श्रावक भेद व लक्षण: Difference between revisions
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<p class="HindiText" id="1.1"><strong>1. श्रावक सामान्य के लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.1"><strong>1. श्रावक सामान्य के लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/9/45/458/8 स एव पुनश्चारित्रमोहकर्मविकल्पाप्रत्याख्यानावरणक्षयोपशमनिमित्तपरिणामप्राप्तिकाले विशुद्धिप्रकर्षयोगात् श्रावको...।</span> = <span class="HindiText">वह ही (अविरत सम्यग्दृष्टि ही) चारित्र मोह कर्म के एक भेद अप्रत्याख्यानावरण कर्म के क्षयोपशम निमित्तक परिणामों की प्राप्ति के समय विशुद्धि का प्रकर्ष होने से श्रावक होता हुआ...।</span></p> | <p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/9/45/458/8 स एव पुनश्चारित्रमोहकर्मविकल्पाप्रत्याख्यानावरणक्षयोपशमनिमित्तपरिणामप्राप्तिकाले विशुद्धिप्रकर्षयोगात् श्रावको...।</span> = <span class="HindiText">वह ही (अविरत सम्यग्दृष्टि ही) चारित्र मोह कर्म के एक भेद अप्रत्याख्यानावरण कर्म के क्षयोपशम निमित्तक परिणामों की प्राप्ति के समय विशुद्धि का प्रकर्ष होने से श्रावक होता हुआ...।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/1/15-16 मूलोत्तरगुणनिष्ठामधितिष्ठन् | <p><span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/1/15-16 मूलोत्तरगुणनिष्ठामधितिष्ठन् पंचगुरुपदशरण्य:। दानयजनप्रधानो, ज्ञानसुधां श्रावक: पिपासु: स्यात् ।15। रागादिक्षयतारतम्यविकसच्छुद्धात्मसंवित्सुख स्वादात्मस्वबहिर्बहिस्त्रसवधाद्यं होव्यपोहात्मसु। सद्दृग् दर्शनिकादिदेशविरतिस्थानेषु चैकादश-स्वेकं य: श्रयते यतिव्रतरतस्तं श्रद्दधे श्रावकम् ।16।</span> = <span class="HindiText">पंच परमेष्ठी का भक्त प्रधानता से दान और पूजन करने वाला भेद ज्ञान रूपी अमृत को पीने का इच्छुक तथा मूलगुण और उत्तरगुणों को पालन करने वाला व्यक्ति श्रावक कहलाता है।15। अंतरंग में रागादिक के क्षय की हीनाधिकता के अनुसार प्रगट होने वाली आत्मानुभूति से उत्पन्न सुख का उत्तरोत्तर अधिक अनुभव होना ही है स्वरूप जिन्हों का ऐसे और बहिरंग में त्रस हिंसा आदिक पाँचों पापों से विधि पूर्वक निवृत्ति होना है स्वरूप जिन्हों का ऐसे ग्यारह देशविरत नामक पंचम गुणस्थान के दर्शनिक आदि स्थानों - दरजों में मुनिव्रत का इच्छुक होता हुआ जो सम्यग्दृष्टि व्यक्ति किसी एक स्थान को धारण करता है उसको श्रावक मानता हूँ अथवा उस श्रावक को श्रद्धा की दृष्टि से देखता हूँ।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/ स्वोपज्ञ-टीका/1/15 शृणोति गुर्वादिभ्यो धर्ममिति श्रावक:।</span> = <span class="HindiText">जो श्रद्धा पूर्वक गुरु आदि से धर्म श्रवण करता है वह श्रावक है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/ स्वोपज्ञ-टीका/1/15 शृणोति गुर्वादिभ्यो धर्ममिति श्रावक:।</span> = <span class="HindiText">जो श्रद्धा पूर्वक गुरु आदि से धर्म श्रवण करता है वह श्रावक है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> द्रव्यसंग्रह टीका/13/34/5 स | <p><span class="SanskritText"> द्रव्यसंग्रह टीका/13/34/5 स पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावको भवति।</span>=<span class="HindiText">पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक होता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.2"><strong>2. श्रावक के भेद</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.2"><strong>2. श्रावक के भेद</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.2.1">1. पाक्षिकादि तीन भेद</p> | <p class="HindiText" id="1.2.1">1. पाक्षिकादि तीन भेद</p> | ||
