संग्रहनय निर्देश: Difference between revisions
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<li> <span class="HindiText" name="III.4" id="III.4">संग्रहनय निर्देश<br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.4" id="III.4"><strong>संग्रहनय निर्देश</strong><br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.4.1" id="III.4.1">संग्रह नय का लक्षण</span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.4.1" id="III.4.1"><strong>संग्रह नय का लक्षण</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/8 <span class="SanskritText">स्वजात्यविरोधेनैकत्वमुपानीय पर्यायानाक्रांतभेदानविशेषण समस्तग्रहणात्संग्रह:।</span> =<span class="HindiText">भेद सहित सब पर्यायों या विशेषों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला नय संग्रहनय है। ( राजवार्तिक 1/33/5/95/26 ); ( श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.49/240); ( हरिवंशपुराण/58/44 ); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.13); ( तत्त्वसार/1/45 )।</span><br /> | सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/8 <span class="SanskritText">स्वजात्यविरोधेनैकत्वमुपानीय पर्यायानाक्रांतभेदानविशेषण समस्तग्रहणात्संग्रह:।</span> =<span class="HindiText">भेद सहित सब पर्यायों या विशेषों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला नय संग्रहनय है। ( राजवार्तिक 1/33/5/95/26 ); ( श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.49/240); ( हरिवंशपुराण/58/44 ); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.13); ( तत्त्वसार/1/45 )।</span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.50/240<span class="SanskritText"> सममेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते। निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथा सति विभाव्यते।</span>=<span class="HindiText">संपूर्ण पदार्थों का एकीकरण और समीचीनपन इन दो अर्थों में ‘सम’ शब्द वर्तता है। उस पर से ही ‘संग्रह’ शब्द का निरुक्त्यर्थ विचारा जाता है, कि समस्त पदार्थों को सम्यक् प्रकार एकीकरण करके जो अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है।</span><br /> | श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.50/240<span class="SanskritText"> सममेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते। निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथा सति विभाव्यते।</span>=<span class="HindiText">संपूर्ण पदार्थों का एकीकरण और समीचीनपन इन दो अर्थों में ‘सम’ शब्द वर्तता है। उस पर से ही ‘संग्रह’ शब्द का निरुक्त्यर्थ विचारा जाता है, कि समस्त पदार्थों को सम्यक् प्रकार एकीकरण करके जो अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है।</span><br /> | ||
धवला 9/4,1,45/170/5 <span class="SanskritText">सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलंकभावेन अद्वैतमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स: संग्रह:।</span>=<span class="HindiText">जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी एकता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। ( | धवला 9/4,1,45/170/5 <span class="SanskritText">सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलंकभावेन अद्वैतमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स: संग्रह:।</span>=<span class="HindiText">जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी एकता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। ( कषायपाहुड़ 1/13-14/182/219/1 )।</span><br /> | ||
