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| <p class="HindiText"><p><strong>पञ्चसंग्रह<br></strong>इस नाम के चार ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं–दो प्राकृत गाथाबद्ध हैं और दो संस्कृत श्लोकबद्ध । प्राकृत वालों में एक दिगम्बरीय है और एक श्वेताम्बरीय ।३२५। इन दोनों पर ही अनेकों टीकायें हैं । संस्कृत वाले दोनों दिगम्बरीय प्राकृत के रूपान्तर मात्र होने से ।३२६। दिगम्बरीय हैं । पाँच-पाँच अधिकारों में विभक्त होने से तथा कर्मस्तव आदि आगम प्राभृतों का संग्रह होने से इनका ‘पञ्चसंग्रह’ नाम सार्थक है ।३४३। गोमट्टसार आदि कुछ अन्य ग्रन्थ भी इस नाम से अपना उल्लेख करने में गौरव का अनुभव करते हैं । इन सबका क्रम से परिचय दिया जाता है । <br /> | | #REDIRECT [[परिशिष्ट]] |
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| <li><strong> दिगम्बरीय प्राकृत पञ्चसंग्रह–</strong><br>सबसे अधिक प्राचीन है । इसके पाँच अधिकारों के नाम हैं–जीवसमास, प्रकृतिसमुत्कीर्तना, कर्मस्तव, शतक और सप्तितका । षट्खण्डागम का और कषायपाहुड़ का अनुसरण करने वाले प्रथम दो अधिकारों में जीवसमास, गुणस्थान मार्गणास्थान आदि का तथा मूलोत्तर कर्म प्रकृतियों का विवेचन किया गया है । कर्मस्तव आदि अपर तीन अधिकार उस उस नाम वाले आगम प्राभृतों को आत्मसात करते हुए कर्मों के बन्ध उदय सत्त्व का विवेचन करते हैं ।३४३। इसमें कुल १३२४ गाथायें तथा ५०० श्लोक प्रमाण गद्य भाग है । समय–इसके रचयिता का नाम तथा समय ज्ञात नहीं है । तथापि अकलंक भट्ट (ई. ६२०-६८०) कृत राजवार्तिक में इसका उल्लेख प्राप्त होने से इसका समय वि.श.८ से पूर्व ही अनुमान किया जाता है ।३५१। (जै./१/पृष्ठ) । डॉ. A.N.Up. ने इसे वि.श.५-८ में स्थापित किया है । (पं.सं./प्र. ३९) । <br />
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| <li><strong> श्वेताम्बरीय प्राकृत पञ्चसंग्रह–</strong><br>श्वेताम्बर आम्नाय का प्राकृत गाथाबद्ध यह ग्रन्थ भी दिगम्बरीय की भाँति ५ अधिकारों में विभक्त है । उनके नाम तथा विषय भी लगभग वही हैं । गाथा संख्या १००५ है । इसके रचयिता चन्द्रर्षि महत्तर माने गए हैं, जिन्होंने इस पर स्वयं ८००० श्लोक प्रमाण ‘स्वोपज्ञ’ टीका लिखी है । इसके अतिरिक्त आ. मलयगिरि (वि. श. १२) कृत एक संस्कृत टीका भी उपलब्ध है । मूल ग्रन्थ को आचार्य ने महान या यथार्थ कहा है ।३५१। समय–चन्द्रर्षि महत्तर का काल वि.श.१० का अन्तिम चरण निर्धारित किया गया है ।३६६। (देखें - [[ चन्द्रर्षि | चन्द्रर्षि ]]), (जै./१/३५१, ३६६) । <br />