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<p><span class="SanskritText"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/725 किं पुन: पाक्षिको गूढो नैष्ठिक: साधकोऽथवा।725।</span> =<span class="HindiText">पाक्षिक, गूढ, नैष्ठिक अथवा साधक श्रावक तो कैसे।</span></p> | <p><span class="SanskritText"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/725 किं पुन: पाक्षिको गूढो नैष्ठिक: साधकोऽथवा।725।</span> =<span class="HindiText">पाक्षिक, गूढ, नैष्ठिक अथवा साधक श्रावक तो कैसे।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.2.2">2. नैष्ठिक श्रावक के 11 भेद</p> | <p class="HindiText" id="1.2.2">2. नैष्ठिक श्रावक के 11 भेद</p> | ||
<p><span class="PrakritText">बा.अणु./69 दंसण-वय-सामाइय पोसह सच्चित्त राइभत्ते य। वंभारंभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदेदे।136।</span> =<span class="HindiText">दार्शनिक, व्रतिक, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तविरत, ब्रह्मचारी, | <p><span class="PrakritText">बा.अणु./69 दंसण-वय-सामाइय पोसह सच्चित्त राइभत्ते य। वंभारंभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदेदे।136।</span> =<span class="HindiText">दार्शनिक, व्रतिक, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तविरत, ब्रह्मचारी, आरंभविरत, परिग्रह विरत, अनुमति विरत और उद्दिष्टविरत ये (श्रावक के) ग्यारह भेद होते हैं।136। ( चारित्तपाहुड़/ मू./22); (पं.सं./प्रा./1/136), ( धवला 1/1,1,2/ गा.74/102), ( धवला 1/1,1,123/ गा.193/373), ( धवला 9/4,1,45/ गा.78/201), ( गोम्मटसार जीवकांड/477/884 ), ( वसुनंदी श्रावकाचार/4 ), ( चारित्रसार/3/3 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/34 पर उद्धृत), (पं.वि./1/14)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> द्रव्यसंग्रह टीका/45/195/5 दार्शनिक ...व्रतिक:...त्रिकालसामयिके प्रवृत्त:, प्रोषधोपवासे, सचित्तपरिहारेण | <p><span class="SanskritText"> द्रव्यसंग्रह टीका/45/195/5 दार्शनिक ...व्रतिक:...त्रिकालसामयिके प्रवृत्त:, प्रोषधोपवासे, सचित्तपरिहारेण पंचम:, दिवाब्रह्मचर्येण षष्ठ:, सर्वथा ब्रह्मचर्येण सप्तम:, आरंभनिवृत्तोऽष्टम:...परिग्रहनिवृत्तो नवम:... अनुमतनिवृत्तो दशम: उद्दिष्टाहारनिवृत्त एकादशम:।</span> =<span class="HindiText">दार्शनिक, व्रती, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, और सचित्त विरत तथा दिवामैथुन विरत, अब्रह्म विरत, आरंभविरत और परिग्रह विरत, अनुमति विरत और उद्दिष्ट विरत श्रावक के ये 11 स्थान हैं ( सागार धर्मामृत/3/2-3 )।