निंदा: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> निंदा व निंदन का लक्षण</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/6/25/339/12 <span class="SanskritText">तथ्यस्य वातथ्यस्य वा दोषस्योद्भावनं प्रति इच्छा | सर्वार्थसिद्धि/6/25/339/12 <span class="SanskritText">तथ्यस्य वातथ्यस्य वा दोषस्योद्भावनं प्रति इच्छा निंदा।</span>=<span class="HindiText">सच्चे या झूठे दोषों को प्रगट करने की इच्छा निंदा है। ( राजवार्तिक/6/25/1/530/28 )।</span><br /> | ||
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/306/388/12 <span class="SanskritText">आत्मसाक्षिदोषप्रकटनं | समयसार / तात्पर्यवृत्ति/306/388/12 <span class="SanskritText">आत्मसाक्षिदोषप्रकटनं निंदा।</span> =<span class="HindiText">आत्मसाक्षी पूर्वक अर्थात् स्वयं अपने किये दोषों को प्रगट करना या उन संबंधी पश्चात्ताप करना निंदा कहलाती है। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/48/22/15 )।</span><br /> | ||
न्या.द./भाष्य/2/1/64/101/ <span class="SanskritText">अनिष्टफलवादो | न्या.द./भाष्य/2/1/64/101/ <span class="SanskritText">अनिष्टफलवादो निंदा।</span> =<span class="HindiText">अनिष्ट फल के कहने को निंदा कहते हैं।</span><br /> | ||
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/473 <span class="SanskritGatha"> | पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/473 <span class="SanskritGatha"> निंदनं तत्र दुर्वाररागादौ दुष्टकर्मणि। पश्चात्तापकरो बंधो ना [नो] पेक्ष्यो नाप्यु (प्य) पेक्षित:।473।</span> =<span class="HindiText">दुर्वार रागादिरूप दुष्ट कर्मों का पश्चात्ताप कारक बंध अनिष्ट होकर भी उपेक्षित नहीं होता। अर्थात् अपने दोषों का पश्चात्ताप करना निंदन है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">पर | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2">पर निंदा व आत्म प्रशंसा का निषेध</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/ गा.नं. <span class="PrakritGatha">अप्पपसंसं परिहरह सदा मा होह जसविणासयरा। अप्पाणं थोवंतो तणलहुहो होदि हु जणम्मि।359। ण य जायंति असंता गुणा विकत्थंतयस्स पुरिसस्स। | भगवती आराधना/ गा.नं. <span class="PrakritGatha">अप्पपसंसं परिहरह सदा मा होह जसविणासयरा। अप्पाणं थोवंतो तणलहुहो होदि हु जणम्मि।359। ण य जायंति असंता गुणा विकत्थंतयस्स पुरिसस्स। धंति हु महिलायंतो व पंडवो पंडवो चेव।362। सगणे व परगणे वा परपरिवादं च मा करेज्जाह। अच्चासादणविरदा होह सदा वज्जभीरू य।369। दटठूण अण्णदोसं सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होइ। रक्खइ य सयं दोसं व तयं जणजंपणभएण।372।</span>=<span class="HindiText">हे मुनि ! तुम सदा के लिए अपनी प्रशंसा करना छोड़ दो; क्योंकि, अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने से तुम्हारा यश नष्ट हो जायेगा। जो मनुष्य अपनी प्रशंसा आप करता है वह जगत् में तृण के समान हलका होता है।359। अपनी स्तुति आप करने से पुरुष के जो गुण नहीं हैं वे उत्पन्न नहीं हो सकते। जैसे कि कोई नपुंसक स्त्रीवत् हावभाव दिखाने पर भी स्त्री नहीं हो जाता नपुंसक ही रहता है।362। हे मुनि ! अपने गण में या परगण में तुम्हें अन्य मुनियों की निंदा करना कदापि योग्य नहीं है। पर की विराधना से विरक्त होकर सदा पापों से विरक्त होना चाहिए।369। सत्पुरुष दूसरों का दोष देखकर उसको प्रगट नहीं करते हैं, प्रत्युत लोकनिंदा के भय से उनके दोषों को अपने दोषों के समान छिपाते हैं। दूसरों का दोष देखकर वे स्वयं लज्जित हो जाते हैं।372।</span><br /> | ||
