करुणा: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि/7/11/349/8 <span class="SanskritText"> दीनानुग्रहभाव: कारुण्यम्।</span> =<span class="HindiText"> दीनों पर दयाभावा रखना कारुण्य है। ( राजवार्तिक/7/11/3/538/19 ) ( ज्ञानार्णव/27/8-10 )</span><br /> | <p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/7/11/349/8 </span><span class="SanskritText"> दीनानुग्रहभाव: कारुण्यम्।</span> =<span class="HindiText"> दीनों पर दयाभावा रखना कारुण्य है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/7/11/3/538/19 </span>) (<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/27/8-10 </span>)</span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/ </span>वि/1696/1516/13 <span class="SanskritText">शारीरं, मानसं, स्वाभाविकं च दु:खमसह्याप्नुवतो दृष्ट्वा हा वराका मिथ्यादर्शनेनाविरत्या कषायेणाशुभेन योगेन च समुपार्जिताशुभकर्मपर्यायपुद्गलस्कंधतदुपोद्भवा विपदो विवशा: प्राप्नुवंति इति करुणा अनुकंपा।</span> = <span class="HindiText">शारीरिक, मानसिक, और स्वाभाविक ऐसी असह्य दु:खराशि प्राणियों को सता रही है, यह देखकर, ‘अहह, इन दीन प्राणियों ने मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और अशुभयोग से जो उत्पन्न किया था; वह कर्म उदय में आकर इन जीवों को दु:ख दे रहा है। ये कर्मवश होकर दु:ख भोग रहे हैं। इनके दु:ख से दु:खित होना करुणा है। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/ </span>वि/1836/1650।3<span class="SanskritText"> दया सर्वप्राणिविषया। </span>= <span class="HindiText">सर्व प्राणियों के ऊपर उनका दु:ख देखकर अंत:करण आर्द्र होना दया का लक्षण है। <br /> | |||
<strong>*अनुकंपा के भेद व लक्षण―</strong> <strong> </strong>देखें [[ अनुकंपा ]]। <br /> | <strong>*अनुकंपा के भेद व लक्षण―</strong> <strong> </strong>देखें [[ अनुकंपा ]]। <br /> | ||
</span></p> | </span></p> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText" name="1" id="1"><strong>करुणा जीव का स्वभाव है </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1" id="1"><strong>करुणा जीव का स्वभाव है </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 13/5,5,48/361/14 </span><span class="PrakritText">करुणाए कारणं कम्मं करुणे त्ति किं ण वुत्तं। ण करुणाए जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो। अकरुणाए कारणं कम्मं वत्तव्वं। ण एस दोसो, संजमघादिकम्माणं फलभावेण तिस्से अब्भुवगमादो।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न</strong>–करुणा का कारणभूत कर्म करुणा कर्म है, यह क्यों नहीं कहा ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, करुणा जीव का स्वभाव है, अतएव उसे कर्मजनित मानने में विरोध आता है। <strong>प्रश्न</strong>–तो फिर अकरुणा का कारण कर्म कहना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उसे संयमघाती कर्मों के फलरूप से स्वीकार किया गया है। <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong>करुणा धर्म का मूल है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2" id="2"><strong>करुणा धर्म का मूल है</strong> </span><br /> | ||