धवला 13/5,5,7/199/2 <span class="SanskritText">व्यवहारमनपेक्ष्य सत्तादिरूपेण सकलवस्तुसंग्राहक: संग्रहनय:।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार की अपेक्षा न करके जो सत्तादिरूप से सकल पदार्थों का संग्रह करता है वह संग्रहनय है। ( धवला 1/1,1,1/84/3 )।</span><br /> | धवला 13/5,5,7/199/2 <span class="SanskritText">व्यवहारमनपेक्ष्य सत्तादिरूपेण सकलवस्तुसंग्राहक: संग्रहनय:।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार की अपेक्षा न करके जो सत्तादिरूप से सकल पदार्थों का संग्रह करता है वह संग्रहनय है। ( धवला 1/1,1,1/84/3 )।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/9 <span class="SanskritText">अभेदरूपतया वस्तुजातं संगृह्णातीति संग्रह:।</span>=<span class="HindiText">अभेद रूप से समस्त वस्तुओं को जो संग्रह करके, जो कथन करता है, वह संग्रह नय है।</span><br /> | आलापपद्धति/9 <span class="SanskritText">अभेदरूपतया वस्तुजातं संगृह्णातीति संग्रह:।</span>=<span class="HindiText">अभेद रूप से समस्त वस्तुओं को जो संग्रह करके, जो कथन करता है, वह संग्रह नय है।</span><br /> | ||
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स्याद्वादमंजरी/28/311/7 <span class="SanskritText">संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया विश्वमुपादत्ते।</span>=<span class="HindiText">विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य से जानने को संग्रह नय कहते हैं। ( स्याद्वादमंजरी/28/317/6 )।<br /> | स्याद्वादमंजरी/28/311/7 <span class="SanskritText">संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया विश्वमुपादत्ते।</span>=<span class="HindiText">विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य से जानने को संग्रह नय कहते हैं। ( स्याद्वादमंजरी/28/317/6 )।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.4.2" id="III.4.2"> संग्रह नय के उदाहरण</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.4.2" id="III.4.2"> <strong> संग्रह नय के उदाहरण</strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/9 <span class="SanskritText">सत् द्रव्यं, घट इत्यादि। सदित्युक्ते सदिति वाग्विज्ञानानुप्रवृत्तिलिंगानुमितसत्ताधारभूतानामविशेषेण सर्वेषां संग्रह:। द्रव्यमित्युक्तेऽपि द्रवति गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्युपलक्षितानां जीवाजीवतद्भेदप्रभेदानां संग्रह:। तथा ‘घट’ इत्युक्तेऽपि घटबुद्ध्यभिधानानुगमलिंगानुमितसकलार्थसंग्रह:। एवंप्रकारोऽन्योऽपि संग्रहनयस्य विषय:। </span>=<span class="HindiText">यथा‒ सत्, द्रव्य और घट आदि। ‘सत्’ ऐसा कहने पर ‘सत्’ इस प्रकार के वचन और विज्ञान की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित सत्ता के आधारभूत पदार्थों का सामान्यरूप से संग्रह हो जाता है। ‘द्रव्य’ ऐसा कहने पर भी ‘उन-उन पर्यायों को द्रवता है अर्थात् प्राप्त होता है’ इस प्रकार इस व्युत्पत्ति से युक्त जीव, अजीव और उनके सब भेद-प्रभेदों का संग्रह हो जाता है। तथा ‘घट’ ऐसा कहने पर भी ‘घट’ इस प्रकार की बुद्धि और ‘घट’ इस प्रकार के शब्द की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित (मृद्घट सुवर्णघट आदि) सब घट पदार्थों का संग्रह हो जाता है। इस प्रकार अन्य भी संग्रहनय का विषय समझ लेना। ( राजवार्तिक/1/33/5/95/30 )।</span><br /> | सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/9 <span class="SanskritText">सत् द्रव्यं, घट इत्यादि। सदित्युक्ते सदिति वाग्विज्ञानानुप्रवृत्तिलिंगानुमितसत्ताधारभूतानामविशेषेण सर्वेषां संग्रह:। द्रव्यमित्युक्तेऽपि द्रवति गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्युपलक्षितानां जीवाजीवतद्भेदप्रभेदानां संग्रह:। तथा ‘घट’ इत्युक्तेऽपि घटबुद्ध्यभिधानानुगमलिंगानुमितसकलार्थसंग्रह:। एवंप्रकारोऽन्योऽपि संग्रहनयस्य विषय:। </span>=<span class="HindiText">यथा‒ सत्, द्रव्य और घट आदि। ‘सत्’ ऐसा कहने पर ‘सत्’ इस प्रकार के वचन और विज्ञान की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित सत्ता के आधारभूत पदार्थों का सामान्यरूप से संग्रह हो जाता है। ‘द्रव्य’ ऐसा कहने पर भी ‘उन-उन पर्यायों को द्रवता है अर्थात् प्राप्त होता है’ इस प्रकार इस व्युत्पत्ति से युक्त जीव, अजीव और उनके सब भेद-प्रभेदों का संग्रह हो जाता है। तथा ‘घट’ ऐसा कहने पर भी ‘घट’ इस प्रकार की बुद्धि और ‘घट’ इस प्रकार के शब्द की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित (मृद्घट सुवर्णघट आदि) सब घट पदार्थों का संग्रह हो जाता है। इस प्रकार अन्य भी संग्रहनय का विषय समझ लेना। ( राजवार्तिक/1/33/5/95/30 )।