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.2.3">3. ग्यारहवीं प्रतिमा के 2 भेद</p> | <p class="HindiText" id="1.2.3">3. ग्यारहवीं प्रतिमा के 2 भेद</p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"> वसुनंदी श्रावकाचार/301 एयोरसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविओ। वत्थेक्कधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदिओ।301।</span> = <span class="HindiText">ग्यारहवें अर्थात् उद्दिष्ट विरत स्थान में गया हुआ मनुष्य उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद हैं - प्रथम एक वस्त्र रखने वाला (क्षुल्लक), दूसरा कोपीन (लंगोटी) मात्र परिग्रह वाला (ऐलक) ( गुणभद्र श्रावकाचार/184 ), ( सागार धर्मामृत/7/38-39 )।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.3"><strong>3. पाक्षिकादि श्रावकों के लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText" id="1.3"><strong>3. पाक्षिकादि श्रावकों के लक्षण</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.3.1">1. पाक्षिक श्रावक</p> | <p class="HindiText" id="1.3.1">1. पाक्षिक श्रावक</p> | ||
<p><span class="SanskritText"> चारित्रसार/40/4 असिमषिकृषिवाणिज्यादिभिर्गृहस्थानां हिंसासंभवेऽपि पक्ष:।</span> = <span class="HindiText">असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि | <p><span class="SanskritText"> चारित्रसार/40/4 असिमषिकृषिवाणिज्यादिभिर्गृहस्थानां हिंसासंभवेऽपि पक्ष:।</span> = <span class="HindiText">असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि आरंभों कर्मों से गृहस्थों के हिंसा होना संभव है तथापि पक्ष चर्या और साधकपना इन तीनों से हिंसा का निवारण किया जाता है। इनमें से सदा अहिंसा रूप परिणाम करना पक्ष है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/2/2,16 तत्रादौ श्रद्दधज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुम् । मद्यमांसमधून्युज्झेत्, | <p><span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/2/2,16 तत्रादौ श्रद्दधज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुम् । मद्यमांसमधून्युज्झेत्, पंच क्षीरिफलानि च।2। स्थूल हिंसानृतस्तेयमैथुनग्रंथवर्जनम् । पापभीरुतयाभ्यस्येद्-बलवीर्यनिगूहक:।16।</span> =<span class="HindiText">उस गृहस्थ धर्म में जिनेंद्र देव संबंधी आज्ञा को श्रद्धान करता हुआ पाक्षिक श्रावक हिंसा को छोड़ने के लिए सबसे पहले मद्य, मांस, मधु को और पंच उदंबर फलों को छोड़ देवे।2। शक्ति और सामर्थ्य को नहीं छिपाने वाला पाक्षिक श्रावक पाप के डर से स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल कुशील और स्थूल परिग्रह के त्याग का अभ्यास करे।16। (पाक्षिक श्रावक देवपूजा गुरु उपासना आदि कार्य को शक्त्यनुसार नित्य करता है - | ||
देखें [[ वह वह नाम ]]) सदाव्रत खुलवाना (देखें [[ पूजा#1 | पूजा - 1]]) | देखें [[ वह वह नाम ]]) सदाव्रत खुलवाना (देखें [[ पूजा#1 | पूजा - 1]]) मंदिर में फुलवाड़ी आदि खुलवाना कार्य करता है (देखें [[ चैत्य चैत्यालय ]])। रात्रि भोजन का त्यागी होता है, परंतु कदाचित् रात्रि को इलाइची आदि का ग्रहण कर लेता है - | ||
