निश्चयनय निर्देश: Difference between revisions
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नियमसार/159 <span class="PrakritText">केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं। </span><span class="HindiText">=निश्चय से केवलज्ञानी आत्मा को देखता है।</span><br /> | नियमसार/159 <span class="PrakritText">केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं। </span><span class="HindiText">=निश्चय से केवलज्ञानी आत्मा को देखता है।</span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/1/7/28/585/1 <span class="SanskritText"> निश्चनय एवंभूत:। </span>=<span class="HindiText">निश्चय नय एवंभूत है।</span><br /> | श्लोकवार्तिक/1/7/28/585/1 <span class="SanskritText"> निश्चनय एवंभूत:। </span>=<span class="HindiText">निश्चय नय एवंभूत है।</span><br /> | ||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/34/66/20 <span class="SanskritText"> ज्ञानमेव प्रत्याख्यानं नियमान्निश्चयान् | समयसार / तात्पर्यवृत्ति/34/66/20 <span class="SanskritText"> ज्ञानमेव प्रत्याख्यानं नियमान्निश्चयान् मंतव्यं। </span>=<span class="HindiText">नियम से, निश्चय से ज्ञान को ही प्रत्याख्यान मानना चाहिए।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/93/ से पहिले प्रक्षेपक गाथा नं.1/118/30 <span class="SanskritText">परमार्थस्य विशेषेण संशयादिरहितत्वेन निश्चय:। </span>=<span class="HindiText">परमार्थ के विशेषण से संशयादि रहित निश्चय अर्थ का ग्रहण किया गया है।</span><br /> | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/93/ से पहिले प्रक्षेपक गाथा नं.1/118/30 <span class="SanskritText">परमार्थस्य विशेषेण संशयादिरहितत्वेन निश्चय:। </span>=<span class="HindiText">परमार्थ के विशेषण से संशयादि रहित निश्चय अर्थ का ग्रहण किया गया है।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/41/164/11 <span class="SanskritText">श्रद्धानरुचिर्निश्चय इदमेवेत्थमेवेति निश्चयबुद्धि: सम्यग्दर्शनम् । </span>=<span class="HindiText">श्रद्धान यानी रुचि या निश्चय अर्थात् ‘तत्त्व का स्वरूप यह ही है, ऐसे ही है’ ऐसी निश्चयबुद्धि सो सम्यग्दर्शन है।<br /> | द्रव्यसंग्रह टीका/41/164/11 <span class="SanskritText">श्रद्धानरुचिर्निश्चय इदमेवेत्थमेवेति निश्चयबुद्धि: सम्यग्दर्शनम् । </span>=<span class="HindiText">श्रद्धान यानी रुचि या निश्चय अर्थात् ‘तत्त्व का स्वरूप यह ही है, ऐसे ही है’ ऐसी निश्चयबुद्धि सो सम्यग्दर्शन है।<br /> | ||
समयसार/ पं. | समयसार/ पं.जयचंद/241 जहाँ निर्बाध हेतु से सिद्धि होय वही निश्चय है।<br /> | ||
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/366/2 साँचा निरूपण सो निश्चय।<br /> | मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/366/2 साँचा निरूपण सो निश्चय।<br /> | ||
मोक्षमार्ग प्रकाशक/9/489/19 सत्यार्थ का नाम निश्चय है।<br /> | मोक्षमार्ग प्रकाशक/9/489/19 सत्यार्थ का नाम निश्चय है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="V.1.2.2" id="V.1.2.2"> उदाहरण</strong><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.1.2.2" id="V.1.2.2"> उदाहरण</strong><br /> | ||
देखें [[ मोक्षमार्ग#3.1 | मोक्षमार्ग - 3.1 ]]दर्शन ज्ञान चारित्र ये तीन भेद व्यवहार से ही कहे जाते हैं निश्चय से तीनों एक आत्मा ही है।</span><br /> | देखें [[ मोक्षमार्ग#3.1 | मोक्षमार्ग - 3.1 ]]दर्शन ज्ञान चारित्र ये तीन भेद व्यवहार से ही कहे जाते हैं निश्चय से तीनों एक आत्मा ही है।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/16/ क.18 <span class="SanskritGatha">परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैकक:। | समयसार / आत्मख्याति/16/ क.18 <span class="SanskritGatha">परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैकक:। सर्वभावांतरध्वंसिस्वभावत्वादमेचक:।18।</span> =<span class="HindiText">परमार्थ से देखने पर ज्ञायक ज्योति मात्र आत्मा एकस्वरूप है, क्योंकि शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से सभी अन्य द्रव्य के स्वभाव तथा अन्य के निमित्त से हुए विभावों को दूर करने रूप स्वभाव है। अत: यह अमेचक है अर्थात् एकाकार है।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/599 <span class="SanskritGatha">व्यवहार: स यथा स्यात्सद् द्रव्यं ज्ञानवांश्च जीवो वा। नेत्येतावन्मात्रो भवति स निश्चयनयो नयाधिपति:।</span> =<span class="HindiText">‘सत् द्रव्य है’ या ‘ज्ञानवान् जीव है’ ऐसा व्यवहारनय का पक्ष है। और ‘द्रव्य या जीव सत् या ज्ञान मात्र ही नहीं है’ ऐसा निश्चयनय का पक्ष है।<br /> | पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/599 <span class="SanskritGatha">व्यवहार: स यथा स्यात्सद् द्रव्यं ज्ञानवांश्च जीवो वा। नेत्येतावन्मात्रो भवति स निश्चयनयो नयाधिपति:।</span> =<span class="HindiText">‘सत् द्रव्य है’ या ‘ज्ञानवान् जीव है’ ऐसा व्यवहारनय का पक्ष है। और ‘द्रव्य या जीव सत् या ज्ञान मात्र ही नहीं है’ ऐसा निश्चयनय का पक्ष है।<br /> | ||
और भी देखें [[ नय#IV.1.7 | नय - IV.1.7]]-6 द्रव्य क्षेत्र काल व भाव चारों अपेक्षा से अभेद।<br /> | और भी देखें [[ नय#IV.1.7 | नय - IV.1.7]]-6 द्रव्य क्षेत्र काल व भाव चारों अपेक्षा से अभेद।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="V.1.3.2" id="V.1.3.2"> उदाहरण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.1.3.2" id="V.1.3.2"> उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/7/38/22 <span class="SanskritText">पारिणामिकभावसाधनो निश्चयत:।</span> =<span class="HindiText">निश्चय से जीव की सिद्धि पारिणामिकभाव से होती है।</span><br /> | राजवार्तिक/1/7/38/22 <span class="SanskritText">पारिणामिकभावसाधनो निश्चयत:।</span> =<span class="HindiText">निश्चय से जीव की सिद्धि पारिणामिकभाव से होती है।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/56 <span class="SanskritText">निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं | समयसार / आत्मख्याति/56 <span class="SanskritText">निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं भावमवलंब्योत्प्लवमान: परभावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति।</span> <span class="HindiText">=निश्चयनय द्रव्य के आश्रित होने से केवल एक जीव के स्वाभाविक भाव को अवलंबन कर प्रवृत्त होता है, वह सब परभावों को पर का बताकर उनका निषेध करता है।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 <span class="SanskritText">रागादिपरिणामस्यैवात्मा कर्ता तस्यैवोपदाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनय:। </span>=<span class="HindiText">शुद्धद्रव्य का निरूपण करने वाले निश्चयनय की अपेक्षा आत्मा अपने रागादि परिणामों का ही कर्ता उपदाता या हाता (ग्रहण व त्याग करने वाला) है। ( द्रव्यसंग्रह व टी./8)।</span><br /> | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 <span class="SanskritText">रागादिपरिणामस्यैवात्मा कर्ता तस्यैवोपदाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनय:। </span>=<span class="HindiText">शुद्धद्रव्य का निरूपण करने वाले निश्चयनय की अपेक्षा आत्मा अपने रागादि परिणामों का ही कर्ता उपदाता या हाता (ग्रहण व त्याग करने वाला) है। ( द्रव्यसंग्रह व टी./8)।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परि./नय नं.45 <span class="SanskritText">निश्चयनयेन | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परि./नय नं.45 <span class="SanskritText">निश्चयनयेन केवलबध्यमानमुच्यमानबंधमोक्षोचितस्निग्धरूक्षत्वगुणपरिणतपरमाणुवद्बंधमोक्षयोरद्वैतानुवर्ति।</span> =<span class="HindiText">आत्मद्रव्य निश्चयनय से बंध व मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करने वाला है। अकेले बध्यमान और मुच्यमान ऐसे बंधमोक्षोचित स्निग्धत्व रूक्षत्व गुण रूप परिणत परमाणु की भाँति।</span><br /> | ||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 <span class="SanskritText"> निश्चयेन भावप्राणधारणाज्जीव:। </span>=<span class="HindiText">निश्चयनय से भावप्राण धारण करने के कारण जीव है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/3/11/8 )।</span><br /> | नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 <span class="SanskritText"> निश्चयेन भावप्राणधारणाज्जीव:। </span>=<span class="HindiText">निश्चयनय से भावप्राण धारण करने के कारण जीव है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/3/11/8 )।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/19/57/9 <span class="SanskritText">स्वकीयशुद्धप्रदेशेषु यद्यपि निश्चयनयेन | द्रव्यसंग्रह टीका/19/57/9 <span class="SanskritText">स्वकीयशुद्धप्रदेशेषु यद्यपि निश्चयनयेन सिद्धास्तिष्ठंति।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय से सिद्ध भगवान् स्वकीय शुद्ध प्रदेशों में ही रहते हैं।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/8/22/2 <span class="SanskritText"> | द्रव्यसंग्रह टीका/8/22/2 <span class="SanskritText">किंतु शुद्धाशुद्धभावानां परिणममानानामेव कर्तृत्वं ज्ञातव्यम्, न च हस्तादिव्यापाररूपाणामिति।</span>=<span class="HindiText">निश्चयनय से जीव को अपने शुद्ध या अशुद्ध भावरूप परिणामों का ही कर्तापना जानना चाहिए, हस्तादि व्यापाररूप कार्यों का नहीं।</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/4/21 <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य आराधक भाव है।<br /> | पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/4/21 <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य आराधक भाव है।<br /> | ||
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<strong>नोट</strong>–(परमभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनय ही परमशुद्ध निश्चयनय है। अत: देखें [[ नय#IV.2.6.10 | नय - IV.2.6.10]])</span><br /> | <strong>नोट</strong>–(परमभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनय ही परमशुद्ध निश्चयनय है। अत: देखें [[ नय#IV.2.6.10 | नय - IV.2.6.10]])</span><br /> | ||
नियमसार/42 <span class="PrakritGatha">चउगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोयसोका य। कुलजोणिजीवमग्गणठाणा जीवस्स णो संति।42।</span>=<span class="HindiText">(शुद्ध निश्चयनय से ता.वृ.टीका) जीव को चार गति के भवों में परिभ्रमण, जाति, जरा, मरण, रोग, शोक, कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणा स्थान नहीं है। ( समयसार/50-55 ), ( बारस अणुवेक्खा/37 ) ( परमात्मप्रकाश/ मू./1/19-21,68)</span><br /> | नियमसार/42 <span class="PrakritGatha">चउगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोयसोका य। कुलजोणिजीवमग्गणठाणा जीवस्स णो संति।42।</span>=<span class="HindiText">(शुद्ध निश्चयनय से ता.वृ.टीका) जीव को चार गति के भवों में परिभ्रमण, जाति, जरा, मरण, रोग, शोक, कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणा स्थान नहीं है। ( समयसार/50-55 ), ( बारस अणुवेक्खा/37 ) ( परमात्मप्रकाश/ मू./1/19-21,68)</span><br /> | ||
