कृतकृत्य: Difference between revisions
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<strong>भगवान् की कृतकृत्यता—</strong> तिलोयपण्णत्ति/1/1 ....<span class="PrakritText"> णिट्ठियकज्जा...।...।1।</span>=<span class="HindiText">जो करने योग्य कार्यों को कर चुके हैं वे कृतकृत्य हैं।</span> पं.वि./1/2<span class="SanskritText"> नो किंचित्करकार्यमस्ति गमनप्राप्यं न किंचिद्दृशोर्दृश्यं यस्य न कर्णयो: किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति न। तेनालंबितपाणिरुज्झितगतिर्नासाग्रदृष्टी रह:। संप्राप्तोऽतिनिराकुलो विजयते ध्यानैकतानो जिन:।2।</span>=<span class="HindiText">हाथों से कोई भी करने योग्य कार्य शेष न रहने से जिन्होंने अपने हाथों को नीचे लटका रखा है, गमन से प्राप्त करने योग्य कुछ भी कार्य न रहने से जो गमन रहित हो चुके हैं, नेत्रों के देखने योग्य कोई भी वस्तु न रहने से जो अपनी दृष्टि को नासाग्रपर रखा करते हैं, तथा कानों से सुनने योग्य कुछ भी शेष न रहने से जो आकुलता रहित होकर एकांत स्थान को प्राप्त हुए थे; ऐसे वे ध्यान में एकचित हुए भगवान् जयवंत होंवे।</span> | <strong>भगवान् की कृतकृत्यता—</strong><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/1 </span>....<span class="PrakritText"> णिट्ठियकज्जा...।...।1।</span>=<span class="HindiText">जो करने योग्य कार्यों को कर चुके हैं वे कृतकृत्य हैं।</span> पं.वि./1/2<span class="SanskritText"> नो किंचित्करकार्यमस्ति गमनप्राप्यं न किंचिद्दृशोर्दृश्यं यस्य न कर्णयो: किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति न। तेनालंबितपाणिरुज्झितगतिर्नासाग्रदृष्टी रह:। संप्राप्तोऽतिनिराकुलो विजयते ध्यानैकतानो जिन:।2।</span>=<span class="HindiText">हाथों से कोई भी करने योग्य कार्य शेष न रहने से जिन्होंने अपने हाथों को नीचे लटका रखा है, गमन से प्राप्त करने योग्य कुछ भी कार्य न रहने से जो गमन रहित हो चुके हैं, नेत्रों के देखने योग्य कोई भी वस्तु न रहने से जो अपनी दृष्टि को नासाग्रपर रखा करते हैं, तथा कानों से सुनने योग्य कुछ भी शेष न रहने से जो आकुलता रहित होकर एकांत स्थान को प्राप्त हुए थे; ऐसे वे ध्यान में एकचित हुए भगवान् जयवंत होंवे।</span> | ||
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Revision as of 12:59, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से == भगवान् की कृतकृत्यता— तिलोयपण्णत्ति/1/1 .... णिट्ठियकज्जा...।...।1।=जो करने योग्य कार्यों को कर चुके हैं वे कृतकृत्य हैं। पं.वि./1/2 नो किंचित्करकार्यमस्ति गमनप्राप्यं न किंचिद्दृशोर्दृश्यं यस्य न कर्णयो: किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति न। तेनालंबितपाणिरुज्झितगतिर्नासाग्रदृष्टी रह:। संप्राप्तोऽतिनिराकुलो विजयते ध्यानैकतानो जिन:।2।=हाथों से कोई भी करने योग्य कार्य शेष न रहने से जिन्होंने अपने हाथों को नीचे लटका रखा है, गमन से प्राप्त करने योग्य कुछ भी कार्य न रहने से जो गमन रहित हो चुके हैं, नेत्रों के देखने योग्य कोई भी वस्तु न रहने से जो अपनी दृष्टि को नासाग्रपर रखा करते हैं, तथा कानों से सुनने योग्य कुछ भी शेष न रहने से जो आकुलता रहित होकर एकांत स्थान को प्राप्त हुए थे; ऐसे वे ध्यान में एकचित हुए भगवान् जयवंत होंवे।
पुराणकोष से
सौधर्मेंद्र द्वारा वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 25.130