देखें [[ रात्रि भोजन ]](3/3)। पर्व के दिनों में प्रोषधोपवास को करता है - देखें [[ प्रोषधोपवास ]](3/1)। व्रत | देखें [[ रात्रि भोजन ]](3/3)। पर्व के दिनों में प्रोषधोपवास को करता है - देखें [[ प्रोषधोपवास ]](3/1)। व्रत खंडित होने पर प्रायश्चित्त ग्रहण करता है ( सागार धर्मामृत/2/79 )। आरंभादि में संकल्पी आदि हिंसा नहीं करता - (देखें [[ श्रावक#3 | श्रावक - 3]]) इस प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धि को पाता प्रतिमाओं को धारण करके एक दिन मुनि धर्म पर आरूढ़ होता है। | ||
देखें [[ पक्ष ]]। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भाव से वृद्धि को प्राप्त हुआ समस्त हिंसा का त्याग करना जैनों का पक्ष है।</span></p> | देखें [[ पक्ष ]]। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भाव से वृद्धि को प्राप्त हुआ समस्त हिंसा का त्याग करना जैनों का पक्ष है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.3.2">2. चर्या श्रावक</p> | <p class="HindiText" id="1.3.2">2. चर्या श्रावक</p> | ||
<p><span class="SanskritText"> चारित्रसार/40/4 धर्मार्थं | <p><span class="SanskritText"> चारित्रसार/40/4 धर्मार्थं देवतार्थमंत्रसिद्धयर्थमौषधार्थमाहारार्थं स्वभोगाय च गृहमेधिनो हिंसां न कुर्वंति। हिंसासंभवे प्रायश्चित्तविधिना विशुद्ध: सन् परिग्रहपरित्यागकरणे सति स्वगृहं धर्मं च वेश्याय समर्प्य यावद् गृहं परित्यजति तावदस्य चर्या भवति। | ||
</span> = <span class="HindiText">धर्म के लिए, किसी देवता के लिए, किसी | </span> = <span class="HindiText">धर्म के लिए, किसी देवता के लिए, किसी मंत्र को सिद्ध करने के लिए, औषधि के लिए और अपने भोगोपभोग के लिए, कभी हिंसा नहीं करते हैं। यदि किसी कारण से हिंसा हो गयी हो तो विधिपूर्वक प्रायश्चित्त कर विशुद्धता धारण करते हैं। तथा परिग्रह का त्याग करने के समय अपने घर, धर्म और अपने वंश में उत्पन्न हुए पुत्र आदि को समर्पण कर जब तक वे घर को परित्याग करते हैं तब तक उनके चर्या कहलाती है। (यह चर्या दार्शनिक से अनुमति विरत प्रतिमा पर्यंत होती है ( सागार धर्मामृत/1/19 )।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.3.3">3. नैष्ठिक श्रावक</p> | <p class="HindiText" id="1.3.3">3. नैष्ठिक श्रावक</p> | ||
<p><span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/3/1 देशयमघ्नकषाय-क्षयोपशमतारतम्यवशत: स्यात् । दर्शनिकाद्येकादश-दशावशो नैष्ठिक: सुलेश्यतर:।1। | <p><span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/3/1 देशयमघ्नकषाय-क्षयोपशमतारतम्यवशत: स्यात् । दर्शनिकाद्येकादश-दशावशो नैष्ठिक: सुलेश्यतर:।1। | ||
</span> = <span class="HindiText">देश संयम का घात करने वाली कषायों के क्षयोपशम की क्रमश: वृद्धि के वश से श्रावक के दर्शनिक आदिक ग्यारह संयम स्थानों के वशीभूत और उत्तम लेश्या वाला व्यक्ति नैष्ठिक कहलाता है।1।</span></p> | </span> = <span class="HindiText">देश संयम का घात करने वाली कषायों के क्षयोपशम की क्रमश: वृद्धि के वश से श्रावक के दर्शनिक आदिक ग्यारह संयम स्थानों के वशीभूत और उत्तम लेश्या वाला व्यक्ति नैष्ठिक कहलाता है।1।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="1.3.4">4. साधक श्रावक</p> | <p class="HindiText" id="1.3.4">4. साधक श्रावक</p> | ||