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| <li><strong>३-४. संस्कृत पञ्चसंग्रह–</strong><br>दो उपलब्ध हैं । दोनों ही दिगम्बरीय प्राकृत पञ्चसंग्रह के संस्कृत रूपान्तर मात्र हैं । इनमें से एक चित्रकूट (चित्तौड़) निवासी श्रीपाल मुत डड्ढा की रचना है और दूसरा आचार्य अमितगति की । पहले में १२४३ और दूसरे में ७०० अनुष्टुप् पद्य हैं और साथ-साथ क्रमशः १४५६ और १००० श्लोक प्रमाण गद्य भाग है । समय–आ. अमितगति वाले की रचना वि.सं.१०७३ में होनी निश्चित है । डड्ढा वाले का रचनाकाल निम्न तथ्यों पर से. वि. १०१२ और १०४७ के मध्य कभी होना निर्धारित किया गया है । क्योंकि एक ओर तो इसमें अमृतचन्द्राचार्य (वि.९६२-१०१२) कृत तत्त्वार्थसार का एक श्लोक इसमें उद्धृत पाया जाता है और दूसरी ओर इसका एक श्लोक आचार्य जयसेन नं. ४ (वि. १०५०) में उद्धृत है । तीसरी ओर गोमट्टसार (वि. १०४०) का प्रभाव जिस प्रकार अमितगति कृत पञ्चसंग्रह पर दिखाई देता है, उस प्रकार इस पर दिखाई नहीं देता है । इस पर से यह अनुमान होता है कि गोमट्टसार की रचना डड्ढा कृत पञ्चसंग्रह के पश्चात् हुई है । (जै./१/३७२-३७५) । </ol><ol start="5">
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| <li><strong>५-६. पञ्चसंग्रह की टीकायें–</strong><br>५. दिगम्बरीय पञ्चसंग्रह पर दो टीकायें उपलब्ध हैं । एक वि.१५२६ की है, जिसका रचयिता अज्ञात है । दूसरी वि.१६२० की है । इसके रचयिता भट्टारक सुमतिकीर्ति हैं ।४४८। परन्तु भ्रान्तिवश इसे मुनि पद्मनन्दि की मान लिया गया है । वास्तव में ग्रन्थ में इस नाम का उल्लेख ग्रन्थकार के प्रति नहीं, प्रत्युत उस प्रकरण के रचयिता की ओर संकेत करता है जिसे ग्रन्थकर्त्ता भट्टारक सुमतिकीर्ति ने पद्मनन्दि कृत ‘जंबूदीव पण्णति’ से लेकर ग्रन्थ के ‘शतक’ नामक अन्तिम अधिकार में ज्यों का त्यों आत्मसात कर लिया है ।४४९। पञ्चसंग्रह के आधार पर लिखी गयी होने से भले इसे टीका कहो, परन्तु विविध ग्रन्थों से उद्धृत गाथाओं तथा प्रकरणों की बहुलता होने से यह टीका तो नाममात्र ही है ।४४८। लेखक ने स्वयं टीका न कहकर ‘आराधना’ नाम दिया है ।४४५। चूर्णियों की शैली में लिखित इसमें ५४६ गाथा प्रमाण तो पद्यभाग है और ४००० श्लोक प्रमाण गद्य भाग है । (जै./१/पृष्ठ संख्या), (ती./३/३७९) । ६. इन्हीं भट्टारक सुमतिकीर्ति द्वारा रचित एक अन्य भी पञ्चसंग्रह वृत्ति प्राप्त है । यह वास्तव में अकेले सुमतिकीर्ति की न होकर इनकी तथा ज्ञानभूषण की साझली है । वास्तव में पञ्चसंग्रह की न होकर गोमट्टसार की टीका है, क्योंकि इसका मूल आधार ‘पञ्चसंग्रह’ नहीं है, बल्कि गोमट्टसार की ‘जीवप्रबोधिनी’ टीका के आधार पर लिखित ‘कर्म प्रकृति’ नामक ग्रन्थ है । ग्रन्थकार ने इसे ‘लघुगोमट्टसार’ अपर नाम ‘पञ्चसंग्रह’ कहा है । समय–वि. १६२० । (जै./१/४७१-४८०) । <br />