</span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/315/ में उद्धृत श्लोक नं.2 <span class="SanskritGatha">सद्रूपतानतिक्रांतं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्वं संगृह्णन् संग्रहो मत:।2। </span>=<span class="HindiText">अस्तित्वधर्म को न छोड़कर संपूर्ण पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में अवस्थित है। इसलिए संपूर्ण पदार्थों के सामान्यरूप से ज्ञान करने को संग्रहनय कहते हैं। ( राजवार्तिक/4/42/17/261/4 )।<br /> | स्याद्वादमंजरी/28/315/ में उद्धृत श्लोक नं.2 <span class="SanskritGatha">सद्रूपतानतिक्रांतं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्वं संगृह्णन् संग्रहो मत:।2। </span>=<span class="HindiText">अस्तित्वधर्म को न छोड़कर संपूर्ण पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में अवस्थित है। इसलिए संपूर्ण पदार्थों के सामान्यरूप से ज्ञान करने को संग्रहनय कहते हैं। ( राजवार्तिक/4/42/17/261/4 )।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.4.3" id="III.4.3">संग्रहनय के भेद <br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.4.3" id="III.4.3"><strong> संग्रहनय के भेद </strong><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.51,55/240 (दो प्रकार के संग्रह नय के लक्षण किये हैं‒पर संग्रह और अपर संग्रह)। ( स्याद्वादमंजरी/28/317/7 )।</span><br /> | श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.51,55/240 (दो प्रकार के संग्रह नय के लक्षण किये हैं‒पर संग्रह और अपर संग्रह)। ( स्याद्वादमंजरी/28/317/7 )।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">संग्रहो द्विविध:। सामान्यसंग्रहो...विशेषसंग्रहो।</span>=<span class="HindiText">संग्रह दो प्रकार का है‒सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.13)।</span><br /> | आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">संग्रहो द्विविध:। सामान्यसंग्रहो...विशेषसंग्रहो।</span>=<span class="HindiText">संग्रह दो प्रकार का है‒सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.13)।</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/186,209 <span class="SanskritText">दुविहं पुण संगहं तत्थ।186। सुद्धसंगहेण...।209।</span>=<span class="HindiText">संग्रहनय दो प्रकार का है‒शुद्ध संग्रह और अशुद्धसंग्रह। नोट‒पर, सामान्य व शुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं और अपर, विशेष व अशुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं।<br /> | नयचक्र बृहद्/186,209 <span class="SanskritText">दुविहं पुण संगहं तत्थ।186। सुद्धसंगहेण...।209।</span>=<span class="HindiText">संग्रहनय दो प्रकार का है‒शुद्ध संग्रह और अशुद्धसंग्रह। नोट‒पर, सामान्य व शुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं और अपर, विशेष व अशुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.4.4" id="III.4.4">पर अपर तथा सामान्य व विशेष संग्रहनय के लक्षण व उदाहरण </span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.4.4" id="III.4.4"><strong> पर अपर तथा सामान्य व विशेष संग्रहनय के लक्षण व उदाहरण </strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.51,55,56 <span class="SanskritGatha">शुद्धद्रव्यमभिप्रैति सन्मात्रं संग्रह: पर:। स चाशेषविशेषेषु सदौदासीन्यभागिह।51। द्रव्यत्वं सकलद्रव्यव्याप्यभिप्रैति चापर:। पर्यायत्वं च नि:शेषपर्यायव्यापिसंग्रह:।55। तथैवावांतरां भेदान् संगृह्यैकत्वतो बहु:। वर्ततेयं नय: सम्यक् प्रतिपक्षानिराकृते:।56।</span>=<span class="HindiText">संपूर्ण जीवादि विशेष पदार्थों में उदासीनता धारण करके जो सबको ‘सत्’ है ऐसा एकपने रूप से (अर्थात् महासत्ता मात्र को) ग्रहण करता है वह पर संग्रह (शुद्ध संग्रह) है।