| <p id="2">(2) अवसर्पिणी काल के दुःखमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं आठवें वासुदेव-नारायण । इन्होंने कोटिशिला घुटनों तक उठाई थी । ये तीर्थङ्कर मुनिसुव्रत के तीर्थ में हुए थे । वाराणसी नगरी के राज दशरथ इनके पिता और रानी कैकेयी माँ थी । ये माघ शुक्ल प्रतिपदा के दिन विशाखा नक्षत्र में जन्मे थे । इनकी कुल आयु बारह हजार वर्ष थी । इसमें कुमारकाल का समय सौ वर्ष, दिग्विजय का समय चालीस वर्ष और राज्यकाल एक हजार अठारह सौ बासठ वर्ष रहा । ये पन्द्रह धनुष ऊँचे थे । शरीर बत्तीस लक्षणों से विभूषित था । ये वज्रवृषभनाराच संहनन और समचतुरस्रसंस्थान के धारी थे । इनकी नील कमल के समान शारीरिक कान्ति थी । राम इनके बड़े भाई और भरत तथा शत्रुघ्न छोटे भाई थे । यज्ञ की सुरक्षा के लिए राजा जनक के आमन्त्रण पर राजा दशरथ ने पुरोहित से परामर्श करके राम के साथ ससैन्य इन्हें भेजा था । वहाँ से लौटकर दोनों भाई सीता सहित अयोध्या आये । अयोध्या में राजा दशरथ ने पृथिवीदेवी आदि सोलह कन्याओं के साथ इनका विवाह किया था । दशरथ ने इन्हें युवराज बनाकर राम के साथ बनारस भेजा था । रावण द्वारा सीता-हरण किये जाने पर शोकसन्तप्त राम को इन्होंने धैर्य बँधाकर सीता वापस लाने का उपाय करने को कहा था । लंका-विजय के पूर्व इन्होंने बाली को मारा था । जगत्पाद पर्वत पर सात दिन निराहार रहकर इन्होंने प्रज्ञप्ति-विद्या सिद्ध की थी । रावण से युद्ध करने ये राम के साथ लंका गये थे । लंका पहुंचने पर सुग्रीव और हनुमान इन्हें और राम को अपने द्वारा सिद्ध की हुई गरुडवाहिनी, सिंहवाहिनी, बन्धमोचिनी और हननावरणी ये चार विद्याएँ दी थीं । रावण के युद्धस्थल में आने पर ये विजयपर्वत-हाथी पर सवार होकर युद्धार्थ निकले थे । रावण के मायामय युद्ध करने पर इन्होंने भी इन्द्रजीत के साथ मायामय युद्ध किया था । रावण द्वारा नारायण पंजर में घेर लिये जाने पर अपनी विद्या से ये उस पंजर को तोड़कर बाहर निकल आये थे । रावण ने इनके ऊपर चक्र भी चलाया था किन्तु वह इनके दाहिने हाथ पर आकर ठहर गया था । इन्होंने इसी चक्र से रावण का सिर काट डाला था । विजयोपरान्त इन्होंने विभीषण को लंका का राजा बनाया और वहाँ की समस्त विभूति उसे दे दी । लंका से लौटकर राम के साथ ये सुन्दरपीठपर्वत पर ठहरे थे । यहाँ देव और विद्याधर राजाओं ने राम के साथ इनका अभिषेक किया था । यही इन्होंने कोटिशिला उठाई थी । यहाँ के निवासी यक्ष सुनन्द ने प्रसन्न होकर इन्हें सौनन्दक नाम की तलवार दी थी । प्रभासदेव को वश में करने से उससे सन्तानक माला, सफेद-छत्र और आभूषण प्राप्त हुए थे । इन्होंने सोलह हजार पट्टबन्ध राजाओं और एक सौ दस नगरियों के स्वामी विद्याधर राजाओं को अपने अधीन किया था । इनकी यह विजय बयालीस वर्ष में पूर्ण हुई थी । इस विजय के पश्चात् ये अयोध्या लौट आये थे । पृथिवीसुन्दरी आदि इनकी