समयसार/56 <span class="PrakritGatha"> ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुण ठाणंता भावा ण दु केइ णिच्छयणयस्स।56। </span>=<span class="HindiText">ये जो (पहिले गाथा नं.50-55में) वर्ण को आदि लेकर गुणस्थान | समयसार/56 <span class="PrakritGatha"> ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुण ठाणंता भावा ण दु केइ णिच्छयणयस्स।56। </span>=<span class="HindiText">ये जो (पहिले गाथा नं.50-55में) वर्ण को आदि लेकर गुणस्थान पर्यंत भाव कहे गये हैं वे व्यवहार नय से ही जीव के होते हैं परंतु (शुद्ध) निश्चयनय से तो इनमें से कोई भी जीव के नहीं है।</span><br /> | ||
समयसार/68 <span class="PrakritGatha">मोहणकम्मसुदया दु वण्णिया जे इमे गुणट्ठाणा। ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता।68।</span><br /> | समयसार/68 <span class="PrakritGatha">मोहणकम्मसुदया दु वण्णिया जे इमे गुणट्ठाणा। ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता।68।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/68 <span class="SanskritText"> एवं रागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्म ...संयमलब्धिस्थानान्यपि पुद्गलकर्मपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात्पुद्गल एव न तु जीव इति स्वयमायातं।</span> =<span class="HindiText">जो मोह कर्म के उदय से उत्पन्न होने से अचेतन कहे गये हैं, ऐसे गुणस्थान जीव कैसे हो सकते हैं। और इसी प्रकार राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म आदि तथा संयमलब्धि स्थान ये सब 19 बातें पुद्गलकर्म जनित होने से नित्य अचेतन स्वरूप हैं और इसलिए पुद्गल हैं जीव नहीं, यह बात स्वत: प्राप्त होती है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/16/53/3 )</span><br /> | समयसार / आत्मख्याति/68 <span class="SanskritText"> एवं रागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्म ...संयमलब्धिस्थानान्यपि पुद्गलकर्मपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात्पुद्गल एव न तु जीव इति स्वयमायातं।</span> =<span class="HindiText">जो मोह कर्म के उदय से उत्पन्न होने से अचेतन कहे गये हैं, ऐसे गुणस्थान जीव कैसे हो सकते हैं। और इसी प्रकार राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म आदि तथा संयमलब्धि स्थान ये सब 19 बातें पुद्गलकर्म जनित होने से नित्य अचेतन स्वरूप हैं और इसलिए पुद्गल हैं जीव नहीं, यह बात स्वत: प्राप्त होती है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/16/53/3 )</span><br /> | ||
वा.अनु./82 <span class="PrakritText">णिच्छयणयेण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय से जीव सागर व अनागर दोनों धर्मों से भिन्न है।</span><br /> | वा.अनु./82 <span class="PrakritText">णिच्छयणयेण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय से जीव सागर व अनागर दोनों धर्मों से भिन्न है।</span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश/ मू./1/65 <span class="PrakritGatha">बंधु वि मोक्खु वि सयलु जिय जीवहँ कम्मु जणेइ। अप्पा किं पि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउँ भणेइ।65।</span>=<span class="HindiText"> | परमात्मप्रकाश/ मू./1/65 <span class="PrakritGatha">बंधु वि मोक्खु वि सयलु जिय जीवहँ कम्मु जणेइ। अप्पा किं पि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउँ भणेइ।65।</span>=<span class="HindiText">बंध को या मोक्ष को करने वाला तो कर्म है। निश्चय से आत्मा तो कुछ भी नहीं करता। ( पंचाध्यायी x`/ पु./456)</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/115 <span class="PrakritGatha">सुद्धो जीवसहावो जो रहिओ दव्वभावकम्मेहिं। सो सुद्धणिच्छयादो समासिओ सुद्धणाणीहिं।115।</span>=<span class="HindiText">शुद्धनिश्चय नय से जीवस्वभाव द्रव्य व भावकर्मों से रहित कहा गया है।</span><br /> | नयचक्र बृहद्/115 <span class="PrakritGatha">सुद्धो जीवसहावो जो रहिओ दव्वभावकम्मेहिं। सो सुद्धणिच्छयादो समासिओ सुद्धणाणीहिं।115।</span>=<span class="HindiText">शुद्धनिश्चय नय से जीवस्वभाव द्रव्य व भावकर्मों से रहित कहा गया है।</span><br /> | ||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/159 <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयत:...स भगवान् त्रिकालनिरूपाधिनिरवधिनित्यशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनाभ्यां निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्यपरमात्मादि जानाति पश्यति च। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से भगवान् त्रिकाल निरुपाधि निरवधि नित्यशुद्ध ऐसे सहजज्ञान और सहज दर्शन द्वारा निज कारणपरमात्मा को स्वयं कार्यपरमात्मा होने पर भी जानते और देखते हैं।</span><br /> | नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/159 <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयत:...स भगवान् त्रिकालनिरूपाधिनिरवधिनित्यशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनाभ्यां निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्यपरमात्मादि जानाति पश्यति च। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से भगवान् त्रिकाल निरुपाधि निरवधि नित्यशुद्ध ऐसे सहजज्ञान और सहज दर्शन द्वारा निज कारणपरमात्मा को स्वयं कार्यपरमात्मा होने पर भी जानते और देखते हैं।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/48/206/4 <span class="SanskritText"> साक्षाच्छुद्धनिश्चयनयेन स्त्रीपुरुषसंयोगरहितपुत्रस्येव | द्रव्यसंग्रह टीका/48/206/4 <span class="SanskritText"> साक्षाच्छुद्धनिश्चयनयेन स्त्रीपुरुषसंयोगरहितपुत्रस्येव सुधाहरिद्रासंयोगरहितरंगविशेषस्येव तेषामुत्पत्तिरेव नास्ति कथमुत्तरं पृच्छाम इति।=</span><span class="HindiText">साक्षात् शुद्ध निश्चयनय से तो, जैसे स्त्री व पुरुषसंयोग के बिना पुत्र की तथा चूना व हल्दी के संयोग बिना लालरंग की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार रागद्वेष की उत्पत्ति ही नहीं होती, फिर इस प्रश्न का उत्तर ही क्या? ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/111/171/23 )</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/57/235/7 में उद्धृत <span class="SanskritText">मुक्तश्चेत् | द्रव्यसंग्रह टीका/57/235/7 में उद्धृत <span class="SanskritText">मुक्तश्चेत् प्राक्भवेद्बंधो नो बंधो मोचनं कथम् । अबंधे मोचनं नैव मुंचेरर्थो निरर्थक:। बंधश्च शुद्धनिश्चयनयेन नास्ति, तथा बंधपूर्वकमोक्षोऽपि। </span>=<span class="HindiText">जिसके बंध होता है उसको ही मोक्ष होता है। शुद्ध निश्चयनय से जीव को बंध ही नहीं है, फिर उसको मोक्ष कैसा। अत: इस नय में मुंच धातु का प्रयोग ही निरर्थक है। शुद्ध निश्चय नय से जीव के बंध ही नहीं है, तथा बंधपूर्वक होने से मोक्ष भी नहीं है। ( परमात्मप्रकाश टीका/1/68/69/1 )</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/57/236/8 <span class="SanskritText">यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूप: शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्ष: स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न।</span>=<span class="HindiText">जो शुद्धद्रव्य की शक्तिरूप शुद्धपारिणामिक भावरूप परम निश्चय मोक्ष है, वह तो जीव में पहिले ही विद्यमान है, अब प्रगट होगी, ऐसा नहीं है।</span><br /> | द्रव्यसंग्रह टीका/57/236/8 <span class="SanskritText">यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूप: शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्ष: स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न।</span>=<span class="HindiText">जो शुद्धद्रव्य की शक्तिरूप शुद्धपारिणामिक भावरूप परम निश्चय मोक्ष है, वह तो जीव में पहिले ही विद्यमान है, अब प्रगट होगी, ऐसा नहीं है।</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/13 <span class="SanskritText">आत्मा हि शुद्धनिश्चयेन सत्ताचैतन्यबोधादिशुद्धप्राणैर्जीवति...शुद्धज्ञानचेतनया ...युक्तत्वाच्चेतयिता...।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से आत्मा सत्ता, चैतन्य व ज्ञानादि शुद्ध प्राणों से जीता है और शुद्ध ज्ञानचेतना से युक्त होने के कारण चेतयिता है ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/3/11 )<br /> | पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/13 <span class="SanskritText">आत्मा हि शुद्धनिश्चयेन सत्ताचैतन्यबोधादिशुद्धप्राणैर्जीवति...शुद्धज्ञानचेतनया ...युक्तत्वाच्चेतयिता...।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से आत्मा सत्ता, चैतन्य व ज्ञानादि शुद्ध प्राणों से जीता है और शुद्ध ज्ञानचेतना से युक्त होने के कारण चेतयिता है ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/3/11 )<br /> | ||
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आलापपद्धति/10 <span class="SanskritText">निरुपाधिकगुणगुण्यभेदविषयक: शुद्धनिश्चयो यथा केवलज्ञानादयो जीव इति। (स्फटिकवत्)</span> =<span class="HindiText">निरुपाधिक गुण व गुणी में अभेद दर्शानेवाला शुद्ध निश्चयनय है, जैसे केवलज्ञानादि ही जीव है अर्थात् जीव का स्वभावभूत लक्षण है।<br /> | आलापपद्धति/10 <span class="SanskritText">निरुपाधिकगुणगुण्यभेदविषयक: शुद्धनिश्चयो यथा केवलज्ञानादयो जीव इति। (स्फटिकवत्)</span> =<span class="HindiText">निरुपाधिक गुण व गुणी में अभेद दर्शानेवाला शुद्ध निश्चयनय है, जैसे केवलज्ञानादि ही जीव है अर्थात् जीव का स्वभावभूत लक्षण है।<br /> | ||
( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25 ); ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परि./368/12); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/61/113/12 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/6/18/8 )</span><br /> | ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25 ); ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परि./368/12); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/61/113/12 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/6/18/8 )</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/17 (शुद्ध) <span class="SanskritText">निश्चयेन केवलज्ञानदर्शनरूपशुद्धोपयोगेन...युक्तत्वादुपयोगविशेषता, ...मोक्षमोक्षकारणरूपशुद्धपरिणामपरिणमनसमर्थत्वात्...प्रभुर्भवति; शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धभावानां परिणामानां...कर्तृत्वात्कर्ता भवति;... | पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/17 (शुद्ध) <span class="SanskritText">निश्चयेन केवलज्ञानदर्शनरूपशुद्धोपयोगेन...युक्तत्वादुपयोगविशेषता, ...मोक्षमोक्षकारणरूपशुद्धपरिणामपरिणमनसमर्थत्वात्...प्रभुर्भवति; शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धभावानां परिणामानां...कर्तृत्वात्कर्ता भवति;...शुद्धात्मोत्थवीतरागपरमानंदरूपसुखस्य भोर्क्तृत्वात् भोक्ता भवति।</span> =<span class="HindiText">यह आत्मा शुद्ध निश्चय नय से केवलज्ञान व केवलदर्शनरूप शुद्धोपयोग से युक्त होने के कारण उपयोगविशेषतावाला है; मोक्ष व मोक्ष के कारणरूप शुद्ध परिणामों द्वारा परिणमन करने में समर्थ होने से प्रभु है; शुद्ध भावों का या शुद्ध भावों को करता होने से कर्ता है और शुद्धात्मा से उत्पन्न वीतराग परम आनंद को भोगता होने से भोक्ता है।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/9/23/6 <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयनयेन | द्रव्यसंग्रह टीका/9/23/6 <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयनयेन परमात्मस्वभावसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानोत्पंनसदानंदैकलक्षणं सुखामृत भुक्त इति। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से परमात्मस्वभाव के सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान और आचरण से उत्पन्न अविनाशी आनंदरूप लक्षण का धारक जो सुखामृत है, उसको (आत्मा) भोगता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="V.1.6" id="V.1.6"> एकदेश शुद्धनिश्चय नय का लक्षण व उदाहरण</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.1.6" id="V.1.6"> एकदेश शुद्धनिश्चय नय का लक्षण व उदाहरण</strong> <br /> | ||
<strong>नोट</strong>–(एकदेश शुद्धभाव को जीव का स्वरूप कहना एकदेश शुद्ध निश्चयनय है। यथा–)</span><br /> | <strong>नोट</strong>–(एकदेश शुद्धभाव को जीव का स्वरूप कहना एकदेश शुद्ध निश्चयनय है। यथा–)</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/48/205 <span class="SanskritText">अत्राह शिष्य:–रागद्वेषादय: किं कर्मजनिता किं जीवजनिता इति। तत्रोत्तरं स्त्रीपुरुषसंयोगोत्पन्नपुत्र इव सुधाहरिद्रासंयोगोत्पन्नवर्णविशेष इवोभयसंयोगजनिता इति। पश्चान्नयविवक्षावशेन विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन कर्मजनिता | द्रव्यसंग्रह टीका/48/205 <span class="SanskritText">अत्राह शिष्य:–रागद्वेषादय: किं कर्मजनिता किं जीवजनिता इति। तत्रोत्तरं स्त्रीपुरुषसंयोगोत्पन्नपुत्र इव सुधाहरिद्रासंयोगोत्पन्नवर्णविशेष इवोभयसंयोगजनिता इति। पश्चान्नयविवक्षावशेन विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन कर्मजनिता भण्यंते।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–रागद्वेषादि भाव कर्मों से उत्पन्न होते हैं या जीव से? <strong>उत्तर</strong>–स्त्री व पुरुष इन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र के समान और चूना तथा हल्दी इन दोनों के मेल से उत्पन्न हुए लालरंग के समान ये रागद्वेषादि कषाय जीव और कर्म इन दोनों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। जब नय की विवक्षा होती है तो विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्चयनय से ये कषाय कर्म से उत्पन्न हुए कहे जाते हैं। (अशुद्धनिश्चय से जीवजनित कहे जाते हैं और साक्षात् शुद्धनिश्चय नय से ये हैं ही नहीं, तब किसके कहे? (देखें [[ शीर्षक नं#5.1 | शीर्षक नं - 5.1 ]]में द्रव्यसंग्रह )।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/57/236/7 <span class="SanskritText">विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनयेन पूर्वं मोक्षमार्गो व्याख्यातस्तथा पर्यायरूपो मोक्षोऽपि। न च शुद्धनिश्चयेनेति।</span> =<span class="HindiText">पहिले जो मोक्षमार्ग या पर्यायमोक्ष कहा गया है, वह विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से कहा गया है, शुद्ध निश्चयनय से नहीं (क्योंकि उसमें तो मोक्ष या मोक्षमार्ग का विकल्प ही नहीं है)<br /> | द्रव्यसंग्रह टीका/57/236/7 <span class="SanskritText">विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनयेन पूर्वं मोक्षमार्गो व्याख्यातस्तथा पर्यायरूपो मोक्षोऽपि। न च शुद्धनिश्चयेनेति।</span> =<span class="HindiText">पहिले जो मोक्षमार्ग या पर्यायमोक्ष कहा गया है, वह विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से कहा गया है, शुद्ध निश्चयनय से नहीं (क्योंकि उसमें तो मोक्ष या मोक्षमार्ग का विकल्प ही नहीं है)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="V.1.7" id="V.1.7">शुद्ध, एकदेश शुद्ध, व निश्चय सामान्य में | <li><span class="HindiText"><strong name="V.1.7" id="V.1.7">शुद्ध, एकदेश शुद्ध, व निश्चय सामान्य में अंतर व इनकी प्रयोग विधि</strong> </span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश टीका/64/65/1 <span class="SanskritText">सांसारिकं सुखदु:खं यद्यप्यशुद्धनिश्चयनयेन जीवजनितं तथापि शुद्धनिश्चयेन कर्मजनितं भवति।</span>=<span class="HindiText">सांसारिक सुख दुख यद्यपि अशुद्ध निश्चयनय से जीव जनित हैं, फिर भी शुद्ध निश्चयनय से वे कर्मजनित हैं। (यहाँ एकदेश शुद्ध को भी शुद्धनिश्चयनय ही कह दिया है) ऐसा ही सर्वत्र यथा योग्य जानना चाहिए)</span><br /> | परमात्मप्रकाश टीका/64/65/1 <span class="SanskritText">सांसारिकं सुखदु:खं यद्यप्यशुद्धनिश्चयनयेन जीवजनितं तथापि शुद्धनिश्चयेन कर्मजनितं भवति।</span>=<span class="HindiText">सांसारिक सुख दुख यद्यपि अशुद्ध निश्चयनय से जीव जनित हैं, फिर भी शुद्ध निश्चयनय से वे कर्मजनित हैं। (यहाँ एकदेश शुद्ध को भी शुद्धनिश्चयनय ही कह दिया है) ऐसा ही सर्वत्र यथा योग्य जानना चाहिए)</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/11 <span class="SanskritText">शुभाशुभयोगत्रयव्यापाररहितेन शुद्धबुद्धैकस्वभावेन यदा परिणमति | द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/11 <span class="SanskritText">शुभाशुभयोगत्रयव्यापाररहितेन शुद्धबुद्धैकस्वभावेन यदा परिणमति तदानंतज्ञानसुखादिशुद्धभावानां छद्मस्थावस्थायां भावनारूपेण विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन कर्ता, मुक्तावस्थायां तु शुद्धनयेनेति।</span>=<span class="HindiText">शुभाशुभ मन वचन काय के व्यापार से रहित जब शुद्धबुद्ध एकस्वभाव से परिणमन करता है, तब अनंतज्ञान अनंतसुख आदि शुद्धभावों को छद्मस्थ अवस्था में ही भावना रूप से, एकदेशशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा कर्ता होता है, परंतु मुक्तावस्था में उन्हीं भावों का कर्ता शुद्ध निश्चयनय से होता है। (इस पर से एकदेश शुद्ध व शुद्ध इन दोनों निश्चय नयों में क्या अंतर है यह जाना जा सकता है।)</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/55/224/6 <span class="SanskritText">निश्चयशब्देन तु प्राथमिकापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्य:। निष्पन्नयोगनिश्चलपुरुषापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्य:। निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षया तु शुद्धोपयोगलक्षणविवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयो ग्राह्य:। विशेषनिश्चय: पुनरग्रेवक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थ:। ...‘मा चिट्ठह मा जंपह...।</span>=<span class="HindiText">निश्चय शब्द से–अभ्यास करने वाले प्राथमिक, जघन्य पुरुष की अपेक्षा तो व्यवहार रत्नत्रय के अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिए। निष्पन्न योग में निश्चल पुरुष की अपेक्षा अर्थात् मध्यम धर्मध्यान की अपेक्षा व्यवहाररत्नत्रय के अनुकूल निश्चय करना चाहिए। निष्पन्नयोग अर्थात् उत्कृष्ट धर्मध्यानी पुरुष की अपेक्षा शुद्धोपयोगरूप विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्चयनय ग्रहण करना चाहिए। विशेष अर्थात् शुद्ध निश्चय आगे कहते हैं।–मन वचन काय से कुछ भी व्यापार न करो केवल आत्मा में रत हो जाओ। (यह कथन शुक्लध्यानी की अपेक्षा समझना)।<br /> | द्रव्यसंग्रह टीका/55/224/6 <span class="SanskritText">निश्चयशब्देन तु प्राथमिकापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्य:। निष्पन्नयोगनिश्चलपुरुषापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्य:। निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षया तु शुद्धोपयोगलक्षणविवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयो ग्राह्य:। विशेषनिश्चय: पुनरग्रेवक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थ:। ...‘मा चिट्ठह मा जंपह...।</span>=<span class="HindiText">निश्चय शब्द से–अभ्यास करने वाले प्राथमिक, जघन्य पुरुष की अपेक्षा तो व्यवहार रत्नत्रय के अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिए। निष्पन्न योग में निश्चल पुरुष की अपेक्षा अर्थात् मध्यम धर्मध्यान की अपेक्षा व्यवहाररत्नत्रय के अनुकूल निश्चय करना चाहिए। निष्पन्नयोग अर्थात् उत्कृष्ट धर्मध्यानी पुरुष की अपेक्षा शुद्धोपयोगरूप विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्चयनय ग्रहण करना चाहिए। विशेष अर्थात् शुद्ध निश्चय आगे कहते हैं।–मन वचन काय से कुछ भी व्यापार न करो केवल आत्मा में रत हो जाओ। (यह कथन शुक्लध्यानी की अपेक्षा समझना)।<br /> | ||
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प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परि./368/13 <span class="SanskritText">अशुद्धनिश्चयनयेन सोपाधिस्फटिकवत्समस्तरागादिविकल्पोपाधिसहितम् । </span>=<span class="HindiText">अशुद्ध निश्चयनय से सोपाधिक स्फटिक की भाँति समस्तरागादि विकल्पों की उपाधि से सहित है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/16/53/3 ); ( अनगारधर्मामृत/1/103/108 )</span><br /> | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परि./368/13 <span class="SanskritText">अशुद्धनिश्चयनयेन सोपाधिस्फटिकवत्समस्तरागादिविकल्पोपाधिसहितम् । </span>=<span class="HindiText">अशुद्ध निश्चयनय से सोपाधिक स्फटिक की भाँति समस्तरागादि विकल्पों की उपाधि से सहित है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/16/53/3 ); ( अनगारधर्मामृत/1/103/108 )</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/8/10/13 <span class="SanskritText">अशुद्धात्मा तु रागादिना अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानकारणं भवति। </span>=<span class="HindiText">अशुद्ध निश्चय नय से अशुद्ध आत्मा रागादिक का अशुद्ध उपादान कारण होता है।</span><br /> | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/8/10/13 <span class="SanskritText">अशुद्धात्मा तु रागादिना अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानकारणं भवति। </span>=<span class="HindiText">अशुद्ध निश्चय नय से अशुद्ध आत्मा रागादिक का अशुद्ध उपादान कारण होता है।</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/61/113/13 <span class="SanskritText">कर्मकर्तृत्वप्रस्तावादशुद्धनिश्चयेन रागादयोऽपि स्वभावा | पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/61/113/13 <span class="SanskritText">कर्मकर्तृत्वप्रस्तावादशुद्धनिश्चयेन रागादयोऽपि स्वभावा भण्यंते।</span>=<span class="HindiText">कर्मों का कर्तापना होने के कारण अशुद्ध निश्चयनय से रागादिक भी जीव के स्वभाव कहे जाते हैं।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/9 <span class="SanskritText">अशुद्धनिश्चयस्यार्थ: कथ्यते–कर्मोपाधिसमुत्पन्नत्वादशुद्ध:, तत्काले तप्ताय: | द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/9 <span class="SanskritText">अशुद्धनिश्चयस्यार्थ: कथ्यते–कर्मोपाधिसमुत्पन्नत्वादशुद्ध:, तत्काले तप्ताय: पिंडवत्तन्मयत्वाच्च निश्चय:। इत्युभयमेलापकेनाशुद्धनिश्चयो भण्यते। </span>=<span class="HindiText"> ‘अशुद्ध निश्चय’ इसका अर्थ कहते हैं–कर्मोपाधि से उत्पन्न होने से अशुद्ध कहलाता है और अपने काल में (अर्थात् रागादि के काल में जीव उनके साथ) अग्नि में तपे हुए लोहे के गोले के समान तन्मय होने से निश्चय कहा जाता है। इस रीति से अशुद्ध और निश्चय इन दोनों को मिलाकर अशुद्ध निश्चय कहा जाता है।</span><br /> | ||