51। अपने से प्रतिकूल पक्ष का निराकरण न करते हुए जो परसंग्रह के व्याप्य–भूत सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायों को द्रव्यत्व व पर्यायत्वरूप सामान्य धर्मों द्वारा, और इसी प्रकार उनके भी व्याप्यभूत अवांतर भेदों का एकपने से संग्रह करता है वह अपर संग्रह नय है (जैसे नारक मनुष्यादिकों का एक ‘जीव’ शब्द द्वारा; और ‘खट्टा’, ‘मीठा’ आदिका एक ‘रस’ शब्द ग्रहण करना‒); ( नयचक्र बृहद्/209 ); ( स्याद्वादमंजरी/28/317/7 )।</span><br /> | श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.51,55,56 <span class="SanskritGatha">शुद्धद्रव्यमभिप्रैति सन्मात्रं संग्रह: पर:। स चाशेषविशेषेषु सदौदासीन्यभागिह।51। द्रव्यत्वं सकलद्रव्यव्याप्यभिप्रैति चापर:। पर्यायत्वं च नि:शेषपर्यायव्यापिसंग्रह:।55। तथैवावांतरां भेदान् संगृह्यैकत्वतो बहु:। वर्ततेयं नय: सम्यक् प्रतिपक्षानिराकृते:।56।</span>=<span class="HindiText">संपूर्ण जीवादि विशेष पदार्थों में उदासीनता धारण करके जो सबको ‘सत्’ है ऐसा एकपने रूप से (अर्थात् महासत्ता मात्र को) ग्रहण करता है वह पर संग्रह (शुद्ध संग्रह) है।51। अपने से प्रतिकूल पक्ष का निराकरण न करते हुए जो परसंग्रह के व्याप्य–भूत सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायों को द्रव्यत्व व पर्यायत्वरूप सामान्य धर्मों द्वारा, और इसी प्रकार उनके भी व्याप्यभूत अवांतर भेदों का एकपने से संग्रह करता है वह अपर संग्रह नय है (जैसे नारक मनुष्यादिकों का एक ‘जीव’ शब्द द्वारा; और ‘खट्टा’, ‘मीठा’ आदिका एक ‘रस’ शब्द ग्रहण करना‒); ( नयचक्र बृहद्/209 ); ( स्याद्वादमंजरी/28/317/7 )।</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.13 <span class="SanskritText">परस्पराविरोधेन समस्तपदार्थसंग्रहैकवचनप्रयोगचातुर्येण कथ्यमानं सर्वं सदित्येतत् सेना वनं नगरमित्येतत् प्रभृत्यनेकजातिनिश्चयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं सामान्यसंग्रहनय: जीवनिचयाजीवनिचयहस्तिनिचयतुरगनिचयरथनिचयपदातिनिचय इति निंबुजंबीरजंबूमाकंदनालिकेरनिचय इति। द्विजवर, वणिग्वर, तलवराद्यष्टादशश्रेणीनिचय इत्यादि दृष्टांतै: प्रत्येकजातिनिचयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं विशेषसंग्रहनय:। तथा चोक्त‒‘यदन्योऽन्याविरोधेन सर्वं सर्वस्य वक्ति य:। सामान्यसंग्रह: प्रोक्तचैकजातिविशेषक:।’</span> =<span class="HindiText">परस्पर अविरोधरूप से संपूर्ण पदार्थों के संग्रहरूप एकवचन के प्रयोग के चातुर्य से कहा जाने वाला ‘सर्व सत् स्वरूप है’, इस प्रकार सेना-समूह, वन, नगर वगैरह को आदि लेकर अनेक जाति के समूह को एकवचनरूप से स्वीकार करके, कथन करने को सामान्य संग्रह नय कहते हैं। जीवसमूह, अजीवसमूह; हाथियों का झुंड, घोड़ों का झुंड, रथों का समूह, पियादे सिपाहियों का समूह; निंबू, जामुन, आम, वा नारियल का समूह, इसी प्रकार द्विजवर, वणिक्श्रेष्ठ, कोटपाल वगैरह अठारह श्रेणि का समूह इत्यादिक दृष्टांतों के द्वारा प्रत्येक जाति के समूह को नियम से एकवचन के द्वारा स्वीकार करके कथन करने को विशेष संग्रह नय कहते हैं। कहा भी है‒ <br /> | नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.13 <span class="SanskritText">परस्पराविरोधेन समस्तपदार्थसंग्रहैकवचनप्रयोगचातुर्येण कथ्यमानं सर्वं सदित्येतत् सेना वनं नगरमित्येतत् प्रभृत्यनेकजातिनिश्चयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं सामान्यसंग्रहनय: जीवनिचयाजीवनिचयहस्तिनिचयतुरगनिचयरथनिचयपदातिनिचय इति निंबुजंबीरजंबूमाकंदनालिकेरनिचय इति। द्विजवर, वणिग्वर, तलवराद्यष्टादशश्रेणीनिचय इत्यादि दृष्टांतै: प्रत्येकजातिनिचयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं विशेषसंग्रहनय:। तथा चोक्त‒‘यदन्योऽन्याविरोधेन सर्वं सर्वस्य वक्ति य:। सामान्यसंग्रह: प्रोक्तचैकजातिविशेषक:।’</span> =<span class="HindiText">परस्पर अविरोधरूप से संपूर्ण पदार्थों के संग्रहरूप एकवचन के प्रयोग के चातुर्य से कहा जाने वाला ‘सर्व सत् स्वरूप है’, इस प्रकार सेना-समूह, वन, नगर वगैरह को आदि लेकर अनेक जाति के समूह को एकवचनरूप से स्वीकार करके, कथन करने को सामान्य संग्रह नय कहते हैं। जीवसमूह, अजीवसमूह; हाथियों का झुंड, घोड़ों का झुंड, रथों का समूह, पियादे सिपाहियों का समूह; निंबू, जामुन, आम, वा नारियल का समूह, इसी प्रकार द्विजवर, वणिक्श्रेष्ठ, कोटपाल वगैरह अठारह श्रेणि का समूह इत्यादिक दृष्टांतों के द्वारा प्रत्येक जाति के समूह को नियम से एकवचन के द्वारा स्वीकार करके कथन करने को विशेष संग्रह नय कहते हैं। कहा भी है‒ <br /> | ||