सोलह हजार रानियाँ थीं । सुदर्शन चक्र, कौमुदी गदा, सौनन्दक खड्ग, अधोमुखी शक्ति, शारंग धनुष, पांचजन्य शंख और कौस्तुभ महामणि ये सात इनके रत्न थे । इनके इन रत्नों की एक-एक हजार यक्ष देव रक्षा करते थे । शिवगुप्त मुनिराज के समझाने पर भी ये भोगों में आसक्त रहे । निदान-शल्य के कारण सम्यग्दर्शन आदि कुछ ग्रहण न कर सके । पृथिवीचन्द्र इनका पुत्र था असाध्य रोग से इनका माघ कृष्ण अमावस्या के दिन मरण हुआ । ये मरकर पंकप्रभा पृथिवी में गये । राम ने राज्यलक्ष्मी इन्हीं के पुत्र को सौंपकर अपने हाथ से उसका पट्ट बांधा था । इनकी पृथिवीसुन्दरी आदि रानियों ने श्रुतवती आर्यिका से दीक्षा ले ली थी । ये पंकप्रभा से निकलकर क्रम-क्रम से संयम धारण कर मोक्ष प्राप्त करेंगे । पद्मपुराण के अनुसार ये अयोध्या के राजा दशरथ और उनकी रानी कैकेयी के पुत्र थे । इनके बड़े भाई का नाम पद्म था । भरत और शत्रुघ्न इनके छोटे भाई थे । इन्हें सर्वशास्त्र विषयक ज्ञान इनके गुरु हरि से प्राप्त हुआ था । जनक के यज्ञ की सुरक्षा के लिए ये पद्म के साथ मिथिला गये थे । इनके इस कौशल को देखकर विद्याधर चन्द्रवर्धन ने इन्हें बुद्धिमती आदि अठारह कन्याएँ दी थीं । पद्म के साथ ये भी वन गये थे । वनवास के समय इन्होंने उज्जयिनी के राजा सिंहोदर को परास्त किया और वज्रकर्ण की उस सिंहोदर नामक राजा से मित्रता कराई थी । इस पर वज्रकर्ण ने इन्हें अपनी पुत्रियाँ विवाही थीं । सिंहोदर ने भी इन्हें कन्याएँ दी थीं । इन्हें यहाँ कुल तीन सौ कन्याएं प्राप्त हुई थी । इन्होंने विंध्यचल में म्लेच्छराज रौद्रभूति को परास्त किया था । वेजन्तपुर के राजा पृथिवीधर की पुत्री वनमाला को इन्होंने आत्मघात से बचाया था और उसे अपनाया था । अतिवीर्य के पुत्र विजयरथ ने अपनी बहिन रतिमाला इन्हें दी थी । वंशस्थल-पर्वत पर इन्हें सुर्यहास-खड्ग मिला । इससे इन्होंने सलूक को और पिता खरदूषण को मारा था । वन में बेलन्धर नगर के राजा समुद्र-विद्याधर ने इन्हें अपनी चार कन्याएँ दी थीं । महालोचन-गरुडेन्द्र ने गरुड़वाहिनी-विद्या दी थी । सुग्रीव ने इनकी और इनके भाई राम की पूजा की थी । इन्होंने कोटिशिला को अपनी भुजाओं से ऊपर उठाया था । पद्म-रावण युद्ध में इन्द्रजित् के महातामस अस्त्र को इन्होंने सूर्यास्त्र से तथा नागास्त्र को गरुडास्त्र से दूर कर दिया था । इन्द्रजित ने इन्हें रथ रहित भी किया । उसने तामशास्त्र छोड़कर अन्धकार मे रावण को छिपा लिया किन्तु इन्होंने सूर्यास्त्र छोड़कर इन्द्रजित् का मनोरथ पूर्ण नहीं होने दिया । इनके नागबाणों से आहत होकर वह पृथिवी पर गिर गया था । रावण द्वारा विभीषण पर चलाये गये शूल को इन्होंने बाणों से ही नष्ट कर दिया था । इस पर कुपित होकर रावण ने इन पर शक्ति-प्रहार किया । उससे आहत होकर ये मूर्च्छित हो गये । देवगीतपुर के निवासी चन्द्रप्रतिम के यह बताने पर कि द्रोणमेघ की पुत्री विशल्या के आते ही लक्ष्मण की मूर्च्छा दूर हो जायेगी । पद्म ने भामण्डल के द्वारा विशल्या को वहाँ बुलाया । वह आई और लक्ष्मण की मूर्च्छा दूर हुई । युद्ध पुन: आरम्भ हुआ । इन्होंने सिद्धार्थ अस्त्र से रावण के सभी अस्त्र विफल कर दिये । रावण ने बहुरूपिणी विद्या का प्रयोग किया । इन्होंने उसे भी नष्ट किया । अन्त में रावण ने इन्हें मारने के लिए चक्र का प्रहार किया । चक्र इनकी प्रदक्षिणा देकर इनके हाथ में आ गया और स्थिर हो गया । इस । चक्र के प्रहार से इन्होंने रावण को मारा । इसके पश्चात् विभीषण के निवेदन पर ये भी राम के साथ लंका मे छह: वर्ष रहे । लंका से लौटते समय अनेक राजाओं को जीता । विद्याधर भी इनके अधीन हुए । समस्त पृथिवी पर इनका स्वामित्व हुआ । इसी समय ये नारायण पद को प्राप्त हुए । चक्र, छत्र, धनुष, शक्ति, गदा, मणि और खड्ग ये सात रत्न भी इन्हें इसी समय प्राप्त हुए । इनकी सत्रह हजार रानियां थीं । इनके कुल अढ़ाई सौ पुत्र थे । राम के द्वारा किये गये सीता के परित्याग को इन्होंने उचित नहीं समझा परन्तु राम के आगे ये कुछ नहीं कह सके । परिचय के अभाव में अज्ञात अवस्था में इन्हें लवणांकुश और मदनांकुश से भी युद्ध करना पड़ा पर यह विदित होते ही कि वे राम के ही पुत्र है, इन्होंने युद्ध छोड़कर उन दोनों का स्नेह से आलिंगन किया था । रत्नचूड़ और मृगचूल देवों के द्वारा राम के प्रति इनके स्नेह की परीक्षा के समय राम का कृत्रिम मरण दिखाये जाने से इनकी मृत्यु हुई । मरकर ये बालुकाप्रभा भूमि में उत्पन्न हुए । सीता के जीव ने स्वर्ग से इस भूमि में जाकर इन्हें सम्बोधा तथा सम्यक्दर्शन प्राप्त कराया । ये तीर्थकर होकर आगे निर्वाण प्राप्त करेंगे । पाँचवें पूर्वभव में ये वसुदत्त और चौथे पूर्वभव में श्रीभूति ब्राह्मण, तीसरे में देव, दूसरे में विद्याघर पुनर्वसु और प्रथम पूर्वभव मे सनत्कुमार स्वर्ग मे देव थे । महापुराण 67. 148-155, 164-165, 68.30-38, 47-48, 77-83, 110-114, 178-182, 264-268, 464-472, 502, 521-522, 545-546, 618-634, 643-690, 701-704, 712, 722, पद्मपुराण 22.173-175, 25.23-58, 27.78-83, 28.247-250, 31. 195-201, 33.74, 185-200, 241-243, 307-313, 34.71-78, 35. 22-27, 36. 10-49, 73, 37.139-147, 38.1-3, 60-141, 39.71-73, 43. 40-111, 44.48-103, 45.1-38, 47.128, 48.214, 54.65-69, 60. 128-135, 140, 62.33-34, 57-65, 71-84, 63. 1-3, 25, 64. 24-46, 65.1-6, 31.38, 80, 74.91-114, 75.22-60, 76.32-33, 80, 123, 83. 36, 94.1-35, 40, 97.7-12, 26, 50-51, 103. 16-56, 105.263, 110.1-95, 115.2-15, 106.5-44, 175, 205-206, 118.29-30, 106, 123. 123.1-53, 112-133, हरिवंशपुराण 53.38, 60.531, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101, 113</p>
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