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| </ol><ol start="7"> <li><strong> अन्यान्य पञ्चसंग्रह–</strong><br>इनके अतिरिक्त भी पञ्चसंग्रह नामक कई ग्रन्थों का उल्लेख प्राप्त होता है । जैसे ‘गोमट्टसार’ के रचयिता श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने उसे ‘पञ्चसंग्रह’ कहा है । श्रीहरि दामोदर वेलंकर ने अपने जिनरत्न कोश में ‘पञ्चसंग्रह दीपक’ नाम के किसी ग्रन्थ का उल्लेख किया है, जो कि इनके अनुसार गोमट्टसार का इन्द्र वामदेव द्वारा रचित संस्कृत पद्यानुवाद है । पाँच अधिकारों में विभक्त इसमें १४९८ पद्य हैं । (पं.सं./प्र.१४/ A.N.Up.) । <br />
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| <strong>पद्धति टीका–</strong><br>इन्द्रनन्दी कृत श्रुतावतार के कथनानुसार आचार्य शामकुण्ड ने ‘कषायपाहुड’ तथा ‘षट्खण्डागम’ के आद्य पांच खण्डों पर ‘पद्धति’ नामक एक टीका लिखी थी, जिसकी भाषा संस्कृत तथा प्राकृत का मिश्रण थी, परन्तु शामकुण्ड क्योंकि कुन्द कुन्द का ही कोई बिगड़ा हुआ नाम प्रतीत होता है, इसलिए कुछ विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि आचार्य कुन्द-कुन्द कृत ‘परिकर्म टीका’ का ही यह कोई अपर नाम है । (जै./१/२७४) । <br />
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| <strong>परिकर्म टीका–</strong><br>इन्द्रनन्दी कृत श्रुतावतार के कथनानुसार आचार्य कुन्दकुन्द ने षट्खण्डागम के आद्य ५ खण्डों पर १२००० श्लोक प्रमाण इस नाम की एक टीका रची थी ।२६४। धवला टीका में इसके उद्धरण प्रायः ‘जीवस्थान’ नामक प्रथम खण्ड के द्वितीय अधिकार ‘द्रव्य प्रमाणानुगम’ में आते हैं, जिस पर से यह अनुमान होता है कि इस टीका में जीवों की संख्या का प्रतिपादन बहुलता के साथ किया गया है । धवलाकार ने कई स्थानों पर ‘परिकर्म सूत्र’ कहकर इस टीका का ही उल्लेख किया है, ऐसा प्रतीत होता है ।२६८। कुन्द-कुन्द की समयसार आदि अन्य रचनाओं की भाँति यह ग्रन्थ गाथाबद्ध नहीं है, तदपि प्राकृत भाषाबद्ध अवश्य है । पण्डित कैलाशचन्द इसे कुन्द-कुन्द कृत मानते हैं । (जै./१/पृष्ठ संख्या) । <br />
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| <strong>बप्पदेव–</strong><br>इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार श्लोक नं.१७१-१७६ के अनुसार भागीरथी और कृष्णा नदी के मध्य अर्थात् धारवाड़ या बेलगांव जिले के अन्तर्गत उत्कलिका नगरी के समीप ‘मगणवल्ली’ ग्राम में आचार्य शुभनन्दि तथा शिवनन्दि (ई.श.२-३) से सिद्धान्त का श्रवण करके आपने कषायपाहुड़ सहित, षट्खंडागम के आद्य पाँच खण्डों पर ६०,००० श्लोक प्रमाण और उसके महाबन्ध नामक षष्टम खण्ड पर ८००० श्लोक प्रमाण व्याख्या लिखी थी । (जै./१/२७१), (ती./२/९५) । इन्होंने षट्खंडागम से ‘महाबन्ध’ नामक षष्टम खंड को पृथक् करके उसके स्थान पर उपर्युक्त ‘व्याख्या प्रज्ञप्ति’ का संक्षिप्त रूप उसमें मिला दिया था । समय–इनके गुरु शुभनन्दि को वी.नि.श.५ का विद्वान कल्पित करके डॉ. नेमिचन्द्र ने यद्यपि वी.नि.श.५-६ (ई.श.१) में प्रतिष्ठित किया है, परन्तु इन्द्रनन्दि कृत श्रुतावतार के अनुसार ये वि.श.७ (ई.श.६-७) के विद्वान हैं । (जै./१/३८६) । <br />