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पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/71/123/19 सर्वजीवसाधारणकेवलज्ञानाद्यनंतगुणसमूहेन शुद्धजीवजातिरूपेण संग्रहनयेनैकश्चैव महात्मा।=सर्व जीवसामान्य, केवलज्ञानादि अनंतगुणसमूह के द्वारा शुद्ध जीव जातिरूप से देखे जायें तो संग्रहनय की अपेक्षा एक महात्मा ही दिखाई देता है।<br /> | पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/71/123/19 सर्वजीवसाधारणकेवलज्ञानाद्यनंतगुणसमूहेन शुद्धजीवजातिरूपेण संग्रहनयेनैकश्चैव महात्मा।=सर्व जीवसामान्य, केवलज्ञानादि अनंतगुणसमूह के द्वारा शुद्ध जीव जातिरूप से देखे जायें तो संग्रहनय की अपेक्षा एक महात्मा ही दिखाई देता है।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.4.5" id="III.4.5">संग्रहाभास के लक्षण व उदाहरण</span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.4.5" id="III.4.5"><strong> संग्रहाभास के लक्षण व उदाहरण</strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.52-57 <span class="SanskritGatha">निराकृतविशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायण:। तदाभास: समाख्यात: सद्भिर्दृष्टेष्टबाधनात् ।52। अभिन्नं व्यक्तिभेदेभ्य: सर्वथां बहुधानकम् । महासामान्यमित्युक्ति: केषांचिद्दुर्नयस्तथा।53। शब्दब्रह्मेति चान्येषां पुरुषाद्वैतमित्यपि। संवेदनाद्वयं चेति प्रायशोऽन्यत्र दर्शितम् ।54। स्वव्यक्त्यात्मकतैकांतस्तदाभासोऽप्यनेकधा। प्रतीतिबाधितो बोध्यो नि:शेषोऽप्यनया दिशा।57।</span>=<span class="HindiText">संपूर्ण विशेषों का निराकरण करते हुए जो सत्ताद्वैतवादियों का ‘केवल सत् है,’ अन्य कुछ नहीं, ऐसा कहना; अथवा सांख्य मत का अहंकार तन्मात्रा आदि से सर्वथा अभिन्न प्रधान नामक महासामान्य है’ ऐसा कहना; अथवा शब्दाद्वैतवादी वैयाकरणियों का केवल शब्द है’, पुरुषाद्वैतवादियों का ‘केवल ब्रह्म है’, संविदाद्वैतवादी बौद्धों का ‘केवल संवेदन है’ ऐसा कहना, सब परसंग्रहाभास है। ( स्याद्वादमंजरी/28/316/9 तथा 317/9)। अपनी व्यक्ति व जाति से सर्वथा एकात्मकपने का एकांत करना अपर संग्रहाभास है, क्योंकि वह प्रतीतियों से बाधित है।</span><br /> | श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.52-57 <span class="SanskritGatha">निराकृतविशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायण:। तदाभास: समाख्यात: सद्भिर्दृष्टेष्टबाधनात् ।52। अभिन्नं व्यक्तिभेदेभ्य: सर्वथां बहुधानकम् । महासामान्यमित्युक्ति: केषांचिद्दुर्नयस्तथा।53। शब्दब्रह्मेति चान्येषां पुरुषाद्वैतमित्यपि। संवेदनाद्वयं चेति प्रायशोऽन्यत्र दर्शितम् ।54। स्वव्यक्त्यात्मकतैकांतस्तदाभासोऽप्यनेकधा। प्रतीतिबाधितो बोध्यो नि:शेषोऽप्यनया दिशा।57।</span>=<span class="HindiText">संपूर्ण विशेषों का निराकरण करते हुए जो सत्ताद्वैतवादियों का ‘केवल सत् है,’ अन्य कुछ नहीं, ऐसा कहना; अथवा सांख्य मत का अहंकार तन्मात्रा आदि से सर्वथा अभिन्न प्रधान नामक महासामान्य है’ ऐसा कहना; अथवा शब्दाद्वैतवादी वैयाकरणियों का केवल शब्द है’, पुरुषाद्वैतवादियों का ‘केवल ब्रह्म है’, संविदाद्वैतवादी बौद्धों का ‘केवल संवेदन है’ ऐसा कहना, सब परसंग्रहाभास है। ( स्याद्वादमंजरी/28/316/9 तथा 317/9)। अपनी व्यक्ति व जाति से सर्वथा एकात्मकपने का एकांत करना अपर संग्रहाभास है, क्योंकि वह प्रतीतियों से बाधित है।</span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/317/12 <span class="SanskritText">तद्द्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान्निह्नुवानस्तदाभास:।