<p><span class="SanskritText"> महापुराण/39/149 ... | <p><span class="SanskritText"> महापुराण/39/149 ...जीवितांते तु साधनम् । देहादेर्हितत्यागात् ध्यानशुद्धात्मशोधनम् ।149। | ||
</span> = <span class="HindiText">जो श्रावक | </span> = <span class="HindiText">जो श्रावक आनंदित होता हुआ जीवन के अंत में अर्थात् मृत्यु समय शरीर, भोजन और मन, वचन काय के व्यापार के त्याग से पवित्र ध्यान के द्वारा आत्मा की शुद्धि की साधन करता है वह साधक कहा जाता है। ( सागार धर्मामृत/1/19-20/8/1 )।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> चारित्रसार/41/2 सकलगुणसंपूर्णस्य | <p><span class="SanskritText"> चारित्रसार/41/2 सकलगुणसंपूर्णस्य शरीरकंपनोच्छ्वासनोन्मीलनविधिं परिहरमाणस्य लोकाग्रमनस: शरीरपरित्याग: साधकत्वम् ।</span> = <span class="HindiText">इसी तरह जिसमें संपूर्ण गुण विद्यमान हैं, जो शरीर का कंपना, उच्छ्वास लेना, नेत्रों का खोलना आदि क्रियाओं का त्याग कर रहा है और जिसका चित्त लोक के ऊपर विराजमान सिद्धों में लगा हुआ है ऐसे समाधिमरण करने वाले का शरीर परित्याग करना साधकपना कहलाता है।</span></p> | ||
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Revision as of 16:37, 19 August 2020
भेद व लक्षण
1. श्रावक सामान्य के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/45/458/8 स एव पुनश्चारित्रमोहकर्मविकल्पाप्रत्याख्यानावरणक्षयोपशमनिमित्तपरिणामप्राप्तिकाले विशुद्धिप्रकर्षयोगात् श्रावको...। = वह ही (अविरत सम्यग्दृष्टि ही) चारित्र मोह कर्म के एक भेद अप्रत्याख्यानावरण कर्म के क्षयोपशम निमित्तक परिणामों की प्राप्ति के समय विशुद्धि का प्रकर्ष होने से श्रावक होता हुआ...।
सागार धर्मामृत/1/15-16 मूलोत्तरगुणनिष्ठामधितिष्ठन् पंचगुरुपदशरण्य:। दानयजनप्रधानो, ज्ञानसुधां श्रावक: पिपासु: स्यात् ।15। रागादिक्षयतारतम्यविकसच्छुद्धात्मसंवित्सुख स्वादात्मस्वबहिर्बहिस्त्रसवधाद्यं होव्यपोहात्मसु। सद्दृग् दर्शनिकादिदेशविरतिस्थानेषु चैकादश-स्वेकं य: श्रयते यतिव्रतरतस्तं श्रद्दधे श्रावकम् ।16। = पंच परमेष्ठी का भक्त प्रधानता से दान और पूजन करने वाला भेद ज्ञान रूपी अमृत को पीने का इच्छुक तथा मूलगुण और उत्तरगुणों को पालन करने वाला व्यक्ति श्रावक कहलाता है।15। अंतरंग में रागादिक के क्षय की हीनाधिकता के अनुसार प्रगट होने वाली आत्मानुभूति से उत्पन्न सुख का उत्तरोत्तर अधिक अनुभव होना ही है स्वरूप जिन्हों का ऐसे और बहिरंग में त्रस हिंसा आदिक पाँचों पापों से विधि पूर्वक निवृत्ति होना है स्वरूप जिन्हों का ऐसे ग्यारह देशविरत नामक पंचम गुणस्थान के दर्शनिक आदि स्थानों - दरजों में मुनिव्रत का इच्छुक होता हुआ जो सम्यग्दृष्टि व्यक्ति किसी एक स्थान को धारण करता है उसको श्रावक मानता हूँ अथवा उस श्रावक को श्रद्धा की दृष्टि से देखता हूँ।
सागार धर्मामृत/ स्वोपज्ञ-टीका/1/15 शृणोति गुर्वादिभ्यो धर्ममिति श्रावक:। = जो श्रद्धा पूर्वक गुरु आदि से धर्म श्रवण करता है वह श्रावक है।
द्रव्यसंग्रह टीका/13/34/5 स पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावको भवति।=पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक होता है।
2. श्रावक के भेद
1. पाक्षिकादि तीन भेद
चारित्रसार/41/3 साधकत्वमेवं पक्षादिभिस्त्रिभिर्हिंसाद्युपचितं पापम् अपगतं भवति। =इस प्रकार पक्ष चर्या और साधकत्व इन तीनों से गृहस्थी के हिंसा आदि के इकट्ठे किये हुए पाप सब नष्ट हो जाते हैं।