द्रव्यसंग्रह टीका/45/197/1 <span class="SanskritText"> | द्रव्यसंग्रह टीका/45/197/1 <span class="SanskritText"> यच्चाभ्यंतरे रागादिपरिहार: स पुनरशुद्धनिश्चयेनेति। </span>=<span class="HindiText">जो अंतरंग में रागादि का त्याग करना कहा जाता है, वह अशुद्ध निश्चयनय से चारित्र है।</span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश टीका/1/1/6/9 <span class="SanskritText"> भावकर्मदहनं पुनरशुद्धनिश्चयेन। </span>=<span class="HindiText">भावकर्मों का दहन करना अशुद्ध निश्चय नय से कहा जाता है।</span><br /> | परमात्मप्रकाश टीका/1/1/6/9 <span class="SanskritText"> भावकर्मदहनं पुनरशुद्धनिश्चयेन। </span>=<span class="HindiText">भावकर्मों का दहन करना अशुद्ध निश्चय नय से कहा जाता है।</span><br /> | ||
परमात्मप्रकाश टीका/1/1/6/10/5 | परमात्मप्रकाश टीका/1/1/6/10/5 केवलज्ञानाद्यनंतगुणस्मरणरूपो भावनमस्कार: पुनरशुद्धनिश्चयेनेति।=<span class="HindiText">भगवान् के केवलज्ञानादि अनंतगुणों का स्मरण करना रूप जो भाव नमस्कार है वह भी अशुद्ध निश्चयनय से कही जाती है।<br /> | ||
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पं.विं./1/157 <span class="SanskritText">शुद्धं वागतिवर्तितत्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं शुद्धादेश इति प्रभेदजनकं शुद्धेतरं कल्पितम् ।</span> =<span class="HindiText">शुद्धतत्त्व वचन के अगोचर है, इसके विपरीत अशुद्ध तत्त्व वचन के गोचर है। शुद्धतत्त्व को प्रगट करने वाला शुद्धादेश अर्थात् शुद्धनिश्चयनय है और अशुद्ध व भेद को प्रगट करने वाला अशुद्ध निश्चय नय है। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/747 ) ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/134 )</span><br /> | पं.विं./1/157 <span class="SanskritText">शुद्धं वागतिवर्तितत्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं शुद्धादेश इति प्रभेदजनकं शुद्धेतरं कल्पितम् ।</span> =<span class="HindiText">शुद्धतत्त्व वचन के अगोचर है, इसके विपरीत अशुद्ध तत्त्व वचन के गोचर है। शुद्धतत्त्व को प्रगट करने वाला शुद्धादेश अर्थात् शुद्धनिश्चयनय है और अशुद्ध व भेद को प्रगट करने वाला अशुद्ध निश्चय नय है। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/747 ) ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/134 )</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/629 <span class="SanskritGatha">स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम् । अविकल्पवदतिवागिव स्यादनुभवैकगम्यवाच्यार्थ:।629।</span>=<span class="HindiText">स्वयं ही यथार्थ अर्थ को विषय करने वाला होने से निश्चय करके वह निश्चयनय सम्यक्त्व है, और निर्विकल्प व वचनगोचर होने से उसका वाच्यार्थ एक अनुभवगम्य ही होता है।</span><br /> | पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/629 <span class="SanskritGatha">स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम् । अविकल्पवदतिवागिव स्यादनुभवैकगम्यवाच्यार्थ:।629।</span>=<span class="HindiText">स्वयं ही यथार्थ अर्थ को विषय करने वाला होने से निश्चय करके वह निश्चयनय सम्यक्त्व है, और निर्विकल्प व वचनगोचर होने से उसका वाच्यार्थ एक अनुभवगम्य ही होता है।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/134 <span class="SanskritGatha">एक: शुद्धनय: सर्वो | पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/134 <span class="SanskritGatha">एक: शुद्धनय: सर्वो निर्द्वंद्वो निर्विकल्पक:। व्यवहारनयोऽनेक: सद्वंद्व: सविकल्पक:।134। </span>=<span class="HindiText">संपूर्ण शुद्ध अर्थात् निश्चय नय एक निर्द्वंद्व और निर्विकल्प है, तथा व्यवहारनय अनेक सद्वंद्व और सविकल्प है। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/657 )<br /> | ||
और भी देखो नय/IV/1/7 द्रव्यार्थिक नय अवक्तव्य व निर्विकल्प है।<br /> | और भी देखो नय/IV/1/7 द्रव्यार्थिक नय अवक्तव्य व निर्विकल्प है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="V.2.4" id="V.2.4"> शुद्धनिश्चय ही वास्तव में निश्चयनय है, अशुद्ध निश्चय तो व्यवहार है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.2.4" id="V.2.4"> शुद्धनिश्चय ही वास्तव में निश्चयनय है, अशुद्ध निश्चय तो व्यवहार है</strong></span><br /> | ||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/57/97/13 <span class="SanskritText"> | समयसार / तात्पर्यवृत्ति/57/97/13 <span class="SanskritText"> द्रव्यकर्मबंधापेक्षया योऽसौ असद्भूतव्यवहारस्तदपेक्षया तारतम्यज्ञापनार्थं रागादीनामशुद्धनिश्चयो भण्यते। वस्तुतस्तु शुद्धनिश्चयापेक्षया पुनरशुद्धनिश्चयोऽपि व्यवहार एवेति भावार्थ:।57।</span><br /> | ||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/68/108/11 <span class="SanskritText">अशुद्धनिश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्य | समयसार / तात्पर्यवृत्ति/68/108/11 <span class="SanskritText">अशुद्धनिश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्य कर्मापेक्षयाभ्यंतररागादयश्चेतना इति मत्वा निश्चयसंज्ञां लभते तथापि शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव। इति व्याख्यानं निश्चयव्यवहारनयविचारकाले सर्वत्र ज्ञातव्यं।</span> =<span class="HindiText">द्रव्यकर्म-बंध की अपेक्षा से जो यह असद्भूत व्यवहार कहा जाता है उसकी अपेक्षा तारतम्यता दर्शाने के लिए ही रागादिकों को अशुद्धनिश्चयनय का विषय बनाया गया है। वस्तुत: तो शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहार ही है। अथवा द्रव्य कर्मों की अपेक्षा रागादिक अभ्यंतर हैं और इसलिए चेतनात्मक हैं, ऐसा मानकर भले उन्हें निश्चय संज्ञा दे दी गयी हो परंतु शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा तो वह व्यवहार ही है। निश्चय व व्यवहारनय का विचार करते समय सर्वत्र यह व्याख्यान जानना चाहिए। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/115/174/21 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/48/206/3 )</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189/254/11 <span class="SanskritText"> | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189/254/11 <span class="SanskritText">परंपरया शुद्धात्मसाधकत्वादयमशुद्धनयोऽप्युपचारेण शुद्धनयो भण्यते निश्चयनयो न।</span>=<span class="HindiText">परंपरा से शुद्धात्मा का साधक होने के कारण (दे./V/8/1 में प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189 ) यह अशुद्धनय उपचार से शुद्धनय कहा गया है परंतु निश्चय नय नहीं कहा गया है।<br /> | ||
देखें [[ नय#V.4.6 | नय - V.4.6]],8 अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय वास्तव में पर्यायार्थिक होने के कारण व्यवहार नय है।<br /> | देखें [[ नय#V.4.6 | नय - V.4.6]],8 अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय वास्तव में पर्यायार्थिक होने के कारण व्यवहार नय है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="V.2.5" id="V.2.5">उदाहरण सहित व सविकल्प सभी नयें व्यवहार हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.2.5" id="V.2.5">उदाहरण सहित व सविकल्प सभी नयें व्यवहार हैं</strong> </span><br /> | ||
पंचाध्यायी x`/596,615-621,647 <span class="SanskritGatha">सोदाहरणो यावान्नयो विशेषणविशेष्यरूप: स्यात् । व्यवहारापरनामा पर्यायार्थो नयो न द्रव्यार्थ:।596। अथ चेत्सदेकमिति वा चिदेव जीवोऽथ निश्चयो वदति। | पंचाध्यायी x`/596,615-621,647 <span class="SanskritGatha">सोदाहरणो यावान्नयो विशेषणविशेष्यरूप: स्यात् । व्यवहारापरनामा पर्यायार्थो नयो न द्रव्यार्थ:।596। अथ चेत्सदेकमिति वा चिदेव जीवोऽथ निश्चयो वदति। व्यवहारांतर्भावो भवति सदेकस्य तद्द्विधापत्ते:।615। एवं सदुदाहरणे सल्लक्ष्यं लक्षणं तदेकमिति। लक्षणलक्ष्यविभागो भवति व्यवहारत: स नान्यत्र।616। अथवा चिदेव जीवो यदुदाह्रियतेऽप्यभेदबुद्धिमता। उक्तवदत्रापि तथा व्यवहारनयो न परमार्थ:।617। ननु केवलं सदेव हि यदि वा जीवो विशेषनिरपेक्ष:। भवति च तदुदाहरणं भेदाभावत्तदा हि को दोष:।619। अपि चैवं प्रतिनियतं व्यवहारस्यावकाश एव यथा। सदनेकं च सदेकं जीवाश्चिद्द्रव्यमात्मवानिति चेत् ।620। न यत: सदिति विकल्पो जीव: काल्पनिक इति विकल्पश्च। तत्तद्धर्मविशिष्टस्तदानुपचर्यते स यथा।621। इत्युक्तसूत्रादपि सविकल्पत्वात्तथानुभूतेश्च। सर्वोऽपि नयो यावान् परसमय: स च नयावलंबी च।647।</span> =<span class="HindiText">उदाहरण सहित विशेषण विशेष्यरूप जितना भी नय है वह सब ‘व्यवहार’ नामवाला पर्यायार्थिक नय है। परंतु द्रव्यार्थिक नहीं।596। <strong>प्रश्न</strong>–‘सत् एक है’ अथवा ‘चित् ही जीव है’ ऐसा कहने वाले नय निश्चयनय कहे गये हैं और एक सत् को ही दो आदि भेदों में विभाग करने वाला व्यवहार नय कहा गया है।615। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, इस उदाहरण में ‘सत् एक’ ऐसा कहने से ‘सत्’ लक्ष्य है और ‘एक’ उसका लक्षण है। और यह लक्ष्यलक्षण विभाग व्यवहारनय में होता है, निश्चय में नहीं।616। और दूसरा जो ‘चित् ही जीव है’ ऐसा कहने में भी उपरोक्तवत् लक्ष्य-लक्षण भाव से व्यवहारनय सिद्ध होता है, निश्चयनय नहीं।617। <strong>प्रश्न</strong>–विशेष निरपेक्ष केवल ‘सत् ही’ अथवा ‘जीव ही’ ऐसा कहना तो अभेद होने के कारण निश्चय नय के उदाहरण बन जायेंगे?।619। और ऐसा कहने से कोई दोष भी नहीं है, क्योंकि यहाँ ‘सत् एक है’ या ‘जीव चित् द्रव्य है’ ऐसा कहने का अवकाश होने से व्यवहारनय को भी अवकाश रह जाता है।620। <strong>उत्तर</strong>–यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ‘सत्’ और ‘जीव’ यह दो शब्द करनेरूप दोनों विकल्प भी काल्पनिक हैं। कारण कि जो उस उस धर्म से युक्त होता है वह उस उस धर्मवाला उपचार से कहा जाता है।621। और आगम प्रमाण (देखें [[ नय#I.3.3 | नय - I.3.3]]) से भी यही सिद्ध होता है कि सविकल्प होने के कारण जितने भी नय हैं वे सब तथा उनका अवलंबन करने वाले पर-समय हैं।647।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="V.2.6" id="V.2.6">निर्विकल्प होने से निश्चयनय में नयपना कैसे | <li><span class="HindiText"><strong name="V.2.6" id="V.2.6">निर्विकल्प होने से निश्चयनय में नयपना कैसे संभव है ?