विविक्त शय्यासन: Difference between revisions
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सर्वार्थसिद्धि/9/19/438/10 <span class="SanskritText">शून्यागारादिषु विविक्तेषु | सर्वार्थसिद्धि/9/19/438/10 <span class="SanskritText">शून्यागारादिषु विविक्तेषु जंतुपीडाविरहितेषु संयतस्य शय्यासनमबाधात्ययब्रह्मचर्यस्वा-ध्यायध्यानादिप्रसिद्धयर्थं कर्त्तव्यमिति पंचमं तपः। </span>= <span class="HindiText">एकांत जंतुओं की पीड़ा से रहित शून्य घर आदि में निर्बाध ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदि की प्रसिद्धि के लिए संयत को शय्यासन लगाना चाहिए।– (विशेष देखें [[ वसतिका#6 | वसतिका - 6]]) ( राजवार्तिक/9/19/12/619/12 )। </span><br /> | ||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/447-449 <span class="PrakritGatha">जो रायदोसहेदू आसण सिज्जादियं परिच्चयइ। अप्पा णिव्विसय सया तस्स तवो | कार्तिकेयानुप्रेक्षा/447-449 <span class="PrakritGatha">जो रायदोसहेदू आसण सिज्जादियं परिच्चयइ। अप्पा णिव्विसय सया तस्स तवो पंचमो परमो।447। पूजादिसु णिरवेक्खो संसारशरीर-भोग-णिव्विण्णो। अब्भंतरतबकुसलो उवसमसीलो महासंतो।448। जो णिवसेदि मसाणे वणगहणे णिज्जणे महाभीमे। अण्णत्थ वि एयंते तस्स वि एदं तवं होदि।449। </span>=<span class="HindiText"> जो मुनि राग और द्वेष को उत्पन्न करने वाले आसन शय्या वगैरह का परित्याग करता है, अपने आत्मस्वरूप में रमता है और इंद्रियों के विषयों से विरक्त रहता है, उसके विविक्त शय्यासन नाम का पाँचवाँ उत्कृष्ट तप होता है।447। अपनी पूजा महिमा को नहीं चाहने वाला, संसार शरीर और भोगों से उदासीन, प्रायश्चित आदि अभ्यंतर तप में कुशल, शंत परिणामी, क्षमाशील, महापराक्रमी, जो मुनि श्मशानभूमि में, गहन वन में, निर्जन महाभयानक स्थान में, अथवा किसी अन्य एकांत स्थान में निवास करता है, उसके विविक्त शय्यासन तप होता है।–देखें [[ वसतिका#6 | वसतिका - 6]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> विविक्त शय्यासन का प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> विविक्त शय्यासन का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
भगवती आराधना/232-233 <span class="PrakritGatha">कलहो बोलो झंझा वामोहोममत्तिं च। ज्झाणज्झयणविधादो णत्थि विवित्तए वसधीए।232। इय सल्लीणमुवगदो सुहप्पवत्तेहिं तित्थजोएहिं। | भगवती आराधना/232-233 <span class="PrakritGatha">कलहो बोलो झंझा वामोहोममत्तिं च। ज्झाणज्झयणविधादो णत्थि विवित्तए वसधीए।232। इय सल्लीणमुवगदो सुहप्पवत्तेहिं तित्थजोएहिं। पंचसमिदो तिगुत्ते आदट्ठपरायणो होदि।233।</span> = <span class="HindiText">कलह, व्यग्र करने वाले शब्द, संक्लेश, मन की व्यग्रता असंयत जनों की संगति, मेरे तेरे का भाव, ध्यान अध्ययन का विघात ये सब बातें विविक्त वसतिका में नहीं होतीं।232। सुख पूर्वक आत्मस्वरूप में लीन होना, मन वचन काय की अशुभ प्रवृत्तियों को रोकना, पाँच समिति, तीन गुप्ति, इन सब बातों को प्राप्त करता हुआ एकांतवासी साधु आत्म प्रयोजन में तत्पर रहता है।233। </span><br /> | ||
धवला 13/5, 4, 26/58/10 <span class="PrakritText">किमट्ठमेसो कीरदे? असब्भजणदंसणेण तस्सहवासेण जणिद-तिकालविसयराग-दोसपरिहरणट्ठं।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>यह विविक्त शय्यासन तप किसलिए किया जाता है? <strong>उत्तर–</strong>असभ्य जनों के देखने से और उनके सहवास से उत्पन्न हुए त्रिकाल विषयक दोषों को दूर करने के लिए किया जाता है। </span><br /> | धवला 13/5, 4, 26/58/10 <span class="PrakritText">किमट्ठमेसो कीरदे? असब्भजणदंसणेण तस्सहवासेण जणिद-तिकालविसयराग-दोसपरिहरणट्ठं।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>यह विविक्त शय्यासन तप किसलिए किया जाता है? <strong>उत्तर–</strong>असभ्य जनों के देखने से और उनके सहवास से उत्पन्न हुए त्रिकाल विषयक दोषों को दूर करने के लिए किया जाता है। </span><br /> | ||
