केवली 02: Difference between revisions
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Revision as of 16:49, 20 September 2020
- केवली निर्देश
- केवली चैतन्यमात्र नहीं बल्कि सर्वज्ञ होता है
स.स्तो./टी./5/13 ननु. तत् (कर्म) प्रक्षये तु जडो भविष्यति...बुद्धिं आदि-विशेषगुणानामत्यंतोच्छेदात् इति यौगा:। चैतन्यमात्ररूपं इति सांख्या:। सकलविप्रमुक्त: सन्नात्मा समग्रविद्यात्मवपुर्भवति न जड़ो, नापि चैतन्यमात्ररूप:।=प्रश्न–1. कर्मों का क्षय हो जाने पर जीव जड़ हो जायेगा, क्योंकि उसके बुद्धि आदि गुणों का अत्यंत उच्छेद हो जायेगा। ऐसा योगमत वाले कहते हैं। 2. वह तो चैतन्य मात्र रूप है, ऐसा सांख्य कहते हैं? उत्तर–सकल कर्मों से मुक्त होने पर आत्मा संपूर्णत: ज्ञानशरीरी हो जाता है जड़ नहीं, और न ही चैतन्य मात्र रहता है।
- सयोग व अयोग केवली में अंतर
द्रव्यसंग्रह टीका/13/36 चारित्रविनाशकचारित्रमोहोदयाभावेऽपि सयोगिकेवलिनां निष्क्रियशुद्धात्माचरणविलक्षणो योगत्रयव्यापारश्चारित्रमलं जनयति, योगत्रयगते पुनरयोगिजिने चरमसमयं विहाय शेषाघातिकर्मतीव्रोदयश्चारित्रमलं जनयति, चरमसमये तु मंदोदये सति चारित्रमलाभावात् मोक्षं गच्छति।=सयोग केवली के चारित्र के नाश करने वाले चारित्रमोह के उदय का अभाव है, तो भी निष्क्रिय आत्मा के आचरण से विलक्षण जो तीन योगों का व्यापार है वह चारित्र में दूषण उत्पन्न कहता है। तीनों योगों से रहित जो अयोगी जिन हैं उनके अंत समय को छोड़कर चार अघातिया कर्मों का तीव्र उदय चारित्र में दूषण उत्पन्न करता है और अंतिम समय में उन अघातिया कर्मों का मंद उदय होने पर चारित्र में दोष का अभाव हो जाने से अयोगी जिन मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।
श्लोकवार्तिक/1/1/1/4/484/26 स्वपरिणामविशेष: शक्तिविशेष: सोऽंतरंग: सहकारी नि:श्रेयसोत्पत्तौ रत्नत्रयस्य तदभावे नामाद्यघातिकर्मत्रयस्य निर्जरानुपपत्तेर्नि:श्रेयसानुत्पत्ते:....तदपेक्षं क्षायिकरत्नत्रयं सयोगकेवलिन: प्रथमसमये मुक्तिं न संपादयत्येव, तदा तत्सहकारिणोऽसत्त्वात् ।=वे आत्मा की विशेष शक्तियाँ मोक्ष की उत्पत्ति में रत्नत्रय के अंतरंग सहकारी कारण हो जाती हैं। यदि आत्मा की उन सामर्थ्यों को सहकारी कारण न माना जावेगा तो नामादि तीन अघाती कर्मों की निर्जरा नहीं हो सकती थी। तिस कारण मोक्ष भी नहीं उत्पन्न हो सकेगा, क्योंकि उसका अभाव हो जायेगा। उन आत्मा के परिणाम विशेषों की अपेक्षा रखने वाला क्षायिक रत्नत्रय सयोग केवली गुणस्थान के पहले समय में मुक्ति को कथमपि प्राप्त नहीं करा सकता है। क्योंकि उस समय रत्नत्रय का सहकारी कारण वह आत्मा की शक्ति विशेष विद्यमान नहीं है।
- सयोग व अयोग केवली में कर्मक्षय संबंधी विशेषताएँ
धवला 1/1,1,27/223/10 सयोगकेवली ण किंचि कम्मं खवेदि।=सयोगी जिन किसी भी कर्म का क्षय नहीं करते।