रयणसार/114 <span class="PrakritGatha">ण सहंति इयरदप्पं थुवंति अप्पाण अप्पमाहप्पं। जिब्भणिमित्त कुणंति ते साहू सम्मउम्मुक्का।114।</span> =<span class="HindiText">जो साधु दूसरे के बड़प्पन को सहन नहीं कर सकता और स्वादिष्ट भोजन मिलने के निमित्त अपनी महिमा को स्वयं बखान करता है, उसे सम्यक्त्व रहित जानो।</span><br /> | रयणसार/114 <span class="PrakritGatha">ण सहंति इयरदप्पं थुवंति अप्पाण अप्पमाहप्पं। जिब्भणिमित्त कुणंति ते साहू सम्मउम्मुक्का।114।</span> =<span class="HindiText">जो साधु दूसरे के बड़प्पन को सहन नहीं कर सकता और स्वादिष्ट भोजन मिलने के निमित्त अपनी महिमा को स्वयं बखान करता है, उसे सम्यक्त्व रहित जानो।</span><br /> | ||
कुरल काव्य/19/2 <span class="SanskritGatha">शुभादशुभसंसक्तो नूनं | कुरल काव्य/19/2 <span class="SanskritGatha">शुभादशुभसंसक्तो नूनं निंद्यस्ततोऽधिक:। पुर: प्रियंवद: किंतु पृष्ठे निंदापरायण:।2।</span> =<span class="HindiText">सत्कर्म से विमुख हो जाना और कुकर्म करना निस्संदेह बुरा है। परंतु किसी के मुख पर तो हँसकर बोलना और पीठ-पीछे उसकी निंदा करना उससे भी बुरा है।</span><br /> | ||
त.सु./6/25 <span class="SanskritText"> | त.सु./6/25 <span class="SanskritText">परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।25।</span> =<span class="HindiText">परनिंदा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का आच्छादन या ढँकना और असद्गुणों का प्रगट करना ये नीच गोत्र के आस्रव हैं।</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/6/22/337/4 <span class="SanskritText"> एतदुभयमशुभनामकर्मास्रवकारणं वेदितव्यं। च शब्देन... | सर्वार्थसिद्धि/6/22/337/4 <span class="SanskritText"> एतदुभयमशुभनामकर्मास्रवकारणं वेदितव्यं। च शब्देन...परनिंदात्मप्रशंसादि: समुच्चीयते।</span> =<span class="HindiText">ये दोनों (योगवक्रता और विसंवाद) अशुभ नामकर्म के आस्रव के कारण जानने चाहिए। सूत्र में आये हुए ‘च’ पद से दूसरे की निंदा और अपनी प्रशंसा करने आदि का समुच्चय होता है। अर्थात् इनसे भी अशुभ नामकर्म का आस्रव होता है। ( राजवार्तिक/6/22/4/528/21 )।</span><br /> | ||
आत्मानुशासन/249 <span class="SanskritText">स्वान् दोषान् | आत्मानुशासन/249 <span class="SanskritText">स्वान् दोषान् हंतुमुद्युक्तस्तपोभिरतिदुर्धरै:। तानेव पोषयत्यज्ञ: परदोषकथाशनै:।249। </span>=<span class="HindiText">जो साधु अतिशय दुष्कर तपों के द्वारा अपने निज दोषों को नष्ट करने में उद्यत है, वह अज्ञानतावश दूसरों के दोषों के कथनरूप भोजनों के द्वारा उन्हीं दोषों को पुष्ट करता है।<br /> | ||
देखें [[ कषाय#1.7 | कषाय - 1.7 ]]( | देखें [[ कषाय#1.7 | कषाय - 1.7 ]](परनिंदा व आत्मप्रशंसा करना तीव्र कषायी के चिह्न हैं।)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> स्वनिंदा और परप्रशंसा की इष्टता</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/6/26 <span class="SanskritText">तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य।26।</span><br /> | तत्त्वार्थसूत्र/6/26 <span class="SanskritText">तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य।26।</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/6/26/340/7 क: <span class="SanskritText">पुनरसौ विपर्यय:। | सर्वार्थसिद्धि/6/26/340/7 क: <span class="SanskritText">पुनरसौ विपर्यय:। आत्मनिंदा परप्रशंसा सद्गुणोद्भावनमसद्गुणोच्छादनं च। </span>=<span class="HindiText">उनका विपर्यय अर्थात् परप्रशंसा आत्मनिंदा सद्गुणों का उद्भावन और असद्गुणों का उच्छादन तथा नम्रवृत्ति और अनुत्सेक ये उच्चगोत्र के आस्रव हैं। ( राजवार्तिक/6/26/531/17 )।