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| <p> अलंकारपुर नगर के राजा रत्नप्रभा और उसकी रानी केकसी का पुत्र । यह दशानन का अनुज और विभीषण का अग्रज था । चन्द्रनखा इसकी छोटी बहिन थी । मूलत: इसका नाम भानुकर्ण था । <span class="GRef"> पद्मपुराण 7.33, 165,222-225 </span>कुम्भपुर नगर के राजा महोदर को पूरी तडिन्माला के साथ इसका विवाह हुआ था अत: उसे इस नगर के प्रति विशेष स्नेह हो गया था । कुम्भपुर नगर पर महोदर के किसी प्रबल शत्रु के आक्रमण से उत्पन्न प्रजा के दुःख भरे शब्द सुनने पड़े थे । अत: इसका नाम ही कुम्भकर्ण हो गया था । यह न मांसभोजी था और न छ: मास की निद्रा लेता था । यह तो परम पवित्र आहार करता और संध्या काल में सोता तथा प्रात: सोकर उठ जाता था । बाल्यावस्था में इसने वैश्रवण के नगरों को कई बार क्षति पहुंचायी और वहाँ से यह अनेक बहुमूल्य वस्तुएँ स्वयंप्रभनगर लाया था । इसके पुत्र कुम्भ और इसने विद्याधर इन्द्र को पराजित करने में प्रवृत्त रावण का सहयोग किया था । <span class="GRef"> पद्मपुराण 8.141-148, 161-162, 10.28,49-50 </span>रावण को इसने समझाते हुए कहा था कि सीता उच्छिष्ट है, सेव्य नहीं त्याज्य है । <span class="GRef"> महापुराण 68.473-475 </span>राम के योद्धाओं ने इसे बाँध लिया था । बन्धन में पड़ने के बाद उसने निश्चय किया था कि मुक्त होते ही वह निर्ग्रन्थ साधु हो जायेगा और पाणिपात्र से आहार ग्रहण करेगा । इसी से रावण के दाहसंस्कार के समय पद्मसरोवर पर राम के आदेश है बन्धन मुक्त किये जाने पर इसने लक्ष्मण से कहा था कि दारुण, दुःखदायी, भयंकर भोगों की उसे आवश्यकता नहीं है । अन्त में उसने संवेग भाव से युक्त होकर तथा कषाय और राग-भाव छोड़कर भूमि धारण कर लिया था । कठोर तपश्चर्या से वह केवली हुआ और नर्मदा के तीर पर उसने मोक्ष प्राप्त किया । तब से यह निर्वाण-स्थली पिठरक्षत तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुई । <span class="GRef"> पद्मपुराण 66.5, 78.8-14, 24-26, 30-31, 80, 82, 129-130, 140 </span></p> | | #REDIRECT [[कुंभकर्ण]] |
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