निषध: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
राजवार्तिक/3/11/5-6/183/8 –<span class="SanskritText">यस्मिन् देवा देव्यश्च क्रीडार्थं | राजवार्तिक/3/11/5-6/183/8 –<span class="SanskritText">यस्मिन् देवा देव्यश्च क्रीडार्थं निषीधंति स निषध:, पृथोदरादिपाठात् सिद्ध:। अन्यत्रापि तत्तुल्यकारणत्वात्तत्प्रसंग: इति चेन्न; रूढिविशेषबललाभात् । क्व पुनरसौ। हरिविदेहयोर्मयादाहेतु:।6।</span> =<span class="HindiText">जिस पर देव और देवियाँ क्रीड़ा करें वह निषध है। क्योंकि यह संज्ञा रूढ है, इसलिए अन्य ऐसे देवक्रीडा की तुल्यता रखने वाले स्थानों में नहीं जाती है। यह वर्षधर पर्वत हरि और विदेहक्षेत्र की सीमा पर है। विशेष–देखें [[ लोक#3.3 | लोक - 3.3]]। ज.दी.प./प्र./141 A.N.UP व H.L.Jain इस पर्वत से हिंदूकुश श्रृंखला का तात्पर्य है। हिंदूकुश का विस्तार वर्तमान भूगोल के अनुसार पामीर प्रदेश से, जहाँ से इसका मूल है, काबुल के पश्चिम में कोहेबाबा तक माना जाता है। ‘‘कोहे-बाबा और बंदे-बाबा की परंपरा ने पहाडी की उस ऊँची श्रंखला को हेरात तक पहुँचा दिया हे। पामीर से हेरात तक मानो एक श्रृंखला है।’’ अपने प्रारंभ से ही यह दक्षिण को दाबे हुए पश्चिम की ओर बढ़ता है। यही पहाड़ ग्रीकों का परोपानिसस है। और इसका पार्श्ववर्ती प्रदेश काबुल उनका परोपानिसदाय है। ये दोनों ही शब्द स्पष्टत: ‘पर्वत निषध’ के ग्रीक रूप हैं, जैसे कि जायसवाल ने प्रतिपादित किया हे। ‘गिर निसा (गिरि निसा)’ भी गिरि निषध का ही रूप है। इसमें गिरि शब्द एक अर्थ रखता है। वायु पुराण/49/132 में पहाड़ी की श्रृंखला को पर्वत और एक पहाड़ी को गिरि कहा गया है–</span><span class="SanskritText">‘‘अपवर्णास्तु गिरय: पर्वभि: पर्वता: स्मृता:।’’</span> | ||
<p> </p> | <p> </p> | ||
Line 15: | Line 15: | ||
<p id="1"> (1) बलदेव का एक पुत्र । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 48.66 </span></p> | <p id="1"> (1) बलदेव का एक पुत्र । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 48.66 </span></p> | ||
<p id="2">(2) निषध देश का अर्घरथ नृप । <span class="GRef"> महापुराण 63.193, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 50. 83, 124 </span></p> | <p id="2">(2) निषध देश का अर्घरथ नृप । <span class="GRef"> महापुराण 63.193, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 50. 83, 124 </span></p> | ||
<p id="3">(3) | <p id="3">(3) जंबूद्वीप के छ: कुलाचलों में तीसरा कुलाचल । इस पर सूर्योदय और सूर्यास्त होते हैं । इसका विस्तार सोलह हजार आठ सौ बयालीस योजन तथा एक योजन के उन्नीस भागों में दो भाग प्रमाण, ऊँचाई चार सौ योजन और गहराई सौ योजन है । इसके नौ कूटों के नाम है—1. सिद्धायतन कूट, 2. निषध कूट, 3. हरिवर्ष कूट, 4. पूर्वविदेहकूट, 5. ह्रीकूट, 6. मतिकूट, 7. सीतोदाकूट, 8. विदेह कूट, 9. रुचककूट । इनकी ऊँचाई और मूल की चौड़ाई सौ योजन, बीच की चौड़ाई पंचहत्तर योजन और ऊर्ध्व भाग की चौड़ाई पचास योजन होती है । <span class="GRef"> महापुराण 12.138,33.80, 36.48, 63.193, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 105.157-158, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.15, 80-90, 187-188 </span></p> | ||