</span><br /> | ||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/112 <span class="PrakritGatha">अप्पाणं जो णिंदइ गुणवंताणं करेइ बहुमाणं। मण इंदियाण विजई स सरूवपरायणो होउ।112।</span> =<span class="HindiText">जो मुनि अपने स्वरूप में तत्पर होकर मन और | कार्तिकेयानुप्रेक्षा/112 <span class="PrakritGatha">अप्पाणं जो णिंदइ गुणवंताणं करेइ बहुमाणं। मण इंदियाण विजई स सरूवपरायणो होउ।112।</span> =<span class="HindiText">जो मुनि अपने स्वरूप में तत्पर होकर मन और इंद्रियों को वश में करता है, अपनी निंदा करता है और सम्यक्त्व व्रतादि गुणवंतों की प्रशंसा करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है।</span><br /> | ||
भावपाहुड़ टीका/69/213 पर उद्धृत–<span class="SanskritGatha">मा भवतु तस्य पापं परहितनिरतस्य पुरुषसिंहस्य। यस्य परदोषकथने जिह्वा मौनव्रतं चरति। </span>=<span class="HindiText">जो परहित में निरत है और पर के दोष कहने में जिसकी जिह्वा मौन व्रत का आचरण करती है, उस पुरुष सिंह के पाप नहीं होता।<br /> | भावपाहुड़ टीका/69/213 पर उद्धृत–<span class="SanskritGatha">मा भवतु तस्य पापं परहितनिरतस्य पुरुषसिंहस्य। यस्य परदोषकथने जिह्वा मौनव्रतं चरति। </span>=<span class="HindiText">जो परहित में निरत है और पर के दोष कहने में जिसकी जिह्वा मौन व्रत का आचरण करती है, उस पुरुष सिंह के पाप नहीं होता।<br /> | ||
देखें [[ उपगूहन ]](अन्य के दोषों को ढाँकना सम्यग्दर्शन का अंग है।)<br /> | देखें [[ उपगूहन ]](अन्य के दोषों को ढाँकना सम्यग्दर्शन का अंग है।)<br /> | ||
<strong>* सम्यग्दृष्टि सदा अपनी | <strong>* सम्यग्दृष्टि सदा अपनी निंदा गर्हा करता है–देखें [[ सम्यग्दृष्टि#5 | सम्यग्दृष्टि - 5]]।</strong><br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> अन्य | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> अन्य मतावलंबियों का घृणास्पद अपमान</strong> </span><br /> | ||
दर्शनपाहुड़/ मू./12 <span class="PrakritGatha">जे दंसणेसु भट्टा पाए पाडंति दंसणधराणं। ते होंति लल्लमूआ बोहि पुण दुल्लहा तेसिं।12।</span>=<span class="HindiText">स्वयं दर्शन भ्रष्ट होकर भी जो अन्य दर्शनधारियों को अपने पाँव में पड़ाते हैं अर्थात् उनसे नमस्कारादि कराते हैं, ते परभवविषै लूले व गूंगे होते हैं अर्थात् | दर्शनपाहुड़/ मू./12 <span class="PrakritGatha">जे दंसणेसु भट्टा पाए पाडंति दंसणधराणं। ते होंति लल्लमूआ बोहि पुण दुल्लहा तेसिं।12।</span>=<span class="HindiText">स्वयं दर्शन भ्रष्ट होकर भी जो अन्य दर्शनधारियों को अपने पाँव में पड़ाते हैं अर्थात् उनसे नमस्कारादि कराते हैं, ते परभवविषै लूले व गूंगे होते हैं अर्थात् एकेंद्रिय पर्याय को प्राप्त होते हैं। तिनको रत्नत्रयरूप बोधि दुर्लभ है।</span><br /> | ||
मोक्षपाहुड़/79 <span class="PrakritGatha">जे पंचचेलसत्ता ग्रंथग्गाही य जायणासीला। आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।79। </span>=<span class="HindiText">जो अंडज, रोमज आदि पाँच प्रकार के वस्त्रों में आसक्त हैं, अर्थात् उनमें से किसी प्रकार का वस्त्र ग्रहण करते हैं और परिग्रह के ग्रहण करने वाले हैं (अर्थात् | मोक्षपाहुड़/79 <span class="PrakritGatha">जे पंचचेलसत्ता ग्रंथग्गाही य जायणासीला। आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।79। </span>=<span class="HindiText">जो अंडज, रोमज आदि पाँच प्रकार के वस्त्रों में आसक्त हैं, अर्थात् उनमें से किसी प्रकार का वस्त्र ग्रहण करते हैं और परिग्रह के ग्रहण करने वाले हैं (अर्थात् श्वेतांबर साधु), जो याचनाशील हैं, और अध: कर्मयुक्त आहार करते हैं वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं।</span><br /> | ||