</strong></span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/600-610 <span class="SanskritGatha">ननु चोक्तं लक्षणमिह नयोऽस्ति सर्वोऽपि किल विकल्पात्मा। तदिह विकल्पाभावात् कथमस्य नयत्वमिदमिति चेत् ।600। तत्र यतोऽस्ति नयत्वं नेति यथा लक्षितस्य पक्षत्वात् । पक्षग्राही च नय: पक्षस्य विकल्पमात्रत्वात् ।601। प्रतिषेध्यो विधिरूपो भवति विकल्प: स्वयं विकल्पत्वात् । प्रतिषेधको विकल्पो भवति तथा स: स्वयं निषेधात्मा।602। | पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/600-610 <span class="SanskritGatha">ननु चोक्तं लक्षणमिह नयोऽस्ति सर्वोऽपि किल विकल्पात्मा। तदिह विकल्पाभावात् कथमस्य नयत्वमिदमिति चेत् ।600। तत्र यतोऽस्ति नयत्वं नेति यथा लक्षितस्य पक्षत्वात् । पक्षग्राही च नय: पक्षस्य विकल्पमात्रत्वात् ।601। प्रतिषेध्यो विधिरूपो भवति विकल्प: स्वयं विकल्पत्वात् । प्रतिषेधको विकल्पो भवति तथा स: स्वयं निषेधात्मा।602। एकांगत्वमसिद्धं न नेति निश्चयनयस्य तस्य पुन:। वस्तुनि शक्तिविशेषो यथा तथा तदविशेषशक्तित्वात् ।610। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जब नय का लक्षण ही यह है कि ‘सब नय विकल्पात्मक होती है (देखें [[ नय#I.1.1.5 | नय - I.1.1.5]]; तथा नय/I/2) तो फिर यहाँ पर विकल्प का अभाव होने से इस निश्चयनय को नयपना कैसे प्राप्त होगा?।600। <strong>उत्तर</strong>–यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि निश्चयनय में भी निषेधसूचक ‘न’ इस शब्द के द्वारा लक्षित अर्थ को भी पक्षपना प्राप्त है और वही इस नय का नयपना है; कारण कि, पक्ष भी विकल्पात्मक होने से नय के द्वारा ग्राह्य है।601। जिस प्रकार प्रतिषेध्य होने के कारण ‘विधि’ एक विकल्प है; उसी प्रकार प्रतिषेधक होने के कारण निषेधात्मक ‘न’ भी एक विकल्प है।600। ‘न’ इत्याकार को विषय करने वाले उस निश्चयनय में एकांगपना (विकलादेशीपना) असिद्ध नहीं है; क्योंकि, जैसे वस्तु में ‘विशेष’ यह शक्ति एक अंग है, वैसे ही ‘सामान्य’ यह शक्ति भी उसका एक अंग है।610।<br /> | ||
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नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 <span class="SanskritText">निश्चयनय: परमार्थप्रतिपादकत्वाद्भूतार्थो।</span>=<span class="HindiText">परमार्थ का प्रतिपादक होने के कारण निश्चयनय भूतार्थ है। ( समयसार / आत्मख्याति/11 )।<br /> | नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 <span class="SanskritText">निश्चयनय: परमार्थप्रतिपादकत्वाद्भूतार्थो।</span>=<span class="HindiText">परमार्थ का प्रतिपादक होने के कारण निश्चयनय भूतार्थ है। ( समयसार / आत्मख्याति/11 )।<br /> | ||
और भी देखें [[ नय#V.1.1 | नय - V.1.1 ]](एवंभूत या सत्यार्थ ग्रहण ही निश्चयनय का लक्षण है।)<br /> | और भी देखें [[ नय#V.1.1 | नय - V.1.1 ]](एवंभूत या सत्यार्थ ग्रहण ही निश्चयनय का लक्षण है।)<br /> | ||
समयसार/ पं. | समयसार/ पं.जयचंद/6 द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, अभेद है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="V.3.2" id="V.3.2"> निश्चयनय साधकतम व नयाधिपति है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.3.2" id="V.3.2"> निश्चयनय साधकतम व नयाधिपति है</strong></span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="V.3.3" id="V.3.3"> निश्चयनय ही सम्यक्त्व का कारण है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.3.3" id="V.3.3"> निश्चयनय ही सम्यक्त्व का कारण है</strong></span><br /> | ||
समयसार/ <span class="PrakritText">भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो। </span>=<span class="HindiText">जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है वह निश्चयनय से सम्यग्दृष्टि होता है।</span><br /> | समयसार/ <span class="PrakritText">भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो। </span>=<span class="HindiText">जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है वह निश्चयनय से सम्यग्दृष्टि होता है।</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 <span class="SanskritText"> | नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 <span class="SanskritText"> अत्रैवाविश्रांतांतर्दृष्टिर्भवत्यात्मा। </span>=<span class="HindiText">इस नय का सहारा लेने से ही आत्मा अंतर्दृष्टि होता है।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/11,414 <span class="SanskritText">ये | समयसार / आत्मख्याति/11,414 <span class="SanskritText">ये भूतार्थमाश्रयंति त एव सम्यक् पश्यत: सम्यग्दृष्टयो भवंति न पुनरन्ये, कतकस्थानीयत्वात् शुद्धनयस्य।11। य एव परमार्थं परमार्थबुद्धया चेतयंते त एव समयसारं चेतयंते।</span> =<span class="HindiText">यहाँ शुद्धनय कतक फल के स्थान पर है (अर्थात् परसंयोग को दूर करने वाला है), इसलिए जो शुद्धनय का आश्रय लेते हैं, वे ही सम्यक् अवलोकन करने से सम्यग्दृष्टि हैं, अन्य नहीं।11। जो परमार्थ को परमार्थबुद्धि से अनुभव करते हैं वे ही समयसार का अनुभव करते हैं।414।</span><br /> | ||
पं.वि./1/80 <span class="SanskritGatha">निरूप्य तत्त्वं स्थिरतामुपागता, मति: सतां | पं.वि./1/80 <span class="SanskritGatha">निरूप्य तत्त्वं स्थिरतामुपागता, मति: सतां शुद्धनयावलंबिनी। अखंडमेकं विशदं चिदात्मकं, निरंतरं पश्यति तत्परं मह:।80।</span>=<span class="HindiText">शुद्धनय का आश्रय लेने वाली साधुजनों की बुद्धितत्त्व का निरूपण करके स्थिरता को प्राप्त होती हुई निरंतर, अखंड, एक, निर्मल एवं चेतनस्वरूप उस उत्कृष्ट ज्योति का ही अवलोकन करती है।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/191/256/18 <span class="SanskritText">ततो ज्ञायते शुद्धनयाच्छुद्धात्मलाभएव।</span> =<span class="HindiText">इससे जाना जाता है कि शुद्धनय के | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/191/256/18 <span class="SanskritText">ततो ज्ञायते शुद्धनयाच्छुद्धात्मलाभएव।</span> =<span class="HindiText">इससे जाना जाता है कि शुद्धनय के अवलंबन से आत्मलाभ अवश्य होता है।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/629 <span class="SanskritText">स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम् ।</span> =<span class="HindiText">स्वयं ही भूतार्थ को विषय करने वाला होने से निश्चय करके, यह निश्चयनय सम्यक्त्व है।<br /> | पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/629 <span class="SanskritText">स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम् ।</span> =<span class="HindiText">स्वयं ही भूतार्थ को विषय करने वाला होने से निश्चय करके, यह निश्चयनय सम्यक्त्व है।<br /> | ||
मोक्षमार्ग प्रकाशक/17/369/10 निश्चयनय तिनि ही कौं यथावत् निरूपै है, काहुकौं काहूविषैं न मिलावै है। ऐसे ही श्रद्धानतैं सम्यक्त्व हो है।<br /> | मोक्षमार्ग प्रकाशक/17/369/10 निश्चयनय तिनि ही कौं यथावत् निरूपै है, काहुकौं काहूविषैं न मिलावै है। ऐसे ही श्रद्धानतैं सम्यक्त्व हो है।<br /> | ||
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समयसार / आत्मख्याति/414/ क.244<span class="SanskritText"> अलमलमतिजल्पैर्दुविकल्पैरयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेक:। स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रान्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति। </span>=<span class="HindiText">बहुत कथन से और बहुत दुर्विकल्पों से बस होओ, बस होओ। यहाँ मात्र इतना ही कहना है, कि इस एकमात्र परमार्थ का ही नित्य अनुभव करो, क्योंकि निज रस के प्रसार से पूर्ण जो ज्ञान, उससे स्फुरायमान होने मात्र जो समयसार; उससे उच्च वास्तव में दूसरा कुछ भी नहीं है।</span><br /> | समयसार / आत्मख्याति/414/ क.244<span class="SanskritText"> अलमलमतिजल्पैर्दुविकल्पैरयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेक:। स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रान्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति। </span>=<span class="HindiText">बहुत कथन से और बहुत दुर्विकल्पों से बस होओ, बस होओ। यहाँ मात्र इतना ही कहना है, कि इस एकमात्र परमार्थ का ही नित्य अनुभव करो, क्योंकि निज रस के प्रसार से पूर्ण जो ज्ञान, उससे स्फुरायमान होने मात्र जो समयसार; उससे उच्च वास्तव में दूसरा कुछ भी नहीं है।</span><br /> | ||
पं.वि./1/157 <span class="SanskritText">तत्राद्य श्रयणीयमेव सुदृशा शेषद्वयोपायत:। </span>=<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि को शेष दो उपायों से प्रथम शुद्ध तत्त्व (जो कि निश्चयनय का वाच्य बताया गया है) का आश्रय लेना चाहिए।</span><br /> | पं.वि./1/157 <span class="SanskritText">तत्राद्य श्रयणीयमेव सुदृशा शेषद्वयोपायत:। </span>=<span class="HindiText">सम्यग्दृष्टि को शेष दो उपायों से प्रथम शुद्ध तत्त्व (जो कि निश्चयनय का वाच्य बताया गया है) का आश्रय लेना चाहिए।</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/54/104/18 <span class="SanskritText"> अत्र यद्यपि पर्यायार्थिकनयेन सादि सनिधनं जीवद्रव्यं व्याख्यातं तथापि शुद्धनिश्चयेन यदेवानादिनिधनं | पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/54/104/18 <span class="SanskritText"> अत्र यद्यपि पर्यायार्थिकनयेन सादि सनिधनं जीवद्रव्यं व्याख्यातं तथापि शुद्धनिश्चयेन यदेवानादिनिधनं टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावं निर्विकारसदानंदैकस्वरूपं च तदेवोपादेयमित्यभिप्राय:। </span>=<span class="HindiText">यहाँ यद्यपि पर्यायार्थिकनय से सादिसनिधन जीव द्रव्य का व्याख्यान किया गया है, परंतु शुद्ध निश्चयनय से जो अनादि निधन टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एकस्वभावी निर्विकार सदानंद एकस्वरूप परमात्म तत्त्व है, वही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/61/16 )।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/630 <span class="SanskritGatha">यदि वा सम्यग्दृष्टिस्तद्दृष्टि: कार्यकारी स्यात् । तस्मात् स उपादेयो नोपादेयस्तदन्यनयवाद:।630।</span>=<span class="HindiText">क्योंकि निश्चयनय पर दृष्टि रखने वाला ही सम्यग्दृष्टि व कार्यकारी है, इसलिए वह निश्चय ही ग्रहण करने योग्य है व्यवहार नहीं।<br /> | पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/630 <span class="SanskritGatha">यदि वा सम्यग्दृष्टिस्तद्दृष्टि: कार्यकारी स्यात् । तस्मात् स उपादेयो नोपादेयस्तदन्यनयवाद:।630।</span>=<span class="HindiText">क्योंकि निश्चयनय पर दृष्टि रखने वाला ही सम्यग्दृष्टि व कार्यकारी है, इसलिए वह निश्चय ही ग्रहण करने योग्य है व्यवहार नहीं।<br /> | ||
विशेष देखें [[ नय#V.8.1 | नय - V.8.1 ]](निश्चयनय की उपादेयता के कारण व प्रयोजन। यह जीव को नयपक्षातीत बना देता है।)<br /> | विशेष देखें [[ नय#V.8.1 | नय - V.8.1 ]](निश्चयनय की उपादेयता के कारण व प्रयोजन। यह जीव को नयपक्षातीत बना देता है।)<br /> | ||