<p id="4">(4) निषध पर्वत से उत्तर की ओर नदी के मध्य स्थित सातवाँ ह्रद । <span class="GRef"> महापुराण 63.198, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.196 </span></p> | <p id="4">(4) निषध पर्वत से उत्तर की ओर नदी के मध्य स्थित सातवाँ ह्रद । <span class="GRef"> महापुराण 63.198, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.196 </span></p> | ||
<p id="5">(5) | <p id="5">(5) नंदन वन का एक कूट । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.329 </span></p> | ||
<p id="6">(6) निषधाचल के नौ कूटों में दूसरा कूट । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.88 </span></p> | <p id="6">(6) निषधाचल के नौ कूटों में दूसरा कूट । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.88 </span></p> | ||
Revision as of 16:27, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
राजवार्तिक/3/11/5-6/183/8 –यस्मिन् देवा देव्यश्च क्रीडार्थं निषीधंति स निषध:, पृथोदरादिपाठात् सिद्ध:। अन्यत्रापि तत्तुल्यकारणत्वात्तत्प्रसंग: इति चेन्न; रूढिविशेषबललाभात् । क्व पुनरसौ। हरिविदेहयोर्मयादाहेतु:।6। =जिस पर देव और देवियाँ क्रीड़ा करें वह निषध है। क्योंकि यह संज्ञा रूढ है, इसलिए अन्य ऐसे देवक्रीडा की तुल्यता रखने वाले स्थानों में नहीं जाती है। यह वर्षधर पर्वत हरि और विदेहक्षेत्र की सीमा पर है। विशेष–देखें लोक - 3.3। ज.दी.प./प्र./141 A.N.UP व H.L.Jain इस पर्वत से हिंदूकुश श्रृंखला का तात्पर्य है। हिंदूकुश का विस्तार वर्तमान भूगोल के अनुसार पामीर प्रदेश से, जहाँ से इसका मूल है, काबुल के पश्चिम में कोहेबाबा तक माना जाता है। ‘‘कोहे-बाबा और बंदे-बाबा की परंपरा ने पहाडी की उस ऊँची श्रंखला को हेरात तक पहुँचा दिया हे। पामीर से हेरात तक मानो एक श्रृंखला है।’’ अपने प्रारंभ से ही यह दक्षिण को दाबे हुए पश्चिम की ओर बढ़ता है। यही पहाड़ ग्रीकों का परोपानिसस है। और इसका पार्श्ववर्ती प्रदेश काबुल उनका परोपानिसदाय है। ये दोनों ही शब्द स्पष्टत: ‘पर्वत निषध’ के ग्रीक रूप हैं, जैसे कि जायसवाल ने प्रतिपादित किया हे। ‘गिर निसा (गिरि निसा)’ भी गिरि निषध का ही रूप है। इसमें गिरि शब्द एक अर्थ रखता है। वायु पुराण/49/132 में पहाड़ी की श्रृंखला को पर्वत और एक पहाड़ी को गिरि कहा गया है–‘‘अपवर्णास्तु गिरय: पर्वभि: पर्वता: स्मृता:।’’
पुराणकोष से
(1) बलदेव का एक पुत्र । हरिवंशपुराण 48.66
(2) निषध देश का अर्घरथ नृप । महापुराण 63.193, हरिवंशपुराण 50. 83, 124
(3) जंबूद्वीप के छ: कुलाचलों में तीसरा कुलाचल । इस पर सूर्योदय और सूर्यास्त होते हैं । इसका विस्तार सोलह हजार आठ सौ बयालीस योजन तथा एक योजन के उन्नीस भागों में दो भाग प्रमाण, ऊँचाई चार सौ योजन और गहराई सौ योजन है । इसके नौ कूटों के नाम है—1. सिद्धायतन कूट, 2. निषध कूट, 3. हरिवर्ष कूट, 4. पूर्वविदेहकूट, 5. ह्रीकूट, 6. मतिकूट, 7. सीतोदाकूट, 8. विदेह कूट, 9. रुचककूट । इनकी ऊँचाई और मूल की चौड़ाई सौ योजन, बीच की चौड़ाई पंचहत्तर योजन और ऊर्ध्व भाग की चौड़ाई पचास योजन होती है । महापुराण 12.138,33.80, 36.48, 63.193, पद्मपुराण 105.157-158, हरिवंशपुराण 5.15, 80-90, 187-188
(4) निषध पर्वत से उत्तर की ओर नदी के मध्य स्थित सातवाँ ह्रद । महापुराण 63.198, हरिवंशपुराण 5.196
(5) नंदन वन का एक कूट । हरिवंशपुराण 5.329
(6) निषधाचल के नौ कूटों में दूसरा कूट । हरिवंशपुराण 5.88