आप्तमीमांसा/7 <span class="SanskritGatha"> त्वन्मतामृतबाह्यानां | आप्तमीमांसा/7 <span class="SanskritGatha"> त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकांतवादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते।7।</span>=<span class="HindiText">आपके अनेकांतमत रूप अमृत से बाह्य सर्वथा एकांतवादी तथा आप्तपने के अभिमान से दग्ध हुए (सांख्यादि मत) अन्य मतावलंबियों के द्वारा मान्य तत्त्व प्रत्यक्षप्रमाण से बाधित हैं।</span><br /> | ||
दर्शनपाहुड़/ टी./2/3/12<span class="SanskritText"> मिथ्यादृष्टय: किल | दर्शनपाहुड़/ टी./2/3/12<span class="SanskritText"> मिथ्यादृष्टय: किल वदंति व्रतै: किं प्रयोजनं, ...मयूरपिच्छं किल रुचिरं न भवति, सूत्रपिच्छं रुचिरं, ...शासनदेवता न पूजनीया...इत्यादि ये उत्सूत्रं मन्वते मिथ्यादृष्टयश्चार्वाका नास्तिकास्ते। ...यदि कदाग्रहं न मुंचंति तदा समर्थैरास्तिकैरुपानद्भि: गूथलिप्ताभिर्मुखे ताडनीया:...तत्र पापं नास्ति।</span><br /> | ||
भावपाहुड़ टीका/141/287/3 <span class="SanskritText"> लौंकास्तु पापिष्ठा मिथ्यादृष्टयो | भावपाहुड़ टीका/141/287/3 <span class="SanskritText"> लौंकास्तु पापिष्ठा मिथ्यादृष्टयो जिनस्नपनपूजनप्रतिबंधकत्वात् तेषां संभाषणं न कर्तव्यं तत्संभाषणं महापापमुत्पद्यते।</span><br /> | ||
मोक्षपाहुड़/ टी./2/305/12 <span class="SanskritText">ये गृहस्था अपि | मोक्षपाहुड़/ टी./2/305/12 <span class="SanskritText">ये गृहस्था अपि संतो मनागात्मभावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रुवते ते जिनधर्मविराधका मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्या:। ...ते लौंका:, तन्नामग्रहणं तन्मुखदर्शनं प्रभातकाले न कर्त्तव्यं इष्टवस्तुभोजनादिविध्नहेतुत्वात् ।</span>= | ||
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<li> <span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि ( | <li> <span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि (श्वेतांबर व स्थानकवासी) ऐसा कहते हैं कि–व्रतों से क्या प्रयोजन आत्मा ही साध्य है। मयूरपिच्छी रखना ठीक नहीं, सूत की पिच्छी ही ठीक है, शासनदेवता पूजनीय नहीं है, आत्मा ही देव है। इत्यादि सूत्रविरुद्ध कहते हैं। वे मिथ्यादृष्टि तथा चार्वाक मतावलंबी नास्तिक हैं। यदि समझाने पर भी वे अपने कदाग्रह को न छोड़ें तो समर्थ जो आस्तिक जन हैं वे विष्ठा से लिप्त जूता उनके मुख पर देकर मारें। इसमें उनको कोई भी पाप का दोष नहीं है। </span></li> | ||
<li class="HindiText"> लौंका अर्थात् स्थानकवासी पापिष्ठ मिथ्यादृष्टि हैं, क्योंकि | <li class="HindiText"> लौंका अर्थात् स्थानकवासी पापिष्ठ मिथ्यादृष्टि हैं, क्योंकि जिनेंद्र भगवान् के अभिषेक व पूजन का निषेध करते हैं। उनके साथ संभाषण करना योग्य नहीं है। क्योंकि उनके साथ संभाषण करने से महापाप उत्पन्न होता है। </li> | ||
<li class="HindiText"> जो गृहस्थ अर्थात् गृहस्थवत् वस्त्रादि धारी होते हुए भी किंचित् मात्र आत्मभावना को प्राप्त करके ‘हम ध्यानी हैं’ ऐसा कहते हैं, उन्हें जिनधर्मविराधक मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए। वे स्थानकवासी या ढूंढियापंथी हैं। सवेरे-सवेरे उनका नाम लेना तथा उनका मुँह देखना नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से इष्ट वस्तु भोजन आदि की भी प्राप्ति में विघ्न पड़ जाता है।