Line 13: | Line 13: | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li class="HindiText" name="3" id="3"><strong> करुणा सम्यक्त्व का चिह्न है</strong> <br /> | <li class="HindiText" name="3" id="3"><strong> करुणा सम्यक्त्व का चिह्न है</strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/412/ </span>पं. जयचंद दश लक्षण धर्म दया प्रधान है और दया सम्यक्त्व का चिह्न है। (और भी देखो सम्यग्दर्शन/I/2। प्रशम संवेग आदि चिह्न)।<br /> | |||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> परंतु निश्चय से करुणा मोह का चिह्न है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> परंतु निश्चय से करुणा मोह का चिह्न है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/85 </span><span class="PrakritGatha">अट्ठे अजधागहणं करुणाभावश्च तिर्यङ्मनुजेषु। विषयेषु च प्रसंगो मोहस्यैतानि लिंगानि।85। </span>= <span class="HindiText">पदार्थ का अयथार्थ ग्रहण और तिर्यंच मनुष्यों के प्रति करुणाभाव तथा विषयों की संगति (इष्ट विषयों में प्रीति और अनिष्ट विषयों में अप्रीति) ये सब मोह के चिह्न हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/ </span>त.प्र/85<span class="SanskritText"> तिर्यग्मनुष्येषु प्रेक्षार्हेष्वपि कारुण्यबुद्धया च मोहम्... झगिति संभवन्नपि त्रिभूमिकोऽपि मोहो निहंतव्य:। </span>= <span class="HindiText">तिर्यग्मनुष्य प्रेक्षायोग्य होने पर भी उनके प्रति करुणाबुद्धि से मोह को जानकर, तत्काल उत्पन्न होते भी तीनों प्रकार का मोह (देखें [[ ऊपर मूलगाथा ]]) नष्ट कर देने योग्य है।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/85 </span><span class="SanskritText"> शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणपरमोपेक्षासंयमाद्विपरीत: करुणाभावो दयापरिणामश्च अथवा व्यवहारेण करुणाया अभाव:। केषु विषयेषु। तिर्यग्मनुजेषु, इति दर्शनमोहचिह्नं। </span>= <span class="HindiText">शुद्धात्मा की उपलब्धि है लक्षण जिसका ऐसे परम उपेक्षा संयम से विपरीत करुणाभाव या दयापरिणाम अथवा व्यवहार से करुणा का अभाव; किनमें – तिर्यंच मनुष्यों में; ये दर्शनमोह का चिह्न है।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> निश्चय से वैराग्य ही करुणा है</strong> </span><br> | <li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> निश्चय से वैराग्य ही करुणा है</strong> </span><br> | ||
स.म./10/108/13<span class="SanskritText"> कारुणिकत्वं च वैराग्याद् न भिद्यते। ततो युक्तमुक्तम् अहो विरक्त इति स्तुतिकारेणोपहासवचनम्।</span>=<span class="HindiText"> करुणा और वैराग्य अलग-अलग नहीं हैं। इसलिए स्तुतिकार ने (देखें [[ मूल श्लोक नं#10 | मूल श्लोक नं - 10]]) ‘अहो विरक्त:’ ऐसा कहकर जो उपहास किया है सो ठीक है।</span></li> | स.म./10/108/13<span class="SanskritText"> कारुणिकत्वं च वैराग्याद् न भिद्यते। ततो युक्तमुक्तम् अहो विरक्त इति स्तुतिकारेणोपहासवचनम्।</span>=<span class="HindiText"> करुणा और वैराग्य अलग-अलग नहीं हैं। इसलिए स्तुतिकार ने (देखें [[ मूल श्लोक नं#10 | मूल श्लोक नं - 10]]) ‘अहो विरक्त:’ ऐसा कहकर जो उपहास किया है सो ठीक है।</span></li> |
Revision as of 12:59, 14 October 2020
सर्वार्थसिद्धि/7/11/349/8 दीनानुग्रहभाव: कारुण्यम्। = दीनों पर दयाभावा रखना कारुण्य है। ( राजवार्तिक/7/11/3/538/19 ) ( ज्ञानार्णव/27/8-10 )
भगवती आराधना/ वि/1696/1516/13 शारीरं, मानसं, स्वाभाविकं च दु:खमसह्याप्नुवतो दृष्ट्वा हा वराका मिथ्यादर्शनेनाविरत्या कषायेणाशुभेन योगेन च समुपार्जिताशुभकर्मपर्यायपुद्गलस्कंधतदुपोद्भवा विपदो विवशा: प्राप्नुवंति इति करुणा अनुकंपा। = शारीरिक, मानसिक, और स्वाभाविक ऐसी असह्य दु:खराशि प्राणियों को सता रही है, यह देखकर, ‘अहह, इन दीन प्राणियों ने मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और अशुभयोग से जो उत्पन्न किया था; वह कर्म उदय में आकर इन जीवों को दु:ख दे रहा है। ये कर्मवश होकर दु:ख भोग रहे हैं। इनके दु:ख से दु:खित होना करुणा है।