</span>=<span class="HindiText">धर्म अधर्म आदिकों को केवल द्रव्यत्व रूप से स्वीकार करके उनके विशेषों के निषेध करने को अपर संग्रहाभास कहते हैं।<br /> | स्याद्वादमंजरी/28/317/12 <span class="SanskritText">तद्द्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान्निह्नुवानस्तदाभास:।</span>=<span class="HindiText">धर्म अधर्म आदिकों को केवल द्रव्यत्व रूप से स्वीकार करके उनके विशेषों के निषेध करने को अपर संग्रहाभास कहते हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="III.4.6" id="III.4.6"> संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक नय है </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.4.6" id="III.4.6"><strong> संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक नय है </strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/ गा.6/12 <span class="PrakritText">दव्वटि्ठय-णय-पवई सुद्धा संगह परूवणा विसयो। </span>=<span class="HindiText">संग्रहनय की प्ररूपणा को विषय करना द्रव्यार्थिक नय की शुद्ध प्रकृति है। ( श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.37/236); ( | धवला 1/1,1,1/ गा.6/12 <span class="PrakritText">दव्वटि्ठय-णय-पवई सुद्धा संगह परूवणा विसयो। </span>=<span class="HindiText">संग्रहनय की प्ररूपणा को विषय करना द्रव्यार्थिक नय की शुद्ध प्रकृति है। ( श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.37/236); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/ गा.89/220); (विशेष दे./नय/IV/1)।<br /> | ||
और भी देखें [[ नय#III.1.1 | नय - III.1.1]]-2 यह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | और भी देखें [[ नय#III.1.1 | नय - III.1.1]]-2 यह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | ||
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Revision as of 15:12, 25 September 2020
- संग्रह नय का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/8 स्वजात्यविरोधेनैकत्वमुपानीय पर्यायानाक्रांतभेदानविशेषण समस्तग्रहणात्संग्रह:। =भेद सहित सब पर्यायों या विशेषों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला नय संग्रहनय है। ( राजवार्तिक 1/33/5/95/26 ); ( श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.49/240); ( हरिवंशपुराण/58/44 ); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.13); ( तत्त्वसार/1/45 )।
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.50/240 सममेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते। निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथा सति विभाव्यते।=संपूर्ण पदार्थों का एकीकरण और समीचीनपन इन दो अर्थों में ‘सम’ शब्द वर्तता है। उस पर से ही ‘संग्रह’ शब्द का निरुक्त्यर्थ विचारा जाता है, कि समस्त पदार्थों को सम्यक् प्रकार एकीकरण करके जो अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है।
धवला 9/4,1,45/170/5 सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलंकभावेन अद्वैतमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स: संग्रह:।=जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी एकता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। ( कषायपाहुड़ 1/13-14/182/219/1 )।
धवला 13/5,5,7/199/2 व्यवहारमनपेक्ष्य सत्तादिरूपेण सकलवस्तुसंग्राहक: संग्रहनय:।=व्यवहार की अपेक्षा न करके जो सत्तादिरूप से सकल पदार्थों का संग्रह करता है वह संग्रहनय है। ( धवला 1/1,1,1/84/3 )।
आलापपद्धति/9 अभेदरूपतया वस्तुजातं संगृह्णातीति संग्रह:।=अभेद रूप से समस्त वस्तुओं को जो संग्रह करके, जो कथन करता है, वह संग्रह नय है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/272 जो संगहेदि सव्वं देसं वा विविहदव्वपज्जायं। अणुगमलिंगविसिट्ठं सो वि णओ संगहो होदि।272।=जो नय समस्त वस्तु का अथवा उसके देश का अनेक द्रव्यपर्यायसहित अन्वयलिंगविशिष्ट संग्रह करता है, उसे संग्रहनय कहते हैं।