<br /> | <li class="HindiText"> जो गृहस्थ अर्थात् गृहस्थवत् वस्त्रादि धारी होते हुए भी किंचित् मात्र आत्मभावना को प्राप्त करके ‘हम ध्यानी हैं’ ऐसा कहते हैं, उन्हें जिनधर्मविराधक मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए। वे स्थानकवासी या ढूंढियापंथी हैं। सवेरे-सवेरे उनका नाम लेना तथा उनका मुँह देखना नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से इष्ट वस्तु भोजन आदि की भी प्राप्ति में विघ्न पड़ जाता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> अन्यमत मान्य देवी देवताओं की | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> अन्यमत मान्य देवी देवताओं की निंदा</strong> </span><br /> | ||
अमितगति श्रावकाचार/4/69-76 <span class="SanskritGatha">हिंसादिवादकत्वेन न वेदो | अमितगति श्रावकाचार/4/69-76 <span class="SanskritGatha">हिंसादिवादकत्वेन न वेदो धर्मकांक्षिभि:। वृकोपदेशवन्नूनं प्रमाणीक्रियते बुधै:।69। न विरागा न सर्वज्ञा ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा:। रागद्वेषमदक्रोधलोभमोहादियोगत:।71। आश्लिष्टास्ते ऽखिलैर्दोषै: कामकोपभयादिभि:। आयुधप्रमदाभूषाकमंडलल्वादियोगत:।73। </span>=<span class="HindiText">धर्म के वांछक पंडितों को, खारपट के उपदेश के समान, हिंसादि का उपदेश देने वाले वेद को प्रमाण नहीं करना चाहिए।69। ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर न विरागी हैं और न सर्वज्ञ, क्योंकि वे राग-द्वेष, मद, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि सहित हैं।71। ब्रह्मदि देव काम क्रोध भय इत्यादि समस्त दोषों से युक्त हैं, क्योंकि उनके पास आयुध स्त्री आभूषण कमंडलु इत्यादि पाये जाते हैं।73।<br /> | ||
देखें [[ विनय#4 | विनय - 4 ]](कुदेव, कुगुरु, कुशस्त्र की पूजा भक्ति आदि का निषेध।) <br /> | देखें [[ विनय#4 | विनय - 4 ]](कुदेव, कुगुरु, कुशस्त्र की पूजा भक्ति आदि का निषेध।) <br /> | ||
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<td width="168" valign="top"><p class="HindiText"> प्रवचनसार/269 </p></td> | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText"> प्रवचनसार/269 </p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">मंत्रोपजीवि नग्न साधु </p></td> | ||
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<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">देखें [[ मिथ्यादृष्टि#5 | मिथ्यादृष्टि - 5]]</p></td> | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">देखें [[ मिथ्यादृष्टि#5 | मिथ्यादृष्टि - 5]]</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText">बाह्य | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">बाह्य क्रियावलंबी साधु </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">पाप जीव </p></td> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">पाप जीव </p></td> | ||
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<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">यो.सा./8/18-19</p></td> | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">यो.सा./8/18-19</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText">लोक दिखावे को धर्म करने वाले </p></td> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">लोक दिखावे को धर्म करने वाले </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">मूढ़, लोभी, क्रूर, डरपोक, मूर्ख, | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">मूढ़, लोभी, क्रूर, डरपोक, मूर्ख, भवाभिनंदी </p></td> | ||
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Revision as of 16:27, 19 August 2020