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Revision as of 16:27, 19 August 2020
- निश्चयनय निर्देश
- निश्चय का लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण
नियमसार/159 केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं। =निश्चय से केवलज्ञानी आत्मा को देखता है।
श्लोकवार्तिक/1/7/28/585/1 निश्चनय एवंभूत:। =निश्चय नय एवंभूत है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/34/66/20 ज्ञानमेव प्रत्याख्यानं नियमान्निश्चयान् मंतव्यं। =नियम से, निश्चय से ज्ञान को ही प्रत्याख्यान मानना चाहिए।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/93/ से पहिले प्रक्षेपक गाथा नं.1/118/30 परमार्थस्य विशेषेण संशयादिरहितत्वेन निश्चय:। =परमार्थ के विशेषण से संशयादि रहित निश्चय अर्थ का ग्रहण किया गया है।
द्रव्यसंग्रह टीका/41/164/11 श्रद्धानरुचिर्निश्चय इदमेवेत्थमेवेति निश्चयबुद्धि: सम्यग्दर्शनम् । =श्रद्धान यानी रुचि या निश्चय अर्थात् ‘तत्त्व का स्वरूप यह ही है, ऐसे ही है’ ऐसी निश्चयबुद्धि सो सम्यग्दर्शन है।
समयसार/ पं.जयचंद/241 जहाँ निर्बाध हेतु से सिद्धि होय वही निश्चय है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/366/2 साँचा निरूपण सो निश्चय।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/9/489/19 सत्यार्थ का नाम निश्चय है।
- निश्चय नय का लक्षण अभेद व अनुपचार ग्रहण
- लक्षण
आलापपद्धति/10 निश्चयनयोऽभेदविषयो। =निश्चय नय का विषय अभेद द्रव्य है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25 )।
आलापपद्धति/9 अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चय:।=जो अभेद व अनुपचार से वस्तु का निश्चय करता है वह निश्चय नय है। ( नयचक्र बृहद्/262 ) ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.31) ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/614 )।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/663 अपि निश्चयस्य नियतं हेतु: सामान्यमिह वस्तु।=सामान्य वस्तु ही निश्चयनय का नियत हेतु है।
और भी देखें नय - IV.1.2-5;IV/2/3;
- उदाहरण
देखें मोक्षमार्ग - 3.1 दर्शन ज्ञान चारित्र ये तीन भेद व्यवहार से ही कहे जाते हैं निश्चय से तीनों एक आत्मा ही है।
समयसार / आत्मख्याति/16/ क.18 परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैकक:। सर्वभावांतरध्वंसिस्वभावत्वादमेचक:।18। =परमार्थ से देखने पर ज्ञायक ज्योति मात्र आत्मा एकस्वरूप है, क्योंकि शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से सभी अन्य द्रव्य के स्वभाव तथा अन्य के निमित्त से हुए विभावों को दूर करने रूप स्वभाव है। अत: यह अमेचक है अर्थात् एकाकार है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/599 व्यवहार: स यथा स्यात्सद् द्रव्यं ज्ञानवांश्च जीवो वा। नेत्येतावन्मात्रो भवति स निश्चयनयो नयाधिपति:। =‘सत् द्रव्य है’ या ‘ज्ञानवान् जीव है’ ऐसा व्यवहारनय का पक्ष है। और ‘द्रव्य या जीव सत् या ज्ञान मात्र ही नहीं है’ ऐसा निश्चयनय का पक्ष है।
और भी देखें नय - IV.1.7-6 द्रव्य क्षेत्र काल व भाव चारों अपेक्षा से अभेद।
- लक्षण
- निश्चयनय का लक्षण स्वाश्रय कथन
- लक्षण
समयसार / आत्मख्याति/272 आत्माश्रितो निश्चयनय:। =निश्चय नय आत्मा के आश्रित है। ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/159 )।
तत्त्वानुशासन/59 अभिन्नकर्तृकर्मादिविषयो निश्चयो नय:। =निश्चयनय में कर्ता कर्म आदि भाव एक दूसरे से भिन्न नहीं होते। ( अनगारधर्मामृत/1/102/108 )।
- उदाहरण
राजवार्तिक/1/7/38/22 पारिणामिकभावसाधनो निश्चयत:। =निश्चय से जीव की सिद्धि पारिणामिकभाव से होती है।
समयसार / आत्मख्याति/56 निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं भावमवलंब्योत्प्लवमान: परभावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति। =निश्चयनय द्रव्य के आश्रित होने से केवल एक जीव के स्वाभाविक भाव को अवलंबन कर प्रवृत्त होता है, वह सब परभावों को पर का बताकर उनका निषेध करता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 रागादिपरिणामस्यैवात्मा कर्ता तस्यैवोपदाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनय:। =शुद्धद्रव्य का निरूपण करने वाले निश्चयनय की अपेक्षा आत्मा अपने रागादि परिणामों का ही कर्ता उपदाता या हाता (ग्रहण व त्याग करने वाला) है। ( द्रव्यसंग्रह व टी./8)।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परि./नय नं.45 निश्चयनयेन केवलबध्यमानमुच्यमानबंधमोक्षोचितस्निग्धरूक्षत्वगुणपरिणतपरमाणुवद्बंधमोक्षयोरद्वैतानुवर्ति। =आत्मद्रव्य निश्चयनय से बंध व मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करने वाला है। अकेले बध्यमान और मुच्यमान ऐसे बंधमोक्षोचित स्निग्धत्व रूक्षत्व गुण रूप परिणत परमाणु की भाँति।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 निश्चयेन भावप्राणधारणाज्जीव:। =निश्चयनय से भावप्राण धारण करने के कारण जीव है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/3/11/8 )।
द्रव्यसंग्रह टीका/19/57/9 स्वकीयशुद्धप्रदेशेषु यद्यपि निश्चयनयेन सिद्धास्तिष्ठंति। =निश्चयनय से सिद्ध भगवान् स्वकीय शुद्ध प्रदेशों में ही रहते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/8/22/2 किंतु शुद्धाशुद्धभावानां परिणममानानामेव कर्तृत्वं ज्ञातव्यम्, न च हस्तादिव्यापाररूपाणामिति।=निश्चयनय से जीव को अपने शुद्ध या अशुद्ध भावरूप परिणामों का ही कर्तापना जानना चाहिए, हस्तादि व्यापाररूप कार्यों का नहीं।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/1/4/21 शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति। =शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य आराधक भाव है।
- लक्षण
- निश्चयनय के भेद—शुद्ध व अशुद्ध
आलापपद्धति/10 तत्र निश्चयो द्विविध: शुद्धनिश्चयोऽशुद्धनिश्चयश्च। =निश्चयनय दो प्रकार का है–शुद्धनिश्चय और अशुद्धनिश्चय।
- शुद्धनिश्चयनय के लक्षण व उदाहरण
- परमभावग्राही की अपेक्षा
नोट–(परमभावग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिकनय ही परमशुद्ध निश्चयनय है। अत: देखें नय - IV.2.6.10)
नियमसार/42 चउगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोयसोका य। कुलजोणिजीवमग्गणठाणा जीवस्स णो संति।42।=(शुद्ध निश्चयनय से ता.वृ.टीका) जीव को चार गति के भवों में परिभ्रमण, जाति, जरा, मरण, रोग, शोक, कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणा स्थान नहीं है। ( समयसार/50-55 ), ( बारस अणुवेक्खा/37 ) ( परमात्मप्रकाश/ मू./1/19-21,68)
समयसार/56 ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुण ठाणंता भावा ण दु केइ णिच्छयणयस्स।56। =ये जो (पहिले गाथा नं.50-55में) वर्ण को आदि लेकर गुणस्थान पर्यंत भाव कहे गये हैं वे व्यवहार नय से ही जीव के होते हैं परंतु (शुद्ध) निश्चयनय से तो इनमें से कोई भी जीव के नहीं है।
समयसार/68 मोहणकम्मसुदया दु वण्णिया जे इमे गुणट्ठाणा। ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता।68।
समयसार / आत्मख्याति/68 एवं रागद्वेषमोहप्रत्ययकर्मनोकर्म ...संयमलब्धिस्थानान्यपि पुद्गलकर्मपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात्पुद्गल एव न तु जीव इति स्वयमायातं। =जो मोह कर्म के उदय से उत्पन्न होने से अचेतन कहे गये हैं, ऐसे गुणस्थान जीव कैसे हो सकते हैं। और इसी प्रकार राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म आदि तथा संयमलब्धि स्थान ये सब 19 बातें पुद्गलकर्म जनित होने से नित्य अचेतन स्वरूप हैं और इसलिए पुद्गल हैं जीव नहीं, यह बात स्वत: प्राप्त होती है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/16/53/3 )
वा.अनु./82 णिच्छयणयेण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो। =निश्चयनय से जीव सागर व अनागर दोनों धर्मों से भिन्न है।
परमात्मप्रकाश/ मू./1/65 बंधु वि मोक्खु वि सयलु जिय जीवहँ कम्मु जणेइ। अप्पा किं पि वि कुणइ णवि णिच्छउ एउँ भणेइ।65।=बंध को या मोक्ष को करने वाला तो कर्म है। निश्चय से आत्मा तो कुछ भी नहीं करता। ( पंचाध्यायी x`/ पु./456)
नयचक्र बृहद्/115 सुद्धो जीवसहावो जो रहिओ दव्वभावकम्मेहिं। सो सुद्धणिच्छयादो समासिओ सुद्धणाणीहिं।115।=शुद्धनिश्चय नय से जीवस्वभाव द्रव्य व भावकर्मों से रहित कहा गया है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/159 शुद्धनिश्चयत:...स भगवान् त्रिकालनिरूपाधिनिरवधिनित्यशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनाभ्यां निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्यपरमात्मादि जानाति पश्यति च। =शुद्ध निश्चयनय से भगवान् त्रिकाल निरुपाधि निरवधि नित्यशुद्ध ऐसे सहजज्ञान और सहज दर्शन द्वारा निज कारणपरमात्मा को स्वयं कार्यपरमात्मा होने पर भी जानते और देखते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/48/206/4 साक्षाच्छुद्धनिश्चयनयेन स्त्रीपुरुषसंयोगरहितपुत्रस्येव सुधाहरिद्रासंयोगरहितरंगविशेषस्येव तेषामुत्पत्तिरेव नास्ति कथमुत्तरं पृच्छाम इति।=साक्षात् शुद्ध निश्चयनय से तो, जैसे स्त्री व पुरुषसंयोग के बिना पुत्र की तथा चूना व हल्दी के संयोग बिना लालरंग की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार रागद्वेष की उत्पत्ति ही नहीं होती, फिर इस प्रश्न का उत्तर ही क्या? ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/111/171/23 )
द्रव्यसंग्रह टीका/57/235/7 में उद्धृत मुक्तश्चेत् प्राक्भवेद्बंधो नो बंधो मोचनं कथम् । अबंधे मोचनं नैव मुंचेरर्थो निरर्थक:। बंधश्च शुद्धनिश्चयनयेन नास्ति, तथा बंधपूर्वकमोक्षोऽपि। =जिसके बंध होता है उसको ही मोक्ष होता है। शुद्ध निश्चयनय से जीव को बंध ही नहीं है, फिर उसको मोक्ष कैसा। अत: इस नय में मुंच धातु का प्रयोग ही निरर्थक है। शुद्ध निश्चय नय से जीव के बंध ही नहीं है, तथा बंधपूर्वक होने से मोक्ष भी नहीं है। ( परमात्मप्रकाश टीका/1/68/69/1 )
द्रव्यसंग्रह टीका/57/236/8 यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूप: शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्ष: स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न।=जो शुद्धद्रव्य की शक्तिरूप शुद्धपारिणामिक भावरूप परम निश्चय मोक्ष है, वह तो जीव में पहिले ही विद्यमान है, अब प्रगट होगी, ऐसा नहीं है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/13 आत्मा हि शुद्धनिश्चयेन सत्ताचैतन्यबोधादिशुद्धप्राणैर्जीवति...शुद्धज्ञानचेतनया ...युक्तत्वाच्चेतयिता...।=शुद्ध निश्चयनय से आत्मा सत्ता, चैतन्य व ज्ञानादि शुद्ध प्राणों से जीता है और शुद्ध ज्ञानचेतना से युक्त होने के कारण चेतयिता है ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/3/11 )
और भी देखें नय - IV.2.3 (शुद्धद्रव्यार्थिकनय द्रव्यक्षेत्रादि चारों अपेक्षा से तत्त्व को ग्रहण करता है।
- क्षायिकभावग्राही की अपेक्षा
आलापपद्धति/10 निरुपाधिकगुणगुण्यभेदविषयक: शुद्धनिश्चयो यथा केवलज्ञानादयो जीव इति। (स्फटिकवत्) =निरुपाधिक गुण व गुणी में अभेद दर्शानेवाला शुद्ध निश्चयनय है, जैसे केवलज्ञानादि ही जीव है अर्थात् जीव का स्वभावभूत लक्षण है।
( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/25 ); ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परि./368/12); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/61/113/12 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/6/18/8 )
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/17 (शुद्ध) निश्चयेन केवलज्ञानदर्शनरूपशुद्धोपयोगेन...युक्तत्वादुपयोगविशेषता, ...मोक्षमोक्षकारणरूपशुद्धपरिणामपरिणमनसमर्थत्वात्...प्रभुर्भवति; शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धभावानां परिणामानां...कर्तृत्वात्कर्ता भवति;...शुद्धात्मोत्थवीतरागपरमानंदरूपसुखस्य भोर्क्तृत्वात् भोक्ता भवति। =यह आत्मा शुद्ध निश्चय नय से केवलज्ञान व केवलदर्शनरूप शुद्धोपयोग से युक्त होने के कारण उपयोगविशेषतावाला है; मोक्ष व मोक्ष के कारणरूप शुद्ध परिणामों द्वारा परिणमन करने में समर्थ होने से प्रभु है; शुद्ध भावों का या शुद्ध भावों को करता होने से कर्ता है और शुद्धात्मा से उत्पन्न वीतराग परम आनंद को भोगता होने से भोक्ता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/9/23/6 शुद्धनिश्चयनयेन परमात्मस्वभावसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानोत्पंनसदानंदैकलक्षणं सुखामृत भुक्त इति। =शुद्ध निश्चयनय से परमात्मस्वभाव के सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान और आचरण से उत्पन्न अविनाशी आनंदरूप लक्षण का धारक जो सुखामृत है, उसको (आत्मा) भोगता है।
- परमभावग्राही की अपेक्षा
- एकदेश शुद्धनिश्चय नय का लक्षण व उदाहरण
नोट–(एकदेश शुद्धभाव को जीव का स्वरूप कहना एकदेश शुद्ध निश्चयनय है। यथा–)
द्रव्यसंग्रह टीका/48/205 अत्राह शिष्य:–रागद्वेषादय: किं कर्मजनिता किं जीवजनिता इति। तत्रोत्तरं स्त्रीपुरुषसंयोगोत्पन्नपुत्र इव सुधाहरिद्रासंयोगोत्पन्नवर्णविशेष इवोभयसंयोगजनिता इति। पश्चान्नयविवक्षावशेन विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन कर्मजनिता भण्यंते। =प्रश्न–रागद्वेषादि भाव कर्मों से उत्पन्न होते हैं या जीव से? उत्तर–स्त्री व पुरुष इन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र के समान और चूना तथा हल्दी इन दोनों के मेल से उत्पन्न हुए लालरंग के समान ये रागद्वेषादि कषाय जीव और कर्म इन दोनों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। जब नय की विवक्षा होती है तो विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्चयनय से ये कषाय कर्म से उत्पन्न हुए कहे जाते हैं। (अशुद्धनिश्चय से जीवजनित कहे जाते हैं और साक्षात् शुद्धनिश्चय नय से ये हैं ही नहीं, तब किसके कहे? (देखें शीर्षक नं - 5.1 में द्रव्यसंग्रह )।
द्रव्यसंग्रह टीका/57/236/7 विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनयेन पूर्वं मोक्षमार्गो व्याख्यातस्तथा पर्यायरूपो मोक्षोऽपि। न च शुद्धनिश्चयेनेति। =पहिले जो मोक्षमार्ग या पर्यायमोक्ष कहा गया है, वह विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से कहा गया है, शुद्ध निश्चयनय से नहीं (क्योंकि उसमें तो मोक्ष या मोक्षमार्ग का विकल्प ही नहीं है)
- शुद्ध, एकदेश शुद्ध, व निश्चय सामान्य में अंतर व इनकी प्रयोग विधि
परमात्मप्रकाश टीका/64/65/1 सांसारिकं सुखदु:खं यद्यप्यशुद्धनिश्चयनयेन जीवजनितं तथापि शुद्धनिश्चयेन कर्मजनितं भवति।=सांसारिक सुख दुख यद्यपि अशुद्ध निश्चयनय से जीव जनित हैं, फिर भी शुद्ध निश्चयनय से वे कर्मजनित हैं। (यहाँ एकदेश शुद्ध को भी शुद्धनिश्चयनय ही कह दिया है) ऐसा ही सर्वत्र यथा योग्य जानना चाहिए)
द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/11 शुभाशुभयोगत्रयव्यापाररहितेन शुद्धबुद्धैकस्वभावेन यदा परिणमति तदानंतज्ञानसुखादिशुद्धभावानां छद्मस्थावस्थायां भावनारूपेण विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन कर्ता, मुक्तावस्थायां तु शुद्धनयेनेति।=शुभाशुभ मन वचन काय के व्यापार से रहित जब शुद्धबुद्ध एकस्वभाव से परिणमन करता है, तब अनंतज्ञान अनंतसुख आदि शुद्धभावों को छद्मस्थ अवस्था में ही भावना रूप से, एकदेशशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा कर्ता होता है, परंतु मुक्तावस्था में उन्हीं भावों का कर्ता शुद्ध निश्चयनय से होता है। (इस पर से एकदेश शुद्ध व शुद्ध इन दोनों निश्चय नयों में क्या अंतर है यह जाना जा सकता है।)
द्रव्यसंग्रह टीका/55/224/6 निश्चयशब्देन तु प्राथमिकापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्य:। निष्पन्नयोगनिश्चलपुरुषापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्य:। निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षया तु शुद्धोपयोगलक्षणविवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयो ग्राह्य:। विशेषनिश्चय: पुनरग्रेवक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थ:। ...‘मा चिट्ठह मा जंपह...।=निश्चय शब्द से–अभ्यास करने वाले प्राथमिक, जघन्य पुरुष की अपेक्षा तो व्यवहार रत्नत्रय के अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिए। निष्पन्न योग में निश्चल पुरुष की अपेक्षा अर्थात् मध्यम धर्मध्यान की अपेक्षा व्यवहाररत्नत्रय के अनुकूल निश्चय करना चाहिए। निष्पन्नयोग अर्थात् उत्कृष्ट धर्मध्यानी पुरुष की अपेक्षा शुद्धोपयोगरूप विवक्षित एकदेश शुद्धनिश्चयनय ग्रहण करना चाहिए। विशेष अर्थात् शुद्ध निश्चय आगे कहते हैं।–मन वचन काय से कुछ भी व्यापार न करो केवल आत्मा में रत हो जाओ। (यह कथन शुक्लध्यानी की अपेक्षा समझना)।
- अशुद्ध निश्चयनय का लक्षण व उदाहरण
आलापपद्धति/10 सोपाधिकविषयोऽशुद्धनिश्चयो यथा मतिज्ञानादिजीव इति। =सोपाधिक गुण व गुणी में अभेद दर्शाने वाला अशुद्धनिश्चयनय है। जैसे–मतिज्ञानादि ही जीव अर्थात् उसके स्वभावभूत लक्षण हैं। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.25) ( परमात्मप्रकाश टीका/7/13/3 )।
नयचक्र बृहद्/114 ते चेव भावरूवा जीवे भूदा खओवसमदो य। ते हंति भावपाणा अशुद्धणिच्छयणयेण णायव्वा।114।=जीव में कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले जितने भाव हैं, वे जीव के भावप्राण होते हैं, ऐसा अशुद्धनिश्चयनय से जानना चाहिए। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/60/14 ) ( द्रव्यसंग्रह टीका/3/11/7 );
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/18 अशुद्धनिश्चयनयेन सकलमोहरागद्वेषादिभावकर्मणां कर्ता भोक्ता च। =अशुद्ध निश्चयनय से जीव सकल मोह, राग, द्वेषादि रूप भावकर्मों का कर्ता है तथा उनके फलस्वरूप उत्पन्न हर्ष विषादादिरूप सुख दु:ख का भोक्ता है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/9; तथा 9/23/5)।
परमात्मप्रकाश टीका/64/65/1 सांसारिकसुखदु:खं यद्यप्यशुद्धनिश्चयनयेन जीवजनितं। =अशुद्ध निश्चयनय से सांसारिक सुख दुख जीव जनित हैं।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/ परि./368/13 अशुद्धनिश्चयनयेन सोपाधिस्फटिकवत्समस्तरागादिविकल्पोपाधिसहितम् । =अशुद्ध निश्चयनय से सोपाधिक स्फटिक की भाँति समस्तरागादि विकल्पों की उपाधि से सहित है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/16/53/3 ); ( अनगारधर्मामृत/1/103/108 )
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/8/10/13 अशुद्धात्मा तु रागादिना अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानकारणं भवति। =अशुद्ध निश्चय नय से अशुद्ध आत्मा रागादिक का अशुद्ध उपादान कारण होता है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/61/113/13 कर्मकर्तृत्वप्रस्तावादशुद्धनिश्चयेन रागादयोऽपि स्वभावा भण्यंते।=कर्मों का कर्तापना होने के कारण अशुद्ध निश्चयनय से रागादिक भी जीव के स्वभाव कहे जाते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/8/21/9 अशुद्धनिश्चयस्यार्थ: कथ्यते–कर्मोपाधिसमुत्पन्नत्वादशुद्ध:, तत्काले तप्ताय: पिंडवत्तन्मयत्वाच्च निश्चय:। इत्युभयमेलापकेनाशुद्धनिश्चयो भण्यते। = ‘अशुद्ध निश्चय’ इसका अर्थ कहते हैं–कर्मोपाधि से उत्पन्न होने से अशुद्ध कहलाता है और अपने काल में (अर्थात् रागादि के काल में जीव उनके साथ) अग्नि में तपे हुए लोहे के गोले के समान तन्मय होने से निश्चय कहा जाता है। इस रीति से अशुद्ध और निश्चय इन दोनों को मिलाकर अशुद्ध निश्चय कहा जाता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/45/197/1 यच्चाभ्यंतरे रागादिपरिहार: स पुनरशुद्धनिश्चयेनेति। =जो अंतरंग में रागादि का त्याग करना कहा जाता है, वह अशुद्ध निश्चयनय से चारित्र है।
परमात्मप्रकाश टीका/1/1/6/9 भावकर्मदहनं पुनरशुद्धनिश्चयेन। =भावकर्मों का दहन करना अशुद्ध निश्चय नय से कहा जाता है।
परमात्मप्रकाश टीका/1/1/6/10/5 केवलज्ञानाद्यनंतगुणस्मरणरूपो भावनमस्कार: पुनरशुद्धनिश्चयेनेति।=भगवान् के केवलज्ञानादि अनंतगुणों का स्मरण करना रूप जो भाव नमस्कार है वह भी अशुद्ध निश्चयनय से कही जाती है।
- निश्चय का लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण
- निश्चयनय की निर्विकल्पता
- शुद्ध व अशुद्ध निश्चय द्रव्यार्थिक के भेद है
आलापपद्धति/9 शुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्यार्थिकस्य भेदौ। =शुद्ध और अशुद्ध ये दोनों निश्चयनय द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं। (प. धवला/ पू./660)
- निश्चयनय एक निर्विकल्प व वचनातीत है
पं.विं./1/157 शुद्धं वागतिवर्तितत्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं शुद्धादेश इति प्रभेदजनकं शुद्धेतरं कल्पितम् । =शुद्धतत्त्व वचन के अगोचर है, इसके विपरीत अशुद्ध तत्त्व वचन के गोचर है। शुद्धतत्त्व को प्रगट करने वाला शुद्धादेश अर्थात् शुद्धनिश्चयनय है और अशुद्ध व भेद को प्रगट करने वाला अशुद्ध निश्चय नय है। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/747 ) ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/134 )
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/629 स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम् । अविकल्पवदतिवागिव स्यादनुभवैकगम्यवाच्यार्थ:।629।=स्वयं ही यथार्थ अर्थ को विषय करने वाला होने से निश्चय करके वह निश्चयनय सम्यक्त्व है, और निर्विकल्प व वचनगोचर होने से उसका वाच्यार्थ एक अनुभवगम्य ही होता है।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/134 एक: शुद्धनय: सर्वो निर्द्वंद्वो निर्विकल्पक:। व्यवहारनयोऽनेक: सद्वंद्व: सविकल्पक:।134। =संपूर्ण शुद्ध अर्थात् निश्चय नय एक निर्द्वंद्व और निर्विकल्प है, तथा व्यवहारनय अनेक सद्वंद्व और सविकल्प है। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/657 )
और भी देखो नय/IV/1/7 द्रव्यार्थिक नय अवक्तव्य व निर्विकल्प है।
- निश्चयनय के भेद नहीं हो सकते
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/661 इत्यादिकाश्च बहवो भेदा निश्चयनयस्य यस्य मते। स हि मिथ्यादृष्टित्वात् सर्वज्ञाज्ञावमानितो नियमात् ।661।=(शुद्ध और अशुद्ध को) आदि लेकर निश्चयनय के भी बहुत से भेद हैं, ऐसा जिसका मत है, वह निश्चय करके मिथ्यादृष्टि होने से नियम से सर्वज्ञ की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला है।
- शुद्धनिश्चय ही वास्तव में निश्चयनय है, अशुद्ध निश्चय तो व्यवहार है