स्याद्वादमंजरी/28/311/7 संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया विश्वमुपादत्ते।=विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य से जानने को संग्रह नय कहते हैं। ( स्याद्वादमंजरी/28/317/6 )।
- संग्रह नय के उदाहरण
सर्वार्थसिद्धि/1/33/141/9 सत् द्रव्यं, घट इत्यादि। सदित्युक्ते सदिति वाग्विज्ञानानुप्रवृत्तिलिंगानुमितसत्ताधारभूतानामविशेषेण सर्वेषां संग्रह:। द्रव्यमित्युक्तेऽपि द्रवति गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्युपलक्षितानां जीवाजीवतद्भेदप्रभेदानां संग्रह:। तथा ‘घट’ इत्युक्तेऽपि घटबुद्ध्यभिधानानुगमलिंगानुमितसकलार्थसंग्रह:। एवंप्रकारोऽन्योऽपि संग्रहनयस्य विषय:। =यथा‒ सत्, द्रव्य और घट आदि। ‘सत्’ ऐसा कहने पर ‘सत्’ इस प्रकार के वचन और विज्ञान की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित सत्ता के आधारभूत पदार्थों का सामान्यरूप से संग्रह हो जाता है। ‘द्रव्य’ ऐसा कहने पर भी ‘उन-उन पर्यायों को द्रवता है अर्थात् प्राप्त होता है’ इस प्रकार इस व्युत्पत्ति से युक्त जीव, अजीव और उनके सब भेद-प्रभेदों का संग्रह हो जाता है। तथा ‘घट’ ऐसा कहने पर भी ‘घट’ इस प्रकार की बुद्धि और ‘घट’ इस प्रकार के शब्द की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित (मृद्घट सुवर्णघट आदि) सब घट पदार्थों का संग्रह हो जाता है। इस प्रकार अन्य भी संग्रहनय का विषय समझ लेना। ( राजवार्तिक/1/33/5/95/30 )।
स्याद्वादमंजरी/28/315/ में उद्धृत श्लोक नं.2 सद्रूपतानतिक्रांतं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्वं संगृह्णन् संग्रहो मत:।2। =अस्तित्वधर्म को न छोड़कर संपूर्ण पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में अवस्थित है। इसलिए संपूर्ण पदार्थों के सामान्यरूप से ज्ञान करने को संग्रहनय कहते हैं। ( राजवार्तिक/4/42/17/261/4 )।
- संग्रहनय के भेद
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.51,55/240 (दो प्रकार के संग्रह नय के लक्षण किये हैं‒पर संग्रह और अपर संग्रह)। ( स्याद्वादमंजरी/28/317/7 )।
आलापपद्धति/5 संग्रहो द्विविध:। सामान्यसंग्रहो...विशेषसंग्रहो।=संग्रह दो प्रकार का है‒सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.13)।
नयचक्र बृहद्/186,209 दुविहं पुण संगहं तत्थ।186। सुद्धसंगहेण...।209।=संग्रहनय दो प्रकार का है‒शुद्ध संग्रह और अशुद्धसंग्रह। नोट‒पर, सामान्य व शुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं और अपर, विशेष व अशुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं।
- पर अपर तथा सामान्य व विशेष संग्रहनय के लक्षण व उदाहरण
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.51,55,56 शुद्धद्रव्यमभिप्रैति सन्मात्रं संग्रह: पर:। स चाशेषविशेषेषु सदौदासीन्यभागिह।51। द्रव्यत्वं सकलद्रव्यव्याप्यभिप्रैति चापर:। पर्यायत्वं च नि:शेषपर्यायव्यापिसंग्रह:।55। तथैवावांतरां भेदान् संगृह्यैकत्वतो बहु:। वर्ततेयं नय: सम्यक् प्रतिपक्षानिराकृते:।56।=संपूर्ण जीवादि विशेष पदार्थों में उदासीनता धारण करके जो सबको ‘सत्’ है ऐसा एकपने रूप से (अर्थात् महासत्ता मात्र को) ग्रहण करता है वह पर संग्रह (शुद्ध संग्रह) है।51। अपने से प्रतिकूल पक्ष का निराकरण न करते हुए जो परसंग्रह के व्याप्य–भूत सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायों को द्रव्यत्व व पर्यायत्वरूप सामान्य धर्मों द्वारा, और इसी प्रकार उनके भी व्याप्यभूत अवांतर भेदों का एकपने से संग्रह करता है वह अपर संग्रह नय है (जैसे नारक मनुष्यादिकों का एक ‘जीव’ शब्द द्वारा; और ‘खट्टा’, ‘मीठा’ आदिका एक ‘रस’ शब्द ग्रहण करना‒); ( नयचक्र बृहद्/209 ); ( स्याद्वादमंजरी/28/317/7 )।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.13 परस्पराविरोधेन समस्तपदार्थसंग्रहैकवचनप्रयोगचातुर्येण कथ्यमानं सर्वं सदित्येतत् सेना वनं नगरमित्येतत् प्रभृत्यनेकजातिनिश्चयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं सामान्यसंग्रहनय: जीवनिचयाजीवनिचयहस्तिनिचयतुरगनिचयरथनिचयपदातिनिचय इति निंबुजंबीरजंबूमाकंदनालिकेरनिचय इति। द्विजवर, वणिग्वर, तलवराद्यष्टादशश्रेणीनिचय इत्यादि दृष्टांतै: प्रत्येकजातिनिचयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं विशेषसंग्रहनय:। तथा चोक्त‒‘यदन्योऽन्याविरोधेन सर्वं सर्वस्य वक्ति य:। सामान्यसंग्रह: प्रोक्तचैकजातिविशेषक:।’ =परस्पर अविरोधरूप से संपूर्ण पदार्थों के संग्रहरूप एकवचन के प्रयोग के चातुर्य से कहा जाने वाला ‘सर्व सत् स्वरूप है’, इस प्रकार सेना-समूह, वन, नगर वगैरह को आदि लेकर अनेक जाति के समूह को एकवचनरूप से स्वीकार करके, कथन करने को सामान्य संग्रह नय कहते हैं। जीवसमूह, अजीवसमूह; हाथियों का झुंड, घोड़ों का झुंड, रथों का समूह, पियादे सिपाहियों का समूह; निंबू, जामुन, आम, वा नारियल का समूह, इसी प्रकार द्विजवर, वणिक्श्रेष्ठ, कोटपाल वगैरह अठारह श्रेणि का समूह इत्यादिक दृष्टांतों के द्वारा प्रत्येक जाति के समूह को नियम से एकवचन के द्वारा स्वीकार करके कथन करने को विशेष संग्रह नय कहते हैं। कहा भी है‒
जो परस्पर अविरोधरूप से सबके सबको कहता है वह सामान्य संग्रहनय बतलाया गया है, और जो एक जातिविशेष का ग्राहक अभिप्रायवाला है वह विशेष संग्रहनय है।
धवला 12/4,2,9,11/299-300 संगहणयस्स णाणावरणीयवेयणा जीवस्स। (मूल सू.11)।...एदं सुद्धसंगहणयवयणं, जीवाणं तेहिं सह णोजीवाणं च एयत्तब्भुवगमादो।...संपहि असुद्धसंगहविसए सामित्तपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि। ‘जीवाणं’ वा। (मू.सू.12)। संगहिय णोजीव-जीवबहुत्तब्भुवगमादो। एदमसुद्धसंगहणयवयणं। =‘संग्रहनय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना जीव के होती है। सू.11।’’ यह कथन शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा है, क्योंकि जीवों के और उनके साथ नोजीवों की एकता स्वीकार की गयी है।...अथवा जीवों के होती है। सू.12। कारण कि संग्रह अपेक्षा नोजीव और जीव बहुत स्वीकार किये गये हैं। यह अशुद्ध संग्रह नय की अपेक्षा कथन है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/71/123/19 सर्वजीवसाधारणकेवलज्ञानाद्यनंतगुणसमूहेन शुद्धजीवजातिरूपेण संग्रहनयेनैकश्चैव महात्मा।=सर्व जीवसामान्य, केवलज्ञानादि अनंतगुणसमूह के द्वारा शुद्ध जीव जातिरूप से देखे जायें तो संग्रहनय की अपेक्षा एक महात्मा ही दिखाई देता है।
- संग्रहाभास के लक्षण व उदाहरण
श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.52-57 निराकृतविशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायण:। तदाभास: समाख्यात: सद्भिर्दृष्टेष्टबाधनात् ।52। अभिन्नं व्यक्तिभेदेभ्य: सर्वथां बहुधानकम् । महासामान्यमित्युक्ति: केषांचिद्दुर्नयस्तथा।53। शब्दब्रह्मेति चान्येषां पुरुषाद्वैतमित्यपि। संवेदनाद्वयं चेति प्रायशोऽन्यत्र दर्शितम् ।54। स्वव्यक्त्यात्मकतैकांतस्तदाभासोऽप्यनेकधा। प्रतीतिबाधितो बोध्यो नि:शेषोऽप्यनया दिशा।57।=संपूर्ण विशेषों का निराकरण करते हुए जो सत्ताद्वैतवादियों का ‘केवल सत् है,’ अन्य कुछ नहीं, ऐसा कहना; अथवा सांख्य मत का अहंकार तन्मात्रा आदि से सर्वथा अभिन्न प्रधान नामक महासामान्य है’ ऐसा कहना; अथवा शब्दाद्वैतवादी वैयाकरणियों का केवल शब्द है’, पुरुषाद्वैतवादियों का ‘केवल ब्रह्म है’, संविदाद्वैतवादी बौद्धों का ‘केवल संवेदन है’ ऐसा कहना, सब परसंग्रहाभास है। ( स्याद्वादमंजरी/28/316/9 तथा 317/9)। अपनी व्यक्ति व जाति से सर्वथा एकात्मकपने का एकांत करना अपर संग्रहाभास है, क्योंकि वह प्रतीतियों से बाधित है।
स्याद्वादमंजरी/28/317/12 तद्द्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान्निह्नुवानस्तदाभास:।=धर्म अधर्म आदिकों को केवल द्रव्यत्व रूप से स्वीकार करके उनके विशेषों के निषेध करने को अपर संग्रहाभास कहते हैं।
- संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक नय है
धवला 1/1,1,1/ गा.6/12 दव्वटि्ठय-णय-पवई सुद्धा संगह परूवणा विसयो। =संग्रहनय की प्ररूपणा को विषय करना द्रव्यार्थिक नय की शुद्ध प्रकृति है। ( श्लोकवार्तिक/4/1/33/ श्लो.37/236); ( कषायपाहुड़ 1/13-14/ गा.89/220); (विशेष दे./नय/IV/1)।
और भी देखें नय - III.1.1-2 यह द्रव्यार्थिकनय है।
- व्यवहारनय निर्देश—देखें पृ - 556