- निंदा व निंदन का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/6/25/339/12 तथ्यस्य वातथ्यस्य वा दोषस्योद्भावनं प्रति इच्छा निंदा।=सच्चे या झूठे दोषों को प्रगट करने की इच्छा निंदा है। ( राजवार्तिक/6/25/1/530/28 )।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/306/388/12 आत्मसाक्षिदोषप्रकटनं निंदा। =आत्मसाक्षी पूर्वक अर्थात् स्वयं अपने किये दोषों को प्रगट करना या उन संबंधी पश्चात्ताप करना निंदा कहलाती है। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/48/22/15 )।
न्या.द./भाष्य/2/1/64/101/ अनिष्टफलवादो निंदा। =अनिष्ट फल के कहने को निंदा कहते हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/473 निंदनं तत्र दुर्वाररागादौ दुष्टकर्मणि। पश्चात्तापकरो बंधो ना [नो] पेक्ष्यो नाप्यु (प्य) पेक्षित:।473। =दुर्वार रागादिरूप दुष्ट कर्मों का पश्चात्ताप कारक बंध अनिष्ट होकर भी उपेक्षित नहीं होता। अर्थात् अपने दोषों का पश्चात्ताप करना निंदन है।
- पर निंदा व आत्म प्रशंसा का निषेध
भगवती आराधना/ गा.नं. अप्पपसंसं परिहरह सदा मा होह जसविणासयरा। अप्पाणं थोवंतो तणलहुहो होदि हु जणम्मि।359। ण य जायंति असंता गुणा विकत्थंतयस्स पुरिसस्स। धंति हु महिलायंतो व पंडवो पंडवो चेव।362। सगणे व परगणे वा परपरिवादं च मा करेज्जाह। अच्चासादणविरदा होह सदा वज्जभीरू य।369। दटठूण अण्णदोसं सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होइ। रक्खइ य सयं दोसं व तयं जणजंपणभएण।372।=हे मुनि ! तुम सदा के लिए अपनी प्रशंसा करना छोड़ दो; क्योंकि, अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने से तुम्हारा यश नष्ट हो जायेगा। जो मनुष्य अपनी प्रशंसा आप करता है वह जगत् में तृण के समान हलका होता है।359। अपनी स्तुति आप करने से पुरुष के जो गुण नहीं हैं वे उत्पन्न नहीं हो सकते। जैसे कि कोई नपुंसक स्त्रीवत् हावभाव दिखाने पर भी स्त्री नहीं हो जाता नपुंसक ही रहता है।362। हे मुनि ! अपने गण में या परगण में तुम्हें अन्य मुनियों की निंदा करना कदापि योग्य नहीं है। पर की विराधना से विरक्त होकर सदा पापों से विरक्त होना चाहिए।369। सत्पुरुष दूसरों का दोष देखकर उसको प्रगट नहीं करते हैं, प्रत्युत लोकनिंदा के भय से उनके दोषों को अपने दोषों के समान छिपाते हैं। दूसरों का दोष देखकर वे स्वयं लज्जित हो जाते हैं।372।
रयणसार/114 ण सहंति इयरदप्पं थुवंति अप्पाण अप्पमाहप्पं। जिब्भणिमित्त कुणंति ते साहू सम्मउम्मुक्का।114। =जो साधु दूसरे के बड़प्पन को सहन नहीं कर सकता और स्वादिष्ट भोजन मिलने के निमित्त अपनी महिमा को स्वयं बखान करता है, उसे सम्यक्त्व रहित जानो।
कुरल काव्य/19/2 शुभादशुभसंसक्तो नूनं निंद्यस्ततोऽधिक:। पुर: प्रियंवद: किंतु पृष्ठे निंदापरायण:।2। =सत्कर्म से विमुख हो जाना और कुकर्म करना निस्संदेह बुरा है। परंतु किसी के मुख पर तो हँसकर बोलना और पीठ-पीछे उसकी निंदा करना उससे भी बुरा है।
त.सु./6/25 परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।25। =परनिंदा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का आच्छादन या ढँकना और असद्गुणों का प्रगट करना ये नीच गोत्र के आस्रव हैं।
सर्वार्थसिद्धि/6/22/337/4 एतदुभयमशुभनामकर्मास्रवकारणं वेदितव्यं। च शब्देन...परनिंदात्मप्रशंसादि: समुच्चीयते। =ये दोनों (योगवक्रता और विसंवाद) अशुभ नामकर्म के आस्रव के कारण जानने चाहिए। सूत्र में आये हुए ‘च’ पद से दूसरे की निंदा और अपनी प्रशंसा करने आदि का समुच्चय होता है। अर्थात् इनसे भी अशुभ नामकर्म का आस्रव होता है। ( राजवार्तिक/6/22/4/528/21 )।