सागार धर्मामृत/1/20 पाक्षिकादिभि त्रेधा श्रावकस्तत्र पाक्षिक:। ...नैष्ठिक: साधक:...।20। =पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक के भेद से श्रावक तीन प्रकार के होते हैं।
सागार धर्मामृत/3/6 प्रारब्धो घटमानो निष्पन्नाश्चार्हतस्य देशयम:। योग इव भवति यस्य त्रिधा स योगीव देशयमी।6। =जिस प्रकार प्रारब्ध आदि तीन प्रकार के योग से योगी तीन प्रकार का होता है, उसी प्रकार देशयमी भी प्रारब्ध (प्राथमिक), घटमानो (अभ्यासी) और निष्पन्न के भेद से तीन प्रकार के हैं।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/725 किं पुन: पाक्षिको गूढो नैष्ठिक: साधकोऽथवा।725। =पाक्षिक, गूढ, नैष्ठिक अथवा साधक श्रावक तो कैसे।
2. नैष्ठिक श्रावक के 11 भेद
बा.अणु./69 दंसण-वय-सामाइय पोसह सच्चित्त राइभत्ते य। वंभारंभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदेदे।136। =दार्शनिक, व्रतिक, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तविरत, ब्रह्मचारी, आरंभविरत, परिग्रह विरत, अनुमति विरत और उद्दिष्टविरत ये (श्रावक के) ग्यारह भेद होते हैं।136। ( चारित्तपाहुड़/ मू./22); (पं.सं./प्रा./1/136), ( धवला 1/1,1,2/ गा.74/102), ( धवला 1/1,1,123/ गा.193/373), ( धवला 9/4,1,45/ गा.78/201), ( गोम्मटसार जीवकांड/477/884 ), ( वसुनंदी श्रावकाचार/4 ), ( चारित्रसार/3/3 ), ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/34 पर उद्धृत), (पं.वि./1/14)।
द्रव्यसंग्रह टीका/45/195/5 दार्शनिक ...व्रतिक:...त्रिकालसामयिके प्रवृत्त:, प्रोषधोपवासे, सचित्तपरिहारेण पंचम:, दिवाब्रह्मचर्येण षष्ठ:, सर्वथा ब्रह्मचर्येण सप्तम:, आरंभनिवृत्तोऽष्टम:...परिग्रहनिवृत्तो नवम:... अनुमतनिवृत्तो दशम: उद्दिष्टाहारनिवृत्त एकादशम:। =दार्शनिक, व्रती, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, और सचित्त विरत तथा दिवामैथुन विरत, अब्रह्म विरत, आरंभविरत और परिग्रह विरत, अनुमति विरत और उद्दिष्ट विरत श्रावक के ये 11 स्थान हैं ( सागार धर्मामृत/3/2-3 )।
3. ग्यारहवीं प्रतिमा के 2 भेद
वसुनंदी श्रावकाचार/301 एयोरसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविओ। वत्थेक्कधरो पढमो कोवीणपरिग्गहो विदिओ।301। = ग्यारहवें अर्थात् उद्दिष्ट विरत स्थान में गया हुआ मनुष्य उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद हैं - प्रथम एक वस्त्र रखने वाला (क्षुल्लक), दूसरा कोपीन (लंगोटी) मात्र परिग्रह वाला (ऐलक) ( गुणभद्र श्रावकाचार/184 ), ( सागार धर्मामृत/7/38-39 )।
3. पाक्षिकादि श्रावकों के लक्षण
1. पाक्षिक श्रावक
चारित्रसार/40/4 असिमषिकृषिवाणिज्यादिभिर्गृहस्थानां हिंसासंभवेऽपि पक्ष:। = असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि आरंभों कर्मों से गृहस्थों के हिंसा होना संभव है तथापि पक्ष चर्या और साधकपना इन तीनों से हिंसा का निवारण किया जाता है। इनमें से सदा अहिंसा रूप परिणाम करना पक्ष है।
