १४/५,६,३२३/३६७/४ जहण्णणिव्वत्तिए चरिमणिसेओ अग्गं णाम।
= जघन्य निर्वृत्ति के अन्तिम निषेक की अग्र संज्ञा है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या /९/२७/४४४ अग्र मुखम्।
= अग्र है सो मुख है। (अर्थात् अग्र का मुख, सहारा, अवलंबन, आश्रय, प्रधान वा सम्मुख अर्थ है।)
- आत्मा के अर्थ में -
राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/२७,३/६२५/२३ अङ्ग्यते तदङ्गमिति तस्मिन्निति व्याग्रं मुखम् ।।३।।
राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/२७,७/६२५/३२ अर्थपर्यायवाची वा अग्रशब्द ।।७।। अथवा अङ्ग्यते इत्यग्रः अर्थ इत्यर्थः।
राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/२७,२१/६२७/३ अङ्गतीत्यग्रमात्मेति वा ।।२१।।
= जिसके द्वारा जाना जाता है या जिसमें जाना जाता है ऐसा अग्र मुख है ।३। अग्र शब्द अर्थ का पर्यायवाची है, जिसके द्वारा गमन किया जाये या जाना जाये सो अग्र या अर्थ है ऐसा अर्थ समझना ।७। जो गमन करता है या जानता है सो अग्र आत्मा है ।२१।
तत्त्वानुशासन श्लोक संख्या ६२ अथवाङ्गति जानातीत्यग्रमात्मा निरुक्तितः। तत्त्वेषु चाग्रगण्यत्वादसावग्रमिति स्मृतः ।।६२।।
= जो गमन करता है या जानता है सो अग्र आत्मा है ऐसी निरुक्ति है या तत्त्वों में अग्रणी होने के कारण यह आत्मा अग्र है ऐसा जाना जाता है।