महेन्द्र: Difference between revisions
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| <p id="1"> (1) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । <span class="GRef"> महापुराण 25.148 </span></p> | ||
<p id="2">(2) कुण्डलगिरि का उत्तरदिशावर्ती एक कूट । यहाँँ पाण्डुक देव रहता है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.694 </span></p> | |||
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<p id="7">(7) एक मुनि । ये अयोध्या के राजा अरिंजय के दीक्षागुरू थे । <span class="GRef"> महापुराण 72.27-28 </span></p> | |||
<p id="8">(8) एक विद्याधर । यह नगर बसाकर भरतक्षेत्र के दन्ती पर्वत पर रहने लगा था । इसके रहने से नगर का नाम महेन्द्रगिरि हो गया था । इसकी हृदयवेगा रानी से इसके अरिंदम आदि सौ पुत्र तथा अंजना पुत्री हुई थी । इसने पुत्री का विवाह आदित्यपुर के राजा प्रह्लाद के पुत्र पवनंजय के साथ किया था । इसने सहायतार्थ रावण का पत्र आने पर और पवनंजय का विशेष आग्रह देखकर उसे रावण की सहायता के लिए भेजा था । पवन जय की पत्नी को रानी केतुमती द्वारा दोष लगाकर घर से निकाल दिये जाने पर पत्नी के न मिलने से पवनंजय दु:खी होकर वन-वन भटका । पवनंजय को ढूंढ़ने यह भी घर से निकल गया था । वन में पवनंजय को देखकर यह बहुत प्रसन्न हुआ था और प्रिया को पाये बिना पवनंजय की भोजन न करने की प्रतिज्ञा सुनकर बहुत दु:खी भी हुआ था । अंत में अंजना और पवनंजय का मिलन हो जाने से यह और इसकी पत्नी दोनों हर्ष विभोर हो गये थे । <span class="GRef"> पद्मपुराण 15.11-16, 89-90, 16.79-81, 17.21, 18.72, 102-109, 127 </span></p> | |||
<p id="9">(9) राम का पक्षधर एक विद्याधर राजा । <span class="GRef"> पद्मपुराण 58.3 </span></p> | |||
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Revision as of 16:32, 19 August 2020
(1) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.148
(2) कुण्डलगिरि का उत्तरदिशावर्ती एक कूट । यहाँँ पाण्डुक देव रहता है । हरिवंशपुराण 5.694
(3) विजया पर्वत का उत्तरश्रेणी का अड़तालीसवाँ नगर । हरिवंशपुराण 22.90
(4) राजा अचल का ज्येष्ठ पुत्र । हरिवंशपुराण 48.49
(5) भरतक्षेत्र के चन्दनपुर नगर का राजा । इसकी रानी अनुन्धरी तथा पुत्री कनकमाला थी । महापुराण 71.405-406, हरिवंशपुराण 60.80-81
(6) एक पर्वत । चक्रवती भरत का सेनापति इस पर्वत को लांघकर विन्ध्याचल की ओर गया था । महापुराण 29.88
(7) एक मुनि । ये अयोध्या के राजा अरिंजय के दीक्षागुरू थे । महापुराण 72.27-28
(8) एक विद्याधर । यह नगर बसाकर भरतक्षेत्र के दन्ती पर्वत पर रहने लगा था । इसके रहने से नगर का नाम महेन्द्रगिरि हो गया था । इसकी हृदयवेगा रानी से इसके अरिंदम आदि सौ पुत्र तथा अंजना पुत्री हुई थी । इसने पुत्री का विवाह आदित्यपुर के राजा प्रह्लाद के पुत्र पवनंजय के साथ किया था । इसने सहायतार्थ रावण का पत्र आने पर और पवनंजय का विशेष आग्रह देखकर उसे रावण की सहायता के लिए भेजा था । पवन जय की पत्नी को रानी केतुमती द्वारा दोष लगाकर घर से निकाल दिये जाने पर पत्नी के न मिलने से पवनंजय दु:खी होकर वन-वन भटका । पवनंजय को ढूंढ़ने यह भी घर से निकल गया था । वन में पवनंजय को देखकर यह बहुत प्रसन्न हुआ था और प्रिया को पाये बिना पवनंजय की भोजन न करने की प्रतिज्ञा सुनकर बहुत दु:खी भी हुआ था । अंत में अंजना और पवनंजय का मिलन हो जाने से यह और इसकी पत्नी दोनों हर्ष विभोर हो गये थे । पद्मपुराण 15.11-16, 89-90, 16.79-81, 17.21, 18.72, 102-109, 127
(9) राम का पक्षधर एक विद्याधर राजा । पद्मपुराण 58.3