सागार धर्मामृत/2/2,16 तत्रादौ श्रद्दधज्जैनीमाज्ञां हिंसामपासितुम् । मद्यमांसमधून्युज्झेत्, पंच क्षीरिफलानि च।2। स्थूल हिंसानृतस्तेयमैथुनग्रंथवर्जनम् । पापभीरुतयाभ्यस्येद्-बलवीर्यनिगूहक:।16। =उस गृहस्थ धर्म में जिनेंद्र देव संबंधी आज्ञा को श्रद्धान करता हुआ पाक्षिक श्रावक हिंसा को छोड़ने के लिए सबसे पहले मद्य, मांस, मधु को और पंच उदंबर फलों को छोड़ देवे।2। शक्ति और सामर्थ्य को नहीं छिपाने वाला पाक्षिक श्रावक पाप के डर से स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल कुशील और स्थूल परिग्रह के त्याग का अभ्यास करे।16। (पाक्षिक श्रावक देवपूजा गुरु उपासना आदि कार्य को शक्त्यनुसार नित्य करता है - देखें वह वह नाम ) सदाव्रत खुलवाना (देखें पूजा - 1) मंदिर में फुलवाड़ी आदि खुलवाना कार्य करता है (देखें चैत्य चैत्यालय )। रात्रि भोजन का त्यागी होता है, परंतु कदाचित् रात्रि को इलाइची आदि का ग्रहण कर लेता है - देखें रात्रि भोजन (3/3)। पर्व के दिनों में प्रोषधोपवास को करता है - देखें प्रोषधोपवास (3/1)। व्रत खंडित होने पर प्रायश्चित्त ग्रहण करता है ( सागार धर्मामृत/2/79 )। आरंभादि में संकल्पी आदि हिंसा नहीं करता - (देखें श्रावक - 3) इस प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धि को पाता प्रतिमाओं को धारण करके एक दिन मुनि धर्म पर आरूढ़ होता है। देखें पक्ष । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भाव से वृद्धि को प्राप्त हुआ समस्त हिंसा का त्याग करना जैनों का पक्ष है।
2. चर्या श्रावक
चारित्रसार/40/4 धर्मार्थं देवतार्थमंत्रसिद्धयर्थमौषधार्थमाहारार्थं स्वभोगाय च गृहमेधिनो हिंसां न कुर्वंति। हिंसासंभवे प्रायश्चित्तविधिना विशुद्ध: सन् परिग्रहपरित्यागकरणे सति स्वगृहं धर्मं च वेश्याय समर्प्य यावद् गृहं परित्यजति तावदस्य चर्या भवति। = धर्म के लिए, किसी देवता के लिए, किसी मंत्र को सिद्ध करने के लिए, औषधि के लिए और अपने भोगोपभोग के लिए, कभी हिंसा नहीं करते हैं। यदि किसी कारण से हिंसा हो गयी हो तो विधिपूर्वक प्रायश्चित्त कर विशुद्धता धारण करते हैं। तथा परिग्रह का त्याग करने के समय अपने घर, धर्म और अपने वंश में उत्पन्न हुए पुत्र आदि को समर्पण कर जब तक वे घर को परित्याग करते हैं तब तक उनके चर्या कहलाती है। (यह चर्या दार्शनिक से अनुमति विरत प्रतिमा पर्यंत होती है ( सागार धर्मामृत/1/19 )।
3. नैष्ठिक श्रावक
सागार धर्मामृत/3/1 देशयमघ्नकषाय-क्षयोपशमतारतम्यवशत: स्यात् । दर्शनिकाद्येकादश-दशावशो नैष्ठिक: सुलेश्यतर:।1। = देश संयम का घात करने वाली कषायों के क्षयोपशम की क्रमश: वृद्धि के वश से श्रावक के दर्शनिक आदिक ग्यारह संयम स्थानों के वशीभूत और उत्तम लेश्या वाला व्यक्ति नैष्ठिक कहलाता है।1।
4. साधक श्रावक
महापुराण/39/149 ...जीवितांते तु साधनम् । देहादेर्हितत्यागात् ध्यानशुद्धात्मशोधनम् ।149। = जो श्रावक आनंदित होता हुआ जीवन के अंत में अर्थात् मृत्यु समय शरीर, भोजन और मन, वचन काय के व्यापार के त्याग से पवित्र ध्यान के द्वारा आत्मा की शुद्धि की साधन करता है वह साधक कहा जाता है। ( सागार धर्मामृत/1/19-20/8/1 )।
चारित्रसार/41/2 सकलगुणसंपूर्णस्य शरीरकंपनोच्छ्वासनोन्मीलनविधिं परिहरमाणस्य लोकाग्रमनस: शरीरपरित्याग: साधकत्वम् । = इसी तरह जिसमें संपूर्ण गुण विद्यमान हैं, जो शरीर का कंपना, उच्छ्वास लेना, नेत्रों का खोलना आदि क्रियाओं का त्याग कर रहा है और जिसका चित्त लोक के ऊपर विराजमान सिद्धों में लगा हुआ है ऐसे समाधिमरण करने वाले का शरीर परित्याग करना साधकपना कहलाता है।