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/32/19 <span class="SanskritText">चित्तव्याकुलतापराजयो विविक्तशयनासनं।</span> = <span class="HindiText">चित्त की व्यग्रता को दूर करना विविक्त शयनासन है। <br /> | भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/32/19 <span class="SanskritText">चित्तव्याकुलतापराजयो विविक्तशयनासनं।</span> = <span class="HindiText">चित्त की व्यग्रता को दूर करना विविक्त शयनासन है। <br /> |
Revision as of 16:35, 19 August 2020
- विविक्त शय्यासन
सर्वार्थसिद्धि/9/19/438/10 शून्यागारादिषु विविक्तेषु जंतुपीडाविरहितेषु संयतस्य शय्यासनमबाधात्ययब्रह्मचर्यस्वा-ध्यायध्यानादिप्रसिद्धयर्थं कर्त्तव्यमिति पंचमं तपः। = एकांत जंतुओं की पीड़ा से रहित शून्य घर आदि में निर्बाध ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदि की प्रसिद्धि के लिए संयत को शय्यासन लगाना चाहिए।– (विशेष देखें वसतिका - 6) ( राजवार्तिक/9/19/12/619/12 )।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/447-449 जो रायदोसहेदू आसण सिज्जादियं परिच्चयइ। अप्पा णिव्विसय सया तस्स तवो पंचमो परमो।447। पूजादिसु णिरवेक्खो संसारशरीर-भोग-णिव्विण्णो। अब्भंतरतबकुसलो उवसमसीलो महासंतो।448। जो णिवसेदि मसाणे वणगहणे णिज्जणे महाभीमे। अण्णत्थ वि एयंते तस्स वि एदं तवं होदि।449। = जो मुनि राग और द्वेष को उत्पन्न करने वाले आसन शय्या वगैरह का परित्याग करता है, अपने आत्मस्वरूप में रमता है और इंद्रियों के विषयों से विरक्त रहता है, उसके विविक्त शय्यासन नाम का पाँचवाँ उत्कृष्ट तप होता है।447। अपनी पूजा महिमा को नहीं चाहने वाला, संसार शरीर और भोगों से उदासीन, प्रायश्चित आदि अभ्यंतर तप में कुशल, शंत परिणामी, क्षमाशील, महापराक्रमी, जो मुनि श्मशानभूमि में, गहन वन में, निर्जन महाभयानक स्थान में, अथवा किसी अन्य एकांत स्थान में निवास करता है, उसके विविक्त शय्यासन तप होता है।–देखें वसतिका - 6।
- विविक्त शय्यासन का प्रयोजन
भगवती आराधना/232-233 कलहो बोलो झंझा वामोहोममत्तिं च। ज्झाणज्झयणविधादो णत्थि विवित्तए वसधीए।232। इय सल्लीणमुवगदो सुहप्पवत्तेहिं तित्थजोएहिं। पंचसमिदो तिगुत्ते आदट्ठपरायणो होदि।233। = कलह, व्यग्र करने वाले शब्द, संक्लेश, मन की व्यग्रता असंयत जनों की संगति, मेरे तेरे का भाव, ध्यान अध्ययन का विघात ये सब बातें विविक्त वसतिका में नहीं होतीं।232। सुख पूर्वक आत्मस्वरूप में लीन होना, मन वचन काय की अशुभ प्रवृत्तियों को रोकना, पाँच समिति, तीन गुप्ति, इन सब बातों को प्राप्त करता हुआ एकांतवासी साधु आत्म प्रयोजन में तत्पर रहता है।233।
धवला 13/5, 4, 26/58/10 किमट्ठमेसो कीरदे? असब्भजणदंसणेण तस्सहवासेण जणिद-तिकालविसयराग-दोसपरिहरणट्ठं। = प्रश्न–यह विविक्त शय्यासन तप किसलिए किया जाता है? उत्तर–असभ्य जनों के देखने से और उनके सहवास से उत्पन्न हुए त्रिकाल विषयक दोषों को दूर करने के लिए किया जाता है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/6/32/19 चित्तव्याकुलतापराजयो विविक्तशयनासनं। = चित्त की व्यग्रता को दूर करना विविक्त शयनासन है।
देखें विविक्त शय्यासन - 1–निर्वाध ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदि की प्रसिद्धि के लिए किया जाता है।