वीरसेन: Difference between revisions
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Revision as of 16:36, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- पंचस्तूप संघ के अन्वय में आप आर्यनंदि के शिष्य और जिनसेन के गुरु थे। चित्रकूट निवासी ऐलाचार्य के निकट सिद्धांत शास्त्रों का अध्ययन करके आप वाटग्राम (बड़ौदा) आ गए। वहाँ के जिनालय में षटखंडागम तथा कषायपाहुड़ की आ. बप्पदेव कृत व्याख्या देखी जिससे प्रेरित होकर आपने इन दोनों सिद्धांत ग्रंथों पर धवला तथा जयधवला नाम की विस्तृत टीकायें लिखीं। इनमें से जयधवला की टीका इनकी मृत्यु के पश्चात् इनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने ई.837 में पूरी की थी। धवला की पूर्ति के विषय में मतभेद है। कोई ई.816 में और कोई ई.781 में मानते हैं। हरिवंश पुराण में पुन्नाटसंघीय जिनषेण द्वारा जयधवलाकार जिनसेन का नामोल्लेख प्राप्त होने से यह बात निश्चित है कि शक 703 (ई.781) में उनकी विद्यमानता अवश्य थी। (देखें कोष - 2 में परिशिष्ट 1)। पुन्नाट संघ की गुर्वावली के साथ इसकी तुलना करने पर हम वीरसेन स्वामी को शक 690-741 (ई.770-827) में स्थापित कर सकते हैं। (जै./1/255), (ती./2/324)।
- माथुरसंघ की गुर्वावली के अनुसार आप रामसेन के शिष्य और देवसेन के गुरु थे। समय–वि.950-980 (ई.883-923)। (देखें इतिहास - 7.11)।
- लाड़बागड़ गच्छ की गुर्वावली के अनुसार आप ब्रह्मसेन के शिष्य और गुणसेन के गुरु थे। समय–वि.1105 (ई.1048)। (देखें इतिहास - 7.10)।
- हरिवंशपुराण/43/ श्लो.नं.- वटपुर नगर का राजा था।163। राजा मधु द्वारा स्त्री का अपहरण हो जाने पर पागल हो गया।177। तापस होकर तप किया, जिसके प्रभाव से धूमकेतु नाम का विद्याधर हुआ।221। यह प्रद्युम्न कुमार को हरण करने वाले धूमकेतु का पूर्व भव है।–देखें धूमकेतु ।
पुराणकोष से
महावीर का अपर नाम । मपु 74.3
(2) महापुराण के कर्ता जिनसेनाचार्य के गुरु मुलसंघाधान्वय में सेनसंघ के एक आचार्य । ये कविवृंदावन, लोकविर, काव्य के ज्ञाता और भट्टारक थे । इन्होंने षट्खंडागम तथा कसायपाहुड इन सिद्धांत ग्रंथों की धवला, जयधवला टीकाएँ लिखी थी । सिद्धपद्धति ग्रंथ की टीका का कर्ता भी इन्हें कहा गया है । महापुराण 1.55-58, 76. 527-528, प्रशस्ति 2-8, हरिवंशपुराण 1.39
(3) राजा मांधाता का पुत्र और प्रतिमन्यु का पिता । पद्मपुराण 22.155
(4) वटपुर नगर का राजा । अपने यहाँ अयोध्या के राजा महापुराण के आने पर इसने उसका यथेष्ट सम्मान किया था । राजा महापुराण इसकी पत्नी चंद्राभा पर आसक्त हो गया था । फलस्वरूप उसने छल-बल से चंद्राभा को अपनी स्त्री बना ली थी । महापुराण द्वारा अपनी स्त्री का अप हरिवंशपुराण ण किये जाने से यह विच्छिन्न होकर आर्तध्यान से मरा और चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहा । अंत में मनुष्य पर्याय प्राप्त कर इसने तप किया । इस तय के प्रभाव से आयु के अंत में मरकर यह धूमकेतु देव हुआ । पद्मपुराण 109.135-148, हरिवंशपुराण 43. 159-165, 171-177, 220-221