आत्मानुशासन/249 स्वान् दोषान् हंतुमुद्युक्तस्तपोभिरतिदुर्धरै:। तानेव पोषयत्यज्ञ: परदोषकथाशनै:।249। =जो साधु अतिशय दुष्कर तपों के द्वारा अपने निज दोषों को नष्ट करने में उद्यत है, वह अज्ञानतावश दूसरों के दोषों के कथनरूप भोजनों के द्वारा उन्हीं दोषों को पुष्ट करता है।
देखें कषाय - 1.7 (परनिंदा व आत्मप्रशंसा करना तीव्र कषायी के चिह्न हैं।)
- स्वनिंदा और परप्रशंसा की इष्टता
तत्त्वार्थसूत्र/6/26 तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य।26।
सर्वार्थसिद्धि/6/26/340/7 क: पुनरसौ विपर्यय:। आत्मनिंदा परप्रशंसा सद्गुणोद्भावनमसद्गुणोच्छादनं च। =उनका विपर्यय अर्थात् परप्रशंसा आत्मनिंदा सद्गुणों का उद्भावन और असद्गुणों का उच्छादन तथा नम्रवृत्ति और अनुत्सेक ये उच्चगोत्र के आस्रव हैं। ( राजवार्तिक/6/26/531/17 )।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/112 अप्पाणं जो णिंदइ गुणवंताणं करेइ बहुमाणं। मण इंदियाण विजई स सरूवपरायणो होउ।112। =जो मुनि अपने स्वरूप में तत्पर होकर मन और इंद्रियों को वश में करता है, अपनी निंदा करता है और सम्यक्त्व व्रतादि गुणवंतों की प्रशंसा करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है।
भावपाहुड़ टीका/69/213 पर उद्धृत–मा भवतु तस्य पापं परहितनिरतस्य पुरुषसिंहस्य। यस्य परदोषकथने जिह्वा मौनव्रतं चरति। =जो परहित में निरत है और पर के दोष कहने में जिसकी जिह्वा मौन व्रत का आचरण करती है, उस पुरुष सिंह के पाप नहीं होता।
देखें उपगूहन (अन्य के दोषों को ढाँकना सम्यग्दर्शन का अंग है।)
* सम्यग्दृष्टि सदा अपनी निंदा गर्हा करता है–देखें सम्यग्दृष्टि - 5।
- अन्य मतावलंबियों का घृणास्पद अपमान
दर्शनपाहुड़/ मू./12 जे दंसणेसु भट्टा पाए पाडंति दंसणधराणं। ते होंति लल्लमूआ बोहि पुण दुल्लहा तेसिं।12।=स्वयं दर्शन भ्रष्ट होकर भी जो अन्य दर्शनधारियों को अपने पाँव में पड़ाते हैं अर्थात् उनसे नमस्कारादि कराते हैं, ते परभवविषै लूले व गूंगे होते हैं अर्थात् एकेंद्रिय पर्याय को प्राप्त होते हैं। तिनको रत्नत्रयरूप बोधि दुर्लभ है।
मोक्षपाहुड़/79 जे पंचचेलसत्ता ग्रंथग्गाही य जायणासीला। आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।79। =जो अंडज, रोमज आदि पाँच प्रकार के वस्त्रों में आसक्त हैं, अर्थात् उनमें से किसी प्रकार का वस्त्र ग्रहण करते हैं और परिग्रह के ग्रहण करने वाले हैं (अर्थात् श्वेतांबर साधु), जो याचनाशील हैं, और अध: कर्मयुक्त आहार करते हैं वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं।
आप्तमीमांसा/7 त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकांतवादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते।7।=आपके अनेकांतमत रूप अमृत से बाह्य सर्वथा एकांतवादी तथा आप्तपने के अभिमान से दग्ध हुए (सांख्यादि मत) अन्य मतावलंबियों के द्वारा मान्य तत्त्व प्रत्यक्षप्रमाण से बाधित हैं।
दर्शनपाहुड़/ टी./2/3/12 मिथ्यादृष्टय: किल वदंति व्रतै: किं प्रयोजनं, ...मयूरपिच्छं किल रुचिरं न भवति, सूत्रपिच्छं रुचिरं, ...शासनदेवता न पूजनीया...इत्यादि ये उत्सूत्रं मन्वते मिथ्यादृष्टयश्चार्वाका नास्तिकास्ते। ...यदि कदाग्रहं न मुंचंति तदा समर्थैरास्तिकैरुपानद्भि: गूथलिप्ताभिर्मुखे ताडनीया:...तत्र पापं नास्ति।
भावपाहुड़ टीका/141/287/3 लौंकास्तु पापिष्ठा मिथ्यादृष्टयो जिनस्नपनपूजनप्रतिबंधकत्वात् तेषां संभाषणं न कर्तव्यं तत्संभाषणं महापापमुत्पद्यते।