भगवती आराधना/ वि/1836/1650।3 दया सर्वप्राणिविषया। = सर्व प्राणियों के ऊपर उनका दु:ख देखकर अंत:करण आर्द्र होना दया का लक्षण है।
*अनुकंपा के भेद व लक्षण― देखें अनुकंपा ।
- करुणा जीव का स्वभाव है
धवला 13/5,5,48/361/14 करुणाए कारणं कम्मं करुणे त्ति किं ण वुत्तं। ण करुणाए जीवसहावस्स कम्मजणिदत्तविरोहादो। अकरुणाए कारणं कम्मं वत्तव्वं। ण एस दोसो, संजमघादिकम्माणं फलभावेण तिस्से अब्भुवगमादो। = प्रश्न–करुणा का कारणभूत कर्म करुणा कर्म है, यह क्यों नहीं कहा ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, करुणा जीव का स्वभाव है, अतएव उसे कर्मजनित मानने में विरोध आता है। प्रश्न–तो फिर अकरुणा का कारण कर्म कहना चाहिए ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उसे संयमघाती कर्मों के फलरूप से स्वीकार किया गया है।
- करुणा धर्म का मूल है
कुरल/25/2 यथाक्रमं समीक्ष्यैव दयां चित्तेन पालयेत्। सर्वे धर्मा हि भाषंते दया मोक्षस्य साधनम्।2। = ठीक पद्धति से सोच-विचारकर हृदय में दया धारण करो, और यदि तुम सर्व धर्मों से इस बारे में पूछकर देखोगे तो तुम्हें मालूम होगा कि दया ही एकमात्र मुक्ति का साधन है।
पं.विं./6/37 येषां जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते। चित्ते जीवदया नास्ति तेषां धर्म: कुतो भवेत्।37। मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम संपदाम्। गुणानां निधिरित्यङि्गदया कार्या विवेकिभि:।38। = जिन भगवान् के उपदेश से दयालुतारूप अमृत से परिपूर्ण जिन श्रावकों के हृदय में प्राणिदया आविर्भूत नहीं होती है उनके धर्म कहाँ से हो सकता है ? ।37। प्राणिदया धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है, व्रतों में मुख्य है, संपत्तियों का स्थान है और गुणों का भंडार है। इसलिए उसे विवेकी जनों को अवश्य करना चाहिए।38।
- करुणा सम्यक्त्व का चिह्न है
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/412/ पं. जयचंद दश लक्षण धर्म दया प्रधान है और दया सम्यक्त्व का चिह्न है। (और भी देखो सम्यग्दर्शन/I/2। प्रशम संवेग आदि चिह्न)।
- परंतु निश्चय से करुणा मोह का चिह्न है
प्रवचनसार/85 अट्ठे अजधागहणं करुणाभावश्च तिर्यङ्मनुजेषु। विषयेषु च प्रसंगो मोहस्यैतानि लिंगानि।85। = पदार्थ का अयथार्थ ग्रहण और तिर्यंच मनुष्यों के प्रति करुणाभाव तथा विषयों की संगति (इष्ट विषयों में प्रीति और अनिष्ट विषयों में अप्रीति) ये सब मोह के चिह्न हैं।
प्रवचनसार/ त.प्र/85 तिर्यग्मनुष्येषु प्रेक्षार्हेष्वपि कारुण्यबुद्धया च मोहम्... झगिति संभवन्नपि त्रिभूमिकोऽपि मोहो निहंतव्य:। = तिर्यग्मनुष्य प्रेक्षायोग्य होने पर भी उनके प्रति करुणाबुद्धि से मोह को जानकर, तत्काल उत्पन्न होते भी तीनों प्रकार का मोह (देखें ऊपर मूलगाथा ) नष्ट कर देने योग्य है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/85 शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणपरमोपेक्षासंयमाद्विपरीत: करुणाभावो दयापरिणामश्च अथवा व्यवहारेण करुणाया अभाव:। केषु विषयेषु। तिर्यग्मनुजेषु, इति दर्शनमोहचिह्नं। = शुद्धात्मा की उपलब्धि है लक्षण जिसका ऐसे परम उपेक्षा संयम से विपरीत करुणाभाव या दयापरिणाम अथवा व्यवहार से करुणा का अभाव; किनमें – तिर्यंच मनुष्यों में; ये दर्शनमोह का चिह्न है। - निश्चय से वैराग्य ही करुणा है
स.म./10/108/13 कारुणिकत्वं च वैराग्याद् न भिद्यते। ततो युक्तमुक्तम् अहो विरक्त इति स्तुतिकारेणोपहासवचनम्।= करुणा और वैराग्य अलग-अलग नहीं हैं। इसलिए स्तुतिकार ने (देखें मूल श्लोक नं - 10) ‘अहो विरक्त:’ ऐसा कहकर जो उपहास किया है सो ठीक है।