प्रत्याहार: Difference between revisions
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ज्ञानार्णव/30/1-3 <span class="SanskritGatha"> | ज्ञानार्णव/30/1-3 <span class="SanskritGatha">समाकृष्येंद्रियार्थेभ्यः साक्षं चेतः प्रशांतधीः । यत्र यत्रेच्छया धत्ते स प्रत्याहार उच्यते ।1। निःसंगसंवृतस्वांतः कूर्मवत्संवृतेंद्रियः । यमी समत्वमापन्नो ध्यानतंत्रे स्थिरीभवेत् ।2। गोचरेभ्यो हृषीकाणि तेभ्यश्चित्तमनाकुलम् । पृथक्कृत्य वशी धत्ते ललाटेऽत्यंतनिश्चलम् ।3।</span> = <span class="HindiText">जो प्रशांत-बुद्धि-विशुद्धता युक्त मुनि अपनी इंद्रियाँ और मन को इंद्रियों के विषयों से खैंच कर जहाँ-जहाँ अपनी इच्छा हो तहाँ-तहाँ धारण करें सो प्रत्याहार कहा जाता है ।1। निःसंग और संवर रूप हुआ है मन जिसका कछुए के समान संकोच रूप हैं इंद्रियाँ जिसकी, ऐसा मुनि ही राग-द्वेष रहित होकर ध्यानरूपी तंत्र में स्थिरस्वरूप होता है ।2। वशी मुनि विषयों से तो इंद्रियों को पृथक् करै और इंद्रियों को विषयों से पृथक् करे, अपने मन को निराकुल करकै अपने ललाट पर निश्चलता पूर्वक धारण करै । यह विधि प्रत्याहार में कही है ।3।<br /> | ||
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Revision as of 16:28, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
महापुराण/21/230 प्रत्याहारस्तु तस्योपसंहृतौ चित्तनिर्वृत्तिः ।230। = मन की प्रवृत्ति का संकोच कर लेने पर जो मानसिक संतोष होता है उसे प्रत्याहार कहते हैं ।230।
ज्ञानार्णव/30/1-3 समाकृष्येंद्रियार्थेभ्यः साक्षं चेतः प्रशांतधीः । यत्र यत्रेच्छया धत्ते स प्रत्याहार उच्यते ।1। निःसंगसंवृतस्वांतः कूर्मवत्संवृतेंद्रियः । यमी समत्वमापन्नो ध्यानतंत्रे स्थिरीभवेत् ।2। गोचरेभ्यो हृषीकाणि तेभ्यश्चित्तमनाकुलम् । पृथक्कृत्य वशी धत्ते ललाटेऽत्यंतनिश्चलम् ।3। = जो प्रशांत-बुद्धि-विशुद्धता युक्त मुनि अपनी इंद्रियाँ और मन को इंद्रियों के विषयों से खैंच कर जहाँ-जहाँ अपनी इच्छा हो तहाँ-तहाँ धारण करें सो प्रत्याहार कहा जाता है ।1। निःसंग और संवर रूप हुआ है मन जिसका कछुए के समान संकोच रूप हैं इंद्रियाँ जिसकी, ऐसा मुनि ही राग-द्वेष रहित होकर ध्यानरूपी तंत्र में स्थिरस्वरूप होता है ।2। वशी मुनि विषयों से तो इंद्रियों को पृथक् करै और इंद्रियों को विषयों से पृथक् करे, अपने मन को निराकुल करकै अपने ललाट पर निश्चलता पूर्वक धारण करै । यह विधि प्रत्याहार में कही है ।3।
- प्रत्याहार योग्य नेत्र ललाट आदि 10 स्थान - देखें ध्यान - 3.3 ।
पुराणकोष से
मन की प्रवृत्ति का संकोच कर लेने पर उपलब्ध मानसिक संतोष । महापुराण 21.230