मोक्षपाहुड़/ टी./2/305/12 ये गृहस्था अपि संतो मनागात्मभावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रुवते ते जिनधर्मविराधका मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्या:। ...ते लौंका:, तन्नामग्रहणं तन्मुखदर्शनं प्रभातकाले न कर्त्तव्यं इष्टवस्तुभोजनादिविध्नहेतुत्वात् ।=- मिथ्यादृष्टि (श्वेतांबर व स्थानकवासी) ऐसा कहते हैं कि–व्रतों से क्या प्रयोजन आत्मा ही साध्य है। मयूरपिच्छी रखना ठीक नहीं, सूत की पिच्छी ही ठीक है, शासनदेवता पूजनीय नहीं है, आत्मा ही देव है। इत्यादि सूत्रविरुद्ध कहते हैं। वे मिथ्यादृष्टि तथा चार्वाक मतावलंबी नास्तिक हैं। यदि समझाने पर भी वे अपने कदाग्रह को न छोड़ें तो समर्थ जो आस्तिक जन हैं वे विष्ठा से लिप्त जूता उनके मुख पर देकर मारें। इसमें उनको कोई भी पाप का दोष नहीं है।
- लौंका अर्थात् स्थानकवासी पापिष्ठ मिथ्यादृष्टि हैं, क्योंकि जिनेंद्र भगवान् के अभिषेक व पूजन का निषेध करते हैं। उनके साथ संभाषण करना योग्य नहीं है। क्योंकि उनके साथ संभाषण करने से महापाप उत्पन्न होता है।
- जो गृहस्थ अर्थात् गृहस्थवत् वस्त्रादि धारी होते हुए भी किंचित् मात्र आत्मभावना को प्राप्त करके ‘हम ध्यानी हैं’ ऐसा कहते हैं, उन्हें जिनधर्मविराधक मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए। वे स्थानकवासी या ढूंढियापंथी हैं। सवेरे-सवेरे उनका नाम लेना तथा उनका मुँह देखना नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से इष्ट वस्तु भोजन आदि की भी प्राप्ति में विघ्न पड़ जाता है।
- अन्यमत मान्य देवी देवताओं की निंदा
अमितगति श्रावकाचार/4/69-76 हिंसादिवादकत्वेन न वेदो धर्मकांक्षिभि:। वृकोपदेशवन्नूनं प्रमाणीक्रियते बुधै:।69। न विरागा न सर्वज्ञा ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा:। रागद्वेषमदक्रोधलोभमोहादियोगत:।71। आश्लिष्टास्ते ऽखिलैर्दोषै: कामकोपभयादिभि:। आयुधप्रमदाभूषाकमंडलल्वादियोगत:।73। =धर्म के वांछक पंडितों को, खारपट के उपदेश के समान, हिंसादि का उपदेश देने वाले वेद को प्रमाण नहीं करना चाहिए।69। ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर न विरागी हैं और न सर्वज्ञ, क्योंकि वे राग-द्वेष, मद, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि सहित हैं।71। ब्रह्मदि देव काम क्रोध भय इत्यादि समस्त दोषों से युक्त हैं, क्योंकि उनके पास आयुध स्त्री आभूषण कमंडलु इत्यादि पाये जाते हैं।73।
देखें विनय - 4 (कुदेव, कुगुरु, कुशस्त्र की पूजा भक्ति आदि का निषेध।)
- मिथ्यादृष्टियों के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग
नं. |
प्रमाण |
व्यक्ति |
उपाधि |
1 |
मू.आ./951 |
एकल विहारी साधु |
पाप श्रमण |
2 |
रयणसार/108 |
स्वच्छंद साधु |
राज्य सेवक |
3 |
चारित्तपाहुड़/ मू./10 |
सम्यक्त्वचरण से भ्रष्टसाधु |
ज्ञानमूढ |
4 |
भावपाहुड़/ मू./71 |
मिथ्यादृष्टि नग्न साधु |
इक्षु पुष्पसम नट श्रमण |
5 |
भावपाहुड़/ मू./74 |
भावविहीन साधु |
पाप व तिर्यगालय भाजन |
|
भावपाहुड़/ मू./143 |
मिथ्यादृष्टि साधु |
चल शव |
6 |
मोक्षपाहुड़/79 |
श्वेतांबर साधु |
मोक्षमार्ग भ्रष्ट |
7 |
मोक्षपाहुड़/100 |
मिथ्यादृष्टि का ज्ञान व चारित्र |
बाल श्रुत बाल चरण |
8 |
लिंग पा./मू./3,4 |
द्रव्य लिंगी नग्न साधु |
पापमोहितमति नारद, तिर्यंच |
9 |
लिंग.पा./मू./4-18 |
द्रव्यलिंगी नग्न साधु |
तिर्यग्योनि |
10 |
प्रवचनसार/269 |
मंत्रोपजीवि नग्न साधु |
लौकिक |
11 |
देखें भव्य - 2 |
मिथ्यादृष्टि सामान्य |
अभव्य |
12 |
देखें मिथ्यादृष्टि - 5 |
बाह्य क्रियावलंबी साधु |
पाप जीव |
13 |
समयसार / आत्मख्याति/321 |
आत्मा को कर्मों आदि का कर्त्ता मानने वाले |
लौकिक |
14 |
समयसार / आत्मख्याति/85 |
आत्मा को कर्मों आदि का कर्त्ता मानने वाले |
सर्वज्ञ मत से बाहर |
15 |
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/143/ क.244 |
अन्यवश साधु |
राजवल्लभ नौकर |
16 |
यो.सा./8/18-19 |
लोक दिखावे को धर्म करने वाले |
मूढ़, लोभी, क्रूर, डरपोक, मूर्ख, भवाभिनंदी |