धवला 12/4,2,7,15/18/2 खीणकषाय-सजोगीसु ट्ठिदि-अणुभागघादेसु संतेसु वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो णत्थि त्ति सिद्धे अजोगिम्हि ट्ठिदि-अणुभागवज्जिदे सुहाणं पयडीणमुक्कस्साणुभागो होदि त्ति अत्थावत्तिदिद्धं।=क्षीणकषाय और सयोगी जिन का ग्रहण प्रगट करता है कि शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात विशुद्धि, केवलिसमुद्घात अथवा योग निरोध से नहीं होता। क्षीण कषाय और सयोगी गुणस्थानों में स्थितिघात व अनुभागघात के होने पर भी शुभ प्रकृतियों के अनुभाग का घात वहाँ नहीं होता, यह सिद्ध होने पर स्थिति व अनुभाग से रहित अयोगी गुणस्थान में शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग होता है, यह अर्थापत्ति से सिद्ध है।
- केवली को एक क्षायिक भाव होता है
धवला 1/1,1,21/191/6 क्षायिताशेषघातिकर्मत्वान्नि:शक्तीकृतवेदनीयत्वान्नष्टाष्टकर्मावयवषष्टिकर्मत्वाद्वा क्षायिकगुण:।
धवला 1/1,1,21/199/2 पंचसु गुणेषु कोऽत्र गुण इति चेत्, क्षीणाशेषघातिकर्मत्वान्निरस्यमानाद्याप्तिकर्मत्वाच्च क्षायिको गुण:।=1.चारों घातिया कर्मों के क्षय कर देने से, वेदनीय कर्म के निशक्त कर देने से, अथवा आठों ही कर्मों के अवयव रूप साठ उत्तर प्रकृतियों के नष्ट कर देने से इस गुणस्थान में क्षायिक भाव होता है। 2. प्रश्न–पाँच प्रकार के भावों में इस (अयोगी) गुणस्थान में कौन-सा भाव होता है? उत्तर–संपूर्ण घातिया कर्मों के क्षीण हो जाने से और थोडे ही समय में अघातिया कर्मों के नाश को प्राप्त होने वाले होने से इस गुणस्थान में क्षायिक भाव होता है।
प्रवचनसार/45 पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया। मोहादीहिं विरहिया तम्हा सा खाइग त्ति मदा।=अरहंत भगवान् पुण्य फलवाले हैं और उनकी क्रिया औदयिकी है, मोहादि से रहित है इसलिए वह क्षायिकी मानी गयी है।
- केवलियों के शरीर की विशेषताएँ
तिलोयपण्णत्ति/4/705 जादे केवलणाणे परमोरालं जिणाण सव्वाणं। गच्छदि उवरिं चावा पंच सहस्साणि वसुहाओ।705।=केवलज्ञान के उत्पन्न होने पर समस्त तीर्थंकरों का परमौदारिक शरीर पृथिवी से पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला जाता है।705। धवला 14/5,6,91/81/8 सजोगि-अजोगिकेवलिणो च पत्तेय-सरीरा वुच्चंति एदेसिं णिगोदजीवेहिं सह संबंधाभावादो।
धवला 14/5,6,116/138/4 खीणकसायम्मि बादरणिगोदवग्गणाए संतीए केवलणाणुप्पत्तिविरोहादो।=1. सयोगकेवली और अयोगकेवली ये जीव प्रत्येक शरीरवाले होते हैं, क्योंकि इनका निगोद जीवों के साथ संबंध नहीं होता। 2. क्षीण कषाय में बादर निगोद वर्गणा के रहते हुए केवलज्ञान की उत्पत्ति होने में विरोध है। (यहाँ बादरनिगोद वर्गणा से बादर निगोद जीव का ग्रहण नहीं है, बल्कि केवली के औदारिक व कार्माण शरीरों व विस्रसोपचयों में बँधे परमाणुओं का प्रमाण बताना अभीष्ट है।) निगोद से रहित होता है।
- केवली चैतन्यमात्र नहीं बल्कि सर्वज्ञ होता है