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| <strong>मलयगिरि</strong><br>‘‘कर्म प्रकृति/२९३’’, सित्तरि या सप्ततिका ।३१८।, पञ्चसंग्रह ।३६०। आदि श्वेताम्बर ग्रन्थों के टीकाकार एक प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य । समय–‘कर्मप्रकृति’ की टीकायें गंर्गर्षि (वि. श. १०) और पञ्चसंग्रह की रचना गुजरात के चालुक्यवंशी नरेश के शासन काल में होने की सूचना उपलब्ध होने से इनको हम वि.श.१२ के पूर्वार्ध में स्थापित कर सकते हैं ।३६०। (जै./१/पृष्ठ संख्या) । <br />
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| <strong>महाबन्ध–</strong><br>३०,००० श्लोक प्रमाण यह सिद्धान्त ग्रन्थ आचार्य भूतबली (ई.६६-१५६) द्वारा रचित षट्खंडागम का अन्तिम खंड है, जो अत्यन्त विशाल तथा गम्भीर होने के कारण एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध हो गया है । विवरणात्मक शैली में अति विस्तार युक्त तथा सुबोध होने के कारण किसी भी आचार्य ने इस पर कोई टीका नहीं लिखी । आचार्य वीरसेन स्वामी ने भी ५ खण्डों पर तो विस्तृत टीका लिखी, परन्तु इस षष्टम खण्ड पर टीका लिखने की आवश्यकता नहीं समझी । (जै./१/१५२) । इस ग्रन्थ में स्वामित्व भागाभाग आदि अनुयोग द्वारों के द्वारा विस्तार को प्राप्त प्रकृति, स्थिति, अनुभाग व प्रदेश बन्ध का और उनके बन्धकों तथा बन्धनीयों का विवेचन निबद्ध है । (जै./१/१५३) । इस ग्रन्थ की प्रारम्भिक भूमिका ‘सत्कर्म’ नाम से प्रसिद्ध है, जिस पर ‘सत्कर्म पत्रिका’ नामक व्याख्या उपलब्ध है । (देखें - [[ सत्कर्म पंञ्जिका | सत्कर्म पंञ्जिका ]]) । <br />
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| <strong>विशेषावश्यक भाष्य–</strong><br>आचार्य जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण द्वारा रचित यह एक विशालकाय सिद्धान्त विषयक श्वेताम्बर ग्रन्थ है । ग्रन्थ समाप्ति में इसका समाप्ति काल वि.६६६ बताया गया है । परन्तु पण्डित सुखलाल जी के अनुसार यह इसका लेखन काल है । ग्रन्थ का रचना काल उससे पूर्व लगभग वि.६५० में स्थापित किया जा सकता है । (जै./२/३३१) । <br />
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| <strong>व्याख्या प्रज्ञप्ति–</strong><br>षट्खण्डागम के छः खंडों से अधिक वह अतिरिक्त खण्ड जिसे आचार्य भूतबली ने छोड़ दिया था और जिसे आचार्य बप्पदेव (वि. श. ७) ने ६०,००० श्लोक प्रमाण व्याख्या लिखकर पूरा किया था । वाटग्राम (बड़ौदा) के जिनमन्दिर में इसे प्राप्त करके ही श्री ‘वीरसेन स्वामी’ ने ‘सत्कर्म’ नाम से धवला के परिशिष्ट रूप एक अतिरिक्त खंड की रचना की थी । (देखें - [[ सत्कर्म | सत्कर्म ]]) (इन्द्रनन्दि श्रुतावतार श्लोक १७३-१८१); (जै./१/२७९); (ती./२/९६) ॥
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