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/57/97/13 द्रव्यकर्मबंधापेक्षया योऽसौ असद्भूतव्यवहारस्तदपेक्षया तारतम्यज्ञापनार्थं रागादीनामशुद्धनिश्चयो भण्यते। वस्तुतस्तु शुद्धनिश्चयापेक्षया पुनरशुद्धनिश्चयोऽपि व्यवहार एवेति भावार्थ:।57।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/68/108/11 अशुद्धनिश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्य कर्मापेक्षयाभ्यंतररागादयश्चेतना इति मत्वा निश्चयसंज्ञां लभते तथापि शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव। इति व्याख्यानं निश्चयव्यवहारनयविचारकाले सर्वत्र ज्ञातव्यं। =द्रव्यकर्म-बंध की अपेक्षा से जो यह असद्भूत व्यवहार कहा जाता है उसकी अपेक्षा तारतम्यता दर्शाने के लिए ही रागादिकों को अशुद्धनिश्चयनय का विषय बनाया गया है। वस्तुत: तो शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहार ही है। अथवा द्रव्य कर्मों की अपेक्षा रागादिक अभ्यंतर हैं और इसलिए चेतनात्मक हैं, ऐसा मानकर भले उन्हें निश्चय संज्ञा दे दी गयी हो परंतु शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा तो वह व्यवहार ही है। निश्चय व व्यवहारनय का विचार करते समय सर्वत्र यह व्याख्यान जानना चाहिए। ( समयसार / तात्पर्यवृत्ति/115/174/21 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/48/206/3 )
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189/254/11 परंपरया शुद्धात्मसाधकत्वादयमशुद्धनयोऽप्युपचारेण शुद्धनयो भण्यते निश्चयनयो न।=परंपरा से शुद्धात्मा का साधक होने के कारण (दे./V/8/1 में प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/189 ) यह अशुद्धनय उपचार से शुद्धनय कहा गया है परंतु निश्चय नय नहीं कहा गया है।
देखें नय - V.4.6,8 अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय वास्तव में पर्यायार्थिक होने के कारण व्यवहार नय है।
- उदाहरण सहित व सविकल्प सभी नयें व्यवहार हैं
पंचाध्यायी x`/596,615-621,647 सोदाहरणो यावान्नयो विशेषणविशेष्यरूप: स्यात् । व्यवहारापरनामा पर्यायार्थो नयो न द्रव्यार्थ:।596। अथ चेत्सदेकमिति वा चिदेव जीवोऽथ निश्चयो वदति। व्यवहारांतर्भावो भवति सदेकस्य तद्द्विधापत्ते:।615। एवं सदुदाहरणे सल्लक्ष्यं लक्षणं तदेकमिति। लक्षणलक्ष्यविभागो भवति व्यवहारत: स नान्यत्र।616। अथवा चिदेव जीवो यदुदाह्रियतेऽप्यभेदबुद्धिमता। उक्तवदत्रापि तथा व्यवहारनयो न परमार्थ:।617। ननु केवलं सदेव हि यदि वा जीवो विशेषनिरपेक्ष:। भवति च तदुदाहरणं भेदाभावत्तदा हि को दोष:।619। अपि चैवं प्रतिनियतं व्यवहारस्यावकाश एव यथा। सदनेकं च सदेकं जीवाश्चिद्द्रव्यमात्मवानिति चेत् ।620। न यत: सदिति विकल्पो जीव: काल्पनिक इति विकल्पश्च। तत्तद्धर्मविशिष्टस्तदानुपचर्यते स यथा।621। इत्युक्तसूत्रादपि सविकल्पत्वात्तथानुभूतेश्च। सर्वोऽपि नयो यावान् परसमय: स च नयावलंबी च।647। =उदाहरण सहित विशेषण विशेष्यरूप जितना भी नय है वह सब ‘व्यवहार’ नामवाला पर्यायार्थिक नय है। परंतु द्रव्यार्थिक नहीं।596। प्रश्न–‘सत् एक है’ अथवा ‘चित् ही जीव है’ ऐसा कहने वाले नय निश्चयनय कहे गये हैं और एक सत् को ही दो आदि भेदों में विभाग करने वाला व्यवहार नय कहा गया है।615। उत्तर–नहीं, क्योंकि, इस उदाहरण में ‘सत् एक’ ऐसा कहने से ‘सत्’ लक्ष्य है और ‘एक’ उसका लक्षण है। और यह लक्ष्यलक्षण विभाग व्यवहारनय में होता है, निश्चय में नहीं।616। और दूसरा जो ‘चित् ही जीव है’ ऐसा कहने में भी उपरोक्तवत् लक्ष्य-लक्षण भाव से व्यवहारनय सिद्ध होता है, निश्चयनय नहीं।617। प्रश्न–विशेष निरपेक्ष केवल ‘सत् ही’ अथवा ‘जीव ही’ ऐसा कहना तो अभेद होने के कारण निश्चय नय के उदाहरण बन जायेंगे?।619। और ऐसा कहने से कोई दोष भी नहीं है, क्योंकि यहाँ ‘सत् एक है’ या ‘जीव चित् द्रव्य है’ ऐसा कहने का अवकाश होने से व्यवहारनय को भी अवकाश रह जाता है।620। उत्तर–यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ‘सत्’ और ‘जीव’ यह दो शब्द करनेरूप दोनों विकल्प भी काल्पनिक हैं। कारण कि जो उस उस धर्म से युक्त होता है वह उस उस धर्मवाला उपचार से कहा जाता है।621। और आगम प्रमाण (देखें नय - I.3.3) से भी यही सिद्ध होता है कि सविकल्प होने के कारण जितने भी नय हैं वे सब तथा उनका अवलंबन करने वाले पर-समय हैं।647।
- निर्विकल्प होने से निश्चयनय में नयपना कैसे संभव है ?
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/600-610 ननु चोक्तं लक्षणमिह नयोऽस्ति सर्वोऽपि किल विकल्पात्मा। तदिह विकल्पाभावात् कथमस्य नयत्वमिदमिति चेत् ।600। तत्र यतोऽस्ति नयत्वं नेति यथा लक्षितस्य पक्षत्वात् । पक्षग्राही च नय: पक्षस्य विकल्पमात्रत्वात् ।601। प्रतिषेध्यो विधिरूपो भवति विकल्प: स्वयं विकल्पत्वात् । प्रतिषेधको विकल्पो भवति तथा स: स्वयं निषेधात्मा।602। एकांगत्वमसिद्धं न नेति निश्चयनयस्य तस्य पुन:। वस्तुनि शक्तिविशेषो यथा तथा तदविशेषशक्तित्वात् ।610। =प्रश्न–जब नय का लक्षण ही यह है कि ‘सब नय विकल्पात्मक होती है (देखें नय - I.1.1.5; तथा नय/I/2) तो फिर यहाँ पर विकल्प का अभाव होने से इस निश्चयनय को नयपना कैसे प्राप्त होगा?।600। उत्तर–यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि निश्चयनय में भी निषेधसूचक ‘न’ इस शब्द के द्वारा लक्षित अर्थ को भी पक्षपना प्राप्त है और वही इस नय का नयपना है; कारण कि, पक्ष भी विकल्पात्मक होने से नय के द्वारा ग्राह्य है।601। जिस प्रकार प्रतिषेध्य होने के कारण ‘विधि’ एक विकल्प है; उसी प्रकार प्रतिषेधक होने के कारण निषेधात्मक ‘न’ भी एक विकल्प है।600। ‘न’ इत्याकार को विषय करने वाले उस निश्चयनय में एकांगपना (विकलादेशीपना) असिद्ध नहीं है; क्योंकि, जैसे वस्तु में ‘विशेष’ यह शक्ति एक अंग है, वैसे ही ‘सामान्य’ यह शक्ति भी उसका एक अंग है।610।
- शुद्ध व अशुद्ध निश्चय द्रव्यार्थिक के भेद है
- निश्चयनय की प्रधानता
- निश्चयनय ही सत्यार्थ है
समयसार/11 भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणयो। =शुद्धनय भूतार्थ है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 निश्चयनय: परमार्थप्रतिपादकत्वाद्भूतार्थो।=परमार्थ का प्रतिपादक होने के कारण निश्चयनय भूतार्थ है। ( समयसार / आत्मख्याति/11 )।
और भी देखें नय - V.1.1 (एवंभूत या सत्यार्थ ग्रहण ही निश्चयनय का लक्षण है।)
समयसार/ पं.जयचंद/6 द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, अभेद है, निश्चय है, भूतार्थ है, सत्यार्थ है, परमार्थ है।
- निश्चयनय साधकतम व नयाधिपति है
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 निश्चयनय:...पूज्यतम:। =निश्चयनय पूज्यतम है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 साध्यस्य हि शद्धत्वेन द्रव्यत्व शुद्धत्वद्योतकत्वान्निश्चयनय एव साधकतमो। =साध्य वस्तु क्योंकि शुद्ध है अर्थात् पर संपर्क से रहित तथा अभेद है, इसलिए निश्चयनय ही द्रव्य के शुद्धत्व का द्योतक होने से साधक है। (देखें नय - V.1.2)।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/599 निश्चयनयो नयाधिपति:। =निश्चयनय नयाधिपति है।
- निश्चयनय ही सम्यक्त्व का कारण है
समयसार/ भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो। =जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है वह निश्चयनय से सम्यग्दृष्टि होता है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/32 अत्रैवाविश्रांतांतर्दृष्टिर्भवत्यात्मा। =इस नय का सहारा लेने से ही आत्मा अंतर्दृष्टि होता है।
समयसार / आत्मख्याति/11,414 ये भूतार्थमाश्रयंति त एव सम्यक् पश्यत: सम्यग्दृष्टयो भवंति न पुनरन्ये, कतकस्थानीयत्वात् शुद्धनयस्य।11। य एव परमार्थं परमार्थबुद्धया चेतयंते त एव समयसारं चेतयंते। =यहाँ शुद्धनय कतक फल के स्थान पर है (अर्थात् परसंयोग को दूर करने वाला है), इसलिए जो शुद्धनय का आश्रय लेते हैं, वे ही सम्यक् अवलोकन करने से सम्यग्दृष्टि हैं, अन्य नहीं।11। जो परमार्थ को परमार्थबुद्धि से अनुभव करते हैं वे ही समयसार का अनुभव करते हैं।414।
पं.वि./1/80 निरूप्य तत्त्वं स्थिरतामुपागता, मति: सतां शुद्धनयावलंबिनी। अखंडमेकं विशदं चिदात्मकं, निरंतरं पश्यति तत्परं मह:।80।=शुद्धनय का आश्रय लेने वाली साधुजनों की बुद्धितत्त्व का निरूपण करके स्थिरता को प्राप्त होती हुई निरंतर, अखंड, एक, निर्मल एवं चेतनस्वरूप उस उत्कृष्ट ज्योति का ही अवलोकन करती है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/191/256/18 ततो ज्ञायते शुद्धनयाच्छुद्धात्मलाभएव। =इससे जाना जाता है कि शुद्धनय के अवलंबन से आत्मलाभ अवश्य होता है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/629 स्वयमपि भूतार्थत्वाद्भवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम् । =स्वयं ही भूतार्थ को विषय करने वाला होने से निश्चय करके, यह निश्चयनय सम्यक्त्व है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/17/369/10 निश्चयनय तिनि ही कौं यथावत् निरूपै है, काहुकौं काहूविषैं न मिलावै है। ऐसे ही श्रद्धानतैं सम्यक्त्व हो है।
- निश्चयनय ही उपादेय है
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/67 तस्माद्द्वावपि नाराध्यावाराध्य: पारमार्थिक:।=इसलिए व्यवहार व निश्चय दोनों ही नयें आराध्य नहीं है, केवल एक पारमार्थिक नय ही आराध्य है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/189 निश्चयनय: साधकतमत्वादुपात्त:। =निश्चयनय साधकतम होने के कारण उपात्त है अर्थात् ग्रहण किया गया है।
समयसार / आत्मख्याति/414/ क.244 अलमलमतिजल्पैर्दुविकल्पैरयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेक:। स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रान्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति। =बहुत कथन से और बहुत दुर्विकल्पों से बस होओ, बस होओ। यहाँ मात्र इतना ही कहना है, कि इस एकमात्र परमार्थ का ही नित्य अनुभव करो, क्योंकि निज रस के प्रसार से पूर्ण जो ज्ञान, उससे स्फुरायमान होने मात्र जो समयसार; उससे उच्च वास्तव में दूसरा कुछ भी नहीं है।
पं.वि./1/157 तत्राद्य श्रयणीयमेव सुदृशा शेषद्वयोपायत:। =सम्यग्दृष्टि को शेष दो उपायों से प्रथम शुद्ध तत्त्व (जो कि निश्चयनय का वाच्य बताया गया है) का आश्रय लेना चाहिए।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/54/104/18 अत्र यद्यपि पर्यायार्थिकनयेन सादि सनिधनं जीवद्रव्यं व्याख्यातं तथापि शुद्धनिश्चयेन यदेवानादिनिधनं टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावं निर्विकारसदानंदैकस्वरूपं च तदेवोपादेयमित्यभिप्राय:। =यहाँ यद्यपि पर्यायार्थिकनय से सादिसनिधन जीव द्रव्य का व्याख्यान किया गया है, परंतु शुद्ध निश्चयनय से जो अनादि निधन टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एकस्वभावी निर्विकार सदानंद एकस्वरूप परमात्म तत्त्व है, वही उपादेय है, ऐसा अभिप्राय है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/61/16 )।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/630 यदि वा सम्यग्दृष्टिस्तद्दृष्टि: कार्यकारी स्यात् । तस्मात् स उपादेयो नोपादेयस्तदन्यनयवाद:।630।=क्योंकि निश्चयनय पर दृष्टि रखने वाला ही सम्यग्दृष्टि व कार्यकारी है, इसलिए वह निश्चय ही ग्रहण करने योग्य है व्यवहार नहीं।
विशेष देखें नय - V.8.1 (निश्चयनय की उपादेयता के कारण व प्रयोजन। यह जीव को नयपक्षातीत बना देता है।)
- निश्चयनय ही सत्यार्थ है